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नौकरोंसे पूजन कराना ।
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ओंकी देखादेखी उनकी बहुतसी ऐसी बातों को अपने में स्थान दिया है, जिनका जैनसिद्धान्तोंसे प्रायः कुछ भी सम्बंध नहीं है तभी से जैनसमा-जमें बहुआडम्बरयुक्त पूजनका प्रवेश प्रारंभ हुआ है और उसने बढ़ते बढ़ते वर्तमानका रूप धारण किया है कि जिसमें बिना पुजारियोंके नौकर रक्खे नहीं बीतती । पूजनमें मुक्तिको प्राप्त हुए जिनेंद्र भगवान्का आवाहन और विसर्जन भी किया जाता है । उन्हें कुछ मंत्र पढ़कर बुलाया, बिठलाया, ठह-: राया और फिर नैवेद्यदिक अर्पण करनेके बाद. रुख्सत किया जाता है - कहा जाता है कि महा--- राज, अब आप अपने स्थान पर तशरीफ़ ले जाइए और हमारा अपराध क्षमा कीजिए, क्यों कि हमलोग ठीक तौरसे आवाहन, पूजन और विसर्जन करना नहीं जानते । ज़रा सोचनेकी बात है कि, जैनधर्मसे इन सब क्रियाओं का क्या.. सम्बंध है ? जैनसिद्धान्तके अनुसार मुक्त तीर्थकर अथवा जिनेद्र भगवान् किसीके बुलाने से. नहीं आते; न किसीके कहनेसे कहीं बैठते, ठहरते या नैवेद्यादिक ग्रहण करते हैं; और न किसी के रुखसती ( विसर्जनात्मक ) शब्द उच्चा रण करने पर वापिस ही चले जाते हैं। ऐसी हालतमें जैनधर्मसे इन आवाहन और विसर्जनस -- म्बंधी क्रियाओंका कोई मेल नहीं है । वास्तवमें ये सब क्रियायें हिन्दूधर्मकी क्रियायें हैं । हिन्दुओंके यहाँ वेदोंतकमें देवताओंका आवाहन और विसर्जन पाया जाता है । वे लोग ऐसा मानते हैं कि देवता लोग बुलानेसे आते, बैठते, . ठहरते और अपना यज्ञभाग ग्रहण करके, रुखसत करने पर, वापिस चले जाते हैं । इससे
वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते ।
-उपासकाचार ।
जनसे हिन्दुओंके प्राबल्यद्वारा जैनियों पर हिन्दूधर्मका प्रभाव पड़ा है और उन्होंने हिन्दु
तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनैः ॥१२- १२॥ हिन्दुओंके यहाँ आवाहन और विसर्जनका यह सब कथन ठीक बन जाता है । परंतु जैनि-योंकी ऐसी मान्यता नहीं है । इसी लिए जैनधर्मसे इनका मेल नहीं मिलता और ये सब
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हुआ है तभीसे उन्हें पुजारियोंके नौकर रखनेकी जरूर पड़ी है । अन्यथा जिनेंद्र भगवान् की सच्ची और प्राकृतिक पूजाके लिए किराये के आदमियोंकी कुछ भी जरूरत नहीं है । जैनियोंके प्राचीन साहित्यकी जहाँतक खोज की जाती है, उससे भी यही मालूम होता है, कि पुराने जमाने में जैनियोंमें वर्तमान जैसा बहुआडम्बरयुक्त पूजन प्रचलित नहीं था । उस समय अर्हतभक्ति, सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति और प्रवचनभक्ति आदि अनेक प्रकारकी भक्तियों द्वारा, जिनके संस्कृत और प्राकृतके कुछ प्राचीन पाठ अब भी पाये जाते हैं, पूज्यकी पूजा और उपासना की जाती थी । श्रावक लोग मंदि - रोमें जाकर प्रायः जिनेंद्र प्रतिमा के सम्मुख, खड़े होकर अथवा बैठकर, अनेक प्रकारके समझमें आने योग्य स्तोत्र पढ़ते तथा भक्तिपाठों- का उच्चारण करते थे और परमात्मा के गुणोंका स्मरण करते हुए उनमें तल्लीन हो जाते थे । कभी कभी वे ध्यानमुद्रासे बैठकर परमात्माकी मूर्तिको अपने हृदयमंदिर में विराजमान करके निःशब्द रूपसे गुणों का चिन्तवन करते हुए परमात्माकी उपासना किया करते थे । प्रायः यही सब उनका द्रव्य-पूजन था और यही भावपूजन | उस समयके जैनाचार्य वचन और शरीरको अन्य व्यापारोंसे हटाकर उन्हें अपने पूज्यके प्रति, स्तुतिपाठ करने और अंजुलि जोड़ने आदि रूपसे, एकाग्र करने को द्रव्यपूजा और उसी प्रकार से मन एकाग्र करनेको भावपूजा मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्यके निम्नलिखित वाक्यसे प्रगट है:
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