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जैनाहतैषी
[ भाग १४ अप्रसन्नताकाही कोई सम्बंध है। क्योंकि जि- कमें 'पूजनसिद्धान्त' को पढ़ना और उसी अच्छी नेंद्रदेव पूर्ण वीतरागी हैं-उनके आत्मामें राग तरहसे समझना चाहिए । इसके सिवाय यदि इस या द्वेषका अंश भी विद्यमान नहीं है-वे किसीकी प्रकारके ( किरायेके आदमियों द्वारा ) पूजनकी स्तुति, पूजा तथा भक्तिसे प्रसन्न नहीं होते और
मार गरज पुरीय-संपादन करना कही जाय तो वह भी न किसीकी निन्दा, अवज्ञा या कटुशब्दों पर अप्रसन्नता लाते हैं। उन्हें किसीकी पजाकी जरूरत निरा भूल हैं और उसस भा जनधमक सिद्धानहीं और न निन्दासे कोई प्रयोजन है। जैसा न्तोंकी अनभिज्ञता पाई जाती है । जैनसिद्धाकि स्वामी समंतभद्र के निम्नवाक्यसे भी प्रगट है.- न्तोंकी दृष्टिसे प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे
भावोंके अनुसार पुण्य और पापका संचय करता न निन्दया नाथ विवान्तवरे ।
है। ऐसा अंधेर नहीं है कि शुभ भाव तो कोई तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः
करे और उसके फलस्वरूप पुण्यका सम्बन्ध पुनातु चित्तं दुरितांजनेभ्यः॥
किसी दूसरे ही व्यक्तिके साथ हो जाय। पूजनमें
परमात्माके पुण्य गुणोंके स्मरणसे आत्मामें जो ऐसी हालतमें कोई वजह मालूम नहीं होती पवित्रता आती और पापोंसे जो कुछ रक्षा होती कि जब हमारा स्वयं पूजन करनेके लिए उत्साह नहीं होता तब वह पूजन क्यों
है उसका लाभ उसी मनुष्यको हो सकता है किरायेके आदमियोंद्वारा संपादन कराया जाता जो पूजन द्वारा परत्माके पुण्य गुणोंका स्मरण है। क्या इस विषयमें हमारे ऊपर किसीका करता है. । इसी बातको स्वामी समंतभद्रने दुबाब और जब है ? अथवा हमें किसीके अपने उपर्युक्त पद्यके उत्तरार्धमें भले प्रकारसे कुपित हो जानेकी कोई आशंका है ? यदि ऐसा सूचित किया है । इससे स्पष्ट है कि सेवकद्वारा कुछ भी नहीं है तो फिर यह व्यर्थका स्वांग किये हुए पूजनका फल कभी उसके स्वामीको क्यों रचा जाता है ? और यदि सचमुच ही प्राप्त नहीं हो सकता; क्योंकि वह उस पूजनमें पूजन न होनेसे जैनियोंको परमात्माके कुपित परमात्माके पुण्यगुणोंका स्मरणकर्ता नहीं है। हो जानेका कोई भय लगा हुआ है और इस ऐसी हालतमें नौकरोंसे पूजन कराना बिलकुल लिए जिस तिस प्रकारके पूजनद्वारा खुशामद व्यर्थ है और वह अपने पूज्यके प्रति एक प्रकाकरके हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयोंकी तरह
९ रसे अनादरका भाव भी प्रगट करता है। तब परमात्माको राजी और प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते .
क्या होना चाहिए ? जैनियोंको स्वयं हैं तो समझना चाहिए कि वे वास्तवमें जैनी नहीं हैं; जैनियोंके वेषमें हिन्दू, मुसलमान या पुन
पूजन करना और पूजनके स्वरूपको समईसाई हैं । उन्होंने परमात्माके स्वरूपको नहीं झना चाहिए। अपने पूज्यके प्रति आदरसमझा और न वास्तवमें जैनधर्मके सिद्धान्तोंको सत्काररूप प्रवर्तनका नाम पूजन है। उसके ही पहचाना है। ऐसे लोगोंको इस नोटके लेखककी लिए अधिक आडम्बरकी जरूरत नहीं है । वह बनाई हुई 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' नामक पुस्त- पूज्यके गुणोंमें अनुरागपूर्वक बहुत सीधासादा
- और प्राकृतिक होना चाहिए । पूजनमें जितना - * यह पुस्तक कई वर्ष हुए, श्रीमान् सेठ नाथारंगजी गांधी, बम्बई ( डवरा लेन, मांडवी) की ओर ही अधिक बनावट, दिखावट और आडम्बरसे जैनहितेषीके उपहारमें निकल चुकी है और इस समय
काम लिया जायगा, उतना ही अधिक वह भी संभवतः उक्त सेठ साहबके पाससे विना मूल्य पूजनके सिद्धान्तसे गिर जायगा । जबसे मिलती है।
जैनियोंमें बहुआडम्बरयुक्त पूजन प्रचलित
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