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जैनहितैषी
[भाग १३
भी प्राप्त नहीं हुए थे और इस कारण उन्होंने शोभित एक हजार आठ लड़का मोतियोंका हाथीके कुम्भ-स्थल पर मिट्टी रखकर जैसे तैसे हार, बाजूबन्द और कमरके पूँघरू थे। ( पर्व वर्तन बना लिये थे, उस समय सोनेके मुकुट, १५ श्लो०५-२० । ) इसी प्रकार भगवान्की कुण्डल, हार, बाजूबन्द, घुघरू, नूपुर, आदि स्त्रियोंके आभूषण मुक्ताहार और बाजने नपुर आभूषण बनानेके औजार कहाँसे आये होगे यह वर्णन किये गये हैं । भगवान्के भरत, बाहुबलि समझमें नहीं आता।
और अन्यान्य पुत्रों तथा पुत्रियोंके आभूषण
भी लगभग यही बतलाये गये हैं। गजकुम्भस्थले तेन मृदा निवर्ततानि च । पात्राणि विविधान्येषा स्थालादीनि दयालुना ॥२०॥
____ आगे चलकर भगवान्के राज्याभिषेकका
' वर्णन है । उस समय भी उन्हें वे ही आभूषण -पर्व ३।
' पहनाये गये हैं, जिनका वर्णन पहले किया जा आदिनाथ भगवानके जन्मके दिन ही इन्द्रा- चुका है (पर्व १६, श्लो० २३४-३७ )। णीने भगवानके कानोंमें कुण्डल, गलेमें हार, फिर दीक्षा कल्याणकके समय इन्द्र आया है और भुजाओंमें बाजूबन्द, कटक ( कड़े), अंगद उसने उन्हें दिव्य आभूषण पहनाये हैं; परन्तु ( अनन्त ), कमरमें घुघरुओंकी तागड़ी, और पूर्वोक्त आभूषणोंके सिवाय हम देखते हैं कि पैरोंमें बजता हुआ आभूषण ( पैजना ) उसके पास भी और कोई आभूषण न निकले पहनाया ( पर्व १४ श्लोक १०-१४)। (पर्व १७, श्लो० ११८-२४)। इसमें जन्मके ही दिन कुण्डल पहनानेकी बात इससे आगे २६ वें पर्वमें भरत महाराज बड़ी विलक्षण है और इससे भी अधिक विल- उस समयके आभूषणोंका वर्णन है जब वे क्षण बात यह है कि भगवान् गर्भसे ही कान दिग्वजय करनेको निकले हैं; परन्तु वे भी उन्हीं छिदे हुए पैदा हुए थे ! ग्रन्थकर्ताको कुण्डल आभूषणों से हैं जिनका वर्णन ऊपर आचका पहनाना इतना जरूरी मालूम हुआ कि इसके लिए है, अर्थात् मुकुट, कुण्डल और मणिका हार । उन्होंने गर्भ में ही कान छिद जानेकी असंभव दिग्विजयके पश्चात् भरतकी ९६ हजार रानिकल्पनाको कर डाला, पर बिना कुण्डल पहनाये योंका वर्णन करते हुए उनके हारों और पैरों के उनसे न रहा गया। हम इस बातको बिल- बजनेवाले नृपुरोंकी शोभा बतलाई है ( पर्व कुल असंभव समझते हैं और हमारी इस सम- ३७, श्लोक ९३-९८ ) । इसी बीचमें कुछ झको प्रथम जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण साधारण स्त्रियोंके आभूषणोंका भी जिकर आया पुष्ट करता है । इस ग्रन्थके आठवें सर्गके श्लोक है; परन्तु उनके भी कोई जुदा तरहके आभूषण १७५-७६ में लिखा है कि भगवानक्के वज्रके नहीं हैं । विजयाकी विद्याधरियोंके ( पर्व ४, समान कठोर कानोंका इन्द्र वज्रमयी सूची श्लोक १०० और पर्व १८, श्लोक १९६-२००), द्वारा बड़ी कठिनतासे छेदन कर सका। कर्णवेध- नगरकी स्त्रियोंके (पर्व ४३,श्लोक २४८-५१), के बाद इन्द्रने भगवानके कानोंमें कुण्डल पहनाये। वनकी स्त्रियोंके ( पर्व १९, श्लोक १२९ ) और आगे चलकर जब भगवान कुछ बड़े हुए तब वे गाँवकी स्त्रियोंके (पर्व २६, श्लोक १२६ ); गले में हार और कमरमें धुंघरू पहनते थे (पर्व १४ इस तरह प्रायः सभी स्त्रियों के प्रायः एकहीसे श्लो ०२१३) । इसके बाद उनकी कुमारावस्थाके आभूषण वर्णन किये गये हैं। हारनपुर, कड़े, आभूषण मुकुट, मणिमय कुण्डल, विशालमाणिसे कमरकी तागड़ी, कुण्डल, बस ये ही आभूषण हैं;
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