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________________ ४९४ जैनहितैषी [ भाग १४ ३ तत्त्वार्थराजवार्तिकके अन्तमें, एक ही नृलोकतुल्यविष्कभा सितच्छत्रनिभा शुभा। स्थान पर, ३२ पद्य 'उक्तं च' रूपसे पाये ऊर्ध्वं तस्याः क्षितेः सिद्धाः लोकांते समवस्थिता ॥२०॥ जाते हैं। श्रीयुत पं० पन्नालालजी बाकलीवालने यद्यपि छपे हुए तत्वार्थराजवार्तिकके उक्त एक फुट नोटद्वारा उन सब पद्योंको क्षेपक फटनोटमें इन दोनों पयोंको भी सबके साथ तत्वार्थबतलाया है और उनके क्षेपक होनेमें यह हेतु सारके मोक्ष प्रकरणका बतलाया है, परंतु दिया है कि, ये सब पद्य अमृचंद्राचार्यके बनाये उक्त गुच्छकमें छपे हुए तत्त्वार्थसारमें ढूँढ़ने पर हुए तत्त्वार्थसार ग्रन्थसंबंधी मोक्ष प्रकरणके पद्य भी उनका पता नहीं मिला । संभव है कि ये हैं और इतिहासद्वारा तत्त्वार्थराजवार्तिक के कर्ता दोनों पद्य तत्त्वार्थसारकी प्राचीन हस्तलिखित अकलंकदेवका समय अमृतचंद्रसे पहले निर्णीत प्रतियोंमें मिलते हों और जिस प्रतिपरसे उक्त हो चुका है। परंतु इतिहासद्वारा अभी तक ऐसा गच्छकमें तत्त्वार्थसार छपा है उसमें न हों। कोई निर्णय प्रगट नहीं हुआ। स्वयं बाकलीवा- अतः श्रीयुत पं० पन्नालालजी बाकलीवाल लजीने हालमें अपने एक पत्रद्वार। इस नोटके आदि जिन जिन विद्वानोंको ये दोनों पद्य लेखकको अमृतचंद्रका समय निर्णय करनेकी तत्त्वार्थसारकी हस्तलिखित प्रतियोंमें मिले हाँ प्रेरणा की है। इस लिए हेतु असिद्ध है और उससे उनसे निवेदन है कि, वे कृपया मुझे उससे इन पद्योंका क्षेपक होना सिद्ध नहीं होता। सचित करें। साथ ही यह भी लिखें कि वह श्वेताम्बरोंके यहाँ तत्त्वार्थसूत्र पर तीन खास टीकायें प्रति कौनसे भंडारकी है और किस सन्द-संवत्की पाई जाती हैं। जिनमेंसे एक खुद उमास्वातिकी लिखी हुई है। और यदि थे दोनों पब तत्वार्थबनाई हुई कही जाती है, जिसका नाम 'तत्वार्था या सारकी हस्तलिखित प्रतियों में तो धिगम भाष्य' है; दूसरीका पूर्वार्ध हरिभद्र - उस मूल और उसकी (द्वितीय) का और उत्तरार्ध यशोभद्रका बनाया खोज होने की जरूरत है, जिसके ये दोनों पद्य हैं । इस हुआ है, और तीसरी टीका सिद्धसेन गणिकी २ खोजसे बहुतसी बातों पर प्रकाश पड़ेगा। बतलाई जाती है। इन तीनों टीकाआम भी ये ४ पंचाध्यायी' नामके ग्रंथों (पृ० १३३ सब पद्य एक ही कासे पाये जाते हैं। परन्तु सनातन जैनग्रंथमालाक प्रथम गुच्छकमें छपे । पर ) नीचे लिखी गाथा 'उक्तं च' रूपसे हुए 'तत्त्वार्थसार' को देखने से मालूम होता . पाई जाती है: संवेओ णिव्वेओ जिंदणगरहाय उसमो भत्तो । है कि उसमें ये सब पद्य बिलकल उसी एक वच्छहं अणुकंपा गुणा हंति सम्मत्ते ।। क्रमसे नहीं हैं। तत्त्वार्थसारके मोक्ष प्रकरणमें इन पद्योंका सिलसिला' २० वें नम्बरके पद्यसे यह गाथा 'समयसार' ग्रंथकी जयसेनाप्रारंभ होकर नै० ५४ के पद्य पर समाप्त होता चार्यकृत 'तात्पर्यवृत्ति' टीकामें भी, गाथा नं० है । बीचमें नं० ३७ से ४८ तकके छह पद्य २०१ के नीचे, 'उक्तं च' रूपसे पाई जाती तत्त्वार्थसारमें अधिक हैं । एक पद्य 'दग्धे बीजे' है। और वसुनन्दिश्रावकाचारमें नं०४९ पर इत्यादि इस सिलसिलेमें ही नहीं है । वह इसका मूल रूपसे अवतरण किया गया है । तत्त्वार्थसारमें इस सिलसिलेसे बहुत पहले नं० ७ परंत अभी इसमें संदेह है कि यह गाथा पर दिया है। इसी तरह पर 'ऊर्ध्व गौरव, श्रावकाचार ( उपासकाध्ययन ) के कर्ता वाला पद्य ' यथाधस्तिर्यग् ' वाले पद्यसे पीछे - पाया जाता है इसके सिवाय नीचे लिखे दो पय वसुनन्दि आचार्यकी कृति है । क्यों कि इस तत्वार्थसारमें नहीं मिलतेः श्रावकाचारकी एक पुरानी हस्तलिखित प्रतिमें, तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभासुरा। जो लगभग दोसौ तीनसौ वर्षकी लिखी हुई प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूर्ध्निव्यवस्थिता ॥ १९॥ मालूम होती है और बम्बईमें श्रीमान् सेठ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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