Book Title: Dravyapraman Prakaranam Evam Kshetrasparshana Prakaranam
Author(s): Jagacchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोपज्ञा-ऽवचूरि सहितम् ॥ द्रव्यप्रमाण प्रकरणम् ॥ स्वोपज्ञवृत्ति विभूषितम् ॥ क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणम् ॥ गुरु-गुण अमृतवेलीरासादि : रचयिता : प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयजगच्चंद्रसूरीश्वरजी म.सा. प्रकाशक : दिव्यदर्शन ट्रस्ट Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोस्तु वर्धमानाय श्री प्रेम-भुवनभानुसुरि-पं.पद्मविजय सद्गुरुभ्यो नमः स्वोपज्ञा-ऽवचूरि सहितम् द्रव्यप्रमाणप्रकरणम् स्वोपज्ञवृत्ति विभूषितम् क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणम् गुरु-गुण अमृतवेली रासादि • रचयिता. प.पू.आ.भ.श्रीमद्विजय जगच्चंद्रसूरीश्वरजी म.सा. • प्रकाशक . दिव्यदर्शन ट्रस्ट Clo. कुमारपाळ वी. शाह 39, कलिकुंड सोसायटी, धोलका Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन वि.सं. :- २०६६ प.पू.आ.भुवनभानु सूरि जन्मशताब्दी तथा प.पू.पं.पद्मविजयजी स्वर्गारोहण अर्धशताब्दी वर्षे नकल :- 500/ मूल्य :- पठन-पाठन • प्राप्तिस्थान . १. प्रकाशक शाह बाबुलाल सरेमलजी बेडावाला "सिद्धाचल" सेन्ट अन्स स्कूल सामे हीराजैन सो. साबरमती, अमदावाद-5. दिलीप नाथालाल शाह अमदावाद-1. मो : 94263 05288 हस्तमेलाप एम्पोरीयम, C/o. सतीश बी. शाह, गोलवाड नाका, रतनपोल, अमदावाद-1. ओ : 2535 7258 मुद्रक जय जिनेन्द्र ग्राफिक्स(नितीन शाह-जय जिनेन्द्र) E-175, ग्राउन्ड फ्लोर, बी.जी. टावर, दिल्ली दरवाजा बहार, अमदावाद-4. घर : 2656 2795 ओ: 2562 1623 मो: 9825024204 E-mail : jayjinendra90@yahoo.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • दिव्यवंदना . प.पू.सिद्धांतमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा प.पू.वर्धमानतपोनिधि आचार्यदेव श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा प.पू. समतासागर पंन्यासप्रवरश्री पद्मविजयजी गणिवर्य • शुभाशीष . . प.पू. सिद्धांतदिवाकर गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकम् । र सकल आधि व्याधि अने उपाधिमांथी मुक्त थवानो उपाय "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" ए सूत्रानुसारे सम्याग्ज्ञान अने सम्यक्रिया ए बन्ने रुप छे ते छतां ते बन्नेमां सम्यग्ज्ञाननी प्रथम आवश्यक्ता छे. केमके सम्यग्ज्ञान विना सम्यक् क्रिया असम्भवित छे. ज्यां सुधी जीव अजीव आदि तत्त्वोनुं पदार्थोनुं वास्तविक ज्ञान न होय त्यां सुधी हिंसा-त्याग अहिंसापालन आदि सम्यक्क्रिया क्याथी प्रवर्ती शके ? न ज प्रवर्ते; माटे ज कडं छे के "पढमं णाणां तओ दया". आ रीते जोतां जीवादि तत्त्वोना ज्ञाननी प्रथम आवश्यकता छे. बीजी रीते जोतां पण "सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रकताणि मोक्षमार्गः" ए सूत्रानुसारे सम्यग्दर्शन = तत्त्वश्रद्धा, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए त्रणरुप मोक्षमार्ग कह्यो छे, छतां तेमां मध्यवर्तिज्ञान पूर्वात्तरवर्तिदर्शन अने चारित्रनुं पालक पोषक छे, अने तेथी सूत्रमां तेनी मध्यवर्त्तिता छे, तेम प्रधानता पण छे. . कोई पण पदार्थ- वास्तविक ज्ञान ते पदार्थy नाम मात्र सांभळवाथी के वांचवाथी नथी थई जतुं परंतु ते पदार्थना अस्तित्वादिनी सूक्ष्म विचारणा करी ते पदार्थविषयक चोक्कस निर्णय पर आववाथी थाय छे. तेवी ज रीते ते पदार्थना जातिभेदादि लई विचारणा करतां तेनो सूक्ष्म सूक्ष्मतर अने दृढ दृढत्तर बोध थाय छे. दा.त. जीवपदार्थ लईए तो जीवनुं अस्तित्व कई कई रीते सिद्ध छे ? जीवना अवान्तर भेदो- (नरकगत्यादिमार्गणास्थानोनु) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व कई कई रीते सिद्ध छे ? हवे जो तेनुं अस्तित्व सिद्ध छे तो ते जीवो सामान्यथी अने जातिभेद केटली संख्यामां होय ?, ते ते जातिभेदरुपे केटलो काल टकी शके ?, अन्य जातिभेदने प्राप्त थयेला पुनः ते जातिभेदने केटला काळमां प्राप्त करे ?, कोई एक समये समस्त जगतमां प्राप्त थाय के जगतना अमुक भागमां प्राप्त थाय ? इत्यादि विचारणाथी जीव पदार्थनो सूक्ष्म अने दृढं बोध थाय छे. ___आ जातनी विचारणा करवा माटे शास्त्रोमां अनेक प्रकारो आवे छे, जेने अनुयोगद्वार कहेवाय छे, जेमके। "संतपयपरुवण, या 'दव्वपमाणं च खित, "फुसणा य । "कालो अ, अंतरं भाग 'भावे 'अप्पाबहुं चेव ॥१॥ आमां 'सत्पदप्ररुपणा नामना प्रथम द्वारथी जीवादि ते ते पदार्थना अस्तित्वनो विचार, "द्रव्यप्रमाण द्वारथी तेनी संख्यानो विचार,३६ क्षेत्र' द्वारथी कोई एक समये जीवादि ते ते पदार्थनी हयातीनां स्थाननो विचार, 'स्पर्शना' द्वारथी समस्त अतीतकालनी अपेक्षाए जीवादिनी हयातीनां स्थान इत्यादि विचारणा कराय छे. बीजां पण पदार्थोनां चितंन-मनन माटे उपयोगी द्वारो छे, कयुं छे के "निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः' इत्यादि वर्तमानमां सिद्धान्तमहोदधि कर्मशास्त्र-निष्णात पू. आचार्यदेव श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेबनी निश्रामां तेओश्रीनो शिष्यप्रशिष्यादि परिवार कर्मसाहित्यना विविध अंगो उपर विपुल प्रमाणमां साहित्य सर्जन करी रहेल छे, कर्मसाहित्यना अनेक ग्रन्थोनुं अध्ययन अने अन्वेषण करी एक-एक विषय पर मौलिक ग्रन्थो तैयार करी रहेल छे, तेना फलस्वरूप "खवगसेढी" (क्षपकश्रेणी) अने Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ठिइबंधो” (स्थितिबन्ध ) नामक बे महाकाय ग्रन्थोनुं प्रकाशन विशिष्ट समारोह पूर्वक राजनगरना आंगणे गत वर्षनी आखरमां थयेल छे ते सौ कोई जाणे छे, आगळना ग्रन्थोनुं कार्य पण अविरत पणे चालु छे, प्रकाशितग्रन्थ अने प्रकाशमां आवनारा ग्रन्थो तथा बीजा पण ग्रन्थोमां उपयोगी एवं द्रव्यप्रमाणप्रकरण स्वोपज्ञ लघु विवेचन साथे 'ठिइबंधो' ग्रन्थना परिशिष्ट तरीके प्रकाशित थई गयुं छे. ते ज रीते अन्य ग्रन्थमां अने स्वाध्याय - रुचि महानुभावोने उपयोगी जणावाथी विपुल पदार्थोना संग्रहरूप प्रकाशित थतुं आ स्वोपज्ञवृत्ति सहित - क्षेत्रस्पर्शना- प्रकरण छे. आ क्षेत्रस्पर्शना - प्रकरण मां पदार्थज्ञानना सूक्ष्म अने सम्यग् - बोधमां हेतु उपर्युक्त अनुयोग द्वारोमांनां क्षेत्र अने स्पर्शना ए बे द्वार लई जीवपदार्थनो विचार करवामां आव्यो छे ते पण 'गइइंदिए य काये' इत्यादि गाथा प्रसिद्ध १४ मूलमार्गाणाभेदानुसारी १७४ भेदप्रभेदमां करायो छे. क्षेत्रनो विचार 'उपपात स्वस्थान अने समुद्घात एम त्रण भेदथी अने स्पर्शनानो विचार गमनागमनरूप चोथा भेदथी पण करवामां आव्यो छे. आ त्रण प्रकारनं क्षेत्र अने चार प्रकारनी स्पर्शना कषाययुक्त अने कषाय रहित जीनोनी अपेक्षाए जुदी जुदी बताववामां आवी छे. आ बधा पदार्थोंने जीवविचार आदि प्रकरणोनी जेम प्रथम गाथाओमां गुंथी लई प्रकरणकर्ताए पोते तेना विवेचनरुप टीकानी रचना करी छे. आ प्रकरणनुं स्वोपज्ञवृत्तिसहित संयोजन पू. आचार्यदेव Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयप्रेमसूरीश्वरजी म. श्रीना प्रशिष्य स्व. पू. पंन्यासजी श्री पद्मविजयजी गणिवरना शिष्यरत्न पू. मुनिराज श्री जगच्चन्द्रविजयजी महाराजश्रीए करेल छे अने संशोधन उपरोक्त पू. आचार्यदेवेश तथा पू. मुनिराज श्री जयघोषविजयजी म. तथा पू. मुनिराज श्री धर्मानन्दविजयजी म. आदि मुनिवरोए करेल छे. तत्त्वज्ञानने लगता आवा ग्रन्थोनी रचना अने संशोधन करवाथी आत्मा स्वाध्याय नामक अभ्यंतर तपमां रत बने छे, विभावदशाथी दूर रही स्वभावदशामां रमणता करे छे अने ते द्वारा अनंता कर्मोनो क्षय करी अपूर्व निर्जरानो भागी बने छे. आ ग्रन्थनुं संयोजन - संपादन करनारा मुनिपुंगवो स्वात्मकल्याण साधवा साथे आ विषयना जिज्ञासु अनेक आत्माओने उपकारक बन्या छे. प्रकरणनी प्राकृत भाषामां रचेली मूळगाथाओ अने तेना पर संस्कृत भाषामां रचेली टीकानुं निरीक्षण करतां ते अभ्यासीओने कंठस्थ करवामां तथा वांचवा समजवामां घणी अनुकूल रहेशे तेम जणाई आवे छे. तेओ उत्तरोत्तर कर्मसाहित्यादि जुदाजुदा विषयो उपर पोताना अध्ययन द्वारा प्राप्त थयेली विशिष्टताओने सरळ सुबोध भाषामां रजु करी स्व-पर कल्याण साधे अने जिज्ञासु मुमुक्षु जनो तेनो लाभ उठावे ओज अंतःकरणनी अभिलाषा. पालीताणा वि.सं. २०२३ वैशाख वद ११ ता. ३-६-६७ लि. कपूरचन्द रणछोडदास वारैया अध्यापक श्री जैन सूक्ष्मतत्त्वबोध पाठशाला ७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावकथनम ऐन्द्रश्रीसुखाथिभिः शुभज्ञान-ध्यान-परायणैर्भवितव्यमिति शास्त्रोक्त-वचनानुसारेण तातपादै-गुरुप्रदत्त-सिद्धांतमहोदधिबिरुदसफलीकरणप्रवीणैः पूज्याचार्यभगवद्भिः प्रेमसूरीश्वरैः स्वनिश्रावर्तिसाधुवृन्द-योगक्षेमकरणतत्परैः कर्मसाहित्यसर्जने-ऽनेके साधवो व्यापारिताः । . . तेषां च साधूनां मध्ये मुनिराजश्री जमच्चन्द्र विजयो न्यायशास्त्रदक्षो तर्कनिपुणोऽभवत् । येन परम-गुरुदेवानां भावनामनुसृत्य स्थितिबंध-विषयककर्मसाहित्यसर्जनं षष्ठिसहस्रश्लोकप्रमाणं कृतं । एवं साऽवचूरिकं 'द्रव्यप्रमाणप्रकरणं', वृत्तियुतं 'क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरण'श्चापि-विरचितं । . अत्रान्तरे स्वकीय-गुरुदेवाः स्वनामधन्य-न्यायविशारदपूज्याचार्यदेव-श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरिवर-प्रथमशिष्य-लघुबन्धुसहदीक्षित-पंन्यासप्रवरश्री पद्मविजय-गणिवरा दिवंगताः । ततस्तेषां गुरुदेवानां गुणस्मरणार्थं 'गुरु गुण सौरभं चतुस्त्रिंशत्कं' संदृब्धम् । एवं कर्मसाहित्यरचना-तत्परे मुनिजगच्चन्द्रविजयादि-मुनिवृन्दे सति पूज्य परमाराध्यपादाः प्रेमसूरीश्वरा दिवंगतास्तेषां स्वर्गगमनानंतरं परमाघातानुभविता मुनिश्री जगच्चंद्र विजय उद्विग्नमनाः कस्मिन्नपि कार्ये चित्तसंधानं कर्तुमशक्नुवन् रात्रिंदिवं परमगुरुदेव-गुणस्मरणैकरतो जातः । ते च परमगुरुदेवगुणाः ग्रंथस्था कृताः । अर्थात् (प्रेमसूरीश्वर रासः) 'गुरु गुण अमृतवेली' विरचिता । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थमनेन मुनिवरेण गुणवद्वहुमानाद् गुणवैभव: संप्रातः । क्रमेण गुरुगुणामृतपानेन-संयमवल्ली पुष्टीकृता ज्ञान-ध्याने प्रगतीकृता योग्यता विकासीकृता गणिपदपंन्यासपदा-ऽऽचार्यपदप्राप्तिपूर्वकं सूरिमंत्र पंचपीठसमाराधनं कृतम् । अनेके साधुगणाः शास्त्राभ्यासनिरताः कृताः । किं बहुना ? यावन्तो लाभा लब्धव्याः ते सर्वे अनेन मुनिवरेण लब्धाः । अयं निर्देशः पूर्वकालीनापेक्षः, वर्तमानकाले तु अयं मुनिवरोऽस्माकं पंचदश-शिष्यगणानां योगक्षेमकारिणः परमवात्सल्यमूर्तयः संयमैकलक्षिणः प्रातःस्मरणीयाः पूज्यपादा आचार्य भगवंतः श्रीमद्विजय जगच्चंद्रसूरीश्वराः । एतद् ग्रंथचतुष्टयं यावच्चन्द्रदिवाकरौ विजयेते तावद् सतां शास्त्राभ्यासकरणे दीपकसमानप्रकाशप्रदायि भवतात् । इति शम् । - गुरुदेव प्रसादेन-ज्ञान-ध्यान संयम प्रगति कामुको पू.आ.श्री भुवनभानुसूरि स्मृतिमंदिरे पंकज जैन संघ, पालडी, अमदावाद भा.व. १० रविपुष्ययोगे विजयाऽभयचंद्रसूरिः Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુકૃત સહયોગી : પંકજ જૈન સંઘના આંગણે, પૂ.આ. ભુવનભાનુસૂરિ સ્મૃતિ મંદિરે, પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય જગચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન પૂ. આચાર્ય વિજય અભયચંદ્રસૂરિ મહારાજે કરેલ ૨૫ દિવસીય શ્રીદેવીની સૂરિમંત્રપિઠિકાની સાધનાની અનુમોદનાર્થે પૂ. પંન્યાસ શ્રી હીરચંદ્રવિજયજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી પંકજ જૈન શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક સંઘ પંકજ સોસાયટી, ભટ્ટા-પાલડી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૭ જ્ઞાનદ્રવ્યના સદ્વ્યયની ભૂરિ ભૂરિ અનુમોદના Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पणम् र योऽस्ति श्रीप्रेमसूरीश-पट्टप्रद्योतको महान् । भुवनभानुसूरीशं, वन्दे सन्मार्गदं गुरुम् ॥१॥ यं श्रिता बोध-वैराग्य-तपस्त्यागादयो गुणाः । भुवनभानुसूरीशं वन्दे सन्मार्गदं गुरुम् ॥२॥ येन सद्देशनाभानु-भानुसंबोधिता वयम् । . भुवनभानुसूरीशं वन्दे . सन्मार्गदं गुरुम् ॥३॥ यस्मै सृष्टा कृपावृष्टि-गुरुभिर्गुणमूर्तये । भुवनभानुसूरीशं वन्दे सन्मार्गदं गुरुम् ॥४॥ यस्मात् सद्बोधदोद्भूता सूत्रार्थचित्रदर्शिका । भुवनभानुसूरीशं वन्दे सन्मार्गदं गुरुम् ॥५॥ यस्य शतद्वयासन्न-पद्मादियतिनां गणः ।। भुवनभानुसूरीशं वन्दे सन्मार्गदं गुरुम् ॥६॥ यस्मिन् परार्थता भव्या, करुणा चाऽप्रमत्तता । भुवनभानुसूरीशं वन्दे सन्मार्गदं गुरुम् ॥७॥ अष्टोत्तरशतौलीनां कारक ! जगदाधृते ! भो ! वन्दे तार्किकप्रष्ठ ! वर्धमानतपोनिधे ॥८॥ शतेन वा सहस्रेणा-ऽशक्या गुणस्तुतिस्तव । अतः समर्प्य सत्शास्त्रं स्वात्मानं तोषयाम्यहम् ॥९॥ गुरुपदकजभृङ्ग स्व. अनुयोगचार्यश्रीपद्मविजयशिष्याणु आचार्य विजय जगच्चन्द्रसूरिः Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः विषयः प्रास्तविकम् प्रक्केथनम् समर्पणम् सावचूरिकं - द्रव्यप्रमाणप्रकरणम् द्रव्यप्रमाणप्रकरणमूलगाथा: अनुबन्धचतुष्टयम् अधिकृतमार्गणाभेदाः क्षेत्रस्पर्शनास्वरूपं क्षेत्रभेदाश्च अधिकृतमार्गणाभेदेषु सकषायजीवानाश्रित्य उत्पाद - समुद्घात - स्वस्थान- भेदभिन्नत्रिविधक्षेत्रप्रतिपादनम् . अधिकृतमार्गणाभेदेषु अकषायजीवानाश्रित्याऽनन्तरोक्तत्रिभेदक्षेत्रप्रतिपादनम् अधिकृतमार्गणासु सकषायजीवापेक्षया स्वस्थानस्पर्शनाप्रतिपादनम् अधिकृतमार्गणासु सकषायजीवान् समाश्रित्य उत्पाद - समुद्घात-गमना-गमनकृतत्रिविधस्पर्शनाप्रतिपादनम् वैमानिकदेवादिजीवानां स्थानादि विषयकवचनभेदान् समाश्रित्याऽन्यथा स्पर्शनोद्वाभावने दिग्दानम् अकषाय जीव कृत स्पर्शना १२ ............ पृष्ठाङ्क ४-७ ८-९ ११ १५-२१ २२-२३ २६-२७ २७-२९ २९-३१ ३१-३९ ४०-४३ ४४ ४५-५९ .............. ६०-६२ ६२-६३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकारगुरुप्रमुखानां प्रशस्तिः ........... ........... ६३-६५ क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणमूलगाथाः . ........... ६६-७१ .भा.प्रेम सूरि म.सा. तथा पू.पं. ५५४५७ म.सानो ढूंपश्यिय .......... .... ७२ गुरु-गुण अमृतवेली रास ........... ७४-९५ गुरु-गुए। सौरम यौत्रीशी ..... साराम यात्राशा ........................... .९६-९९ चित्रानुक्रमः प्रसङ्गायात-'दोसु उड्ढकवाडेसु तिरिय-लोयतट्टे य' । इति व्यवहारनयप्रधान-सूत्राणुसारेणाऽपर्याप्ततेजस्कायजीवानां क्षेत्रप्रदर्शकं चित्रम् । ..... चतुर्दशरज्जुप्रमाणे लोके तत्तन्नारकतत्त-द्देवादीनां रज्जुभेदेन स्थानदर्शकं चित्रम् .............. ३५ १३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञा-ऽवचूरिसहितम् द्रव्यप्रमाणप्रकरणम् • रचयिता. पू. मुनि श्री जगच्चंद्र विजयजी म. (प.पू.आ.भ.श्रीमद्विजय जगच्चंद्रसूरीश्वर महाराजाः) • प्रेरक - मार्गदर्शक - संशोधकाः ... सिद्धान्तमहोदधि-कर्मसाहित्यनिष्णाताः सुविशालगच्छाधिपतयः परमपूज्य आचार्यदेवाः श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वर महाराजाः • संशोधकाः. प.पू. आगमप्रज्ञा-ऽऽचार्यदेव श्रीमद्विजयजम्बूसूरीश्वरादयः १४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री महावीर स्वामिने नमः ___ श्री प्रेमसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः . परिमाणादितत्तद्वारेषु तवृत्त्यादौ निरयगत्योघादिसप्तत्युत्तरशतमार्गणास्वविशेषेणाभिहितस्य संख्येयाऽसंख्येयादिलक्षणस्य बन्धकपरिमाणस्य विशेषेणाऽवबोधार्थं सावचूरिकं द्रव्यप्रमाणप्रकरणम् . (अवचूरिः) चरमं तीर्थपति नत्वा, गच्छेशं स्वगुरूंस्तथा । ग्रन्थे द्रव्यप्रमाणाख्ये व्याख्या किञ्चिद्वितन्यते ॥१॥ इह लघु अवधारणाय यथार्थाभिधानस्य द्रव्यप्रमाणप्रकरणयाऽऽरिप्सया प्रथमं तावन् मङ्गलादिप्रतिपादिका गाथाभिधीयते'नमिउं' इत्यादि, नमिउं अरिहंताई __सगुरुपसाया सुयाणुसारेणं । गइआइटाणेसुं भणिमो जीवाण परिमाणं ॥१॥ इह पूर्वार्धेन मङ्गल-सम्बन्धौ साक्षादुक्तौ, उत्तरार्धेन त्वभिधेयम्, प्रयोजनं तु सामर्थ्यगम्यम् । तत्र अरीणां-रागद्वेषाद्यान्तरशत्रूणां हननात्, यद्वा चतुस्त्रिंशतमतिशयात् देवेन्द्रादिकृतां पूजां वाऽर्हन्तीत्यर्हन्तस्ते आदौ येषामर्हत्सिद्धाऽऽचार्योपाध्यायसाधूनां तेऽर्हदादयस्तानर्हदादीनं 'नत्वा' कायवाङ्मनोयोगैः प्रणम्य 'स्वगुरूणां' भवविरागजनक-सम्यग्दर्शनज्ञा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नादिप्रापकपोषकप्रव्रज्याप्रदायकादीनां गच्छाधिपति-श्रीमत्प्रेमसूरीश्वरतातपादप्रभृतीनां प्रसादात् 'श्रुतानुसारेण' आगमार्थमनतिक्रम्य 'गइआइटाणेसुं' ति गत्यादीनि गतीन्द्रियकायादिलक्षणानि निरयगत्योघप्रथमद्वितीयपृथिव्यादि-निरयभेदादितदुत्तरभेदलक्षणानि च यानि सप्तत्युत्तरशतमार्गणास्थानानि तानि मध्यमपदलोपाद्गत्यादिस्थानानि तेषु 'जीवाण' त्ति अस्मदादीनां कर्मनिगडनिबद्धानां प्राणिनाम्, अनेन सिद्धानां व्यवच्छेदो बोद्धव्यः । तेषां 'परिमाणं' संख्येयत्वाऽसंख्येयत्वादिलक्षणं संख्यामानं 'भणामि' त्ति 'सत्सामीप्ये' इत्याद्यनुशासनादनुपदं भणिष्यामीत्याद्यगाथार्थः ॥१॥ णिरये य पढमणिरये, भवणवइसुरम्मि आइमदुकप्पे । अंगुलअसंखभाग प्पएसमित्ताउ सेढीओ ॥२॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयन्नाह-'णिरये'त्यादि, निरयगत्योघे, प्रथमपृथिवीनिरयभेदे, भवनपति-सुरभेदे, सौधर्मे-शानकल्पद्वयलक्षणे आद्यकल्पद्वये चेत्येवं पञ्चमार्गणास्थानेषु प्रत्येकम् 'अंगुले'त्यादि, अमुलस्याऽ संख्येयतमे भागे यावन्तो नभप्रदेशास्तावत्संख्याकासु सप्तरज्ज्वायतासु सूचिश्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्तो जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥२॥ सेसणिरय-तइआइछ__कप्प-नरेसुं अपज्जमणुसे य । सेढिअसंखंसो सुर वंतर-जोइससुरेसुं य ॥३॥ १६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वेसु पणिदितिरिय विगल-पर्णिदि-तसकšय-मण-वयसुं । बायरसमत्त-भू-दग पत्तेअवणेसु विक्कियदुजोगेसुं ॥४॥ थी - पुरिस - विभंग - यण सुहलेसतिगेसु तह य सण्णम्मि । पयर असंखंसडिअ सेंढिगयपरसतुल्लाऽत्थि ॥५ ॥ 'सेसणिरये' त्यादि, शेषेषु द्वितीयादिपृथिवीभेदभिन्नेषु षट्षु निरयेषु तृतीयादिषु सनत्कुमार- माहेन्द्र - ब्रह्म-लान्तक - शुक्र- सहस्राराख्येषु षट्षु कल्पेषु, 'नर' त्ति मनुष्यगत्योघे, अपर्याप्तमनुष्ये चेत्येवं चतुर्दशमार्गणास्थानेषु प्रत्येकं 'सेढिअसंखंसो' त्ति सप्तरज्ज्वायताया एकप्रादेशिक्याः श्रेणे: 'असंख्यांश: ' - असंख्य भागगताकाशप्रदेशैः परिमिता जीवाः सन्तीत्यर्थः । 'सुरवंतरे 'त्यादि, देवगत्योघे, व्यन्तरसुर - ज्योतिष्कसुरयोः, सर्वेष्वोघ-पर्याप्ताऽपर्याप्तातिरश्चीभेदभिन्नेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भेदेषु सर्वेष्वोघ-पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु 'विकल' त्ति द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियास्तेषामेकैकस्य त्रिषु त्रिषु भेदेषु, तथैव सर्वेषु त्रिसंख्याकेषु पञ्चेन्द्रियजातिभेदेषु सर्वेषु त्रिसंख्याकेषु त्रसकायभेदेषु सर्वेष्वोधोत्तरभेदभिन्नेषु पञ्चसु मनोयोगभेदेषु तथैव पञ्चसु वचोयोगभेदेषु, तथा 'बायरसमत्ते' त्यादि तत्र समाप्तशब्दः पर्याप्तवाची, ततो बादरपर्याप्तपृथिवीकायाऽप्काययोः, बादरपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकाये, वैक्रियतन्मिश्रयोगलक्षणयोर्द्वयोर्योगयोः, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-विभङ्गज्ञानेषु, १७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'णयण' ति चक्षुर्दर्शने, तेजः-पद्म-शुक्ललेश्यालक्षणे शुभलेश्यात्रिके तथा संज्ञिनीत्येवं पञ्चचत्वारिंशन्मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं ‘पयरे' त्यादि, घनीकृतलोकस्य यत्प्रतरं तस्यासंख्यांशस्थितासु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावद्भिर्नभःप्रदेशैस्तुल्या जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥३-४-५॥ संखेज्जा मणुसी-नर पज्जा-ऽवेअ-मणणाण-सव्वत्थे । संयम-छेअ-समाइअ सुहुमा-ऽऽहारदुग-परिहारे ॥६॥ . 'संखेज्जा' इत्यादि, मानुषी, पर्याप्तमनुष्यः, अपगतवेदः, मनःपर्यवज्ञानम्, सर्वार्थसिद्धदेवः, संयमौघः, सामायिकसंयमः, छेदोपस्थापनसंयमः, परिहारविशुद्धिकसंयमः, सूक्ष्मसम्परायसंयमः, आहारक-तन्मिश्रयोगलक्षणमाहारकदिकं चेत्येवं द्वादश-मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं संख्येया जीवाः सन्ति ॥६॥ सेसाऽऽणताइसुर-मइ सुय-ऽवहिदुग-देसविरय-सम्मेसुं उ । पल्लाऽसंखंसो उव सम-वेअग-खइअ-मीस-सासाणेसुं ॥७॥ 'सेसाणताईत्यादि भणितशेषेष्वानतकल्पादिषु चतुरनुत्तरविमानान्तेषु सप्तदशसु सुरभेदेषु, मतिज्ञान-श्रुतज्ञाना-ऽवधिद्विक-देशविरतसम्यक्त्वौघेषु, तथा 'पल्लासंखंसो उवसमे'त्यादि, औपशमिकसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्त्व-मिश्रदृष्टि-सासादनदृष्टिष्वित्येवमष्टाविंशतिमार्गणास्थानेषु पल्योपमस्याऽसंख्यभागो जीवा ज्ञेयाः । इह हि 'सम्मेसुं उ' इत्यत्र तुकारो विशेषद्योतनार्थः, अर्थात् 'पल्लाऽसंखंसो' इति सामान्येनोक्तेऽपि आनतकल्पादि-सप्तदशदेवगतिमार्गणास्थानेषु क्षायिकसम्यक्त्वे च 'पल्ल' Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यनेनाद्धापल्योपमो ग्राह्यः शेषमतिज्ञानादि - दशमार्गणास्थानेषु तु तेन क्षेत्रपल्योपमो ग्राह्य इति ॥७॥ बायरसमत्तवज्जिअ भू-दग - ऽगणि-वाउकायभेएसुं । पत्तेअवणम्मि य तद पज्जे लोगा असंखिज्जा ॥८॥ 'बायरसमत्ते 'त्यादि, तत्र समत्तशब्दः प्राग्वत्, बादरपर्याप्तभेदवर्जितेषु ओघ - बादरापैघ - तदपर्याप्त - सूक्ष्मौघ-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नेषु ‘भूदगगणिवायुकायभेएसुं' ति षट्षु पृथ्विकायभेदेषु, षट्षु अप्कायभेदेषु, षट्षु अग्निकायभेदेषु, षट्षु वायुकायभेदेषु, तथा प्रत्येक वनस्पतिकायौघे तदपर्याप्तभेदे चेत्येवं षड्विंशतिमार्गणास्थानेषु प्रत्येकं 'लोगा असंखिज्जा' त्ति असंख्येयेषु लोकप्रमाणेषु क्षेत्रखण्डेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्तो जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥८॥ बायरपज्जाग्गिम्मि उ देसूणघणावलीअ समयमिआ । बायरपज्जाणी ततश्च संखंसो हुन्ति लोगस्स ॥९॥ 'बायरपज्जाग्गिम्मि' इत्यादि, बादरपर्याप्ताऽग्निकायमार्गणास्थाने पुन: 'देसूणे'त्यादि, आवलिकायाः समयेषु घनीकृतेषु यावन्तः समया भवेयुस्ततः स्तोकमात्रेणैकदेशेन न्यूना जीवा भवन्तीत्यर्थः । 'बायरपज्जाणीले' त्ति बादरपर्याप्ते 'नीले' वायुकाये लोकस्य संख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशाः सन्ति तावन्तो जीवाः सन्तीत्यर्थः ॥९॥ १९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेसातीसठाणे ऽणंता जीवा हवन्ति इइ रइयं । अप्पावहारणट्ठा रज्जे सिरिपेमसूरीणं ॥१०॥ ताण पसीसाण पउम विजयगणिदाण सीसलेसेण । दव्वपमाणपगरणं नन्दउ जा वीरजिणतित्थं ॥११॥ 'सेसाऽट्ठ' इत्यादि, उपर्युक्तशेषेषु तिर्यग्गत्योघा-दिष्वष्टत्रिंशन्मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं 'णंता 'त्ति अनंता जीवाः सन्ति । अष्टात्रिंशच्छेषमार्गणास्थानानि त्विमानि तिर्यग्गत्योघः, ओघ - बादरौघतत्पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-सूक्ष्मौघ-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नाः सप्त एकेन्द्रियभेदाः, तथैव सप्त साधारणवनस्पतिकाय-भेदाः, वनस्पतिकायौघः, काययोगौघः, औदारिक-तन्मिश्र - कार्मणकाययोगाः, नपुंसकवेदः, क्रोधादिकषायचतुष्कम् मत्यज्ञान - श्रुताज्ञाने असंयमः, अचक्षुर्दर्शनम्, कृष्णादित्र्यशुभलेश्याः, भव्या - ऽभव्यौ, मिध्यात्वम्, असंज्ञी, आहारकानाहारकौ चेति । " अथोपसंहरन्नाह - 'इइ रइयमित्यादि, अस्य चान्वय उत्तरगाथोत्तरार्धे 'दव्वपमाणे 'त्यादिना, तथा च 'इति' सप्तत्युत्तरशतमार्गणास्थानेषु जीव- परिमाणकथनद्वारेण रज्जे सिरिपेमसूरीणं 'ति चतुर्विधसङ्घकौशल्याधारसुविहितशिरोमणिकर्मशास्त्र-पारङ्गतसिद्धान्तमहोदधीनां श्रीमतां प्रेमसूरीणां 'राज्ये' - साम्राज्ये प्रवर्तमाने 'ताण' त्ति तेषां पूज्यपादानां 'पसीसाण' त्ति प्रशिष्याणां - शिष्यशिष्याणाम्, तत्र प्रेमसूरीश्वरपूज्यपादानां स्वशिष्याः सुविख्यातनामधेयाः स्वात्मसाधना २० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऽविकलभव्यजन्तुहितकरानेकविधकुशलप्रवृत्तिपरायणाः पं० श्रीमद्भानुविजयगणीन्द्राः, तच्छिष्यास्तु स्वभावसरलाः प्रशान्तप्रकृतयः सौम्यवदनाः स्वर्गताः श्रीमन्तः पं०पद्मविजयगणीन्द्राः, एतदेवाह-'पउमविजये' त्यादि, तेषां पद्मविजयगणीन्द्राणां 'सीसलेसेण' त्ति शिष्यलेशेन, समयोक्तशिष्यगुणानां यथावदभाजनतया नामशिष्य-प्रायेण जगच्चन्द्रविजयेन मुनिना 'अप्पावहारणट्ठा' त्ति आत्मनोऽवधारणार्थं रचितमिदं द्रव्यप्रमाण-प्रकरणं यावच्छीवीरस्वामिनस्तीर्थं तावन्नन्दतु, भव्यजन-नयनवदन-मानसदीन्यनवद्यान्याधाराण्यवा-प्येति शेषः ॥१०-११।। ॥ इति स्वोपज्ञावचूरि सहितम् द्रव्यप्रमाणप्रकरणम् ... समाप्तम् ॥ ॥ शुभं भूयात्सर्वेषाम् ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यप्रमाणप्रकरणम् (मूलगाथाः) नमिउं अरिहंताई सगुरुपसाया सुयाणुसारेणं । गइआइटाणेसुं भणिमो जीवाण परिमाणं ॥१॥ णिरये य पढमणिरये, भवणवइसुरम्मि आइमदुकप्पे । अंगुलअसंखभाग प्पएसमित्ताउ सेढीओ ॥२॥ सेसणिरय-तइआइछ कप्प-नरेसुं अपज्जमणुसे य । सेढिअसंखंसो सुर वंतर-जोइससुरेसुं य ॥३॥ सव्वेसु पणिदितिरिय विगल-पणिदि-तसकाय-मण-वयणेसुं । बायरसमत्त-भू-दग पत्तेअवणेसु विक्कियदुजोगेसुं ॥४॥ थी-पुरिस-विभंग-णयण सुहलेसतिगेसु तह य सण्णिम्मि । पयरअसंखंसट्ठिअ सेढिगयपएसतुल्लाऽथि ॥५॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेज्जा मणुसी-नर पज्जा-ऽवेअ-मणणाण-सव्वत्थे । संयम-छेअ-समाइअ सुहुमा-ऽऽहारदुग-परिहारे ॥६॥ सेसाऽऽणताइसुर-मइ सुय-ऽवहिदुग-देसविरय-सम्मेसुं उ । पल्लाऽसंखंसो उव- सम-वेअग-खइअ-मीस-सासाणेसुं ॥७॥ बायरसमत्तवज्जिअ भू-दग-ऽगणि-वाउकायभेएसुं । पत्तेअवणम्मि य तद पज्जे लोगा असंखिज्जा ॥८॥ बायरपज्जाग्गिम्मि उ देसूणघणावलीअ समयमिआ । बायरपज्जाणीले संखंसो हुन्ति लोगस्स ॥९॥ .सेसाहतीसठाणे ऽणंता जीवा हवन्ति इइ रइयं । अप्पावहारणट्ठा रज्जे. सिरिपेमसूरीणं ॥१०॥ ताण पसीसाण पउम विजयगणिंदाण सीसलेसेण । दव्वपमाणपगरणं नन्दउ जा वीरजिणतित्थं ॥११॥ • • • Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञवृत्तिविभूषितं क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणम् • रचयिता. पू.मुनि श्री जगच्चंद्र विजयजी म. (प.पू.आ.भ.श्रीमद्विजय जगच्चंद्रसूरीश्वर महाराजाः) • प्रेरक - मार्गदर्शक - संशोधकाः . . सिद्धान्तमहोदधि- कर्मसाहित्यनिष्णाताः । सुविशालगच्छाधिपतयः परमपूज्य आचार्यदेवाः श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वर महाराजाः • संशोधकाः. प.पू.विद्वद्वर्या मुनिश्री जयघोष-धर्मानन्दविजयाः [प.पू.आ.गच्छाधिपति श्रीमद्विजय जयघोषसूरीश्वर महाराजा: प.पू.आ.भ.श्रीमद्विजय धर्मजित्सूरीश्वर महाराजाः] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः श्री प्रेमसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः चतुःसप्तत्युत्तरशतमार्गणास्थानान्यधिकृत्य नानासकषाया-ऽकषायजीवानां क्षेत्र - स्पर्शनयोः प्रतिपादकं स्वोपज्ञवृत्तिविभूषितं क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणम् नत्वा शङ्खेश्वरं पार्श्वं गच्छेशं स्वगुरूंस्तथा । क्षेत्र - स्पर्शनसंदर्भः स्वोपज्ञस्तन्यते कियत् ॥ 新 इह तावत्स्वपरहितकाम्यया यथार्थाभिधं क्षेत्र - स्पर्शनाप्रकरणमारि प्सुर्ग्रन्थकृदादौ मंगलादिप्रतिपादिकां गाथामभिधत्ते नमिउं अरिहंताई सगुरुपसाया सुयाणुसारेणं । बेमि गइआइगेसुं जीवाणं खित्त -फुसणाऊ ॥१॥ . "नमिउं" इत्यादि, इह पूर्वार्धेन मङ्गलसम्बन्धौ साक्षादुक्तौ, उत्तरार्धेन त्वभिधेयम्, प्रयोजनं तु सामर्थ्यगम्यम् । तत्र अरीणां - रागद्वेषाद्यान्तरशत्रूणां हननात्, यद्वा चतुस्त्रिंशतमतिशयान् देवेन्द्रादिकृतां पूजां वाऽर्हन्तीत्यर्हन्तस्ते आदौ येषामर्हत्सिद्धाऽऽचार्योपाध्यायसाधूनां तेऽर्हदादयस्तानर्हदादीन् २६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नत्वा' कायवाङ्मनोयोगैः प्रणम्य 'स्वगुरूणां' भवविरागजनकसम्यग्दर्शन-ज्ञानादिप्रापक-पोषक-प्रवज्याप्रदायकादीनां गच्छाधिपति श्रीमत्प्रेमसूरीश्वरतातपादप्रभृतीनां प्रसादात् 'श्रुतानुसारेण' आगमार्थमनतिक्रम्य 'बेमि' त्ति ब्रवीमि, किमित्याह-'गइ' इत्यादि, गत्यादिषु 'गइ-इंदिए य' इत्यादिना गाथा-द्वयेन वक्ष्यमाणेषु सोत्तरभेदभिन्नेषु मार्गणास्थानेषु 'जीवानां' सकषाया-ऽकषायभेदभिन्नानां क्षेत्रस्पर्शने 'संपइकाले' त्यादिना वक्ष्यमाणस्वरूपे इति । इह क्षेत्रस्य स्पर्शनायाश्च सकषाया-ऽकषायजीवभेदेन प्ररूपणं तु वक्ष्यमाणसमुद्घातकृतक्षेत्र-स्पर्शनयोरिणान्तिकसमुद्घात-केवलिसमुद्घातभेदेन प्रदर्शनार्थम्, अन्यथा तत्समुद्घातद्वयं विहाय शेषसमुद्घातकृतक्षेत्रस्पर्शनयोः स्वस्थानक्षेत्रस्पर्शनापेक्षयाऽविशिष्टत्वेऽपि विशिष्टस्य मारणसमुद्घातकृतक्षेत्रादिद्वयस्य सर्वलोकप्रमाणकेवलिसमुद्घातकृतक्षेत्राद्यन्तःप्रविष्टतया न स्यान्मनुष्यगत्योघादिमार्गणास्थानेषु यत्र केवलिसमुद्घातस्यापि सद्भावस्तत्र मारणसमुद्घातकृत-क्षेत्रादेविशेषतोऽवगम इति ॥१॥ अथ 'गत्यादिकेषु' इत्युक्तम्, तत्र गत्यादिकानेवाऽधिकृतसभेदप्रभेदानाह गइ-इंदिए य काये, ____ जोए वेए कसाय-नाणे य । - संजम-दंसण-लेसा, भव-सम्मे सन्नि-आहारे ॥२॥ सगचत्ते-गुणवीस-दु चत्ता-ऽट्ठार-चउ-पंच अट्ठ-ट्ठा । २७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउ-छ-दु-सत्त-दुग-दुगं, चउसयरिसयं कमा णेया ॥ ३ ॥ "गइ-इंदिए य" इत्यादि, इहोत्तरगाथाप्रान्त भणितेन ‘कमा णेया' इति वचनेन गतीन्द्रियेत्यादीनां 'सगचते-गुणवीसे'त्यादिभिर्यथासंख्यमन्वयः, तथा च सप्तचत्वारिंशद्गतिभेदाः । तद्यथा-नरक-गत्योघः, रत्नप्रभादिपृथ्वीभेदभिन्नाः सतमनरकगत्युत्तरभेदाः, तिर्यग्गत्योघः, पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघः, पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-तिरश्चीभेदात् त्रयः पञ्चेन्द्रियतिर्यगुत्तरभेदाः, मनुष्यगत्योघः, पर्याप्ता-ऽपर्याप्त-मानुषीभेदतस्त्रयो मनुष्यगत्युत्तरभेदाः, देवगत्योघः, भवनपतिव्यन्तर-ज्योतिष्कद्वादशकल्पोपपन्न-नवग्रैवेयक-पञ्चानुत्तरवैमानिकभेदभिन्ना एकोनत्रिंशद्देवगत्युत्तरभेदा इति । 'इंदिए' त्ति एकोनविंशतिरिन्द्रिय-भेदाः । तद्यथा-एकेन्द्रियौघः, ओघ-पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदात् त्रयः सूक्ष्मैकेन्द्रियभेदास्तथैव त्रयो बादरैकेन्द्रियभेदा इति समस्ताः सप्तैकेन्द्रियभेदाः; ओघ-पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नास्त्रयो द्वीन्द्रियभेदास्तथैव त्रयस्त्रीन्द्रियभेदास्त्रयश्चतुरिन्द्रियभेदास्त्रयः पञ्चेन्द्रियभेदाश्चेति । 'काये' त्ति द्विचित्वारिंशत्कायमार्गणाभेदाः । तद्यथा-अनन्तरोक्तैकेन्द्रियमार्गणाभेदवत्सप्तपृथिवीकायभेदाः, सप्ताऽप्कायभेदाः, सप्त तेजस्कायभेदाः, सप्त वायुकायभेदाः, वनस्पतिकायौघः, प्रागिव सप्त साधारणवनस्पतिकायभेदाः, ओघपर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदात् त्रयः प्रत्येकवनस्पतिकायभेदाः, तथैव त्रयस्त्रसकायभेदाश्चेति । "जोए" त्ति अष्टा दश योगमार्गणाभेदाः । तद्यथा-काययोगौघः, औदारिक-तन्मिश्र-वैक्रिय-तन्मिश्रा-ऽऽहारकतन्मिश्र-कार्मण-काययोगभेदभिन्नाः सप्त काययोगोत्तरभेदाः, मनोयोगसामान्यः, सत्याऽसत्य-मिश्र-व्यवहारमनोयोग-भेदाच्चत्वारो मनोयोगोत्तर २८ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदाः, वचोयोगसामान्यः, सत्या-ऽसत्यादिभेदान्मनोयोगवच्चत्वारो वचोयोगोत्तरभेदाश्चेति । "वेए" त्ति स्त्री-पुरुष-नपुंसकभेदात् त्रयोऽपगतवेदश्चेति चत्वारो वेदमार्गणाभेदाः । “कसाय" त्ति क्रोध-मान-मायालोभभेदा-च्चत्वारः, प्रतिपक्षस्यापि ग्रहणात्पञ्चमो-ऽकषायभेदश्चेति । 'नाणे" ति मतिज्ञान-श्रुतज्ञाना-ऽवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान-केवलज्ञानानि, प्रतिपक्षभूताज्ञानभेदानामपि ग्रहणात् मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञानानि चेति अष्टौ ज्ञानमार्गणा-भेदाः । “संजम" त्ति प्रागिव सप्रतिपक्षा अष्ट संयममार्गणाभेदाः । तद्यथा-संयमौघ-सामायिक-छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातसंयम-देशसंयमा-ऽसंयमा इति । "दंसण"त्ति चक्षुर्दशना-ऽचक्षुर्दर्शना-ऽवधिदर्शन-केवलदर्शनभेदाच्चत्वारो दर्शनमार्गणाभेदाः । “लेसा" त्ति कृष्ण-नील-कापोततेजः-पद्म-शुक्लभेदात् षड् लेश्याभेदाः । "भव" त्ति भव्यस्तत्प्रतिपक्षभूताभव्यश्चेति द्वौ भेदाविति । "सम्मे" त्ति सम्यक्त्वौघः, क्षायिकक्षायोपशमिकौ-पशमिकसम्यक्त्व-सम्यम्मिथ्यात्व-सासादन-मिथ्यात्वानीति सप्रतिपक्षाः सप्तेति । “सन्नि" त्ति प्रतिपक्षसहितत्वात्संश्यसंज्ञी चेति द्वौ । तथैव "आहारे'' त्ति आहारका-ऽनाहारकाविति द्वौ भेदाविति । "चउसयरिसयं" ति तदेते नरकगत्योघाद्याः सर्वसंख्यया चतुःसप्तत्युत्तरशतं ज्ञेया इति ॥२-३॥ उक्ता नरकगत्योघाद्या अधिकृतमार्गणा भेदाः । एतर्हि यदुक्तम् 'क्षेत्रस्पशने ब्रवीमि' तत्र क्षेत्र-स्पर्शनयोविशेष क्षेत्रभेदांश्चाह-... संपइकाले खेत्तं, फुसणा पुण होइ अइगये काले । खेत्तं तिहोववाय-सठाण-समुग्घायभेयाओ ॥४॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "संपइ" इत्यादि, संप्रतिकाले'-वर्तमानकाले जीवानां यत्रावस्थानं तत्क्षेत्रमुच्यते, स्पर्शना पुनरतिगते काले जीवानां यत्रावस्थानमित्येतल्लक्षणा । तत्र वर्तमानकालः समयमात्रः, अतिगतस्त्वनन्तपुद्गल-परावर्तमान इत्येवं कालविशेषाक्षिप्तः क्षेत्र-स्पर्शनयोविशेषः । तत्र क्षेत्रं त्रिधा भवति, कथमित्याह-"उववाये" त्यादि, उपपातो नाम भवप्रथमसमयः, तत उपपातात्, उपपातापेक्षया क्षेत्रम्, नरकगत्योघादि- तत्तन्मार्गणानुरूपनारकत्वादितत्तत्पर्यायापन्नभवप्रथमसमय-वर्तिजीवराशिसमवगाढाकाशप्रदेशा इति यावत् । स्वस्थानं नाम उत्पत्त्युत्तरं तेन तेन नारकत्वादिभावेन यत्र जीवानां साहजिकमवस्थानम्, तदपेक्षया क्षेत्रं स्वस्थानक्षेत्रम् । समुद्घातस्तु 'वेयण कसाय मरणे वेउव्विय-तेयए य आहारे । केवलि य समुग्घाया' इति वचनात्सप्तविधः, तस्मात् समुद्घातात्, समुद्घातापेक्षयेत्यर्थः । ___ इह सप्तविधसमुद्घातमध्ये वक्ष्यमाणक्षेत्रविशेषः स्पर्शनाविशेषश्च मारणान्तिकसमुद्घातापेक्षया केवलिसमुद्घातापेक्षया वा विज्ञेयः, न पुनः शेष-पञ्चविधसमुद्घातापेक्षया, कथम् ? पञ्चविधसमुद्-घातेन स्वस्थानादिक्षेत्रतोऽधिकक्षेत्रस्यावगाहभावेऽपि तथाविधक्षेत्रस्यस्वस्थानादिक्षेत्रतोऽसंख्येयभाग - लक्षणस्तोकमात्रांशेनाधिकतया भेदेनानुपलक्ष्यमाणत्वात्, तत्रैव मारणसमुद्घातसम्भवे तु तस्य मारणसमुद्घाताक्षिप्तक्षेत्रान्तःप्रविष्टत्वाच्च । अत एव यत्र समुद्घातकृतस्पर्शनाप्रतिषेधः करिष्यते तत्रासौ मारणान्तिकसमुद्घाताभावेन विशेषप्ररूपणाऽविषयत्वा-द्विज्ञातव्यः, न पुनः सर्वथा समुद्घाताभावात् । ननु शेषपञ्चविधसमुद्घातकृतक्षेत्रविशेषस्य मारणसमुद्घातकृतक्षेत्रान्तःप्रविष्टतया तत् पञ्चविधसमुद्घातकृतक्षेत्रं यदि नाधिक्रियेत ३० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदा तेनैव न्यायेन केवलिसमुद्घातकृतक्षेत्राऽन्तःप्रविष्टतया मारणसमुद्घातकृतक्षेत्रप्ररूपणमपि निरवकाशतामा-स्कन्दते ? इति चेद्, सत्यम्, परं न सर्वत्र मार्गणास्थानेषु केवलिसमुद्घातो लभ्यते, अपि तु केषुचिन्मनुष्य-गत्योघादिष्वेवाऽसौ प्राप्यते, तथा च मनुष्यगत्योघादिमार्गणास्थानानि विहाय सावकाशं मारणसमुद्घात-कृतक्षेत्रप्ररूपणम्, किञ्च मनुष्यगत्योघादिमार्गणास्थानेष्वपि सकषाया-ऽकषायजीवभेदेन क्षेत्रस्य प्ररूपणीयत्वात् तत्राऽपि तत् सावकाशमेवेति सर्वमनवद्यमिति । क्षेत्रप्ररूपणावदेव समुद्घातकृतस्पर्शनाप्ररूपणाऽपि मारणसमुद्घातकृतस्पर्शनां केवलिसमुद्घातकृतस्पर्शनां वाधिकृत्य बोद्धव्येति । तदेवं क्षेत्रत्रैविध्यमुपदर्शितम् ॥४॥ अथ यथोक्तोपपातादिभेदभिन्नत्रिविधक्षेत्रं प्रोक्तमार्गणाभेदेषु प्रतिपिपादयिषुरादौ तावत् सकषायजीवानधिकृत्य प्राह तिरिये एगिदिय-भू दग-अगणि-पवण-णिगोअओहेसुं । तेसिं सुहुमोहेसुं तेसिं च अपज्ज-पज्जेसुं ॥५॥ वणओह-कायजोगो रालिय तम्मीस कम्मजोगेसुं । कीवे कसायचउगे दुअणाणा-ऽयत-अणयणेसुं ॥६॥ अपसत्थलेस-भवि-यरमिच्छत्तेसु अमणम्मि आहारे । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवइ तह अणाहारे खित्तं तिविहंपि सव्वजगं ॥७॥ "तिरिये" इत्यादि, तिर्यग्गत्योघः, एकेन्द्रियौघः, पृथिवीकायौघः, अप्कायौघः, तेजस्कायौघः, वायुकायौघः, साधारणवनस्पतिकायौघः, "तेसिं सुहुमोहेसुं" ति एतेषामेकेन्द्रियौघादीनां षण्णां ये सूक्ष्मविशेषणविशिष्टाः षट् सूक्ष्मैकेन्द्रियौघादिलक्षणाः सूक्ष्मौघभेदास्तथा "तेसिं च अपज्जपज्जेसुं" ति तेषां सूक्ष्मैकेन्द्रियौघादीनां षण्णां ये षडपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियादिलक्षणाः षट् पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियादिलक्षणाश्च मार्गणाभेदास्तेषु पञ्चविंशतिमार्गणाभेदेषु, तथा वनस्पतिकायौघकाययोगौघौ-दारिकौ-दारिकमिश्र-कार्मणकाययोग-नपुंसकवेदक्रोधादिकषायचतुष्टय-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञाना-ऽसंयमा-ऽचक्षुर्दर्शनानि कृष्णाद्यप्रशस्तलेश्यात्रिक-भव्या-ऽभव्य-मिथ्यात्वाऽसंश्या-ऽऽहार्य ऽनाहारिमार्गणास्वित्येवं सर्वसंख्ययाऽष्टचत्वारिंश-न्मार्गणासु प्रत्येकं 'खेत्तं तिविहंपि सव्वजगं" ति उपपातादिभेदभिन्नं यथोक्तं त्रिविधमपि क्षेत्रं 'सर्वजगत्' अशेषो लोको भवति, तद्धि प्रतिसमयं सर्वलोकव्यापिनः सूक्ष्मस्य पर्याप्तस्याऽपर्याप्तस्य वा पृथिवीकाया-धन्यतमजीवराशेः प्रत्येकं प्रवेशात्तथा ज्ञेयम् । तदुक्तं श्रीप्रज्ञापनागमे द्वितीये स्थानपदे____ 'कहि णं भंते ! सुहमपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं य ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सुहुमपुढवीकाइया जे पज्जत्तगा जे अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोगपरियावनगा प० समणाउसो !' इत्यादि । इत्येवमन्योऽपि वचनसंवादो द्रष्टव्य इति ॥५-६-७॥ ३२ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुविहं इगिंदियतिगे, ___ थूले पवणे अपज्जपवणे-य । सट्ठाणा हीणजगं, "दुविहं" इत्यादि, 'सव्वजगं' इत्यनन्तर-गाथात इहापि सम्बध्यते, तथा च 'स्थूले' बादरे एकेन्द्रियत्रिके एकेन्द्रियौघ-तत्पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदत्रयाऽऽत्मके, तथा “पवणे" इत्यादि, 'थूले' इत्यस्याऽनन्तरोक्तस्येहापि सम्बन्धाद् बादरवायुकायौघेऽप-र्याप्तबादरवायुकाये च 'द्विविधम्' उपपात-समुद्घातभेदभिन्नं नानाजीवसम्बन्धि यथोक्तलक्षणं क्षेत्रं सर्व-लोको भवति, न पुनः स्वस्थानादपि सर्वलोकः । “सहाणा" त्ति स्वस्थानात्तु हीनमसंख्येयभाग-लक्षणेनैकदेशेन "जगत्"-लोको भवति । एतद्धि तत्तन्मार्गणास्थपर्याप्ता-ऽपर्याप्तान्यतरबादरवायुकायजीवाक्षिप्तं विज्ञेयम्, न तु वायुकायेतरबादरजीवापेक्षया, तेषां बादरपृथिव्यादीनां स्वस्थानतो लोकासंख्येयभागगतत्वात् । बादरवायुकायिकानां तु देशोनलोकवर्ति-त्वाच्च । तदुक्तं श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गे__ 'कहि णं भंते ! अपज्जबादरवायुकायियाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरवायुकायियाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता तत्थेव बादरवायुकायियाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु' इति ॥ तिहावि पज्जत्तवाउम्मि ॥८॥ "तिहा" इत्यादि, 'थूले' इत्यस्यानन्तरोक्तस्येहापि सम्बन्धाद् बादरपर्याप्तवायुकाये त्रिधाऽपि, न पुनरनन्तरोक्तनीत्या केवलं स्वस्थानात्; विधा, कियत् ? देशोनलोकः, तच्च 'हीणजग' मित्यस्येहापि Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धादवसातव्यम् । तदुक्तम् 'कहि णं भंते !...........एत्थणं बादर - वायुकायियाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु. समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु, सट्टाणेण लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसुं' इति ॥८॥ लोओ बायरभू-दगऽणल-पत्तेयतरुगेसु सिमपज्जेसुं । थूले य णिगोअतिगे दुहा सठाणा भवे जगअसंखंसो ॥९॥ 44 "लोओ" इत्यादि, 'लोक:' इत्यस्य 'द्विधा' इति परेणान्वयः, तथा सति बादरेषु पर्याप्ता ऽपर्याप्तविशेषणविरहितेष्वौघिकेषु ? पृथिव्यप्तेजस्कायौघ-लक्षणेषु मार्गणास्थानेषु, प्रत्येकवनस्पतिकायौघे, तथा "सिमपज्जेसुं" ति तेषां बादरपृथिवी - कायादिप्रत्येकवनस्पतिकायान्तानां चतुर्णाम् 'अपर्याप्तेषु' । अपर्याप्तबादरपृथ्वीकाया-ऽप्काय-तेजस्कायाऽपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायलक्षणमार्गणाचतुष्टये इति भावः । तथा 'थूले य" त्ति 'स्थूले' - बादरे निगोदत्रिके, ओघ-पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदभिन्नबादरसाधारणवनस्पतिकायमार्गणाभेदत्रय इत्यर्थः । इत्येवं समुदितासु सर्वसंख्ययैकादशमार्गणासु प्रत्येकमुपपात -समुद्घातभेदाद् 'द्विधा' द्विविधं क्षेत्रं सर्वलोको भवति । एतास्वेवैकादशमार्गणासु जीवानां स्वस्थान - क्षेत्रं तु "जगअसंखंसो" त्ति लोकासंख्येयभागमात्रमेव भवति । तत्र द्विधा सर्वलोकः प्रत्येकं मार्गणासु असंख्यलोकपरिमितानां तदधिकानां वा जीवानां प्रविष्टत्वात्, लोकाऽसंख्येयभागः पुनर्बादरपर्याप्ताऽपर्याप्तपृथिवीकायादितया रत्नप्रभादिभूमिपिण्डा ३४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दावेवाऽवस्थानात् । यत उक्तम् 'कहि णं भंते ! बादरपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा । सट्ठाणेण अट्ठसु पुढवीसु, तं जहा-रयणप्पभाए-सक्करप्पभाएवालुयप्पभाए-पंकप्पभाए-धूमप्पभाए-तमप्पभाए-तमतमप्पभाए ईसीप्पब्भाराए. अहोलोएपायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु निरएसु निरयावलियासु निरयपत्थडेसु, उड्ढलोए-कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए-टंकेसु कूडेसु सेलेसु सिहरीसु पब्भारेसु विजयेसु वक्खारेसु वासेसु वासहरपव्वएसु वेलासु वेइयासु दारेसु तोरणेसु दीवेसु समुद्देसु, एत्थ णं बायरपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जभागे समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जभागे सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जभागे । कहि णं भंते । बादरपुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता तत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उव्वाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे ।' इति । इत्थमेव बादराप्कायादिक्षेत्रविषयेऽपि सूत्रसंवादो द्रष्टव्य इति । ननु भवत्वेवमपर्याप्तबादरतेजस्कायमार्गणां विहाय बादरपृथिवीकायौघादिमार्गणास्थानेषु द्विधा लोकस्तथा स्वस्थानतो लोकाऽसंख्येयभागः क्षेत्रम्, अपर्याप्तबादरतेजस्कायमार्गणायां तु केवलं समुद्घातत एव तत्सर्वलोको भणितं सूत्रे, न पुनः शेषद्विविधमपि । तथा च श्रीप्रज्ञापनाग्रन्थः-"कहि णं भन्ते ! बायरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणं प०, गोयमा ! जत्थेव बायरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बायरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स दोसु उड्ढकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य, समुग्वाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं ३५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोयस्स असंखेज्जइभागे" ? इति चेत्, सत्यम्, परं तत्र उपपाततः "उववाएणं लोयस्स दोसु उड्ढकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य" इत्यनेन यत् लोकासंख्येयभागमात्रक्षेत्रं भणितं तद्वयवहारनयं समाश्रित्य ज्ञेयम्, तद्वृत्तौ तथा व्याख्यातत्वात् । तथा चोक्तं तद्वृत्तौ - " तदेवमिदं सूत्रं व्यवहारनयप्रदर्शनेन व्याख्यातम्, तथा सम्प्रदायात्, युक्तं चैतद्, “विचित्रा सूत्राणां गतिः" इति वचनात्' इति । अत्र तु तदन्यक्षेत्रवदिदमपि क्षेत्रं ऋजुसूत्रनयानुसारेण प्रतिपादितं ज्ञेयम्, ऋजुसूत्रनये उदितबादरांऽपर्याप्ततेजस्कायिकायुर्नामगोत्राणां बादरापर्याप्ततेजस्कायिकत्वेन व्यपदेशस्येष्टत्वात्, तथाविधानां तूक्तोर्ध्वकपाटद्वय तिर्यग्लोकतो बहिरपि सर्वत्र लाभात् । एतदुक्तं भवति - समग्रलोकवर्तिसूक्ष्मजीव - राशितश्च्युत्वाऽपि अपर्याप्तबादरतेजस्कायिकत्वेन एक-द्वि-त्र्यादिवक्रेणोत्पद्यमाना जीवा लभ्यन्ते सर्वस्मिन्नपि लोके, तेषु च स्वस्थानप्राप्त्यभिमुखीभूतेषु जीवेषु ये जीवा अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रलक्षणात् मनुष्यलोकान्निसृते बाहल्यतोऽप्यर्धतृतीयद्वीपसमुद्रमाने पूर्वापरदक्षिणोत्तरस्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्ते ऊर्ध्वमधोऽपि च लोकान्तं स्पृष्टे ये कपाटे, तथा कपाटद्वयाऽप्रविष्टो यस्तिर्यग्लोकशेषभागः, स्थापना ('दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य' इति व्यवहारनयप्रधानसूत्रानुसारेणाऽपर्याप्ततेजस्कायजीवानां क्षेत्रप्रदर्शकं चित्रम् - ) (१) तिर्यग्लोकतट्टम्, ('तिरियलोयतट्टे य' इति पाठाधिकारे तु - एतावत् कपाटबहिर्वर्ति तिर्यग्लोकक्षेत्रं न ग्राह्यम्) । (२) पूर्वा - ऽपरदिग्द्वयविस्तृतं बाहल्यतोऽर्धतृतीय- द्वीपसमुद्रमानं षदिक्षु लोकान्तस्पृक् कपाटम् । (३) उत्तर - दक्षिणदिग्द्वयविस्तृतं बाहल्यतोऽर्धतृतीय- द्वीपसमुद्रमानं षड्दिक्षु लोकान्तस्पृक् कपाटम् । ३६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्ध्वलोकान्तम्-- अलोकस्थान देश-रज्जुमा लोकनाली तिर्यग-लोक: अधोलोकान्तम् ३७ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्येतावति क्षेत्रे विद्यन्ते त एव व्यवहारनयदर्शने बादरापर्याप्ततेजत्कायिका इति व्यवहारभाजो भवन्ति, न तु शेषाः कपाटद्वयाद् बहिर्व्यवस्थिताः, स्वस्थान-समश्रेणिकपाटद्वयाव्यवस्थितत्वेन तेषां विषमस्थान-वर्तित्वात् । अर्थाद् येऽद्यापि कपाटद्वये न प्रविष्टा नापि तिर्यग्लोकं प्रविष्टास्ते पूर्वभवस्था एव गण्यन्ते व्यवहारनये । यथोक्तकपाटद्वय-तिर्यग्लोकाऽवगाढ-क्षेत्रं तु लोकाऽसंख्येयभाग-मात्रमेवेति व्यवहारनयमताभ्युपगमात् सूत्रे सर्वलोको न भणितमुपपात-क्षेत्रम्। ऋजुसूत्रनये तु यथोक्तकपाटद्वयतिर्यग्लोकतो बहिःस्थिता अपि अपर्याप्तबादरतेजस्कायिकाऽऽयुर्नामगोत्रोदयादपर्याप्त-बादरतेजस्कायिकत्वेन व्यपदिष्यन्त एव, तथा च तन्मताभ्युपगमादिह तेषामपर्याप्तबादरतेजस्कायिकानां क्षेत्रं सर्वलोको भणित-मित्येवं सर्वं सुस्थमेवेति ॥९॥ उक्तशेषमार्गणाभेदेषु प्रस्तुतत्रिविधक्षेत्रमाहतिविहंपि य सेसेसु स- . कसायजीवे पडुच्च इइ भणियं । "तिविह" मित्यादि, 'जगअसंखंसो' इत्येतदत्रापि संबध्यते, तथा च शेषेषु नरकगत्योघादिपञ्चोत्तरशतमार्गणाभेदेषूपपात-समुद्घातस्वस्थानभेदभिन्न त्रिविधमपि नानाजीवाश्रयं क्षेत्रं लोकासंख्यभागप्रमाणं भवति । नरकगत्योघादिशेषमार्गणाभेदास्त्विमे-सर्वे "नरकगतिभेदाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्-भेदाः, सर्वे मनुष्यगतिभेदाः, सर्वे देवगतिभेदाः, सर्वे १२विकलेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियभेदाः, 'बादरपर्याप्त-पृथिव्य-प्तेजस्कायाः, 'पर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायः, सर्वेत्रसकायभेदाः, पंच मनोयोगभेदा, पञ्चवचोयोगभेदाः, 'वैक्रिय-'वैक्रियमिश्रा-१ऽऽहारका-१ऽऽहारकमिश्रकाययोगभेदाः, 'स्त्री-पुरुषवेदौ, 'अपगतवेदः, "मति-श्रुता-ऽवधि ३८ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन: पर्यवज्ञानानि, 'विभङ्गज्ञानम्, "संयमौघ - सामायिक छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिक- सूक्ष्मसम्परायसंयम- देशसंयमाः, 'चक्षु - रवधिदर्शने, 'तेज:पद्मशुल्कलेश्याः, सम्यक्त्वौघ - क्षायिक- क्षायोपशमिकौपशमिकसम्यक्त्वानि, 'सम्यग्मिथ्यात्वं सास्वादनं 'संज्ञी चेति । एतासु त्रिविधमपि क्षेत्रं लोका - ऽसंख्येयभागमात्रं तु प्रत्येकं सूक्ष्माणामयपर्याप्तबादराणां पृथिवीकायिकादीनां पर्याप्तबादरवायुकायानां वाऽप्रवेशात् शेषाणां प्रविष्टानां पर्याप्तबादरपृथिवीकायिकादीनां तु तथास्वाभाव्यादेव रत्नप्रभादि - पृथ्वीपिण्डतयास्थितिमतां परिमाणतोऽपि असंख्येयलोकप्रदेशराशितोऽत्यन्तं हीनानामेकस्मिन् समये स्वस्थानवदुपपातत: समुद्घाततो वा लोकासंख्येय-भागादधिकक्षेत्रस्यानवगाहनात् । ननु भवतु नरकगत्योघादिषु यथोक्तनीत्या स्वस्थानादित्रिविधक्षेत्रस्य मनुष्यगत्योघादौ उपपातक्षेत्रस्य स्वस्थानक्षेत्रस्य च लोकासंख्येयभागमानता, न पुनर्मनुष्यगत्योघादौ समुद्घातक्षेत्रस्यापि सा घटामाकलयति, केवलिसमुद्घातगतेनैकेनापि केवलिभगवता एकस्मिन् समये उत्कर्षतः समग्रलोकस्य स्वात्मप्रदेशैः पूरणाद् ? इति चेद्, सत्यम्, परं यदे तदभिहितं क्षेत्रं तत्सकषायजीवानधिकृत्य, न पुनरकषायजीवानधिकृत्य, तथा चाह - "सकसायजीवे" इत्यादि; सकषायजीवानधिकृत्य 'इति' एवंप्रकारेण भणितं क्षेत्रम्, न च सकषायजीवानामसौ केवलि - समुद्घातो जायते, केवलिसमुद्घातं विहाय शेषसमुद्घाताक्षिप्तं क्षेत्रं तु नरकगत्योघादिमार्गणासु लोकाऽसंख्येयभागमात्रमेवेत्येवं सकषायजीवाधिकारान् न दोषलेशोऽपि । अत एवेह शेषमार्गणाभेदेषु अकषाय- केवलज्ञान- केवलदर्शन - यथाख्यातसंयमलक्षणाश्चत्वारो मार्गणाभेदा न संगृहीता इत्यप्यवसातव्यमिति ॥ ३९ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु अकषायजीवानधिकृत्य तर्हि प्रस्तुत - त्रिविधक्षेत्रविचारे तत् कुत्र कियद्भवेदित्याह अकसाये अहिकिच्च उ, ते जत्थऽत्थि तहि सव्वत्थ ॥१०॥ लोगस्स असंखंसो, साणाओ तहा समुग्धाया । पणमणवयुरालियदुग णाणचउग - दंसणतिगेसुं ॥११॥ उवसम - सण्णीसुतहा, आहारेऽणत्थ होइ पुण्णजगं । ण हवइ उप्पाया खलु, खित्तं कत्थवि गयं खित्तं ॥१२॥ "अकसाये" इत्यादि, अकषायजीवानधिकृत्य तु तेऽकषायजीवा यत्र मनुष्यगत्योघादिद्विचत्वारिंशन्मार्गणाभेदेषु 'सन्ति' - लभ्यन्ते तत्र सर्वत्र लोकस्याऽसंख्यभागः स्वस्थानाद्भवति । "तहा समुग्धाया" त्ति ' तथा ' - तद्वदेव लोकासंख्यभागः समुद्घातादपि भवति, केवलं न सर्वेषु द्वाचत्वारिंशत्यपि मार्गणास्थानेषु किन्तु पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोगौदारिकौदारिकमिश्रकाययोग-मति - श्रुता - ऽवधि मनः पर्यवज्ञान - लक्षणज्ञानचतुष्कचक्षु-रचक्षु - रवधिदर्शनलक्षणदर्शन - त्रिकौ - पशमिकसम्यक्त्व-संज्ञ्याऽऽहारका इत्येवं द्वाविंशतिमार्गणाभेदेषु, न पुनर्मनुष्यगत्योघादि-शेषविंशतिमार्गणाभेदेष्वपीत्यर्थः । तर्हि तत्र तत्समुद्घाता-त्कियत्स्यादित्याह -" ऽणत्थ होइ पुण्णजगं" ति 'अन्यत्र' - उक्तान्यत्र मनुष्यगत्योघादिशेषविंशतिमार्गणाभेदेषु प्रत्येकं प्रस्तुतत्वात्समुद्घातावाप्तं क्षेत्रं पूर्णं जगद् ४० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति । अयम्भावः- समुद्घातं प्रविष्टा अकषायजीवा उत्कर्षतोऽपि एकस्मिन् समये संख्येया एव प्राप्यन्ते, उपशान्तमोहादि-गुणस्थानगतानामकषायजीवानामेव तद्भावात्, ते चाऽकषायजीवा विहाय केवलिसमुद्घातं लोकासंख्येयभागप्रमाणात्स्वस्थानक्षेत्रादसंख्येयगुणं क्षेत्रं मारणान्तिकसमुद्घातेन पूरयन्तोऽपि लोकाऽसंख्यभागमात्रक्षेत्र-मेव व्याप्नुवन्ति, न पुनस्तदधिकम् । संख्येयानामकषायमनुष्याणां मरणसमुद्घातेन भनुष्यलोकादूर्ध्व-मनुत्तरविमानं यावत् सप्तरज्जुदीर्घस्य बाहल्यतः स्वशरीरप्रमाणस्य च स्वात्मप्रदेशदण्डस्य प्रसारणे-ऽपि लोकासंख्येयभागमात्रावगाहनात्, वेदनादिशेष-समुद्घातापेक्षया तु स्वस्थानक्षेत्रतः संख्येयभाग-मात्राधिकक्षेत्रस्यैवाऽवगाहनाच्च । केवलिसमुद्घातेन तु एकेनाऽपि जीवनोत्कृष्टतः परिपूर्णो लोकः पूर्यते, तथा चाऽकषायजीवोपेतमनुष्यगत्योघादिद्विचत्वारिंशत्मार्गणाभेदमध्ये मनोयोगपञ्चकादिषु केवलिसमुद्घातगतजीवप्रवेशाभावेन मारणसमुद्घाताद्याक्षिप्तं सत् समुद्घातक्षेत्रं लोकाऽसंख्येयभागमात्र-मभिहितम्, मनुष्यगत्योघपर्याप्तमनुष्य-मानुषी-पञ्चेन्द्रियौघ-पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय-त्रसकायौघ-पर्याप्तत्रसकाय-काययोगौघ-कार्मणकाययोगा-ऽपगतवेदा-ऽकषाय- केवलज्ञानसंयमौघ-यथाख्यातसंयम-केवलदर्शन-शुक्ललेश्या-भव्य-सम्यक्त्वौघक्षायिकसम्यक्त्वा-ऽनाहारकलक्षणेषु 'ऽण्णत्थ' इत्यनेन संगृहीतेषु विंशतिसंख्याकेषु मार्गणाभेदेषु तु प्रत्येकं लभ्यते केवलिसमुद्घातगतजीवप्रवेशात्तदाक्षिप्तं प्रस्तुतं समुद्घातकृतक्षेत्रं परिपूर्णो लोक इति तथा भणितमिति । ___ यद्यपीह कार्मणकाययोगवदौदारिकौदारिकमिश्र-काययोगयोः केवलिसमुद्घातगतजीवानां लाभस्तथाप्यष्टसामयिकस्य केवलिसमुद्घातस्य ४१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थसमये एव केवलिसमुद्घातगतजीवात्मप्रदेशानां लोकव्याप्तेस्तृतीयचतुर्थ-पञ्चमसमयेषु कार्मणकाययोगस्यैव प्रवर्तनाच्च न भवत्यौदारिकतन्मिश्रयोगयो: केवलिसमुद्घातापेक्षयाऽपि सर्वलोकक्षेत्रम्, किन्तु यथोक्तंलोकासंख्येयभागमात्रमेव तत्सम्पद्यते । तथाहि-आयुष्कस्थितितोऽधकस्थितिकानां वेदनीयाद्यघातिप्रकृतीनां क्षपणहेतोः केवली भगवान् समुद्घातं करोति, स च समुद्घातोऽष्टसामयिकः, तस्मिन् केवलिसमुद्घाते प्रथमसमये बाहल्यतः स्वशरीरप्रमाणमूर्ध्वाऽधश्चतुर्दशरज्जूछ्रितं स्वात्मप्रदेशदण्डं कुर्वन् लोकासंख्येयभागे तिष्ठति, द्वितीयसमये तस्मादेवात्मप्रदेशदण्डात् बहूनात्मप्रदेशान् पूर्व-पश्चिमदिशोरुत्तर-दक्षिणदिशोर्वा पार्श्वद्वये लोकान्तं यावत् प्रसारयन्नूर्वाधश्चतुर्दशरज्जूच्छितदिग्द्वयलोकान्तगामिकपाटा-कारेणव्यवस्थापयन् लोकासंख्येयभागे व्याप्तो भवति, लोकाऽसंख्येयबहुभागेषु तु न । तृतीयसमये तु तस्मादेव यथोक्तमानात्कपाटात् शेषदिग्द्वये लोकान्तं यावदात्मप्रदेशान् विस्तारयन् लोकप्रान्तवर्तिनिष्कुटादिलक्षणस्तोकमात्रक्षेत्रं विहायाऽशेषप्रायलोकं व्याप्नोति, अयं हि मथिकरणकालः प्रतरकरणकालो वा भण्यते । चतुर्थसमये तु शेषभागमपि पूरयित्वा पञ्चमादिचतुःसमयेषु प्रातिलोम्येन यथासंख्यं लोक-मथि-कपाट दण्डान् संहरन्नष्टमे समये शरीरस्थो लभ्यते, तत्र मथ्यादि संहरता षष्ठ-सप्तमा-ऽष्टमसयवर्तिना तेन लोकासंख्येयभागः व्याप्यते । तथा चोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्तौ श्रीमदभयदेवसूरिपादै: 'असखेज्जइभागे होज्ज' त्ति शरीरस्थो दण्ड-कपाटकरणकाले च लोकासंख्येयभागवृत्तिः, केवलिशरीरादीनां तावन्मात्रत्वात् 'असंखेज्जेसु भागेसु होज्ज' त्ति मथिकरणकाले बहोर्लोकस्य व्याप्तत्वेन स्तोकस्य Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाव्याप्ततयोक्तत्वाल्लोकस्यासंख्येयेषु भागेषु स्नातको वर्त्तते, लोकाऽऽपूरणे च सर्वलोके वर्तते" इति । तत्र च दण्डकरणलक्षणे प्रथमे समये दण्डसंहरणलक्षणेऽष्टमे समये च तस्यौदारिक एव योगः, द्वितीय - षष्ठ- सप्तमसमयेषु औदारिकमिश्रो योगः, तृतीय- चतुर्थ - पञ्चमसमयत्रये तु कार्मणो योग: प्रवर्तते तस्य । तदुक्तं प्रशमरतिप्रकरणे उमास्वातिचरणैः "औदारिकप्रयोक्ता प्रथमा - ऽष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तम - षष्ठ - द्वितीयेषु ॥१॥ कार्मणशरीरयोगश्चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥२॥इति | तदेवमौदारिक- तन्मिश्रकाययोगयोः केवलिसमुद्घातगतजीवलाभेऽपि प्रस्तुतक्षेत्रं लोकासंख्येयभागमात्रं प्रदर्शितमिति । "ण हवइ" इत्यादि, अकषायजीवानधिकृत्य भण्यमानं क्षेत्रम् “उत्पादाद्” उत्पादापेक्षया कुत्राऽपि मार्गणाभेदे न भवति, भवप्रथम - समयवर्तिनां जीवानामकषायत्वाभावदिति भावः । क्षेत्रप्ररूपणमुपसंहरति-" गंयं खित्त "मिति क्षेत्रप्ररूपणं समाप्तमित्यर्थः ॥१०-११-१२॥ तदेवं भणितं नरकगत्योघादिष्वधिकृतमार्गणाभेदेषु सकषायजीवानधिकृत्याऽकषायजीवानधिकृत्य चोपपात - स्वस्थान- समुद्घातभेदभिन्नं त्रिविधं क्षेत्रम् । एतर्हि यथोक्तलक्षणां नानाजीवाश्रितां स्पर्शनां निजिगदिषुः क्षेत्रवदुपपातादिभेदात्स्पर्शनाप्रभेदान् प्रदर्शयन् प्राग्वदादौ सकषायजीवानधिकृत्य तामाह ४३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह फुसणा अवि तिवा, तुरियावि गमागमेण देवाणं । सट्टाणा सव्वत्थवि, खित्तसमाणा हवइ सा उ ॥१३॥ "अह" इत्यादि, अथाऽऽनन्तर्ये, क्षेत्रप्ररूपणा-ऽनन्तरं स्पर्शनाप्ररूपणप्रस्ताव इति तदर्थः । “फुसणा अवि तिविहा" त्ति क्षेत्रवत् स्पर्शनाऽपि उपपात-स्वस्थानसमुद्घातभेदात् त्रिविधा भवति, "तुरिया-ऽवि" त्ति न केवलं क्षेत्रवत् त्रिधा, किन्तर्हि ? 'तुरिया'चतुर्थी अपि भवति, कथं केषामित्याह-"गमागमेण देवाणं" ति, केषाञ्चिद्भवन-पत्याद्यच्युतकल्पान्तानां देवानां जिनजन्मादिमह-क्रीडाकुतूहल-पूर्वसांगतिकमीलनादिप्रयोजनेन गमनागमनादुत्कर्षतोऽधस्तृतीयभूमिमूर्ध्वमच्युतकल्पं तिर्यक् स्वयम्भूरमणसमुद्रवेदिकान्तं यावद् यथा-सम्भवमिति । तत्र 'सट्ठाणा' त्ति नरकगत्योघादिषु सर्वत्र मार्गणास्थानेषु सा स्पर्शना 'स्वस्थानात्' स्वस्थानापेक्षया क्षेत्रसमाना'स्वस्थानक्षेत्रेण यथोक्तमानेन समाना भवति । अत्र स्वस्थानस्पर्शनायाः स्वस्थानक्षेत्रेण तुल्यत्वं लोक-लोकासंख्येय-भागादिना प्रकारेण, न पुनः सर्वथा तुल्याकाशप्रदेशादिना । कथम् ? यत्र स्वस्थानतो लोकासंख्येयभागमानं क्षेत्रं तत्र स्वस्थानस्पर्शनाया लोकासंख्येभागमात्रत्वेऽपि ? क्षेत्रस्य सामयिकत्वेन स्पर्शनायान्तु व्यतीतानन्तसामयिकत्वेन कुत्रचित् पञ्चेन्द्रियतिर्यगोघादौ तयोर्मध्येऽसंख्यगुणादितारतम्यस्यापि भावात्, क्षेत्रापेक्षया स्पर्शनाऽसंख्येय-गुणादिनाऽधिका भवतीत्यर्थः । एवमेवान्यत्राऽपि लोकासंख्येयभागादिना क्षेत्रस्पर्शनयोस्तुल्यत्वेऽपि क्षेत्रात्स्पर्शनाया विशेषता ज्ञातव्या । इति ॥१३॥ ४४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमभिहिता तुल्यवक्तयत्वादतिदेशेनैव सर्वमार्गणाभेदेषु जीवानां स्वस्थानस्पर्शना । साम्प्रतं शेषत्रिविधां यथासम्भवमाहरिये सत्तमणिरये, भागा छ दुहा गमागमा णत्थि । भागा इह पत्तेयं, तसनाडिगयघणरज्जुरुवा ॥१४॥ " णिरये" इत्यादि, नरकगत्यो सप्तमभूमि- नरकभेदे च " भागा छ दुहा" त्ति 'गमागमा णत्थि ' इत्यनेनाऽनुपदं गमनागमनकृतस्पर्शनायाः प्रतिषेत्स्य मानत्वात् स्वस्थानस्पर्शनाया अनन्तरमेवातिदिष्टत्वाच्च 'द्विधा'- उपपातसमुद्घातलक्षणप्रकारद्वयापन्ना स्पर्शना षड् भागा भवतीत्यर्थः । “गमागमा णत्थि " त्ति देवानामिहाप्रवेशेन स्वस्थानक्षेत्राद्विशिष्टा काचिद्गमनागमनकृता स्पर्शना नास्ति, न पुनः सर्वथा नास्तीत्यर्थः । इत्थमेवोत्तरत्रापि गमनागमनकृतस्पर्शनाप्रतिषेधे सा स्वस्थानाद्विशिष्टा नास्तीत्येवंरूपेण प्रतिषेधो ज्ञेयः, न पुन: सर्वथेति । ननु कियन्माना इमे प्रत्येकं भागा इत्याह- " "भागा" इत्यादि, इह स्पर्शनाप्रस्तावे ऽनन्तरोक्ता वक्ष्यमाणाश्च भागाः प्रत्येकमेक-रज्जुवृत्तविस्तृत - चतुर्दशरज्जुच्छ्रितत्रसनाडिगतघनरज्जुरूपा ज्ञातव्याः । प्रत्येकं भागस्त्रसनाड्या एकचतुर्दशांशमानो भवतीति भावः । तथा च नरकौघसप्तमपृथिवीनरकभेदयोरुपपाततः समुद्घाततश्च षट् चतुर्दशांशास्त्रसनाडे: स्पर्शना । तथाहि - * ' अर्धतृतीयद्विपसमुद्रान्तर्वर्तिनि आकाशे सर्वव्याप्त्या सिद्धा' इत्यादि- वचनात् पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनवृत्तविस्तृतमनुष्यक्षेत्रे * सिद्धप्राभृतविंशतितमगाथावृत्तौ । ४५ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकमप्याकाशप्रदेशमविहाय सर्वतो यथाऽन-न्ताः सिद्धिमवाप्नुवन्नतीताऽनन्तकाले तथा ततः सर्वतोऽनन्ता मृत्युमवाप्य गत्यन्तरमपि प्राप्ता एव, अतीतकालस्यानन्तत्वेन योग्यतासद्भावे प्रत्येकं भावानामतीतकालेऽनन्तशो भूतत्वात्, अस्ति हि मनुष्यक्षेत्रगतप्रत्येकाकाशप्रदेशा मनुष्याणां मृत्यधिकरणयोग्याः । यथा हि मनुष्याणां परिपूर्ण मनुष्यक्षेत्रं मृत्यधिकरणयोग्यम्, इत्वा च ततः सर्वस्मादनन्ता मनुष्या मृति गत्यन्तरमवाप्तास्तथा परिपूर्णस्य तिर्यक्क्षेत्रस्य तिरश्चां मृत्यधिकरणयोग्यत्वेन तदेकरज्जुवृत्तविस्तृतात्परिपूर्ण-तिर्यक्षेत्रात् मृत्युमवाप्याऽनन्तास्तिर्यञ्चोऽतीतकाले स्व-प्रायोग्यगत्यन्तरे-ऽवश्यमिताः, तन्मध्येऽनन्ताः सप्तमभूमौ नारकतयाप्युत्पन्नाः सर्वस्मात् तिर्यगेकरज्जुवृत्तविस्तृतात् तिर्यक्षेत्रात् । तत्रोदितनरकायुषा-मुर्ध्वाधः षड्रज्जूच्छ्रिताः परिपूर्णतिर्यक्प्रतरप्रारब्धा ये अनन्ता आत्मदण्डा-स्तैस्तिर्यगेकरज्जुवृत्तविस्तृतमूर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकात् सप्तमभूमिपर्यन्तं षड्-रज्जुमानं घनं वसनाड्यन्तर्गतं सघनषड्रज्ज्वात्मकं क्षेत्रमापूरितं, नानाऽतीतकालापेक्षया स्पृष्टमेवेत्यर्थः । तदेवोपपातमधिकृत्य सप्तम-नरकमार्गणाभेदे तदेव च नरकगत्योघे त्रसनाडे: षट्चतुर्दशभागात्मिका मूलोक्तस्पर्शना विज्ञेया । यद्यपीह स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य बहिर्जगतेः परभागवर्तिनि घनवातवलयादिप्रान्तभागलक्षणे क्षेत्रे पञ्चेन्द्रियतिरश्चाम-सम्भवेन ततः क्षेत्रात् नारकतया न लभ्यते केषां-चितिरश्चामुत्पत्ति, तत एव तत्तिर्यग्लोकप्रान्तभागस्पृक्तदात्मप्रदेशदण्डानामप्यप्राप्तेन लभ्यते तावत्क्षेत्रस्पर्शनाऽपि, तथा च नान्यूनषड्रज्जुस्पर्शना, किन्तु देशोनषड्रज्जव एव तथापि एकदेशन्यूनतामविवक्ष्य सामान्येनैव परिपूर्णाः षड्रज्जवो-ऽभिहिता । एवमेवान्यत्राऽपि सामान्यत एकद्वयादिरज्जु-स्पर्शनाऽभिधानेऽपि यथासम्भवमेकदेशादिना न्यूनाऽधिका वा सा स्वयमेवावसातव्येति । ४६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथैवोत्पादात् तथैव समुद्घातादपि, केवलं तिर्यक्तयोत्पित्सुभिर्मुमूर्षुभिः सप्तमभूमिनारकैः सप्तमनरकात् मारणसमुद्घातेन प्रथमतस्तिर्यक् तत ऊर्ध्वमित्येवम-ऋजुनिक्षिप्त-स्वात्मप्रदेशदण्डैः स्पृष्टं क्षेत्रमतीतानन्तकालापेक्षया यथोक्तं घनरज्जुषट्कमानं भवतीति । अत्र यद्यप्युक्तान्यनारकादितयो-त्पित्सुजीवकृतस्पर्शना भवत्येव, नवरं सा गौणी, उक्तस्पर्शनाऽन्तःप्रविष्टत्वादिति न योजिता, न पुनः सा सर्वथा न भवति, न वा नाधिकृतेति विज्ञेयम् । अनेनैव प्रकारेण वक्ष्यमाणैकादिभागस्पर्शना वसनाडिगतघनरज्जु-रूपेणोपपादनीयेति ॥१४॥ ... पढमणरय-णवगेविज्ज- . ___पंचणुत्तरविमाणभेएसुं। ण हवेइ, गमागमओ, . दुविहा पुण जगअसंखंसो ॥१५॥ "पढमे"त्यादि, प्रथमपृथ्वीनरकभेदे, नवसु ग्रैवेयकदेवमार्गणास्थानेषु पञ्चसु अनुत्तरदेवभेदेषु चेत्येवं सर्वसंख्यया षोडशमार्गणास्थानेषु गमना-गमनकृतस्पर्शना न भवति । "दुविहा" त्ति उपपात-समुद्घातभेदभिन्ना शेषद्विविधस्पर्शना तु लोकाऽसंख्येयभागमात्रा भवति । तत्र प्रथमनरके उत्पत्स्यमानानां तिरश्चामतीताऽनन्तकालापेक्षया समग्रतिर्यक् प्रतरव्यापित्वेऽपि तिर्यग्लोकप्रथमनरकयोरन्तरालस्य रज्ज्वसंख्येयभागमात्रतया तिर्यगेकरज्जु-प्रमाणसमस्त-प्रतरस्पृष्टानामप्यात्मप्रदेशदण्डानामूर्ध्वाधो रज्ज्वसंख्येयभागमात्रोच्छ्रितत्वेन द्विविधस्पर्शनाया अपि लोकासंख्येय-भागमात्रत्वमेव भवति । एवमेव शेषप्रैवेयकादिभेदेष्वपि तत्रोप्तित्सूनां मनुष्यतया मनुष्यक्षेत्रादेव तत्रोत्पत्तेः, तेषां च तिर्यक् प्रतरासंख्येयभाग-मात्रगतस्वस्थानानां ग्रैवेयकदेवानामप्यनन्तरभवे मनुष्यतयैवोत्पत्तेरूर्वाधः षड्रज्जूच्छ्रिताऽऽत्मदण्डानां भावेऽपि ४७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यक्षेत्रस्य तेषां देवानां स्वस्थानक्षेत्रस्य च तिर्यक्प्रतराऽसंख्येयभागमात्रगतत्वेन यथोक्तानामूर्ध्वाध: षड्रज्जुमानात्मदण्डानां तिर्यग्रज्ज्वसंख्येयभागमात्रबाहल्यभावादुपपात-समुद्घातकृता द्विविधाऽपि स्पर्शना लोकाऽसंख्येयभाग-मात्रा एव भवतीति । इदमत्र हृदयम्-विवक्षितमुमूर्षुजीवानां यत्रावस्थानं सम्भवति तत्क्षेत्रं यत्र च ते उत्पत्स्यन्ते तत्क्षेत्रमित्येवं द्विविधमपि क्षेत्रं प्रत्येकं यत्र तिर्यक्प्रतरासंख्येयभागमात्रवर्ति भवति तत्र तयोरूर्वाधोऽन्तरालस्य रज्जु-द्विरज्ज्वादि-प्रमाणत्वेऽपि तज्जीवकृतात्मप्रदेशदण्डानां तिर्यक्-प्रतराऽसंख्येयभागमात्रगतत्वेन स्पर्शनाऽपि लोका-ऽसंख्येयभागमात्रा भवति, उक्तक्षेत्रद्वयमध्यादेकविधक्षेत्रस्याऽपि तिर्यक्प्रतरव्यापित्वे तु स्पर्शना सान्तरालोर्ध्वाधःक्षेत्रमानानुसारेणैकव्यादिघनरज्जुमाना लभ्यते, ऊर्ध्वाधोवर्युक्तद्विविधक्षेत्रान्तरालस्य रज्ज्वसंख्येयभागमात्रत्वे तु तस्य द्विविधक्षेत्रस्य परिपूर्णतिर्यक्प्रतरव्यापित्वेऽपि न भवति लोकासंख्येयभागादधिका स्पर्शनेति सर्वत्र यथासम्भवमभ्यूह्येति ॥१५॥ एमेवाऽऽहारदुगे, __अवेअ-मणणाण-संजमोहेसुं । परिहार-छेअ-समइअ सुहुमेसु परं ण उप्पाया ॥१६॥ "एमेवाहारदुगे' इत्यादि, "एवमेव'-यावती प्रथमनरकादिमार्गणाभेदपञ्चदशकेऽनुपदमभिहिता तावती एवा-ऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रकाययोगा-ऽपगतवेद-मनःपर्यवज्ञान-संयमौघ-सामायिकछेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धिक-सूक्ष्मसम्परायसंयमलक्षणेषु नवमार्गणाभेदेषु ४८ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति; 'परम्'- केवलमिह मार्गणाभेदनवके उत्पादात् स्पर्शना नास्ति, आहारकत्वादिभावानामष्टवर्षातिक्रान्ताऽऽयुष्कजीवानामेव सम्भवेन भवाद्यसमयवर्तिनां तत्राऽनिवेशात्, तदेवमिह स्वस्थानतः समुद्घाततश्चेत्येवं द्विविधा स्पर्शना लोकासंख्येयभागमात्रा प्राप्यत इति ॥ १६ ॥ दुइआइणिरयपणगे, कमा इग-दु-ति-च-पंच भागात्थि । दुविहा ण गमागमओ, "दुइआइ " इत्यादि, द्वितीयादिषु पञ्चसु नरकपृथ्वीमार्गणास्थानेषु क्रमात् त्रसनाडे: एक-द्वि-त्रि- चतुः - पञ्चभागाः स्पर्शना भवति, कथम्भूते - त्याह- 'दुविहा' त्ति उत्पादतः समुद्घातत - श्चेत्यर्थः । 'ण' त्ति गमनागमनतस्तु प्रागिव न भवत्येव, काचित्स्वस्थानापेक्षया विशिष्टेत्यर्थः । तत्रैकादिभागमाना द्विविधस्पर्शना सप्तमनरकपृथिव्यां दर्शितषड्रज्जु-स्पर्शनावद्विभावनीया, तिर्यग्लोकाद् द्वितीयादिपृथिवीनारकस्थानानामेकादिरज्ज्वन्तरेण व्यवस्थितत्वात् । तदुक्तं लोकप्रकाशे“सर्वाधस्तनलोकादारभ्योपरिगं तलम् । यावत्सप्तममेदिन्या एका रज्जुरियं भवेत् ॥९॥ प्रत्येकमेवं सप्तानां भुवामुपरिवर्तिषु । तलेषु रज्जुरेकैका स्युरेवं सप्त रज्जवः ||१०||" इति । समस्तात् तिर्यग्लोकात् तत्र द्वितीयादिपृथिवीषु नारकतया, ततश्च द्वितीयादिनरकपृथिवीतस्तिर्यक्त्वेन समस्ततिर्यग्लोके उत्पत्तेरविरोधा दिति । ४९ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वतिरि-र-इग- विगलेसुं ॥१७॥ पणकायसव्वभेया पज्जपणिदितस-कम्मु- रलमीसे । णपुम-अमण - Sणाहारे गमागमा ण दुविहा लोगो ॥१८॥ " सव्व" इत्यादि, सर्वेषु पञ्चसंख्याकेषु तिर्यग्गतिभेदेषु सर्वेषु चतुःसंख्याकेषु मनुष्यगतिभेदेषु सर्व्वेषु सप्तसंख्याकेषु एकेन्द्रियभेदेषु, सर्वेषु नवसंख्याकेषु विकलेन्द्रियभेदेषु, तथा पृथिव्यादि - पञ्चकायसंबन्धिषु सर्वसंख्ययैकोनचत्वारिंशद्-भेदेषु, अपर्याप्तपञ्चेन्द्रिये, अपर्याप्तत्रसे, कार्मणकाययोगे, औदारिकमिश्रकाययोगे, नपुंसकवेदाऽसंज्ञ्य-ऽनाहारकेष्वित्येवं सर्वसंख्यया एकसप्ततिमार्गणास्थानेषु गमागमात् स्पर्शना न भवति, करणतः पर्याप्तानां देवानामप्रवेशेन स्वस्थानस्पर्शनातो नातिरिच्यत इति भावः । "दुविहा लोगो" त्ति शेषा उत्पादसमुद्घातभेदभिन्ना द्विविधा परिपूर्णलोकमाना भवति, प्रत्येकमार्गणागतजीवानां ततश्च्युत्वा सर्वलोकव्यापिसूक्ष्मैकेन्द्रियतया सूक्ष्माणां तत्तन्मार्गणासु मनुष्यादितया उत्पत्तेर्विहितत्वाच्चेति ॥१८॥ एमेव दुहाऽहंसा, गमागमेण य पणिदियतसेसुं । सिं पज्जेसु तहा पणमणवय - कायोहजोगेसुं ॥ १९ ॥ ओराल -थी-पुमेसुं, कसायचउगे य तिविहअण्णाणे । ५० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयते णयणा-ऽणयणे, कुलेस-भव्वि-यर-मिच्छेसुं ॥२०॥ सण्णिम्मि य आहारे, हवेइ फुसणा परं ण उप्पाया । पणमणवयजोगेसुं, गमागमा वि ण उरालेऽत्थि ॥२१॥ "एमेव दुहा" इत्यादि, द्विविधा उत्पाद-समुद्घातभेदभिन्ना 'एवमेव'-यथाऽनुपदमुक्ता तथैव सर्वलोकप्रमाणैव स्पर्शना भवति, "अहँसा गमागमेण य" त्ति त्रसनाडेरष्टचतुर्दशभागलक्षणा अष्टौ घनरज्जवो गमनागमनेन च स्पर्शना भवति, कुत्र ? इत्याह-'पणिदिय' इत्यादि, पञ्चेन्द्रियौघ-त्रस-कायौघयोः, तयोः पर्याप्तभेदयोस्तथा पञ्चमनोयोग-पञ्चवचोयोग-काययोगौघेषु, औदारिककाययोग-स्त्रीवेदपुरुषवेदेषु, कषायचतुष्के, त्रिविधेऽज्ञाने, असंयमे, चक्षु-रचक्षुर्दर्शनयोः, कृष्णादिकुलेश्यात्रय-भव्य-तदितराऽभव्य-मिथ्यात्वेषु, संज्ञिमार्गणास्थाने आहारकर्मार्गणास्थाने च "हवेइ फुसणा" त्ति स्पर्शना भवतीति प्राग्योजितम् । अत्रैवापवदति-"ण" इत्यादि, पञ्चसु मनोयोगेषु पञ्चसु वचोयोगेषु चोत्पादतः स्पर्शना न भवति, केषाञ्चिदपि जीवानां भवप्रथमसमये मनोवचोयोगयोरप्रवर्तनात् । तथा "गमागमावि ण उरालेऽत्थि" त्ति अपिशब्दस्य समुच्चायकतया गमागमाद् उत्पादाच्चेत्येवं द्विविधाऽपि स्पर्शना औदारिककाययोगे न भवति । तथा च मनोवचोयोगभेदेषु गमनागमनतोऽष्टरज्जुस्पर्शना समुद्घाततश्च सर्वलोकस्पर्शना भवति, तत्राष्टौ रज्जवो देवकृताऽधस्तृतीयनरकावधिकोपरि अच्युतकल्पपर्यवसाना इति कृत्वा । सर्वलोकस्तु प्रागिव मनोवचोयोगिनां Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्मनुष्याणां मृत्वा सर्वत्रोत्पत्तेः सम्भवात् । औदारिककाययोगे तु केवला समुद्घातप्रयुक्ता सर्वलोकस्पर्शनाऽनन्तरोक्तनीत्या विज्ञेया, शेषासु पञ्चेन्द्रियौघादिषु पञ्चविंशतिमार्गणासु द्विविधा तु मनोयोगादिवदेव, तृतीयोत्पादतस्तु तिर्यग्गत्योघादिभेदवत्सर्वलोकवर्तिसूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां पञ्चेन्द्रियतयोत्पत्तेर्ज्ञातव्येति ॥ १९-२० - २१॥ देवेऽ पण नव कमा, गमागमु-प्यायओ समुग्धाया । "देवेऽट्ठ" इत्यादि, देवगत्योघे त्रसनाडिसम्बन्धिनो यथोक्तस्वरूपा घना अष्टौ पञ्च नव च भागाः 'क्रमाद्' - यथासंख्यं गमनागमनाद् उत्पादतः समुद्घाताच्च स्पर्शना भवति । तत्राष्टौ रज्जवो देवानामधोलोके तृतीयपृथिवीं यावद् रज्जुद्वयमुपरि चाच्युतकल्पं यावद् रज्जुषट्कं गमनात् । उत्पादतः पञ्च रज्जवस्तु एकरज्जुवृत्तविस्तृतात् तिर्यग्लोकात् तिर्यगायुःक्षयेण सहस्रारकल्पे देवतयोत्पद्यमानजीवा पेक्षया प्राग् यथा षष्ठपृथिवीनरकभेदे उत्पादतो दर्शिता तथा ज्ञेया । समुद्घातकृता नव रज्जव: स्पर्शना पुन-विहारवत्क्षेत्रतयां तृतीय- नरकस्पृशितिर्यक्प्रतरेषु सर्वत्र गतानामनन्तरभवे ईषत्प्राग्भारापृथिव्यां पृथिवीकायत्वेनोत्पित्सूनामनन्तमतीतकाल -मधिकृत्यानन्तानां भवनपत्यादीशानान्तदेवानां तत्रैव प्राप्तमुमुर्षुभावानां मारणसमुद्घातेनोत्पत्तिस्थलावधिक-प्रसृतात्मप्रदेशदण्डानपेक्ष्य विज्ञेया, सा च रज्जुद्वयमधोलोकसंबधिनी रज्जुसप्तकं तूर्ध्वलोकसम्बन्धिनी । इह मध्यवर्तित्वात्तिर्यग्लोकस्य स्पर्शनाप्यस्ति एव, परंसाऽप्रधाना प्रोक्ताधोलोकोर्ध्वलोकसंबन्धि - द्विविधस्पर्शनयैव गतार्था विज्ञेया । एवमन्यत्राऽपि रज्जु - द्विरज्ज्वादि- स्पर्शनायामेकदेशस्य ग्रहणाग्रहणे गौणभाव एव विज्ञातव्यः, यत्र केवललोकाऽसंख्येयभागमात्रा स्पर्शना तत्रैव तस्य मुख्यवृत्त्याऽधिकृत-त्वादिति ॥ ५२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमेव भवण-वंतर जोइसदेवेसु णवरं खु ॥२२॥ लोगस्स असंखंसो, उप्पाया "एमेव भवणे"त्यादि, यथाऽनन्तरं देवौघे उक्तातथैव भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्कदेवभेदेषु स्पर्शना भवति, 'णवरं'केवलमुत्पादात् लोकाऽसंख्येय-भागमात्रा भवति, न पुनर्देवौघवत् पञ्च भागाः । कथम् ? तत्र तिर्यग्लोकात्पञ्चरज्ज्वन्तरेणोत्पद्यमानानां सहस्रारदेवानां प्रवेशादिह तु तिर्यग्लोकाददूरेण शत-सहस्रादिसंख्येययोजनमात्रान्तरेणोत्पद्यमानानां भवनपत्यादिदेवानामेव प्रवेशादिति । शेषद्विविधा तु तत्राऽपि भवनपत्यादिदेवाक्षिप्तेतीहापि संघटत इति ॥ एवमेव तेऊए । सोहम्मीसाणेसु य . परमुष्पायेण सड्ढसो ॥२३॥ "एवमेव" इत्यादि, भवनपत्यादिदेवभेदवदेव तेजोलेश्यायां सौधर्मेशानदेवभेदयोश्च, 'परं' केवलमुत्पादेन "सड्ढसो" त्तिं वसनाडे: सार्धाघनरज्जुर्भवति, तिर्यग्लोकात् सार्धरज्जवन्तरेण सौधर्मेशानकल्पयोर्व्यवस्थानात् । तदुक्तं जीवसमासे "ईसाणम्मि दिवड्ढा अड्ढाइज्जा य रज्जू माहिती। पंचर सहस्सारे छ अच्चुए सत्त लोगंते ॥१९१॥" इति Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना यथा पध-अनुत्तर i. नववेयक " ts TE to भ. -तिर्यग्लोकः AYE स-नाडी ५४ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चित्रपरिचयः-लोकाऽधस्तादारभ्य (१) (२) (३) इत्यादिनाऽङ्कितेषु स्थानेष्वेकादिरज्जूनां समाप्तिज़ैया, शेषम्-अधोलोके नरकभूम्यादौ नारक-भवनपति - व्यन्तर-पृथिवीकायादीनां स्थानानि, तिर्यग्लोके मनुष्य-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्-विकलेन्द्रियादिस्थानानि, ऊर्ध्वलोके यथोत्तरं द्वादश-कल्पोपपन्न-नवग्रैवेयक-पञ्चानुत्तरे-षत्प्राग्भारापृथिव्यादिस्थानानीत्यादि सुज्ञेयमिति ।) शेषद्विविधा तु भवनपत्यादिवत्सौधर्मादि-देवानामप्येकेन्द्रियतयेषत्प्राग्भारापृथिव्यामुत्पत्तेरुपर्यच्युतकल्पान्त-मधस्तृतीयपृथिवीं यावच्च पूर्वसांगतिकानयनादिहेतुकगमनागमनसम्भवाद् विज्ञेया ॥२३॥ तइआईसु दु-इग-इग इग-इगकप्पेसु होइ सा कमसो । सड्ढदु-सड्ढति-चउ-स ___ ड्ढचउ-पणंसाऽट्ठ छसु वि दुहा ॥२४॥ "तइआईसु" इत्यादि, तृतीये सनत्कुमारकल्पे चतुर्थे माहेन्द्रकल्प इति द्वयोः सा उत्पादापेक्षा स्पर्शना 'सड्ढदु'त्ति सार्धद्विभागौ, पञ्चमे ब्रह्मकल्पे सा 'सड्ढति' त्ति सार्धत्र्यंशाः, षष्ठे लान्तककल्पे सा 'चउ' त्ति चतुरंशाः, सप्तमे शुक्रकल्पे सा “सड्ढचउ" त्ति सार्धचतुरंशाः, अष्टमे सहस्रारकल्पे सा 'पणंसा' त्ति पञ्चांशा भवति, युक्तिस्त्वत्र तत्तत्कल्पानां तिर्यग्लोकात् सार्धव्यादिरज्ज्वन्तरेण व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च प्राग् 'ईसाणम्मि दिवड्ढा' इत्यादि, अन्यदपीदम्-'सोहमम्मि दिवड्ढा अड्ढाइज्जा य रज्जु माहिदे । पंचेव सहस्सारे छ अच्चुए सत्त लोगते' ॥इति। ५५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ट्ठ" त्ति अष्टौ अंशा:- त्रसनाड्यन्तः प्रविष्टघन-रज्जव: "छसु वि दुहा" त्ति सनत्कुमारादिषु सहस्रारान्तेषु षट्ष्वपि कल्पेषु शेषा समुद्घात - गमना - गमनभेदभिन्ना द्विधा स्पर्शना भवति । तत्र गमनागमनकृता देवौघादिवदेव, समुद्घातकृता पुनर-मीषां देवानामेकेन्द्रियतयाऽनुत्पत्तेरच्युतकल्पस्योपरितनी नवमरज्जुविषयिणी या एकेन्द्रियतयोत्पद्यमानानां भवनपत्यादीनां प्राप्यते सेह न लभ्यते, तथा च शेषा तृतीयपृथिवीगतैस्तत्रैव मुमुर्षुभावं प्राप्य समुद्घातेन कृता तिर्यग्लोकपर्यन्ता रज्जुद्वय-माना तथाऽच्युतकल्पं प्राप्तैस्तत्रैव मुमुर्षुभावं प्राप्य समुद्घातेन कृता तिर्यग्लोकपर्यन्ता षड्ज्जुमाना समस्ता सती अष्टौ रज्जव इति ॥२४॥ चउआणय-सुक्कासुं, उप्पाया जगअसंखभागो उ । छंसाऽत्थि सेसदुविहा, "चउआणये "त्यादि, आनत - प्राणता - ऽऽरणा - ऽच्युतकल्परूपेषु चतुर्ष्वनतादिदेवभेदेषु शुक्ललेश्यायां चोत्पादाज्जगत:- लोकस्याऽसंख्यांश: स्पर्शना भवति । “छंसाऽत्थि " ति शेषा समुद्घात - गमनागमनभेदभिन्ना द्विविधा स्पर्शना तु सनाडे: षट्चतुर्दशांशा भवति । तत्र लोकासंख्यभाग आनतादिदेवतयोत्पित्सूनां मनुष्याणां यत्स्वस्थानक्षेत्रं यच्चानतादिदेवानां स्वस्थानक्षेत्रं तयोर्द्वयोस्तिर्यग्लोकोर्ध्वलोकस्थितयोरन्तरालस्य सार्धपञ्चादिरज्जु - प्रमाणत्वेऽपि तयोर्द्वयोरपि तिर्यक्प्रतराऽसंख्येय-भागमात्रावगाहनात्प्रागुक्तनीत्या ज्ञेया । शेष- द्विविधा तु सनत्कुमारादिदेवानामष्टरज्जुस्पर्शनावत्, केवलममीषामानतादिदेवानां शर्कराप्रभादिनरकपृथिवीषु गमनागमनं नास्तीति अधोलोकसम्बन्धिर - ज्जुद्वयेन न्यूनेति ५६ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडभिहितेति ॥ विउव्वजोगे ण उप्पाया ॥२५॥ भागा गमागमाओ, अट्ठ समुग्घायओ हवइ तेर । "विउव्वे"त्यादि, वैक्रियकाययोगे जीवानामुत्पादकृतस्पर्शना न भवतीत्यर्थः । गमनागमनकृता तु भवनपत्यादिदेवानामिवाष्टौ 'भागाः' रज्जवः सघना-स्त्रसनाड्यन्तःप्रविष्टाः । समुद्घाततः पुनस्तादृशास्त्रयोदशांशाः स्पर्शना भवति । कथं त्रयोदश? सप्त भागा ईषत्प्राग्भारापृथिव्यामुत्पित्सुभिर्भवनपत्यादिदेवैः कृतोर्ध्वलोक-सम्बन्धिनी षड् भागास्तु तिर्यक्तयोत्पित्सुसप्तमभूमिनारककृता, यद्वा प्रकारान्तरेण सैव भवनपत्यादिदेवकृतोद्मलोकसम्बन्धिनी चतस्त्रो रज्जव: स्पर्शना नारककृतैवेति समस्ता त्रयोदश । सप्तमभूभागादधस्तनी लोकान्त-पर्यन्ता एकरज्जुमाना तु न सम्भवत्येव, अधोलोके पृथिव्यादितया भवनपत्यादिदेवानामनुत्पत्तेरिति ॥ मीसविउव्वे ण दुहा, . सट्ठाणा जगअसंखंसो ॥२६॥ "मीसविउव्वे ण दुहा" त्ति वैक्रियमिश्रकाय-योगे उपपातसमुद्घातकृता द्विविधा स्पर्शना न भवति, अपर्याप्तावस्थनारकदेवानामुत्पत्तिस्थानशय्यातोऽन्यत्र गमनाभावाद् मरणस्येव मारणसमुद्घातस्याप्य-सम्भवाच्च । “सट्ठाणा" त्ति स्वस्थानात्तु 'जगतः' लोकस्याऽसंख्यांशः स्पर्शना भवति, कुतः ? अधिकृतानां भवप्रत्ययवैक्रियमिश्रशरीरिदेवानामपर्याप्तावस्थतया उत्पादशय्यागतत्वादेव, उत्पादशय्याश्च तेषां लोकाऽसंख्येयभागगता इति तु सुगममिति ॥२६॥ ५७ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मइसुयणाण-अवहिदुग सम्म-पउम-वेयगेसु उप्पाया । पण भागा दुविहा पुण, भागा अद्वैव विण्णेया ॥२७॥ "मइ” इत्यादि, मतिज्ञान-श्रूतज्ञानाऽवधिद्विक-सम्यक्त्वौघक्षायोपशमिकसम्यक्त्व-पद्मलेश्यालक्षणेषु सप्तमार्गणाभेदेषूत्पादात् वसनाड्याः पञ्चचतुर्दशभागाः स्पर्शना भवति, समस्ततिर्यक्प्रतरव्यापिनां सम्यग्दृष्टितिरश्चामुत्कृष्टतोऽष्टमकल्प एवोत्पादात् अष्टमकल्पस्य तिर्यग्लोकात्पञ्चरज्ज्वन्तरेण व्यवस्थितेः प्राग्दर्शितत्वाच्च । “दुविहा पुण" त्ति समुद्घात-गमनागमनकृता शेषद्विविध-स्पर्शना पुनः सनत्कुमारादिदेववत् त्रसनाड्या अष्टौ भागा विज्ञेयेति ॥२७॥ एमेव खइय-उवसम मीसेसुं णवरि जगअसंखंसो । उप्पाया दुसु मीसे ___ण समुग्घाया वि णेव भवे ॥२८॥ "एमेव खइय" इत्यादि, ‘एवमेव' मतिज्ञानादिमार्गणास्थानवदेव क्षायिकसम्यक्त्वौ-पशमिकसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वेषुस्पर्शना भवति, "णवरि" केवलं "दुसु"त्ति क्षायिकौपशमिक-सम्यक्त्वयोर्द्वयोर्मार्गणयोरुत्पादकृतस्पर्शना जगदसंख्येयभागमात्रा भवति, सा च क्षायिकसम्यक्त्वे मनुष्यलोकवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियुग्मि-तिर्यगपेक्षया मनुष्यापेक्षया वा स्यात् । एवमेवौपशमिकसम्यक्त्वेऽपि विभावनीया, श्रेणौ भवान्तप्राप्तानामेव देवभवप्रथमसमये औपशमिक-सम्यक्त्वसम्भवात्, नान्येषामिति । शेषसमुद्घातगमनागमन-कृताष्टभागस्पर्शना तु प्रागिव ५८ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञेया । अन्यदपवादपदमाह - "मीसे ण" त्ति सम्यग्मिथ्यात्वे उत्पादात्स्पर्शना न भवति, न केवलमुत्पादात् किन्तर्हि ? " समुग्धाया वि णेव भवे" त्ति समुद्घातादपि नैव भवति स्पर्शना । कथम् ? मिश्रदृष्टिभावे जन्माभाववद् मरणाभावेन मारण - समुद्घातस्याऽभावादिति ॥२८॥ देसे उ समुग्धाया, पणेव भागेयरा ण सासाणे । कमसोऽट्ठि- गार बारस गमागमुप्पायओ संमुग्घाया ॥२९॥ " देसे" इत्यादि, देशसंयमे समुद्घातात् पञ्चैव भागास्त्रसनाड्यः स्पर्शना भवति, देशविरततिर्यग्जीवापेक्षया तल्लाभात् । " इयरा ण" त्ति देशसंयमे प्रोक्तेतरोत्पाद - गमनागमनकृता द्विविधा स्पर्शना न भवति । “सासाणे" त्ति सासादनमार्गणास्थाने क्रमशः " अट्ठ" इत्यादि, गमनागमनादष्टौ भागाः, उपपातत एकादश भागाः, समुद्घाताच्च द्वादश भागास्त्रसनाडेर्घनरज्जुरूपाः स्पर्शना भवति । तत्राष्टौ प्रागिव देवकृता, एकादश तु षष्ठनिरयतस्तिर्यक्तयोत्पद्यमाननारककृताऽधोलोकसम्बन्धिनी पञ्च रज्जव ऊर्ध्वलोकसम्बन्धिनी च शेषा तिर्यक्तयोत्पद्यमानाऽच्युतकल्पगतसहस्रारान्तदेवकृतेति । समुद्घातकृता द्वादश भागास्तु अनन्तरोक्तनीत्या तिर्यक्तयोत्पित्सुषष्ठनारककृता पञ्च भागा ईषत्प्राग्भारापृथिव्यामेकेन्द्रियतयोत्पित्सुभिर्भवनपत्यादिदेवैः कृता सप्तभागा चेति कृत्वेति ॥ २९ ॥ अथ वैमानिकदेवादिजीवानां स्थानादिविषयकमतभेदकृतामपि त्रिविधस्पर्शनां संजिघृक्षुरेकामा-र्यामाह ५९ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहम्मआइग-जुगल धम्मिय-ठाणाइवयणभेआओ । सयमेवोण्णेया खलु । तिहावि फुसणा इयरहा उ ॥३०॥ "सोहम्मआइगे" त्यादि, आदिपदादीशान-सनत्कुमारकल्पादीनां ग्रहणम्, "ठाणाइ" इत्यतः स्थानपदमिहापि सम्बध्यते, तथा च सौधर्मकल्पादिस्थान-युगलम्मिकस्थानानि, "ठाणाइ" इत्यत्राऽऽदिपदात्सौधर्मप्रतरेषु देवानां जघन्यस्थितिरित्येतत्प्रतिपादकानि यानि वचनानि तेषां 'भेदतः" विषयभेदात्, विषयभेदं समाश्रित्येत्यर्थः । "इयरहा उ" त्ति 'इतरथा'-उक्तेतरप्रकारेण तु स्वयमेव 'उन्नेया' अभ्यूह्या उत्पादादिभेदभिन्ना त्रिविधस्पर्शना । अयम्भावः-अनन्तरं 'सोहमम्मि दिवड्ढा' 'सव्वत्थ जहण्णओ पलिय'मित्यादिकं संदर्भमनुसृत्य देवगत्योघादिमार्गणास्थानेषु "देवेऽ?पण-नवे"त्यादिना गमनागमनादिकृता स्पर्शनाऽष्टरज्ज्वादिमात्रा-ऽभिहिता, यानि पुनः ‘रयणप्पभाए उवरिमतलाओ आरद्धं जाव सोहम्मो एस पढमो भागो, सोहम्मगाणं विमाणाणं उवरिं आरद्धं जाव सणंकुमारमाहिंदा एस बिइओ' इत्यादीनि तिर्यग्लोकाद्रज्जु-द्विर-ज्ज्वाद्यन्तरेण सौधर्मादिकल्पविमानस्थानानां प्रतिपादनपराणि आवश्यकचूादिवचनानि, यानि च 'ऊर्ध्वलोक एकोनविंशतिखण्डी-कृतस्ततस्तस्य संबन्धिन्येकोनविंशभागे समधिके उड्डविमानं वर्तते तिर्यग्लोकात्' इति तिर्यग्लोकाद्रज्जुसंख्येयभागमात्रान्तरेण सौधर्मकल्पप्रारम्भप्रतिपादनपराणि, तथा 'जघन्या त्वधस्तनानन्तरप्रस्तटगतोत्कृष्टा स्थितिः सर्वत्र वाच्या' इति सौधर्मादिकल्पद्वयेऽनन्तराधस्तनप्रस्तटोत्कृष्ट-स्थितिप्रमाणा हि ६० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदुपरितनप्रतरजघन्या स्थितिः, न पुनः सर्वेषु प्रतरेषु जघन्या समेति प्रतिपादन-पराणि देवेन्द्रनरकेन्द्रस्तव-प्रकरणविवृतिवचांसि, तथा "बाह्येषु'-मनुष्यक्षेत्राबहिर्ये वर्तन्ते द्विपाः समुद्राश्च तेषु तिर्यग्योनिजा असंख्येयवर्षायुषो भवन्ति' इति मनुष्यक्षेत्राबहिरपि असंख्येयवर्षायुषां युग्मि-तिरश्चां सद्भावं संगिरन्ति तत्त्वार्थाधिगमसूत्रवृत्तिवचनानि तान्यधिकृत्योक्तान्यथा लभ्यमाना उत्पादादिभेदभिन्ना स्पर्शना स्वयमेवाम्भूह्या । तद्यथा-उक्तावश्यकचूर्यादिवचनतस्तिर्यग्लोकात्पञ्चरज्ज्वन्तरेणा-ऽच्युतकल्पः, तथा च प्राग् यत्र गमनागमनत ऊर्ध्वलोकसम्बन्धिषड्रज्जुस्पर्शना कथिता तत्र साऽऽवश्यकचूादिवचनानुसारेण पञ्चरज्जुमाना द्रष्टव्या, अधोलोकसम्बन्धिनी तु प्रागिव रज्जुद्वयमेवेत्येवं चूर्णादिवचनेन देवगत्योघ-भवनपति-व्यन्तरज्योतिष्कादिदेवभेदेषु पञ्चेन्द्रियौघादिमार्गणासु च यत्र गमनागमनतोऽष्टरज्जुस्पर्शना भणिता, तत्र सा सप्त रज्जवो भवति । अनेन वचनेन सौधर्मादिकल्पा एकादिरज्जवाधः स्थिताः, तथा च तेषूत्पादकृतस्पर्शना पूर्वोक्तस्पर्शनापेक्षया यथासम्भवमर्धरज्ज्वा रज्ज्वा न्यूना द्रष्टव्या । तद्यथा-सौधर्मेशानकल्पयोरेका रज्जुः, सनत्कुमार-माहेन्द्रयो रज्जुद्वयम्, ब्रह्मकल्पे सार्धरज्जुद्वयम्, लान्तककल्पे रज्जुत्रयम्, शुक्रकल्पे सार्धरज्जुत्रयम्, सहस्रारकल्पदेवौघयो रज्जुचतुष्टयम्, तेजोलेश्यायामेका रज्जुः, मति-श्रुतज्ञाना-ऽवधिद्विक-पद्मलेश्या-सम्यक्त्वौघ-क्षायोपशमिक सम्यक्त्वेषु चतस्रो रज्जवः । इत्थमेवान्यत्राप्यभ्यूह्या । इत्थमेव तत्त्वार्थवृत्त्यादिवचनान्तराण्यधिकृत्याऽपि प्रोक्तविलक्षणा स्पर्शना स्वयमेवोद्भावनीया, अस्माभिस्तु एकत्र मार्गणास्थाने दिगिति कृत्वा नानाविकल्पापन्ना संक्षेपतः प्रदर्श्यते, नान्यत्र, तद्यथा-क्षायिकसम्यक्त्व Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थाने यत्र पूर्वमुत्पादतो लोकासंख्यभागमात्रा, गमागमनतः समुद्घाततश्चाष्टौ रज्जवः स्पर्शना दर्शिता, तत्र आवश्यकचूादिवचनाधिकारे गमनागमनतः समुद्घाततश्च सप्त रज्जवः स्यात्, उत्पादतस्तु लोकाऽसंख्येयभागमात्रैव, आवश्यकचूण्यादिवचनादूर्ध्वलोकप्रथमरज्जौ सौधर्मादिकल्पाधिकरणे तत्त्वार्थाधिगमसूत्रान्मनुष्यक्षेत्राद्वहिरपि असंख्येयवर्षायुषां तिरश्चां सद्भावाधिकारे चोत्पादतो न लोकासंख्येयभागमात्रा, अपि तु एकरज्जुमाना स्यात्, मनुष्यलोकबहिस्तादपि क्षायिकसम्यग्दृशां प्रथमकल्पचरमप्रतरं यावदुत्पादस्य लाभात्, यदि चाऽत्रैव 'जघन्या त्वधस्तनानन्तरप्रस्तटगतोत्कृष्टा' इत्यादि-देवेन्द्रनरकेन्द्रस्तववृत्तिवचनात्सौधर्मप्रथमप्रस्तट एव देवानां जघन्या स्थितिरधिक्रियेत, न पुनः 'सव्वत्थ जहन्नओ पलिय' मित्यादि, ‘एवम् 'ऊर्ध्वलोक एकोनविंशतिखण्डीकृतस्ततस्तस्य सम्बन्धिन्येकोनविंशभागे समधिके उडुविमानं वर्तते तिर्यग्लोकात्' इति चाधिक्रियेत तदा क्षायिकसम्यग्दर्शनमार्गणायामुपपातकृता स्पर्शना रज्जुसंख्येयभागमात्रा सम्पद्येत, द्विधा तु पूर्ववदेवेति दिग् । इति ॥३०॥ . ____ अथ सकषायजीवकृतां स्पर्शनामुपसंहरन्नकषायजीवकृतां च तामतिदिशन्नाह इइ सकसाये जीवे, ___ पडुच्च फुसणाऽकसायजीवेऽत्थि । खित्तव्व समुग्घाया, सट्ठाणाऽवि ण हवइ इयरा ॥३१॥ "इइ", इत्यादि, 'इति'-एवमुक्तप्रकारेण सकषायजीवान् प्रतीत्य बाद ६२ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शनाऽस्ति, न पुनरकषाय-जीवानधिकृत्यापीत्यर्थः । तर्हि अकषायजीवानधिकृत्य सा कियती भवेदित्याह-"उकसायजीवे" इत्यादि, ‘पडुच्च फुसणा' इतीहापि सम्बध्यते, तथा चाकषायजीवान् प्रतीत्य स्पर्शना "खित्तव्व" त्ति क्षेत्रवद्भवति, यथा 'अकसाये अहिकिच्च उ ते जत्थऽत्थि तहि सव्वत्थ ॥१०॥ लोगस्स असखंसो सट्टाणाओ' इत्यादिना सार्धगाथाद्वयेनाऽक-षायजीवानां स्वस्थानतः समुद्घाततश्च लोकाऽ-संख्येयभागादिमानं क्षेत्रं भणितम्, अन्यत्तु निषिद्धम्, तथाऽकषायान् जीवानधिकृत्य स्वस्थानतः समुद्वाततश्च लोकासंख्येयभागादिमाना क्षेत्रतुल्या स्पर्शना वक्तव्या, अन्यथा उपपातादितस्तु प्रतिषेध्येत्यर्थः । एतदेव स्पष्टयन्नाह-"समुग्घाया" इत्यादि, गतार्थम् । - इह यद्यपि मनोयोगादिमार्गणास्वकषायजीवानां समुद्घातकृतक्षेत्रापेक्षया समुद्घातकृतस्पर्शना संख्येयगुणा भवति, तथाऽपि सा लोकासंख्येयभागमात्रा एव, परिपूर्णमनुष्यलोकादनुत्तरविमानेषु निक्षिप्तात्मदण्डानामपि लोकासंख्येयभागमात्राव-गाहनात्, तथा च निरपवादातिदेशोऽविरुद्ध एव, क्षेत्र-स्पर्शनानानात्वेऽपि 'लोकासंख्येयभाग' इत्येवंरूपाया वक्तव्यताया उभयत्र तुल्यत्वादिति । शेषं तु सुगममिति ॥३१॥ अथोपसंहरन्नाहइइ रइयं सिद्धंतमहोदहि-सुण्णायकम्मसत्थाणं । तवगच्छखे रवीणं रज्जे सिरिपेमसूरीणं ॥३२॥ ताण पसीसाण पउमविजयगणिंदाण सीसलेसेण । खित्त फुसणापगरणं नन्दउ जा वीरजिणतित्थं ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 'इइ रइय" मित्यादि, अस्य चान्वय उत्तरगाथोत्तरार्धे 'खित्तफुसणापगरणं' इत्यादिना, तथा च "इति" - तदेवं चतुःसप्तत्युत्तरशतमार्गणास्थानेषु नानाजीवाश्रयक्षेत्र - स्पर्शनाकथनद्वारेण श्रीमतः सकलागमरहस्यवेदिनः परमज्योतिर्विदः स्वगुरो-विजयदानसूरिप्रभोः सकाशात् समवाप्त- 'सिद्धान्त - महोदधी' त्युपाधीमतां 'सुण्णायकम्मसत्थाणं' ति सुष्ठु - पूर्वापरसमालोचना -ऽऽगुणन-परप्रपाठनादिना प्रकारेण ज्ञातानि=अवगतान्यर्थतः कर्मशास्त्राणि - कर्मप्रकृति - शतकपञ्चसंग्रहप्रभृतीनि यैस्ते सुज्ञातकर्मशास्त्रास्तेषां सुज्ञातकर्मशास्त्राणां 'तवगच्छखे रवीणं' ति तपोगच्छः प्रतीतः स एव खम् अम्बरमिवाऽम्बरम्, भवति हि तपोगच्छ: खोपमः, तत्र सूर्य-चन्द्र-ग्रह-नक्षत्रादिकल्पानां ज्ञानादिद्युत्या स्वं परं चाज्ञानतमोभरे बम्भ्रम्यमाणं भव्यगणं प्रकाशयतां नैकानामाचार्योपाध्याय- वृषभ - गणावच्छेदकप्रमुखाणां सततं स्वचर्यां चरतामुपलम्भात् । तस्मिन् तपोगच्छखेरवयः- भास्करा:, तेषाम् एवम्भूतानां 'रज्जे सिरिपेमसूरीणं' ति श्रीमतां प्रेमसूरीणां 'राज्ये' साम्राज्ये - शासने प्रवर्तमाने 'ताण' त्ति तेषां पूज्यपादानां "पसीसाण" त्ति प्रशिष्याणां - शिष्यशिष्याणाम्, तत्र प्रेमसूरीश्वरपूज्यपादानां स्वशिष्याः सुविख्यातनामधेयाः स्वात्मसाधनाऽविकलभव्यजन्तुहितकरानेकविधकुशलानुष्ठानपरायणा विपुलविनेयगणपरिवृता न्यायशास्त्रनिपुणाः पन्यास - श्रीमद्भानुविजयगणीन्द्राः, तच्छिष्यास्तु स्वभावसरलाः प्रशान्तप्रकृतयः सौम्यवदनाः समाकृष्टान्तेवासिचित्तचकोराः श्रीमन्तः पंन्यासाः पद्मविजयगणीन्द्राः । एतदेवाह - 'पउमविजय' इत्यादि, तेषां पद्मविजयगणीन्द्राणां 'सीसलेसेण' त्ति समयोक्तशिष्यगुणानां यथावदभाजनतया नामशिष्यप्रायेण जगच्चन्द्र- विजयेन मुनिना रचितमिदं ६४ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र-स्पशनाप्रकरणं यावच्छीवीरस्वामिनस्तीर्थं तावन्नन्दतु, भव्यजननयन-वदन-मानसादीन्यनवद्यान्याधाराण्यवाप्येति शेषः ॥३२-३३।। वीराब्दे हयनारदनदीशनयनाङ्किते । प्रणीतं प्रेमसूरीश-गच्छेशकृपया त्विदम् ॥१॥ संशोधितं तु तैः पूज्यैः, पूज्यैः प्रज्ञावरैस्तथा । जयघोषमुनिप्रष्ठै-धर्मानन्दादिसाधुभिः ॥२॥ आदौ मध्येऽन्त्ये वा, कुत्राप्यत्र सविवेचने ग्रन्थे यज्जिनवचनातीतं किमपि स्याद्भवतु तन्मिथ्या ॥३॥ ॥ इति स्वोपज्ञटीकाविभूषितं क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणं समाप्तम् ॥ ॥ शुभं भूयात्सर्वेषाम् ॥ ६५ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रस्पर्शनाप्रकरणम् (मूलगाथा:) नमिउं अरिहंताई सगुरुपसाया सुयाणुसारेणं । बेमि गइआइगेसुं जीवाणं खित्त-फुसणाऊ ॥१॥ गइ - इंदिए य काये, जोए वे कसाय - नाणे यं । संजम - दंसण-लेसा, भव- सम्म सन्नि - आहारे ॥२॥ सगचते-गुणवीस-दु चत्ता - ऽद्वार - चउ-पंच- अट्ठट्ठा । चउ-छ-दु-सत्त- दुग-दुगं, चउसयरिसयं कमा णेया ॥३॥ संपइकाले खेत्तं, फुसणा पुर्ण होड़ अइगये काले । खेत्तं तिहोववाय-स ठाण - समुग्धायभेयाओ ॥४॥ तिरिये एगिंदिय-भू दग - अगणि-पवण- णिगोअओहेसुं । तेसिं सुहुमोहेसुं तेसिं च अपज्ज -पज्जेसुं ॥५॥ ६६ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणओह-कायजोगो रालिय तम्मीस-कम्मजोगेसुं । कीवे कसायचउगे दुअणाणा-यत- अणयणे ॥६॥ अपसत्यलेस- भवि-यरमिच्छत्तेसु अमणम्मि आहारे । हवइ तह अणाहारे खित्तं तिविहंपि सव्वजगं ॥७॥ दुविहं इगिदियतिगे, थूले पवणे अपज्जपवणे य । साणा हीणजगं, तिहावि पज्जत्तवाउम्मि ॥८॥ लोओ बायर-भूदग़ ल - पत्तेयतरुगेसु सिमपज्जेसुं । थूले य णिगोअतिगे दुहा सठाणा भवे जगअसंखंसो ॥९॥ तिविहंपि य सेसेसु सकसायजीवे पडुच्च इइ भणियं । अकसाये अहिकिच्च उ, ते जत्थऽत्थि तहि सव्वत्थ ॥१०॥ लोगस्स असंखंसो, सझणाओ तहा समुग्धाया । पणमणवयुरालियदुग णाणचउग- दंसणतिगेसुं ॥ ११ ॥ ६७ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसम-सण्णीसु तहा, __ आहारेऽणत्थ होइ पुण्णजगं । ण हवइ उप्पाया खलु, . खित्तं कत्थवि गयं खित्तं ॥१२॥ अह फुसणा अवि तिविहा, तुरियावि गमागमेण देवाणं । सट्ठाणा सव्वत्थवि, खित्तसमाणा हवइ सा उ ॥१३॥ णिरये सत्तमणिरये, ... भागा छ दुहा गमागमा णत्थि । भागा इह पत्तेयं, तसनाडिगयघणरज्जुरुवा ॥१४॥ पढमणरय-णवगेविज्ज- पंचणुत्तरविमाणभेएसं। ण हवेइ गमागमओ, ___ दुविहा पुण जगअसंखंसो ॥१५॥ एमेवाऽऽहारदुगे, अवेअ मणणाण-संजमोहेसुं । परिहार-छेअ-समइअ सुहमेसु परंण उप्पाया ॥१६॥ दुइआइणिरयपणगे, कमा इग-दु-ति-चउ-पंच भागात्थि । दुविहा ण गमागमओ, सव्वतिरि-णर-इग-विगलेसुं ॥१७॥ ६८ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणकायसव्वभेया ऽपज्जपणिदितस-कम्मु-रलमीसे । । णपुम- अमण - ऽणाहारे गमागमा ण दुविहा लोगो ॥१८॥ एमेव दुहाऽहंसा, गमागमेण य पणिदियतसेसुं । सिं पज्जेसु तहा पणमणवय - कायोहजोगेसुं ॥१९॥ . ओराल-थी-पुमेसुं, कसायचउगे य तिविहअण्णाणे । अयते यणा - Sणयणे, कुलेस - भव्वि-यर मिच्छेतुं ॥२०॥ सण्णिम्मि य आहारे, हवेइ फुसणा परं ण उपाया । पणमणवयजोगेसुं, गमागमा वि ण उरालेऽत्थि ॥२१॥ देवेऽट्ठ पण नव कमा, गमागमुप्पायओ समुग्धाया । एमेव भवण-वंतर जोइसदेवेसु णवरं खु ॥२२॥ लोगस्स असंखंसो, उप्पाया एवमेव तेऊए । सोहम्मीसाणेसु य पस्मुप्पायेण संसो ॥२३॥ ६९ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइआईसु दु-इग-इग इग- इगकप्पेसु होइ सा कम । सड्ढदु- सड्ढति - चउ-स ड्ढचउ-पणंसाऽट्ठ छ्सु वि दुहा ॥२४॥ चउआणय-सुक्कासुं, उप्पाया जगअसंखभागो उ । छंसाऽत्थि सेसदुविहा, विउव्वजोगे ण उप्पाया ॥२५॥ भागा गमागमाओ, अट्ठ समुग्धायओ हवइ तेर । मीसविउव्वे ण दुहा, साणा जगअसंखंसो ॥ २६ ॥ मइसुयणाण-अवहिदुग सम्म - पउम - वेयगेसु उप्पाया । पण भागा दुविहा पुण, भागा अद्वेव विणणेया ॥२७॥ एमेव खइय-उवसम मीसेसुं णवरि जगअसंखंसो । उप्पाया दुसुमसे ण समुग्धाया वि णेव भवे ॥२८॥ देसे उ समुग्धाया, पणेव भागेयरा ण ससाणे । कमसोऽट्ठि - गार बारस गमागमुप्पायओ समुग्धायाः ॥ २९॥ ७० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहम्मआइग-जुगल__ धम्मिय-ठाणाइवयणभेआओ। सयमेवोण्णेया खलु तिहावि फुसणा इयरहा उ ॥३०॥ इइ सकसाये जीवे, पडुच्च फुसणाऽकसायजीवेऽत्थि । खित्तव्व समुग्घाया, . सट्ठाणाऽवि ण हवइ इयरा ॥३१॥ इइ रइयं सिद्धंतमहोदहि-सुण्णायकम्मसत्थाणं । तवगच्छखे रवीणं रज्जे सिरिपेमसूरीणं ॥३२॥ ताण पसीसाण पउमविजयगणिंदाण सीसलेसेण । खित्त-फुसणापगरणं नन्दउ जा वीरजिणतित्थं ॥ ७१ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જન્મ દીક્ષા : વિ.સં. ૧૯૪૦ ફાગણ સુદ : વિ.સં. ૧૯૫૭ કારતક વદ આચાર્યપદ : વિ.સં. ૧૯૯૧ ચૈત્ર સુદ સ્વર્ગવાસ : વિ.સં. ૨૦૨૪ વૈશાખ વદ વિશેષતા : વિશાલ ગચ્છસર્જન, કર્મસાહિત્ય નિર્માણ, ૫.પૂ. આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય દાનસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન ૫.પૂ. આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મ.સા.નો સંક્ષિપ્ત પરિચય જન્મ દીક્ષા તપસ્વિ-સંયમી-પ્રવચનકાર, પ્રભાવક પૂજ્યોની ગાંગોત્રી.. 事 ટૂંક પરિચય પ.પૂ. આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય ભુવનભાનુસૂરિ મ.સા.ના લઘુ બાંધવ, પ્રથમ શિષ્યરત્ન ૫.પૂ. પંન્યાસ પ્રવર શ્રી પદ્મવિજયજી મ.સા.નો : વિ.સં. ૧૯૬૯ : વિ.સં. ૧૯૯૧ અષાઢ સુદ પોષ સુદ ગણિપદ : વિ.સં. ૨૦૧૨ પંન્યાસપદ : વિ.સં. ૨૦૧૫ સ્વર્ગવાસ : વિ.સં. ૨૦૧૭ વિશેષતા : સહિષ્ણુતા, સમાધિપ્રદાન, - ફાગણ સુદ વૈશાખ સુદ શ્રાવણ વદ ७२ - - ૧૫ નાંદિયા ૬ પાલીતાણા ૧૪ રાધનપુર ૧૧ ખંભાત - - ૯ અમદાવાદ ૧૨ ચાણસ્મા ૧૧ પૂના ૬. સુરેન્દ્રનગર ૧૧ પિંડવાડા સાધુઓના સંયમનું ઘડતર, શુદ્ધિપ્રેરક... Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुगुण अमृतवेली रास तथा गुरु गुण सौरभ • रचयिता • पू.मुनि श्रीजगच्चंद्र विजयजी म. (प.पू.आ.भ.श्रीमद्विजय जगच्चंद्रसूरीश्वर महाराजाः) ७३ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नमः आसन्नोपकारि श्री वर्धमानस्वामिने नमः । सकलागमरहस्यवेदि परमज्योतिर्विद् गीत्तार्थमूर्धन्य स्वर्गत परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजय दानसूरीश्वरजी महाराजाना परमपट्टप्रभावक स्पृहणीयचारित्रधन सुबहु श्रमणगणशिल्पी विपुलकर्मसाहित्यनिर्माणैकसूत्रधार सुविशालगच्छाधिपति स्वर्गत पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजाना परमप्रेरक गुणमयजीवनना संक्षिप्तवर्णनरूप गुरु-गुण- अमृतवेली याने विजय प्रेमसूरीश्वरजी रास (दुहा) श्रीमति भगवति ! शारदे ! याचुं वयण विकाश । गुण गावा गुरुरायना, जेणे दीध प्रकाश ॥१॥ "प्रेम" नाम जस शुभ हतुं, प्रवचन प्रेम अमान । प्रेमपूर जस पामतां, भव्य जगत दुःख हान ॥२॥ जस प्रेमे जग पामिया, रत्नत्रयी अभिराम । तस विरहो थातां जगे, दुःख प्रसर्यु अविराम ॥३॥ जस सूरत पण अम हती, संयम प्रेरण दाय । जीवन अगणित गुण भर्यु, अमथी केम गवाय ॥४॥ पण आधार अब ओ विना, अमने दीसे न कोय । तब गुणगण तस उर धरी, गुण लहीशुं अमे सोय ॥५॥ ७४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] (राग-धन धन ते दिन क्यारे आवशे, जपशुं जिनवरनाम) पुण्य क्षेत्र बहु भरत भूमि आ, जिहां थया जिनवर देव । आज तिहां भारत दीसे भलुं, जिहां मळे शासन सेव ॥१॥ जिनपडिमा जिनआगम केरां, जिहां दीसे बहु ठाम । मरुस्थल नाम मधुरुं लोके, राजस्थान शुभ धाम ॥२॥ प्रसिद्धनाम अर्बुदगिरि जिहां, रमणीयतर अति शोभे । जग विख्यात जिनेश्वर चैत्यो, जोतां भवि मन लोभे ॥३॥. . तस परिकरश्यां तीरथ तिहां, पंच पंच नहीं छोटां । . नांदिया दियाणा प्रमुखने, राणकपुरादि म्होटां ॥४॥ संवत ओगणीसें चालीस वर्षे, सुदी फागण पुनमना । कंकुंबाईनी कुखे जनम्या, प्रगट्यां पूर हरखनां ॥५॥ . तात श्राद्ध भगवानजी म्होटा, न्यायादि गुण भरिया । . बात सुणी तस हैये उमटया, हर्षामृतना दरिया ॥६॥ प्रेमचन्द शुभ नामज कीg, प्रेमपात्र थया सहुना । , चन्द्र-आल्हादक मुख-कान्तिथी, मन जीत्यां तें बहुनां ॥७॥ निज मोसाळे जन्म पामी तें, नांदिया कीध पवित्त । वतनथी पूत कीधुं पिंडवाड़ा, तें तो जगतना मित्त ॥८॥ मात तात निज कुल उजाल्यां, प्रसरी आनंद वात ।। बहु दीठा जगमां कुलनंदन, तुज थी अनेरी भात ॥९॥ भड वैरागी बालपणाथी, जिनवाणी चित्तवास । सद्गुरुना सत्संगने पामी, जाण्या मोहना पाश ॥१०॥ ७५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित नित तस चिंतनने करतां, संयमनो रंग वाध्यो । कुटुंबीओनां विघन जाणीने, 'बीजो मारग साध्यो ॥ ११ ॥ एक दिन अढार गाउ चालीने, बाष्पयान आरोही । पहोंची शीघ्र सुगुरुना चरणे, नमी पड्यो निर्मोही; तुंतो नमी पड्यो निर्मोही ॥ १२ ॥ देव गुरु जिनशासन छोडी, नवि लागे कई प्यारुं । 'संयम संयम' मन तुज झंखे, लागे जगत अकारुं; तुजने लागे जगत अकारुं ॥१३॥ मन खोलीने वात बधी तें, कीधी गुरुनी पास । संवत ओगणीसो सत्तावननो, आव्यो कार्तिक मास ॥१४॥ सत्तरवर्षनी वये पराक्रम, कीधुं अगम अमान । मात तात जग मोह विछोडी, भाव्या गुरुवर दान ॥१५॥ · वदी छठ दिन पुण्य मुहूर्ते, छोडी सवि संसार । संयम सिद्धगिरि सांनिध्ये, लीधुं न कीधी वार ॥१६॥ प्रेमविजय शुभ नाम धरीने भव्य जगत सुख कीध । संयमप्रेम सहित जगतने, दिधुं मुनिपद हित ॥१७॥ [२] (राग - चन्द्रप्रभ जिन चंद्रमा रे उदयो सहज सनुर...) गुरुजी ! तुज प्रणमे सुख थाय, हुं गाउं गुण समुदाय, सूरिजी ! तुज प्रणमे सुख थाय... १ अपवादमार्ग । २ ट्रेईन । ७६ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रयी तुज निर्मल अतिशय, श्रद्धा अपरंपार । रोमरोमजिनशासन वास्युं, क्षणक्षण तास विचार...गुरुजी ! ॥१॥ "अहो ! अहो ! आ शुं मुज मलीयु, अद्भुत अतिशय जहाज । भव सायर उतरवा भवीने, कीधुं श्री जिनवर राज"...गुरुजी ! ॥२॥ ज्ञान दीप हृद्गेहे प्रगट्यो, प्रसों तत्त्वप्रकाश । स्याद्वाद-सिद्धान्त रहस्ये, थयो बहु गुण विकाश...गुरुजी ! ॥३॥ अंग उपांग छेदादिक सूत्रो, जैनागम-विस्तार । भणी भणावी पाम्या तेहनो, भाव विशुद्ध प्रकार...गुरुजी ! ॥४॥ परोपकार निज चित वसावी, करता आतम काम । गुरुए दीधुं श्री 'सिद्धांत-महोदधि-पद ताम...... गुरुजी ! ॥५॥ कर्मग्रन्थ ने कर्मप्रकृति, · शतकादिक जे शास्त्र । सूक्ष्म बुद्धि विण नवि समजाये, अर्थ जेनो तिल मात्र...गुरुजी ॥६॥ तेह तणा रसिया तुमे भारी, श्रम तेहमां बहु कीध ।। एक चित्त थई हार्दने पाम्या, जाणे अमृत पीध...गुरुजी ॥७॥ कर्मशास्त्र-निष्णात थया तुमे, वो जग जशवाद । शिष्यादिक पण बहु शिखवीया, दूर करीय प्रमाद...गुरुजी ॥८॥ कर्मतत्त्वनां शास्त्र रच्यां तुमे, आगमने अनुसार । संक्रमकरण ने कर्मसिद्धि वळी, मार्गणाद्वार उदार...गुरुजी ! ॥९॥ कर्या मनोरथ ग्रंथ रचाववा, शिष्यादिकनी पास । करी प्रयत्न देई प्रेरणा, रचाविया पण खास...गुरुजी ॥१०॥ खवगसेढि ने बंधविहाणं, श्रुतसागरनां मोती । लाखो श्लोक विवेचन जेनु, प्रसरी जग जस ज्योति...गुरुजी ॥११॥ ७७ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत समृद्ध थयुं अति भारी, शासन संशोधन तेहनुं करी आपे, ज्ञानभक्ति बहु दर्शन ज्ञान प्रकाशे कीधुं, संयम दर्शन ज्ञान प्रकाशे जगतनां कर्म कठिन शोभा वाधी । साधी... गुरुजी ॥१२॥ ७८ शुद्ध उदार । विदार... गुरुजी ॥ १३॥ [ ३ ] (राग - विनति मारी सुणजो साहिबा ! सीमंधर जिनराज,) अमे अज्ञानी तुमे बहु ज्ञानी, प्रेमसूरि गुरुराज । गुणगणमां तुज लुब्ध बनीने गाईए, गुण समाज..... अमे० ॥१॥ क्षण क्षण स्वाध्याय ध्याने रमता, इन्द्रियगणने दमता । संयमशुद्ध- नगरना वासी, विषयवने नवि भमता......अमे० ॥२॥ स्पर्शादिक जे रूडा रूपाळा, जग पागल जेणे कीधुं । अवगणना तेहनी करी आपे, संयम साध्यं सूधुं...... अमे० ॥३॥ वस्त्र पात्र आहार ने उपधी, निरखता संयमहेतु । संयम साधन भले विरूप होय, मनडुं तिहां तुज ठरतुं ... अमे० ॥४॥ मिष्टअन्न मेवाने फलादि, प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग्यां साठ वरसनां व्हाणां वायां पण, औषध बहाने न चाख्यां... अमे० ॥५॥ समिति गुप्ति पण सुंदर साधी, गमनादिक करंतां । जिनवयण निज चित्त वसावी, जीव रक्षा बहु करता... अमे० ॥६॥ आश्रित मुनिगणकेरुं संयम, निर्मलतर जिम थाय । सारण वारण ने पडिचोयण, करता कोटी उपाय.... अमे० ॥७॥ पंचाचार पालन तुज चरणे, शुद्ध स्वरूपे दीठं । दर्शन ज्ञान आचार देखतां थयुं अम मनडुं मीठं...... अमे० ॥८॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाळ भणंता वार्या केईने, काळ भणंता कीधा । विनयादिक कीधां कारवीयां, ज्ञानाचार दृढ दीधा.....अमे० ॥९॥ गाम नगर विहार कीधा जिहां, तीरथ वळी जे फरस्यां । जिनपडिमा निरखी निरखीने, हइडां तारां हरख्या......अमे० ॥१०॥ नित्य चैत्य ते गाम तीरथनां, स्मरण करीने जुहारे । भावदर्शन तुं भव्य करीने, समकितने अजवाळे.....अमे० ॥११॥ उपबृंहण गुणिजननुं करीने, तस गुणवृद्धि करे तुं । भावचलित मुनिजनने चित्ते, स्थिर भाव भरे तुं....अमे० ॥१२॥ तपाचार बहु भेद भरेलो, जिनवयणे तें साध्यो । एकासन तप नित्य करंतां, तास स्नेह मन वाध्यो....अमे० ॥१३॥ पचास वर्ष तो अविरत कीधां, स्वास्थ्यनी थई जब हानि । परिचारकना निषेध पर पण, झंखना न रही छानी...अमे० ॥१४॥ द्रव्यसंकोच हतो तुज भारी, कदीक द्रव्यद्वयीनो । मासना मास कीधो तें नियम, इन्द्रियरागे जयीनो...अमें० ॥१५॥ अभ्यंतर तप पण तुज म्होटो, वर्णवीयो नवि जाय । स्वाध्यायादिक नित्य करंतां, मनडुं तुज हरखाय...अमे० ॥१६॥ ओघनियुक्ति ने कम्मपयडिना, पाठ. अखंड करंता । पोषमासनी लांबी रातो पण, क्षणनी जेम वहंता...अमे० ॥१७॥ वीर्याचार अबाधित गुरु. ! तुज, प्रमत्तता नवि दीसे । : विधिशुद्ध अनुष्ठान करंतां, हइडं, ताइरुं हीसे...अमे० ॥१८॥ मूलोत्तर गुणना हे ! साधक, संयमशुद्धिप्रधान । जीवन दर्शन करी तुज पाये, जगत नमे तजी मान...अमे० ॥१९॥ ७९ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] (राग-शान्ति जिनेश्वर साचो साहिब, शान्तिकरण......) प्रेमसूरीश्वर ! गुणना आकर ! गुण देई अम दुःख मीटावो । धीर पुरुष तें सहन कर्यु जे, तेह तणी अम रीति बतावो...प्रेम० ॥१॥ . परिसह तो तें वेठ्या भारी, वायु फरंतो देहे हो ! गुरुवर ! पीडे अतिशय माझा मूकीने, दुश्मन जिम निज गेहे हो गु० प्रेम० ॥२॥ वरस पचास वीताव्यां शमथी, मासना मास घणेरा हो ! गुरुवर । रातनी रात उजागर कीधा, भाव्या भाव भलेरा हो गुरुवर ! प्रेम० ॥३॥ पीड़ा शमे नहि किम करंतां, एक दिन मनमां भाव्यु हो ! गुरुवर । "असह्य वेदना मरण तणी बहु, श्रीजिनवयणे आव्यु हो गु० प्रेम० ॥४॥ सहन करूं अब दृढ करी मन, उपाय न कोई करवो हो गु० । वेदना वाधे भले घणेरी, देह भेद मन धरवो हो गु० प्रेम० ॥५॥ आतम छे मुज अह अनेरो, देहादिक पाडोशी हो गुरुवर । तस पीड़नथी मुज शुंबगडे, मैं तो थिर अविनाशी" हो गुरुवर प्रे० ॥६॥ हृदयरोग पण सहयो जीवनमां, खट अंतिम वरसमां हो गुरुवर । वेग वधे जब तेह तणो तब, दुःख आपे बहु वसमां हो गुरुवर प्रे० ॥७॥ तस केरी पीडा शुं कहीये, तुहिंज ते तो जाणे, हो गुरुवर । सम भावे ते सहन करीने, आतम आनंद माणे, हो गुरुवर प्रे० ॥८॥ प्रोस्टेटग्रन्थीनो रोग सह्यो वली, सदा य सावध चित्त, हो गुरुवर । रोग वधे जब कहे तुहि तब, आव्यो मे मुज मित्त, हो गुरुवर प्रे० ॥९॥ सदाय स्थंडिल-भूमि जतो तुं, बार-अकने गाळे, हो गुरुवर । चैतर-वैशाखादिक मासे, तापतो चरण प्रजाळे, हो गुरुवर प्रे० ॥१०॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहि कायर तुं वीर सुभट जिम, अडगपणे डग भरतो, हो गु० । धीरपणुं धरी चित्त अनेरुं, कर्मनुं चूरण करतो, हो गुरुवर प्रे० ॥ ११॥ देहादिक पीड़ाने सहंतां, नहि उद्वेग लगार हो गुरुवर । दीठो तुज मुखडा पर में तो, अचरिज अहि अपार, हो गु० प्रे० ॥१२॥ संयमदोष लघु पण निजनो, मन कल्पी य महान, हो गुरुवर । मन उद्वेग करीने तुं तो, सदा रह्यो सावधान, हो गु०... प्रे० ॥१३॥ तुज हृदये वात्सल्य अपूरव, मातनी प्रीत भूलावे, हो गुरुवर । वात्सल्य नीरे स्नान करावी, अजब हेज दरशावे, हो गु०... प्रे० ॥१४॥ वृद्धने वृद्धपणुं नवि लागे, तुज वात्सल्य झीलंतां हो गुरुवर । बाल युवाननी वात शी करवी, तुज चरणे लोटंतां हो गु० प्रे० ॥ १५ ॥ तुज मुख मुद्रा निरखी हरखे, जाणे पुरण चंद हो गुरुवर । प्रसन्नतानुं पुरज उमट्युं, सरळता न अमंद हो गु० प्रे० ॥ १६॥ ब्रह्मचर्यनुं तेज विराजे, जे मूल सर्वगुणोनुं हो गुरुवर । मन-वय-काय विशुद्ध ज ओतो, चित्त हरे भविजननुं हो गु० प्रे० ॥१७॥ गुण गाता में केई जन दीठा, 'अहो ! महा ब्रह्मचारी हो गुरुवर । आ काळे दीठो नहि अहवो, विशुद्धव्रतनो धारी' हो गु० प्रे० ॥१८॥ स्त्री- साध्वी सन्मुख नहि जोयुं, वृद्धपणे पण तें तो हो गुरुवर । वात करें जब हेतु निपजे, दृष्टि भूमिओदेतो हो गु० प्रे० ॥१९॥ शिष्यवृन्दने अह शिखवीयुं, दृढ आ विषये रहेजो हो मुनिवर । तेह तणा पालनने कारण, दुःख मरण नवि गणजो हो मु० प्रे० ||२०|| संयम - महेल आधारज एतो, दृष्टिदोषे सवि मीडुं हो मुनिवर । करमकटकने आतमघरमां, पेसवा म्होटुं छींडुं हो मु० प्रे० ॥२१॥ ८१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्ममां ढीला पदवीधर पण, जाय नरक ओवारे, हो मुनिवर । शुद्ध आलोयण करें नहि तेहथी, दुःख सहे तिहां भारे हो मु०प्रे० ||२२|| विजातीयनों संग न करजो, साप तणी परे डरजो हो मुनिवर । काम कुटिलनो नाश करीने, अविचल सुखडां वरजो हो मु०प्रे० ||२३|| लघुता ताहरी हती बहु भारी, जाणे बाळ नानकडो हो गुरुवर । गुर्वादिकनी आगे तो दीसे, गौतम गुणनो टुकडो हो गु०प्रे० ||२४|| लघु मुनि पण दूरथी आवे, अभ्युत्थान तुं करतो हो गुरुवर । 'गच्छाधिप हुं छं मोटेरो' एहवुं मान न धरतो हो गु०प्रे० ॥२५॥ ग्रन्थ शोधतां तत्त्व समजवा, आसन नीचुं करतो हो गुरुवर । 'ऊंचे आसन ज्ञान न आवे' एवं एवं तुं भणतो हो गु० प्रे० ||२६|| रचितग्रन्थमां रही क्षतिने, समजी ज्यारे साची हो गुरुवर । भवभ्रमण बीधेला तें तो, क्षमा संघमां याची हो गु० प्रे० ॥२७॥ सहनशीलता वात्सल्य ताहरु, ब्रह्मचर्य विशुद्ध हो गुरुवर । वे वरजो जगत ! जीवनमां, लघुता वळी अद्भूत हो गु० प्रे० ॥२८॥ [५] (राग - दिलरंजन जिनराजजी, सुमतिनाथ जगस्वामी सलूणा...) प्रेमसूरि गुरुराजजी ! निर्मल आणाधारी सलूणा; परहितचिंता ने वळी, ग्लानसेवा तुज प्यारी सलूणा - प्रेमसूरि० १ निस्पृह ! त्हारो जोटो न दीठो, आकिंचन्य तुज म्होटुं सलूणा; लघु लेखिनी पण नवि राखी, न कहुं हुं कांई खोटुं सलूणा... प्रे० २ विद्या भणीओ पर पुस्तकथी, 'मारुं' करी नवि राख्यं सलूणा; ज्ञानभंडार - उपधि- शिष्योनी, वात हवे हुं शुं भाखुं ? सलूणा... प्रे० ३ -- ८२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोधी तुं गुणी जनो पण, शिष्य बीजाना करतो सलूणा; अहो ! अहो ! निस्पृहता तारी, अम जीवनने वरजो सलूणा... प्रे० ४ परगुणनुं अनुमोदन करतो, सरसव- मेरु न्याये सलूणा; निजगुण श्रवणे रड़तो जाण्यो में, होते गुण समुदाये सलूणा... प्रे० ५ अमे बधा सहु निर्गुणशेखर, तेहमां पण गुण जो तो सलूणा; निंदा निज आतमनी करतां, थयो तुं सूरिवर म्होटो सलूणां... प्रे० ६ आण वहंतो श्री जिनवरनी, जिनवयणे जग पेखे सलूणा; वयणविरोधी युक्तिसभर पण, वात न मनमां लेखे सलूणा...प्रे० ७ मन-वच-कायावृत्ति ताहरी, हती वयणानुसारी सलूणा; वयणां तुज हिरदामां वास्यां, क्यां रहे निजमति - नारी सलूणा... प्रे० ८ परहितचिंता सदाय तुं करतो, परने निजसम गणतो सलूणा; ." शासन पामी जिनवर केरुं, तरे सौ" मुख इम भणतो सलूणा... प्रे० ९ नहि मुख भणतो हाथ पकडतो, संयमसुखड़ी देतो सलूणा; यम-नियमने बहु शिखवतो, जाणे म्होटो म्हेतो सलूणा... प्रे० १० संयमरत कीधा बहु शिष्यो, संयमोद्याने माळी सलूणा; बहु फूल विकस्यां तुज आरामे, जस सुरभि जग सारी सलूणा... प्रे० ११ ज्ञानाभ्यास करावी केईने, कीधा महा विद्वान सलूणा; केई तपस्वी ने केई त्यागी, जग पसर्यो जस वान सलूणा... प्रे० १२ 'ग्लाननी सेवा छे मुज सेवा' जे श्री जिनवरे भाख्यं सलूणा; ते अवधारी हृदयकमळ तें, ग्लानसेवामृत चाख्युं सलूणा प्रे० १३ स्वगण परगण भेद विसारी, कीधी सेवा तें सहुनी सलूणा; • ग्लानचित्त आश्वासन आपी, कीधी समाधि बहुनी सलूणा... प्रे० १४ ८३ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कार्य हजार मूकीने करजो ग्लानसेवा, नवि चूकजो" सलूणा; एम शिखवीयुं शिष्य सकळने, समाधि सुखडां वरजो सलूणा...प्रे० १५ वृद्धमुनि-सेवाने कारण, साधु सबळ तें रोक्या सलूणा; . निर्यामणा करावी सुंदर, सद्गति-सोधे मूक्या सलूणा...प्रे० १६ काळवायु विकराळ विकारी, मुनिजीवने नवि व्यापे सलूणा; एह हेतु निज हृदये स्थापी, बंधारण करी आपे सलूणा प्रे० १७ बंधारण-बक्खतरथी रक्ष्यो, समुदायने सारो सलूणा; -- विषयविकार-ज्वरनिग्रहनो, बीजो न दीठो आरो सलूणा प्रे० १८ "पूर्व अभ्यास वशे जीव सेवे, दोषस्थान मोटेरां सलूणा; बळते चित्त आलोयण करीने, कर्म करे छाटेरां" सलूणा...प्रे० १९ देई हितशिक्षा, आलोयणथी दोष-विष ओकाव्यां सलूणा; भव-आलोयण करी केईनां, जीवन शुद्धिने पाम्यां सलूणा...प्रे० २० चरण ग्रही गुरुराज तुम्हारां, हुं पण मागुं तेह सलूणा; जगतने राखो बाह्य ग्रहीने, तुम विण नहि जस केह सलूणा...प्रे० २१ [६] . (राग-वामानंदन हो प्राण थकी छो प्यारा, नाहि कीजे हो नयन...) गुरुजी ! प्यारा हो ! प्रेमसूरीसर ! वीरा ! समय न विसरो हो ! धर्मधुरंधर ! धीरा ! आचार्यादियोग्य मोटका, देखी गुणगण भरीया; प्रभावना प्रवचननी करवा, गुरुए पदधर करीया गुरुजी...प्या० १ ओगणीसें ने छोंतेर वर्षे, डभोई नगर मोझार; भगवतीयोग वहावी तुजने, आपे गणिपद सार...गु० प्या० २ ८४ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओगणीसें एक्याशी वर्षे, राजनगर शुभस्थान; सर्वश्रुत-अनुज्ञारूपे, पद पंन्यास प्रदान...गु०...प्या० ३ ओगणीसें सत्याशी वर्षे, कारतकवदनी त्रीजे; उपाध्यायपद मोहमयीमां, गुरु हस्ते पामीजे...गु०...प्या० ४ प्रबळ मुरत जाणीने गुरुजीए, तुजने अजाण राखी; पाटणथी बोलावी पदनी, वात हती ते दाखी...गु०...प्या० ५ निस्पृह तुं बहु करगरीयोपण, गुरुजी तुज पीछाने, पदवी योग्य जाणीने ताहरूं, रुदन धर्यु नहि काने...गु०...प्या० ६ ओगणीसें एकाj वर्षे, राधनपुर शुभ स्थाने, चैत्र सुदी चौदशना दीg, पद तीनुं गुरु दान...गु०...प्या० ७ थया सूरीश्वर गुणरयणागर, गुरु तुम स्वर्ग सिधावे, गच्छपालन निज शिर पर आव्युं, वही रह्या सम भावे...गु०...प्या० ८. शिष्य-प्रशिष्यादिक तुज वाध्या, त्रणसो अंक वटाव्यो; निर्मळ शासनशोभा-ध्वजने, गगने तें लहराव्यो...गु०...प्या० ९ क्षीर-नीर जिम साधु रहे तुज, एकमेकमां मळीया; . क्लेश कंकाश कदीय न दीठो, हइडां सहुनां हळीयां...गु० प्या० ॥१०॥ शरीरशिथिलता आव्ये तुजने, आरोपी निज स्कंधे; सेंकडो गाउ लेईन चालंता, शिष्यादिक आनंदे...गु० प्या० ॥११॥ ए अतिशय गुरुजी ! तुज म्होटो, दुजे न एहवो दीठो; गच्छ तणा गुणगान करे तुज, सौ मन लाग्यो मीठो...गु० प्या० ॥१२॥ वात्सल्यादिकनां फळ ए तो, भावदयानां जाणुं; पुण्यरिद्धि अपूरव त्हारी, हुं ते कोण ? वखाणुं...गु० प्या० ॥१३॥ ८५ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरीक्ष-तीर्थनी रक्षाए, मेल्या सूरिवर म्होटा; देवद्रव्य रक्षाने काजे, प्रयत्न नहि तुज छोटा...गु० प्या० ॥१४॥ बाळदीक्षा-प्रतिबंध तणी जब, आवी आपदा मूंडी । प्रतिकार प्रबळ करी कीधी, शासन रक्षा रूडी...गु० प्या० ॥१५॥ जब जब शासन आपद आवी, तन मन निज लगावी ।। राजद्वारी पुरुष प्रमुखने, प्रभाव निज दरशावी...गु० प्या० ॥१६॥ उपदेशादिक देई अपावी, चउविह संघ जगाव्यो । तप जपना आध्यात्मिक बळनो, प्रतिकार अजमाव्यो...गु० प्या० ॥१७॥ अहो ! अहो ! तुज शासनप्रीति, कदीय नहि विसराये । अम हृदये पण एह आवजो, गुरुदेवादि प्रभावे...गु० प्या० ॥१८॥ प्रभावना प्रवचननी कीधी, वर्णवी ते केम जाय । संघ तीरथयात्राना म्होटा, उपधानादिक थाय...गु० प्या० ॥१९॥ जिनबिंबोनी प्राण-प्रतिष्ठा, कीधी तें सुखदाय । तस महोत्सव देखीने जनता, शासन 'धन धन' गाय...गु० प्या० ॥२०॥ जिराउला वरकाणा तीरथ, राणकपुरना दीठा । म्होटा सिद्धगिरिना संघो, भवि मन लाग्या मीठा...गु० प्या० ॥२१॥ छरी' पालंता यात्रा करता, यात्रिक जन बहु भावे ।। कर्मराशिनो ह्रास करीने, अविचल सुखडां पावे...गु० प्या० ॥२२॥ मरुधर श्री चडवाल गामनो, संघ विशाळ प्रसिद्ध । बे हजार यात्रुए जेहमां, लाभ अनेरो लीध...गु० प्या० ॥२३॥ सूरिवर मुनिवर साधु साधवी, श्राद्ध श्रावीका आय ।। द्रविण लाख त्रणेक कीधुं व्यय, बीजुं कडं नवि जाय गु० प्या० ॥२४॥ ८६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गस्थित जिन चैत्य वांदीयां, संघभक्ति बहु कीधी । श्री गुरु मुखथी अमृतमीठी, जिनवाणी तिहां पीधी... गु० प्या० ॥२५॥ सिलदर पुनामां तुज चरणे, थयां महा उपधान । पंचशताधिक तपस्वी जेहमां, करता धर्मविधान गु० प्या० ॥२६॥ अंधेरी ने दादरनगरे, शिवगंज शुभगामे 1 पुण्यभूमि पिंडवाडा प्रमुखे, गुरु! तुज पुण्य प्रकामे... गु० प्या० ॥२७॥ तस आराधन करता गुणिजन जिनवाणी नित्य सुणता । तु मुखपद्मथी पामी प्रेरणा, वैराग्ये मन भरता... गुरुजी प्या० ॥२८॥ संयम मार्ग चड्या केई भविया केई देशविरति सारा । समकित दृढता वली केई पाम्या, जिन वयण अनुसारा... गु० प्या० ॥२९॥ प्राणप्रतिष्ठारूप तुज हस्ते, थई अंजनशलाका । उंचे अंबर जईने फरकी, प्रभावनानी पताका ... गुरुजी प्या० ॥३०॥ कोल्हापुर धन्य धन्य थयुं कंई, देवलोकशुं शोभ्युं । पिंडवाड़ा बहु धन्य बन्युं जग, जनमन तिहां जई थोभ्यं... गु०प्या० ॥ ३१ ॥ इन्द्रपुरी शुं मर्त्यलोकनां, सुखडां जोवा आवी ? तेजभय के वीरदेवनां, मुखडां जोवा धावी ?... गुरुजी प्या० ॥३२॥ जय जयकार थया चउदिशिए गुरु ! तुज पुण्यपसाये । गाम नगर दूर दूरनां उमट्यां, गुरुजी ! तुज निश्राये... गु०प्या० ॥ ३३ ॥ नेपाणीने मोहमयीमां, लालबाग शुभ स्थाने I राजनगर हठीभाई वाडीओ, तिम बीजे पण स्थाने... गुरुजी प्या० ॥३४॥ अंजन जिनमूर्तिने आज्यां, प्रतिष्ठाओ पण कधी । भव्यभाव हृदये विकसावी, स्वरूपसुधा तव पीधी... गुरुजी प्या० ॥३५॥ , ८७ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ताक्रुझमां कीधी प्रतिष्ठा, श्री खापोली गामे । प्रतापनगर ने पालीताणा, इत्यादिक शुभधामे...गुरुजी प्या० ॥३६॥ भौतिकवादना मूढ मारथी, रक्षवा भावी संघ ।। आध्यात्मिक-शिक्षायतनो जे, योज्यां श्रावक संघ...गुरुजी प्या० ॥३७॥ मोकलीया तीहां शिष्य-प्रशिष्यो, तें गीतारथ जाण । भाव दया निज हृदय धरीने, पाई जिननी वाण...गुरुजी प्या० ॥३८॥ बाल-युवान जनो बूझवीया, कीधा शासन रागी, । तत्त्वामृत-वैराग्य पानथी, थया केई तो त्यागी...गुरुजी प्या० ॥३९॥ भव्य तुज इतिहास गुरुजी ! प्रभावक सूरिगणमां । प्रभावना-स्वस्तिक तें पूर्या, जिनशासन-प्रांगणमां...गुरुजी प्या० ॥४०॥ हे ! गुणसागर ! भविकजदिनकर ! शुद्धचरणना धारी ! कृपा करी तुमे करुणा सागर ! लेजो जगत उगारी...गुरुजी प्या० ॥४१॥ [७] (राग-धन धन ते दिन क्यारे आवशे, जपशुं जिनवर नाम...) अडसठ वर्ष संयम शुद्ध पाल्युं वरस पंचाशी आय । तेत्रीस वर्ष सूरिपद निर्मल, प्रमत्तपणुं नहि प्राय ॥१॥ चरम चोमासुं स्थंभन पुरमां, बेंतालीश मुनि साथे । गच्छाधिप सूरिवर श्री आपनी, आणा धरता माथे ॥२॥ पूर्ण थयुं चोमासुं लगभग, भव्य आराधन साथे । संवत बे हजार चोवीशना, नूतन वर्ष प्रभाते ॥३॥ श्रीगुरु-मुखथी सुणी श्री संघे, मंगल जिनवर वाणी । गुरु-पूजन करी निज निज हस्ते, कीधी दिव्य कमाणी ॥४॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक सुदनी चोथ-पंचमी, पूर्व करमना उदये । देह पीडा उपडी बहु भारे, दिनता नहि तुज हृदये ॥५॥ स्वास्थ्य-अस्वास्थ्ये माथ वीताव्या, चार चार समताथी । शिष्य-प्रशिष्यादिक सहु आव्या, तुज चरणे लांबेथी ॥६॥ स्वास्थ्य कईंक तुज ठीक देखातां, विहार करी केई जावे । श्रवण-स्वाध्याय-संशोधन करी तुं, मास त्रणेक वहावे ॥७॥ काल करालने कोण पीछाने, रोग वळी कई वाध्यो । श्वास थयो बहु शभे नहि झट, शुद्ध उपचारे साध्यो ॥८॥ श्वास शम्यो पण स्वास्थ्य न दीसे, देह - शिथिलता आवी । सुणी भावीने दृढ तें करेली, भेद-भावना भावी ॥९॥ समाधिविचार श्री पंचसूत्र ने उपमिति प्रमुखनां मांड्यां । श्रवण अविरत ओक चित्तथी, कर्म कठीन बहु खांड्यां ॥१०॥ चिदानंद छत्रीशी विनति ने स्तवन सज्झायने ध्यावे । 'देह अनेरो आत्म अनेरो' भाव शुद्ध मन भावे ॥ ११ ॥ नित नित निज आतमने निंदे, 'अहो ! आराधी न आणा दोष - विष सेवुं छं निश दिन, किम थाशे उद्धरणा' ॥१२॥ चित्त-स्वास्थ्य तुज उज्ज्वल दीसे, झंखे सतत समाधि । आतम-आराधननो अर्थी, भूली गयो तुं व्याधि ॥१३॥ वैशाखवद अगिआरश आवी, स्वास्थ्य सरस तुज दीढुं । तुज मुखमुद्राने निरखंतां, थयुं अम मनडुं मीठं ||१४|| दिवस गयो ते सुख समाधे, आवी रातडी काळी । आवश्यक उपयोग कर्या पछी तें, वेदना अंदर भाळी ॥ १५ ॥ ८९ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाग्रत् ! तें जो जाणी लीधुं शुं, मुज अंतिम काळ ? मन समजीने बाह्यतणी तें, कीधी जरा नहि भाळ ॥१६॥ अरिहंतादिक शरण स्वीकार्या, नमस्कार चित्त धार ।। क्षमापना कीधी सर्वेथी, वीर ! वीर ! उद्गार ॥१७|| संघ-साधु-सहु दुःखित हृदये, सेवी रह्या निरधार । छमे करण आतममां करीयां, तिम तुज अक विचार ॥१८॥ चित्तस्वास्थ्य तुज अजब अनेरुं, देह पीडा बहु तोय । गच्छादिकनी चिन्ता त्यागी, आतममां लीन होय ॥१९॥ पूछे शिष्यो जब 'हे ! साहेबजी ! जागृत हशो निशंक' । . तब संवदतो वचन चेष्टाथी, तुं जाग्रत गतपंक ॥२०॥ अरिहंतादिक शरण सुणावे, शिष्य-वर्ग चित्त लाई । नमस्कारनी श्रेणी वहावे, तुज श्रवणांनी मांहि ॥२१॥ इष्ट सिद्धि तुज हाथ चडंतां, देह मूकी तुं चाल्यो । जाणंतां अम नयणे अश्रुनो, वेग रह्यो नहि झाल्यो ॥२२॥ नाना म्होटा गीतारथ मुनिओ, अश्रुधार वहावे । । निज गुणमंदिर स्तंभ तुटे कहो ? दुःख केने नवि थावे ॥२३॥ कोण कोनां अश्रु लूंछे तिहां, सौ दुःख वेग वहंता, । . दुःखभार नहि केई सहंता, मुनि-जगत विलपंता ॥२४॥ [८] (राग-प्रीतलडी बंधाणी रे अजित जिणंदशं.....) अहो ! अहो ! गुणसागर ! गुरुजी ! किहां गया । ९० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणनिधि ! तुमे, अम निर्गुण आधार जो...... अहो ० ॥ १॥ सूरिवर ! तुम विण, जग सघळं सुनुं थयुं, तुम विण प्रसर्यो, चउदिशिओ अंधकार जो, जगवत्सल ! अम चारित्र - चक्षु-तारका सार्थपति अम मोक्षनगरनी वाट जो...... अहो० ॥२॥ कर्मरिपु यो धंतां, अम सेनापति, सारथी: तुमे, संयमरथना प्रौढ जो, दीवादांडी, अम संयम - नावा तणी, तुं हिज प्राण ने, तुं हिज अम हृदयेश जो......अहो० ॥३॥ कहो थयो शो अवगुण ? जे बोलो नहि, थयो हशे पण, आप महा उदार जो, माफ करी ते, श्रवणे धरो अम वातडी, क्षमानिधि ! तुमे, छोडो नहि अम बांह्य जो...... अहो० ॥४॥ मात विणा कहो ? बाल तणी किशी दशा, पडे आखडे अटवाये, नहि भान जो, स्वामी ! तुम विण, तिम जंगत आपद घणी, दुर्गति खीणे पात अने विखवाद जो ...... अहो ! अहो० ॥५॥ विषयविष भखंता, कहो ? कुण वारशे, प्रमाद कूप पडतां राखशे अम जो, स्वाध्यायसुधा ढोळंतां अम मूर्खने, हाथ झाली कहो ? वारण करशे कुण जो...... अहो ! अहो० ॥६॥ प्रेरणा - वमनी, - फल - घसारो पाईने, ९१ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओकावशे कुण, दोषगरलनां पान जो, कषाय-क्रूरकसाई -आंगण खेलतां, समता-घरमां, लावी पूरशे कोण जो......अहो ! अहो० ॥७॥ कर्मसाहित्यनां लेखन मंडाव्यां तुमे, पूरां थया विण, किम चाल्या गुरुराज ! जो, प्रेरणा देता, नित नित तस लेखन तणी, थतां क्षति तुमे, शोधता तस जाण जो......अहो ! अहो० ॥८॥ करशे काळजी, हवे कहो ? कुण अहवी, संशोधन पण, करशे कुण कृपाळ ! जो, रत्नत्रयी तुमे, दीधी अमने मोटकी, थया वळी तुमे, तस केरा रखवाळ जो......अहो ! अहो० ॥९॥ समिति गुप्ति चूकंतां, तुमे बहु प्रेरिया, आहारशुद्धिनां, दीधां शिक्षादान जो, विभूषा-वैरण-पडखे चडंता वारिया, तुमे कराव्यां, आगम अमृत-पान जो......अहो ! अहो० ॥१०॥ तुम विण गुरुजी ! मनशुद्धि करशुं किहां, किहां करशुं अमे, सुखदुःखडानी वात जो, पोकार सुणशे, कहो ? कुण अम बालक तणो, जग प्रसरे प्रभु ! निजदुर्मति-अंधकार जो......अहो ! अहो० ॥११॥ आशा अम मन, ओक हती बहु मोटकी, मस्तक मूकी, तुज खोळे महाराज ! जो, Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधक जे, महा मुनिवर पूर्वे. थया, ओक चित्त थई, समरी तस अवदात जो......अहो ! अहो० ॥१२॥ पातक कीधां, आलोई निदी करी, . खमावी सौ, शरण ग्रही शुभ चार जो, निर्यामण पामीने, तुज मुख-पद्मथी, मृत्यु आव्ये, करशुं देहनो त्याग जो......अहो ! अहो० ॥१३॥ केवळ नामथी 'प्रेम' नहि तुं में दीठो, किन्तु 'भाव,-प्रेमनो' सायर तुहि जो, प्रेम-पीयूष तुज, पाने जग जीवन हसे, प्रेम अभावे, जगत रडे ज्युं बाळ जो......अहो ! अहो० ॥१४॥ हा ! हा ! काल-कराले आ शुं आदर्यु, ईर्ष्या अम सुख केरी थई तस चित्त जो, रे ! रे ! दैव अटारो शुं भूलो पड्यो , के सयुं नहि, अम उत्तम सौभाग्य जो......अहो ! अहो० ॥१५॥ कर्मकृतान्त, हा ! हा ! अम दुःश्मन थयो, उठाव्यो तेणे, अकाले अम नाथ जो, मार्ग सुजे नहि, दुःखना सागर उलट्या, निश्चेतनता, प्रसरी छे, अम चित्त जो......अहो ! अहो० ॥१६॥ स्वर्ग वसंतां, गुरुजी ! अम आतम तणी, रक्षा धरी मन, करजो नित्य सहाय जो, तुम सहाये, रत्नत्रयी-आराधना, निर्मल करतां, थाय जगत उद्धार जो......अहो ! अहो० ॥१७॥ 25 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [९] इत्यादिक विलपन बहु, करी तुज गुणना जाण, गुण-पक्षपाते करी, करे निज कर्मनी हाण. १ (दुहो) तुज विरहालंबन ग्रही, भवि करे धर्म विधान, लेशथी ते अब वर्णवं, सुणजो थई सावधान. २ (दुहो) (राग-नवो वेश रचे तिणि वेळा, विचरे आदीश्वर भेळा...) हवे अवसर जाणी ताम, तुम शिष्य वडेरा राम, परिष्ठापन विधि जेह, करे देह तणी तुज तेह...॥१॥ श्रावकसंघने देह ते दीधो, शोक-भक्ति हैये तेने लीधो, स्थाने स्थापी निशिओ कीध, नमस्कारादि धून विविध...॥२॥ गाम नगरमां दूर सुदूर, वात प्रसरतां उलट्यां पूर, संघ आवी पड्या तव पाय, रज चरणनी शिरे लगाय...॥३॥ हवे उचित जेह आचार, करे संघ सकल सुविचार, देह-अंतिमक्रिया करंता, मन भक्ति-भावे भरंता...॥४॥ धरी तन मन अति उल्लास, धनव्यय करे बहु राश, दानाधिक विविध करंता, 'जय ! जय नंदा' अम भणंता...॥५॥ थयो प्रवचन जय जय कार, केई धर्म पाम्या निरधार; एम तन मन धन शुभ योग, साध्यो अशुभ करम वियोग...॥६॥ तुज गुणानुमोदन काज, गाम-नगरना जैन समाज; जिन-भक्ति-महोत्सव मोटा, करता जस न दीसे जोटा...॥७॥ ९४ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत-नियम केई करंता, तुज भक्ति चित्त धरता; गुरुमंदिर केई करावे, तुज मूरति तिहां पधरावे...॥८॥ बहु भव्य जीवो तिहां आवे, तुज दर्शन ध्यान लगावे; नाममन्त्र जपे गुरु ! तुज, याचे गुणगण देजो मुज...॥९॥ इम विरणे पण जे थावे, तुम अद्भुत माहात्म्य जणावे, एम गाई जगत गुणगान, पामे सुख सदाय अमान...॥१०॥ (कलश) सेवी गुरुपद वर्ष षोडश, 'कृपाभर तस पाईने, कर्मसाहित्य नूतन हेतु, पिंडवाडा ठाईने; दोयसहसपचवीस विक्रमाब्दे, "राधमासे निर्मलो, कृष्ण एकादशीए गायो, प्रेमसूरि गुरु जग भलो ॥१॥ तस शिष्य भानुविजय गुरुपद,-पङ्कजे जे मधुकरो, पंन्यास प्रवरो निपुण न्याये, शिष्य तस गुण-आकरो; पंन्यास पद्मविजय स्वर्गत, साधुशिक्षण-कुशलो, तस शिष्य गुरुपदपद्म-अलिसम, जगच्चन्द्र मुनिपदधरो ॥२॥ . मला, ॥ समाप्त ॥ १ सोळवर्ष २ परमकृपा । ३ विक्रमसंवत् । ४ वैशाखमास । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુરુ ગુણ સૌરભ ચોત્રીશી (અભિનંદન સ્વામિ હમારા. અથવા ચોપાઈ.) ભવિયા ! મનસરમેં તુમે ધારો; ગુરુ પવવિજય અણગારો, પઘો પણ તે ભાનુ વિકાસી; ભાનુ છે પ્રેમનો પ્યાસી...૧ પ્રેમ છે તે તો ગુણ ગણ ચંગો; અંગે અંગે જિન આણા રંગો, મોહતણો કાઢ્યો જેણે કંદો; બ્રહ્મતેજ દીપે જેમ ચંદો...૨ ચંદ્ર સમી જેની નિર્મલ કરતિ; પાવન દર્શન આપે વિરતિ, જ્ઞાન-ધ્યાનને જિનગુણ ગાન; ગ્લાન મુનિપર દૃષ્ટિ પ્રધાન...૩ તસ પરિચર્યા કદી ન ઉપેક્ષે; દિસે અહર્નિશ તહિ સમક્ષે, શિષ્ય-સમૂહ સોહે સુવિશાળ; મહાપથનો મહા રખવાળ...૪ એવા બહુવિધ ગુણનો દરિયો; ઉપશમ અમૃતરસ ભરિયો, ગુરુ પ્રેમસૂરીશ્વર રાયો; ભાનુવિજય શિષ્ય સવાયો...૫ જન પ્રતિબોધન શક્તિ વર્યો છે; ક્રિયા-જ્ઞાને પ્રમાદ હર્યો છે, આત્મપ્રકાશે સભર ભર્યો છે; શિષ્યગણને મુદિત કર્યો છે...૬ દિનકર દિનભર ઉપકારે; નિશિ આવે ન કારજ સારે, સોહે સૂર્ય-શશિથી સવાયો, નિશદિન પર-ઉપકારે ધાયો...૭ ભવ્ય, નિરીહ જ મુખડું દિસે; ભવિજનના મનકજ વિકસે, નવયુવક મન બહુ ભાવે; પદપા સેવન નિત આવે...૮ તસ અંતેવાસી ગુણની મૂર્તિ; ગાઈશ હરખે વિશ્વવિભૂતિ, . ભાનુ સહ સંયમરસિયા; ગુરુ પ્રેમ કને જઈ વસિયા...૯ સંયમ ગુણ બહુ વિકસાયા; નામ પદ્મવિજય ધરાયા, ગુરુગણમાં મૂલ્ય અંકાયા; તો પણ નહિ અભિમાનની છાયા...૧૦ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ગુરુસેવન મહામંત્ર પાયો; સવિ સિદ્ધિનો માન્યો ઉપાયો, ગુરુવચન કદી ન ઉથાપે; મુનિગણને આદર્શ આપે . ૧૧ સેવક બિરૂદ તે સાચું ધરતા; દ્રવ્ય-ભાવથી સેવા કરતા, સાધુ-સંઘના જીવન ધોરી; દીધી ગુરુએ હાથમાં દોરી..૧૨ ગુરુ મહિમા અહર્નિશ ગાવે; ગચ્છ ચિંતા કરે શુભભાવે, ગચ્છપતિની ઇચ્છા પૂરે; સાચી ભક્તિ હતી તસ રે...૧૩ વસ્ત્રપાત્રને પુસ્તક, પાટી; ઠવણી, કવલી, નવકારવાળી, સવિ સામગ્રીને પૂરનારા; ગણિવર સહુ ગણને પ્યારા...૧૪ સૂત્ર, અર્થ સ્વાધ્યાય કરાવે; ન્યાય-વ્યાકરણ સુગમ ભણાવે, બાલ-વૃદ્ધને તે બહુ ફાવે; નિત્ય પદ્મ ગુરુ ગુણ ગાવે...૧૫ સારણ-વારણને પડિચોયણ; કરતા દોષતણું સંશોધન, પંચસમિતિ ત્રિગુપ્તિ પળાવે; આતમ પરિણતિ શુદ્ધ બનાવે.૧૬ જિનભક્તિ તણા અતિ રસિયા; મનમંદિર જિનવર વસિયા, એકતાન થઈ ગુણ ગાવે, ભવિજનનાં દિલ ડોલાવે .૧૭ કરતાં કર્મ કઠિન ચકચૂરા; નિશદિન શુભધ્યાને શૂરા, આતમવીર્ય અનુપમ ધારે; જેનું શરણું સંસારથી તારે...૧૮ ઉપધાન-મહોત્સવ મંડાવ્યા; વળી સંઘોમાં સંપ કરાવ્યા, દીક્ષાદાન કરી જન તાર્યા; શિક્ષા આપીને ભવ નિસ્તાર્યા...૧૯ પ્રવચન જાહેરમાં દીધાં; કેઈ જીવોના ઉદ્ધાર જ કીધા, મહાગ્રંથો તણા કર્યા દોહન, ધન્યજીવન તારણ તરણ...૨૦ પુનાનગરે ગણિપ્રદાન દાન; પછી સોરઠ દેશ પ્રયાણ, સુરેન્દ્રનગરમાં પદ પંન્યાસ, નવ ગણિવર સાથે ઉલ્લાસ...૨૧ ९७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શશી-રવિથી પધો વિકસે; અચરિજ એ પદ્મ સકાશે, જગચંદ્ર-મિત્ર-રત્ન તેજસ્વી; પદ્મ ગુણ સૌરભથી યશસ્વી...૨૨ સહવર્તીની સેવા કરજો; ભાવ મૈત્રી પરસ્પર ધરજો, આત્મ પ્રગતિના પંથે વિચરજો; દીધી શીખ આ ભવથી તરજો...૨૩ ગુણપર્યાયે સ્પર્ધા માંડી; વધ્યા ગુણ, પર્યાય પછાડી, પર્યાય સત્તર-સંખ્ય થયા જ્યાં; ગુણ ગણનાતીત થયા ત્યાં...૨૪ કેન્સર રોગ થયો એમ જાણ્યું; પૂર્વ કર્મ નિકાચિત માન્યું, તે ભોગવવાનો સમય અનેરો; આવ્યો જાણીને ભાવ ભલેરો...૨૫ કીધી સુરેન્દ્રનગરના સંઘે; ગુરુભક્તિ અતિ ઉછરંગે, પીંડવાડા-શિવગંજ સંઘ ભાવે; રોગ હરવા ઉપાય કરાવે...૨૬ દસ વરસ લગી રોગની પીડા; નવિ મૂકે સંયમ ક્રિડા, કદી દીનતા ન મુખપર લાગે; ચાર શરણ ભવો ભવ માગે... ૨૭ મહારોગને સમતા અને રી; કલિકાલે અચરિજ કારી, મહામંત્રની ધૂન જગાવે; “અરિહંત' સુણી સુખ પાવે...૨૮ અંતિમ અવસર આવ્યો જાણી; સારા જગના ખમાવ્યા પ્રાણી, ગુરુ-ગણશું ક્ષમાપના કરતા; પંચમહાવ્રત ફરી ઉચ્ચરતા...૨૯ શ્રાવણવદી અગીયારસ આવી; દુ:ખના વાદળીયા લાવી, દેવગુરુને દિલમાં ધાર્યા; મૂકી દેહને સ્વર્ગ પધાર્યા..૩૦ શિબિકા કરી પંચ શિખરની; ઉમટી જનતા અનેક નગરની, થાય ઉછામણી વિવિધ પ્રકારે; ભક્તો જય જય નંદા પોકારે,...૩૧ ગુરુ વિરહ તે કેમ ખમાય; ઉપકાર કદી ન ભૂલાય, દીધી શિખ નવિ વિસરાય; હૈયે વિરહ વ્યથા ઉભરાય...૩૨ S Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતભરમાં શોક ફેલાય; ભલી શ્રદ્ધાંજલી અપાય, ઠેર ઠેર ઉત્સવો ઉજવાય; જિનભક્તિના મંગળ ગવાય...૩૩ ઉત્તમ કુલ સરવરમાંહી; ખીલ્યું પા અતિ આનંદદાયી, જિનવર ચરણે એ ચઢતું, જગચંદ્ર મહોદય વરતું,...૩૪ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० Page #103 --------------------------------------------------------------------------  Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (જી . . लियमलोक 1 . કાનો તd/ તમાનુસૂરિ જન્મ શતાબ્દી. - ભુવનભાનુસ, 2017 2060 5. પદ્મવિજયજી સ્વર્ગારોહણ અર્ધશતાબ્દી પ્રિન્ટીંગ:નચ જિનેન્દ્ર સહમદ્દાવાદ્રમૌ:9825024204