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________________ जाग्रत् ! तें जो जाणी लीधुं शुं, मुज अंतिम काळ ? मन समजीने बाह्यतणी तें, कीधी जरा नहि भाळ ॥१६॥ अरिहंतादिक शरण स्वीकार्या, नमस्कार चित्त धार ।। क्षमापना कीधी सर्वेथी, वीर ! वीर ! उद्गार ॥१७|| संघ-साधु-सहु दुःखित हृदये, सेवी रह्या निरधार । छमे करण आतममां करीयां, तिम तुज अक विचार ॥१८॥ चित्तस्वास्थ्य तुज अजब अनेरुं, देह पीडा बहु तोय । गच्छादिकनी चिन्ता त्यागी, आतममां लीन होय ॥१९॥ पूछे शिष्यो जब 'हे ! साहेबजी ! जागृत हशो निशंक' । . तब संवदतो वचन चेष्टाथी, तुं जाग्रत गतपंक ॥२०॥ अरिहंतादिक शरण सुणावे, शिष्य-वर्ग चित्त लाई । नमस्कारनी श्रेणी वहावे, तुज श्रवणांनी मांहि ॥२१॥ इष्ट सिद्धि तुज हाथ चडंतां, देह मूकी तुं चाल्यो । जाणंतां अम नयणे अश्रुनो, वेग रह्यो नहि झाल्यो ॥२२॥ नाना म्होटा गीतारथ मुनिओ, अश्रुधार वहावे । । निज गुणमंदिर स्तंभ तुटे कहो ? दुःख केने नवि थावे ॥२३॥ कोण कोनां अश्रु लूंछे तिहां, सौ दुःख वेग वहंता, । . दुःखभार नहि केई सहंता, मुनि-जगत विलपंता ॥२४॥ [८] (राग-प्रीतलडी बंधाणी रे अजित जिणंदशं.....) अहो ! अहो ! गुणसागर ! गुरुजी ! किहां गया । ९०
SR No.022249
Book TitleDravyapraman Prakaranam Evam Kshetrasparshana Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagacchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2010
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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