Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादा भगवान कथित
समझ से प्राप्त
ब्रह्मचर्य
(संक्षिप्त)
अरे, ऐसा तो जाना नहीं कभी!
लोगों को अब्रह्मचर्य की बात में क्या नकसान है, क्या फ़ायदा है और उसकी कितनी सारी जिम्मेदारियाँ हैं, यह समझ में आए और ब्रह्मचर्य का पालन करें, इसलिए ही हम ब्रह्मचर्य के संबंध में बोले हैं, जिसकी यह पुस्तक बनी है। सभी ने ऐसा कहा है कि अब्रह्मचर्य गलत है, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। अरे भाई, अब्रह्मचर्य किस तरह बंद होगा? इसकी राह ही नहीं दिखाई। इसलिए इस पुस्तक में वे सब रास्ते ही बताए गए हैं, ताकि लोग पढ़कर सोचें कि अब्रह्मचर्य से इतना सारा नुकसान होता है! अरे, ऐसा तो हम जानते ही नहीं थे!
-दादाश्री
BAN978-81-RRB404
Rs.20/
9788189193344
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : अजित सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन 'दादा दर्शन', 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८,२७५४३९७९
समझ से प्राप्त
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
ब्रह्मचर्य
प्रथम संस्करण : प्रत ३०००,
दिसम्बर २००९
मूल गुजराती पुस्तक 'समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य' (संक्षिप्त ) का
हिन्दी अनुवाद
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव!
द्रव्य मूल्य : २० रुपये
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
अनुवाद : महात्मागण
मुद्रक
PAN
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न),
पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
Hal
4-OS
R
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रिमंत्र
( दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
हिन्दी १. ज्ञानी पुरूष की पहचान
१३. प्रतिक्रमण २. सर्व दुःखों से मुक्ति
१४. दादा भगवान कौन ? ३. कर्म का विज्ञान
१५. पैसों का व्यवहार ४. आत्मबोध
१६. अंत:करण का स्वरूप ५. मैं कौन हूँ?
१७. जगत कर्ता कौन? ६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी १८. त्रिमंत्र ७. भूगते उसी की भूल
१९. भावना से सुधरे जन्मोजन्म ८. एडजस्ट एवरीव्हेयर
२०. पति-पत्नी का दीव्य व्यवहार ९. टकराव टालिए
२१. माता-पिता और बच्चों का व्यवहार १०. हुआ सो न्याय
२२. समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य ११. चिंता
२३. आप्तवाणी-१ १२. क्रोध
२४. मानव धर्म
English 1. Adjust Everywhere
17. Money 2. Ahimsa (Non-violence) 18. Noble Use of Money 3. Anger
19. Pratikraman Apatvani-1
20. Pure Love 5. Apatvani-2
21. Right Understanding to Help 6. Apatvani-6
Others 7. Apatvani-9
22. Shree Simandhar Swami 8. Avoid Clashes
23. Spirituality in Speech 9. Celibacy: Brahmcharya
24. The Essence of All Religion 10. Death: Before, During & After... 25. The Fault of the Sufferer 11. Flawless Vision
26. The Science of Karma 12. Generation Gap
27. Trimantra 13. Gnani Purush Shri A.M.Patel
28. Whatever has happened is
Justice 14. Guru and Disciple 15. Harmony in Marriage
29. Who Aml?
30. Worries 16. Life Without Conflict
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी ५५ पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेज़ीन प्रकाशित होता है।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ | से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर
क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के. और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट !
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखाई देते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए | हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं।
वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
निवेदन आत्मविज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं। दादाश्री ने जो कुछ कहा, चरोतरी ग्रामीण गुजराती भाषा में कहा है। इसे हिन्दी भाषी श्रेयार्थियो तक पहुँचाने का यह यथामति, यथाशक्ति नैमित्तिक प्रयत्न है।
__ मोक्षमार्ग में विशेष रूप से बाधक विषय-विकार के विकराल स्वरूप का यथार्थ निरूपण और उससे छूटकर कैसे ब्रह्मचर्य सिद्ध किया जाएँ, जगत्कल्याण के लिए ब्रह्मचर्य कैसे सहायरूप है, विवाहित होते हुए भी कैसे ब्रह्मचर्य में आगे बढ़ सकते है, इन सबकी अद्भुत समझ इस संकलन में प्राप्त होती है। इस पुस्तिका को गुजराती ब्रह्मचर्य के दो ग्रंथो में से संक्षिप्त रूप से संकलित किया गया है। अगर कोई बात आप समझ न पायें तो प्रत्यक्ष सत्संग में पधार कर समाधान प्राप्त करें।
'ज्ञानी पुरुष' के जो शब्द हैं, वे भाषा की दृष्टि से सीधे-सादे हैं किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' का दर्शन निरावरण है, इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यू पोइन्ट को एक्जैक्ट (यथार्थ) समझकर निकले हैं, इसलिए श्रोता के दर्शन को सुस्पष्ट कर देते हैं एवं और अधिक ऊँचाई पर ले जाते है।
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वे इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाये गये शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गये वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गये हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गये हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सकें। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में दिये गये हैं।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप से क्षमाप्रार्थी हैं।
संपादकीय विषय का वैराग्यमय स्वरूप समझने से लेकर अंततः ब्रह्मचर्य का स्वरूप और उसकी यथार्थ अखंड प्राप्ति तक की भावनावाले भिन्न-भिन्न साधकों के साथ, प्रकट आत्मवीर्य संपन्न ज्ञानी पुरुष परम पूज्य दादाश्री के श्रीमुख से निकली अद्भुत ज्ञान वाणी केवल वैराग्य को जन्म देनेवाली ही नहीं, किन्तु विषय बीज को निर्मूल करके निग्रंथ बनानेवाली है, उसका यहाँ संकलन किया गया है। साधकों की दशा, स्थिति और समझ की गहराई के आधार पर निकली वाणी का इस खबी से संकलन किया गया है कि जिससे भिन्न-भिन्न स्तर पर कही गई बात प्रत्येक पाठक तक अखंडित रूप से संपूर्ण पहुँचे, ऐसे 'समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य' ग्रंथ (गुजराती भाषा में) को पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजित किया गया है।
पूर्वार्ध के खंड-१ में विषय का विरेचन करानेवाली जोरदार, सचोट और प्रत्येक शब्द में वैराग्य उत्पन्न करानेवाली वाणी संकलित हई है। जगत् में सामान्यतया 'विषय में सुख है' ऐसी भ्रांति का भंजन करनेवाली, इतना ही नहीं पर सही दिशा कौन-सी है और किस दिशा में चल पड़े हैं, उसका संपूर्ण भान करानेवाली हृदयस्पर्शी वाणी का संकलन हुआ है।
पूर्वार्ध के खंड-२ में ज्ञानी के श्रीमख से ब्रह्मचर्य के परिणामों को जानकर उसके प्रति आफ़रीन हुआ साधक उस ओर कदम बढ़ाने की ज़रा हिम्मत दिखाता है और ज्ञानी पुरुष का योग पाकर सत्संग सांनिध्य की प्राप्ति से मन-वचन-काया से अखंड ब्रह्मचर्य में रहने का दृढ़ निश्चयी बनता है। ब्रह्मचर्य के पथ पर प्रयाण करने के लिए और विषय के वटवृक्ष को जड़मूल से उखाड़कर निर्मूल करने के लिए उसके मार्ग में बिछे हुए पत्थरों से लेकर, पहाड़ जैसे आनेवाले विघ्नों के सामने, डाँवाँडोल होते निश्चय से लेकर ब्रह्मचर्य व्रत में से च्युत होने पर भी, उसे जागृति की सर्वोत्कृष्ट श्रेणियाँ पार करा के निग्रंथता प्राप्त करवाए वहाँ तक की वैज्ञानिक दृष्टि ज्ञानी पुरुष खुलवाते हैं, विकसित करते हैं!
अनंत बार विषय रूपी कीचड़ में अल्प सुख की लालच में लथपथ
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुआ, सना गया और दलदल में गहरा उतरा फिर भी उसमें से बाहर निकलने का मन नहीं होता, यह भी एक आश्चर्य है न? जो सचमुच इस कीचड़ से बाहर निकलना चाहते हैं, पर मार्ग नहीं मिलने के कारण फँस गए हैं; ऐसे लोग कि जिन्हें छूटने की ही एकमात्र अदम्य इच्छा है, उनके लिए तो ज्ञानी पुरुष का यह दर्शन एक नयी ही दृष्टि प्रदान करके सभी बंधनों में से छुड़वानेवाला बन जाता है।
मन-वचन काया की सभी संगी क्रियाओं में बिलकुल असंगता के अनुभव का प्रमाण अक्रम विज्ञान प्राप्त करनेवाले विवाहितों ने सिद्ध किया है। गृहस्थ भी मोक्षमार्ग पाकर आत्यंतिक कल्याण साध सकते हैं। 'गृहस्थाश्रम में मोक्ष !' यह विरोधाभासी प्रतीत होता है फिर भी सैद्धांतिक विज्ञान के द्वारा गृहस्थों ने भी इस मार्ग को प्राप्त किया है, यह हक़ीकत प्रमाणभूत रूप से साकार हुई है। 'घर-गृहस्थी मोक्षमार्ग में बाधक नहीं है' इसका प्रमाण तो होना चाहिए न? उस प्रमाण को प्रकाशित करनेवाली वाणी उत्तरार्ध के खंड : १ में समाविष्ट की गई है।
'ज्ञानी पुरुष' के माध्यम से 'स्वरूपज्ञान' पाए हुए परिणीतों के लिए, कि जो विषय विकार परिणाम और आत्म परिणाम की सीमा रेखा पर जागृति के पुरुषार्थ में हैं, उन्हें ज्ञानी पुरुष की विज्ञानमय वाणी के द्वारा विषय के जोखिमों के सामने सतत जागृति, विषय के सामने खेद, खेद और खेद और प्रतिक्रमण रूपी पुरुषार्थ, आकर्षण रूपी जलाशय के घाट पर से बिना डूबे बाहर निकल जाने की जागृति देनेवाली समझ के सिद्धांतों कि जिनमें, 'आत्मा का सूक्ष्मतम स्वरूप' उसका 'अकर्ता अभोक्ता स्वभाव' और 'विकार परिणाम किसका?' 'विषय का भोक्ता कौन?' और 'भोगने का सिर पर लेनेवाला कौन?' इन सभी रहस्यों का हल कि जो कहीं भी बताया नहीं गया है, वह यहाँ सादी, सरल और हृदय में उतर जाए ऐसी शैली में प्रस्तुत हुआ है। यह समझ जरा-सी भी शर्त चूक होने पर सोने की कटारी जैसी बन जाती है। उसके जोखिम और निर्भयता प्रकट करती वाणी उत्तरार्ध के खंड : २ में प्रस्तुत की गई है।
सर्व संयोगों से अप्रतिबद्ध रूप से विचरते, महामुक्त दशा का
9
आस्वाद लेते ज्ञानी पुरुष ने कैसा विज्ञान देखा! संसार के लोगों ने मीठी मान्यता से विषय में सुख का आस्वाद लिया, उनकी दृष्टि किस तरह विकसित हो कि विषय संबंधी सभी विपरीत मान्यताओं से परे होकर महा मुक्तदशा के मूल कारण स्वरूप ऐसे, 'भाव ब्रह्मचर्य' का वास्तविक स्वरूप समझ में गहराई से 'फिट' हो जाए, विषय मुक्ति के लिए कर्तापन की सारी भ्रांतियाँ टूटें और ज्ञानी पुरुष ने खुद जो देखा है, जाना है और अनुभव किया है, उस वैज्ञानिक 'अक्रम मार्ग' का ब्रह्मचर्य संबंधी अद्भुत रहस्य इस ग्रंथ में विस्फोटित हुआ है !
इस संसार के मूल को जड़ से उखाड़नेवाला, आत्मा की अनंत समाधि में रमणता करानेवाला, निग्रंथ वीतराग दशा की प्राप्ति करानेवाला, वीतरागों ने प्राप्त कर के अन्यों को बोध दिया, वह अखंड त्रियोगी शुद्ध ब्रह्मचर्य, निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति करानेवाला है! ऐसे दुषमकाल में अक्रम विज्ञान की उपलब्धि होने से आजीवन मन-वचन-काया से शुद्ध ब्रह्मचर्य की रक्षा हुई, उसे एकावतारी पद निश्चय ही प्राप्त हो ऐसा है ।
अंत में, ऐसे दुषमकाल में कि जहाँ सारे संसार में वातावरण ही विषयाग्नि का फैल गया है, ऐसे संयोगों में ब्रह्मचर्य संबंधी 'प्रकट विज्ञान' को स्पर्श करके निकली हुई 'ज्ञानी पुरुष' की अद्भुत वाणी को संकलित करके, विषय-मोह से छूटकर, ब्रह्मचर्य की साधना में रहकर, अखंड शुद्ध ब्रह्मचर्य के पालनार्थ, सुज्ञ वाचकों के हाथों में यह 'समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य' ग्रंथ को संक्षिप्त स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है। विषय संबंधी जोखिमों से छूटने हेतु, फिर भी गृहस्थी में रहकर सर्व व्यवहार निर्भयता से पूरा करने के लिए और मोक्षमार्ग निरंतराय रूप से वर्तना (अनुभव) में आए, उसके लिए 'जैसी है वैसी' वास्तविकता प्रस्तुत करते हुए, सोने की कटारी स्वरूप कही गई 'समझ' को अल्पमात्र भी विपरीतता की ओर नहीं ले जाकर, सम्यक् प्रकार से उपयोग की जाए, ऐसी प्रत्येक सुज्ञ वाचक को अत्यंत भावपूर्ण विनति है। मोक्षमार्ग की यथायोग्य पूर्णाहुति हेतु इस पुस्तक का उपयोगपूर्वक आराधन करें यही अभ्यर्थना !
- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
10
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
(सूचिपृष्ठ
पेज नं.
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पूर्वार्ध)
खंड : १ विषय का स्वरूप, ज्ञानी की दृष्टि से १. विश्लेषण, विषय के स्वरूप का २. विकारों से विमुक्ति की ओर... ३. माहात्म्य, ब्रह्मचर्य का
खंड : २ 'ब्याहना ही नहीं' वाले निश्चयी के लिए राह १. विषय से, किस समझदारी से छूटा जाए? २. दृष्टि उखड़े, 'थ्री विजन' से ३. दृढ़ निश्चय, पहुँचाए पार ४. विषय विचार, परेशान करें तब... ५. नहीं चलते, मन के कहने के अनुसार ६. 'खुद' खुद को डाँटना ७. पश्चाताप सहित के प्रतिक्रमण ८. स्पर्श सुख की भ्रामक मान्यता ९. 'फाइल' के प्रति कड़ाई १०. विषयी वर्तन? तो डिसमिस ११. सेफसाइड तक की बाड़ १२. तितिक्षा के तप से तपाइए मन-देह १३. न हो असार, पुद्गलसार १४. ब्रह्मचर्य से प्राप्ति ब्रह्मांड के आनंद की १५. 'विषय' के सामने 'विज्ञान' की जागृति १६. फिसलनेवालों को उठाकर दौड़ाए... १७. अंतिम जन्म में भी ब्रह्मचर्य तो आवश्यक १८. दादाजी दें पुष्टि, आप्तपुत्रियों को
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
खंड:१ परिणीतों के लिए ब्रह्मचर्य की चाबियाँ १. विषय नहीं परंतु निडरता विष २. दृष्टि दोष के जोखिम ३. बिना हक़ की गुनहगारी ४. एक पत्नीव्रत का अर्थ ही ब्रह्मचर्य ५. बिना हक़ का विषयभोग, नर्क का कारण ६. विषय बंद वहाँ दख़ल बंद ७. विषय वह पाशवता ही! ८. ब्रह्मचर्य की क़ीमत, स्पष्ट वेदन-आत्मसुख ९. लीजिए व्रत का ट्रायल १०. आलोचना से ही जोखिम टलें, व्रत भंग के ११. चारित्र का प्रभाव
खंड : २
आत्मजागृति से ब्रह्मचर्य का मार्ग १. विषयी स्पंदन, मात्र जोखिम २. विषय भूख की भयानकता ३. विषय सुख में दावे अनंत ४. विषय भोग, नहीं निकाली ५. संसार वृक्ष का मूल, विषय ६. आत्मा, अकर्ता-अभोक्ता ७. आकर्षण-विकर्षण का सिद्धांत ८. 'वैज्ञानिक गाईड' ब्रह्मचर्य के लिए
स्पष्टता इस पुस्तक में 'आत्मा' शब्द को संस्कृत और गुजराती भाषा की तरह पुल्लिंग में प्रयोग किया गया है।
जहाँ जहाँ पर चंद्रेश या चंदूलाल नाम का प्रयोग किया गया है, वहाँ | वहाँ पर पाठक स्वयं का नाम समझकर पठन करें।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पूर्वार्ध)
(संक्षिप्त रूप में)
खंड : १ विषय का स्वरूप, ज्ञानी की दृष्टि से
१. विश्लेषण, विषय के स्वरूप का प्रश्नकर्ता : कुदरत को यदि स्त्री-पुरुष की आवश्यकता है तो ब्रह्मचर्य किस लिए दिया?
दादाश्री : स्त्री-पुरुष दोनों कुदरती है और ब्रह्मचर्य का हिसाब भी कुदरती है। मनुष्य जैसे जीना चाहता है, वह खुद जैसी भावना करता है, उस भावना के फल स्वरूप यह संसार (प्राप्त होता) है। ब्रह्मचर्य की भावना पिछले जन्म में की हो तो इस जन्म में ब्रह्मचर्य उदय में आएगा। यह संसार खुद का प्रोजेक्शन है।
प्रश्नकर्ता : पर ब्रह्मचर्य का पालन किस फ़ायदे के लिए करना चाहिए?
दादाश्री : हमें यहाँ कुछ लग जाए और खून बहता हो तो फिर उसे बंद क्यों करते हैं? उससे क्या फ़ायदा?
प्रश्नकर्ता : अधिक खून न बह जाए इसलिए। दादाश्री : खून बह जाए तो क्या होगा? प्रश्नकर्ता : शरीर में बहुत वीकनेस (कमज़ोरी) आ जाती है। दादाश्री : वैसे ही अधिक अब्रह्मचर्य से भी वीकनेस आ जाती
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य है। ये सारे रोग ही अब्रह्मचर्य की वजह से है। क्योंकि सारा खाना जो खाते हो, पीते हो, श्वास लेते हो, उन सभी का परिणाम आते आते उसका... जैसे इस दूध से दही बनाते हैं, वह दही आखिरी परिणाम नहीं हैं, दही का फिर आगे होते होते मक्खन होगा, मक्खन से घी होगा। घी आख़िरी परिणाम है वैसे ही इसमें ब्रह्मचर्य, सारा पुद्गलसार है।
इसलिए इस संसार में दो वस्तुएँ व्यर्थ में नहीं गँवानी चाहिए। एक, लक्ष्मी और दूसरा, वीर्य। संसार की लक्ष्मी गटरों में ही जाती है। इसलिए लक्ष्मी खुद के लिए खर्च नहीं करनी चाहिए, उसका बिना वज़ह दुरूपयोग नहीं होना चाहिए और यथासंभव ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। जो खाना खाते हैं, उसका अर्क होकर अंत में अब्रह्मचर्य के कारण खतम हो जाता है। इस शरीर में कुछ खास नसें होती है, जो वीर्य को संभालती है और वह वीर्य इस शरीर को संभालता है। इसलिए हो सके वहाँ तक ब्रह्मचर्य का ध्यान रखना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : पर अभी मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि मनुष्य को ब्रह्मचर्य किस लिए पालना चाहिए?
दादाश्री : तो फिर उसे लेट गो करो आप। ब्रह्मचर्य मत पालना। मैं कुछ ऐसे मत का नहीं हूँ। मैं तो इन लोगों से कहता हूँ कि ब्याह कर लो। कोई शादी करे उसमें मुझे हर्ज नहीं हैं।
मैं अपनी बात आपसे मनवाना नहीं चाहता। आपको खुद को अपनी ही समझ में आना चाहिए। ब्रह्मचर्य नहीं पाल सकें यह बात अलग है, पर ब्रह्मचर्य के विरोधी तो नहीं ही होना चाहिए। ब्रह्मचर्य तो (मोक्ष में जाने के लिए - आत्मसाधना का) सबसे बड़ा साधन है।
ऐसा है न, जिसे सांसारिक सुखों की ज़रूरत है, भौतिक सुखों की जिसे इच्छा हैं, उसे शादी कर लेनी चाहिए। सब कुछ करना चाहिए और जिसे भौतिक सुख पसंद ही नहीं हों और सनातन सुख चाहिए, उसे शादी नहीं करनी चाहिए।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
प्रश्नकर्ता : विवाहित हों उन लोगों को ज्ञान देर से होता है न? और जो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उन लोगों को ज्ञान जल्दी आता है न?
दादाश्री: विवाहित हों और यदि ब्रह्मचर्य व्रत लें तो आत्मा का सुख कैसा है वह उसे पूर्ण रूप से समझ में आता है। वर्ना तब तक सुख विषय में से आता है या आत्मा में से आता है वह समझ में नहीं आता
और ब्रह्मचर्य व्रत हो तो उसे आत्मा का अपार सुख अंदर बरतता है। मन तंदुरुस्त रहता है और शरीर सारा तंदुरुस्त रहता है।
प्रश्नकर्ता : तो दोनों की ज्ञान की अवस्था समान होती है कि उसमें अंतर होता है? परिणीतों की और ब्रह्मचर्यवालों की?
दादाश्री : ऐसा है न, ब्रह्मचर्यवाला कभी भी गिरता नहीं। उसे कैसी भी मुश्किल आए तो भी वह गिरता नहीं। वह सेफसाइड (सलामती) कहलाती है।
ब्रह्मचर्य तो शरीर का राजा है। जिसे ब्रह्मचर्य हो, उसका दिमाग़ तो कितना सुंदर होता है! ब्रह्मचर्य तो सारे पुद्गल का सार है।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य दादाश्री : वह पुद्गलसार हो तभी समयसार होता है। यह जो मैंने ज्ञान दिया है, वह तो अक्रम है इसलिए चल जाता है। दूसरी जगह तो नहीं चलता। क्रमिक में तो पुद्गलसार चाहिए ही, वर्ना कुछ भी याद नहीं रहता। वाणी बोलने के भी लाले पड़ जाएँ।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् इन दोनों में कोई नैमित्तिक संबंध है क्या?
दादाश्री : है न! क्यों नहीं? मुख्य वस्तु है ब्रह्मचर्य तो! वह हो तो फिर आपकी धारणा के अनुसार कार्य होता है। धारणा के अनुसार व्रत -नियम सभी का पालन कर सकेंगे। आगे प्रगति कर सकेंगे, पुद्गलसार तो बहुत बड़ी चीज़ है। एक और पुद्गलसार हो तभी समय का सार निकाल सकते हैं।
किसी ने लोगों को ऐसा सच समझाया ही नहीं न! क्योंकि लोगों का स्वभाव ही पोल (ध्येय के खिलाफ मन का सुनकर उस कार्य को न करना) वाला है। पहले के ऋषि-मुनि सभी निर्मल थे, इसलिए वे सही समझाते थे।
विषय को जहर समझा ही नहीं है। जहर समझे तो उसे छुए ही नहीं न! इसलिए भगवान ने कहा कि ज्ञान का परिणाम विरति (रूक जाना)! जानने का फल क्या? रुक जाए। विषयों का जोखिम जाना नहीं इसलिए उसमें रुका ही नहीं है।
भय रखने जैसा हो तो यह विषय का भय रखने जैसा है। इस संसार में दूसरी कोई भय रखने जैसी जगह नहीं है। इसलिए विषय से सावधान रहें। यह साँप, बिच्छू, बाघ से सावधान नहीं रहते?
अनंत अवतार की कमाई करें, तब उच्च गौत्र, उच्च कुल में जन्म होता है किन्तु लक्ष्मी और विषय के पीछे अनंत अवतार की कमाई खो देते हैं।
मुझे कितने ही लोग पूछते हैं कि 'इस विषय में ऐसा क्या पड़ा है कि विषय सुख चखने के बाद हम मरणतुल्य हो जाते हैं, हमारा मन मर
प्रश्नकर्ता : यह सार असार नहीं होता न?
दादाश्री : नहीं, पर वह सार उड़ जाता है न, युझलेस (बेकार) हो जाता है। वह सार हो, उसकी तो बात ही अलग होती है न! महावीर भगवान को बयालीस साल तक ब्रह्मचर्य सार था। हम जो आहार लेते हैं, उन सबके सार का सार वीर्य है, वह एक्स्ट्रेक्ट (सार) है। अब वह एक्स्ट्रेक्ट यदि ठीक से सँभल जाए तो आत्मा जल्दी प्राप्त हो जाता है और सांसारिक दु:ख नहीं आते, शारीरिक दुःख नहीं आते, अन्य कोई दु:ख नहीं आते।
प्रश्नकर्ता : ब्रह्मचर्य तो अनात्म भाग में आता है न? दादाश्री : हाँ, मगर वह पुद्गलसार है। प्रश्नकर्ता : पुद्गलसार है वह समयसार को कैसे मदद करता है?
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
जाता है, वाणी मर जाती है!' मैंने बताया कि ये सभी मरे हुए ही हैं, लेकिन आपको भान नहीं रहता और फिर वही की वही दशा उत्पन्न हो जाती है। वर्ना यदि ब्रह्मचर्य संभल पाए तो एक-एक मनुष्य में तो कितनी शक्ति है! आत्मा का ज्ञान (प्राप्त) करे वह समयसार कहलाए। आत्मा का ज्ञान हो और जागृति रहे तो समय का सार उत्पन्न हुआ और ब्रह्मचर्य वह पुद्गलसार है।
मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य पाले तो कितना अच्छा मनोबल रहे, कितना अच्छा वचनबल रहे और कितना अच्छा देहबल रहे! हमारे यहाँ भगवान महावीर तक कैसा व्यवहार था? एक-दो बच्चों तक (विषय का) 'व्यवहार' रखते थे। पर इस काल में वह व्यवहार बिगड़नेवाला है, ऐसा भगवान जानते थे, इसलिए उन्हें पाँचवा महाव्रत (ब्रह्मचर्य का ) डालना पड़ा।
इन पाँच इन्द्रियों के कीचड़ में मनुष्य होकर क्यों पड़े हैं, यही अजूबा है ! भयंकर कीचड़ है यह तो ! परंतु यह नहीं समझने से अभानावस्था में संसार चलता रहता है। ज़रा-सा विचार करे तो भी कीचड़ समझ में आ जाए। पर ये लोग सोचते ही नहीं न! सिर्फ कीचड़ है। तब भी मनुष्य क्यों इस कीचड़ में पड़े हैं? तब कहें, 'दूसरी स्वच्छ जगह नहीं मिलती है इसलिए ऐसे कीचड़ में सो गया है। '
प्रश्नकर्ता: अर्थात् कीचड़ के प्रति अज्ञानता ही है न?
दादाश्री : हाँ, उसकी अज्ञानता है, इसलिए कीचड़ में पड़ा है। यदि इसे समझने का प्रयत्न करें तो समझ में आए ऐसा है, पर खुद समझने का प्रयत्न ही नहीं करता है न!
इस संसार में निर्विषय विषय हैं। इस शरीर की ज़रूरत के लिए जो कुछ दाल-चावल-सब्जी-रोटी, जो मिले उसे खाएँ। वे विषय नहीं हैं। विषय कब कहलाए ? आप लुब्ध हों तब विषय कहलाता है अन्यथा वह विषय नहीं, वह निर्विषयी विषय है। अतः इस संसार में जो आँखों से दिखता है वह सभी विषय नहीं है। लुब्धमान हो तब ही विषय है। हमें कोई विषय छूता ही नहीं है।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
यह मकड़ी जाला बुनती है, फिर खुद उसमें फँसती है। उसी प्रकार यह संसार रूपी जाला खुद का ही बुना हुआ है। पिछले जन्म में खुद ने ही माँग की थी। बुद्धि के आशय में हमने टेन्डर भरा था कि एक स्त्री तो चाहिए ही। दो-तीन कमरें होंगे, एकाध लड़का और एकाध लड़की, नौकरी, बस इतना ही चाहिए। उसके बदले वाइफ (पत्नी) तो दी पर ऊपर से सास-ससुर, साला - सलहज, मौसी सास, चाची सास, बुआ सास, मामी सास... कितना फँसाव, फँसाव !!! इतना सारा झमेला साथ में आएगा यह मालूम होता तो यह माँग ही नहीं करते कभी हमने टेन्डर तो भरा था अकेली वाइफ का, फिर यह सब किस लिए दिया? तब कुदरत कहती है, 'भाई, वह अकेली तो नहीं दे सकते, मामी सास, बुआ सास, यह सब साथ में देना पड़ता है। आपको उनके बिना मजा नहीं आता। यह तो सारा लंगर ( पलटन) साथ हो तो ही ठीक से मज़ा आता है!'
६
अब तुझे संसार में क्या-क्या चाहिए, यह बता न ! प्रश्नकर्ता: मुझे तो शादी ही नहीं करनी है।
दादाश्री : यह देह मात्र ही मुसीबत है न? यह पेट दुःखे तब इस देह के ऊपर कैसा होता है? तब दूसरे की दुकान तक व्यापार बढ़ाएँगे (शादी करेंगे) तो क्या होगा? कितनी मुसीबत होगी? और फिर दो-चार बच्चे होंगे। स्त्री (पत्नी) अकेली हो तो ठीक है, वह सीधी चलेगी पर यह तो चार बच्चे ! तो क्या हो? अंतहीन मुसीबतें !
योनि में से जन्म लेता है, उस योनि में तो भयंकर दुःखों में रहना पड़ता है और बड़ा हुआ कि फिर योनि की ओर ही वापिस जाता है 1 इस संसार का व्यवहार ही ऐसा है। किसी ने सच्चा सिखाया ही नहीं न ! माँ-बाप भी कहते हैं कि अब शादी करो। और माँ-बाप का फ़र्ज़ तो है न? पर कोई सच्ची सलाह नहीं देता कि इसमें ऐसा दुःख है।
शादी तो सचमुच बंधन है। भैंस को तबेले में बंद करें ऐसी हालत होती है। उस फँसाव (बंधन) में नहीं फँसे वह उत्तम, फँसे हैं तो भी निकल पाएँ तो उत्तम और नहीं तो आख़िरकार फल चखने केबाद निकल
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य जाना चाहिए।
एक व्यक्ति मुझे बता रहा था कि, 'मेरी वाइफ के बगैर मुझे ऑफिस में अच्छा नहीं लगता।' एक बार यदि उसके हाथ में पीप पड़ जाए तो क्या उसे तू चाटेगा? नहीं? तो क्या देखकर स्त्री पर मोहित होता है? सारा बदन पीप से ही भरा है। यह गठरी (शरीर) किस चीज़ की है. उसका विचार नहीं आता? मनुष्य को अपनी स्त्री पर प्रेम है उससे ज्यादा सूअर को अपनी सूअरनी पर है। क्या इसे प्रेम कह सकते है? यह तो निपट पाशवता है! प्रेम तो वह कि जो बढ़े नहीं, घटे नहीं, वह प्रेम कहलाता है। यह तो सब आसक्ति है।
विषयभोग तो निपट जूठन ही है, सारी दुनिया की जूठन है। आत्मा का ऐसा आहार तो होता होगा कहीं? आत्मा को किसी बाह्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है, वह निरालंब है। किसी अवलंबन की उसे आवश्यकता नहीं है।
भ्रांतिरस में संसार तदाकार पड़ा है। भ्रांतिरस यानी वास्तविक रस नहीं हैं, फिर भी मान बैठा है! न जाने क्या मान बैठा है? उस सुख का वर्णन करने जाएँ तो उल्टियाँ होने लगें!
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य पाँच इन्द्रियों के विषय में एक जीभ का विषय ही अकेला सच्चा विषय है। दूसरे सब तो बनावट है। शद्ध विषय तो यह अकेला ही! फर्स्ट क्लास (बढ़िया) हाफूज़ आम हों तब कैसा स्वाद आता है? भ्रांति में यदि कोई शुद्ध विषय हो तो इतना ही है।
विषय तो संडास है। नाक में से, कान में से, मुँह में से हर जगह से जो-जो निकलता है, वह सब संडास ही है। डिस्चार्ज वह भी संडास ही है। जो पारिणामिक भाग है, वह संडास है, पर तन्मयाकार हुए बगैर गलन नहीं होता।
विचारवंत मनुष्य विषय में सुख किस प्रकार मान बैठा है वही मुझे आश्चर्य होता है! विषय का पृथक्करण करें तो खाज खुजलाने के समान है। हमें तो खूब-खूब विचार आता है कि अरेरे! अनंत अवतार यही का यही किया! जो हमें पसंद नहीं वह सब विषय में है। निरी गंध है। आँख को देखना न भाए। नाक को सूंघना न भाए। तूने सूंघकर देखा कभी? सूंघना था न? तो वैराग्य तो आए! कान को रुचता नहीं। केवल चमड़ी को रुचता है।
विषय तो बुद्धिपूर्वक का खेल नहीं, यह तो केवल मन की ऐंठन ही है।
मझे तो इस विषय में इतनी गंदगी दिखती है कि मझे यों ही ज़रासा भी उस ओर का विचार नहीं आता। मुझे विषय का कभी विचार ही नहीं आता। मैंने (ज्ञान में) इतना कुछ देख लिया है कि मुझे मनुष्य आरपार दिखते है।
इस शरीर की राख होती है और उस राख के परमाणओं से फिर से शरीर बनता है। ऐसे अनंत अवतारों की राख का यह परिणाम है। बिलकुल जूठन है! यह तो जूठन की जूठन और उसकी भी जूठन! वही की वही खाक, वही के वही परमाणु सारे, उन्हीं से बार-बार निर्माण होता रहता है! बर्तन को दूसरे दिन रगड़कर साफ करें तो स्वच्छ नज़र आए पर माँजे बगैर उसमें ही रोज़ाना खाते रहें तो गंदगी नहीं है?
अरे, ऐसी मजेदार खीर खाई हो, तो भी उल्टी हो जाए तो कैसी दिखती है? हाथ में रखें ऐसी सुंदर दिखती है? कटोरा स्वच्छ हो, खीर अच्छी हो, पर खाने के बाद वही की वही खीर, उलटी हो जाएँ और आपसे कहे कि दुबारा उसे पी जाओ, तो आप नहीं पीएँगे और कहेंगे, 'जो होना हो सो हो, पर नहीं पीऊँगा।' अत: यह सब भान नहीं रहता है न!
मनुष्य की रोंग बिलीफ़ (गलत मान्यता) है कि विषय में सख है। अब विषय से बढ़कर सुख प्राप्त हो तो विषय में सुख न लगे। विषय में सुख नहीं है पर देहधारी को व्यवहार में छुटकारा ही नहीं है। वर्ना जानबूझकर (इस देहरूपी) गटर का ढक्कन कौन खोले? विषय में सुख होता तो चक्रवर्ती इतनी सारी रानियाँ होते हए सख की खोज में नहीं निकलते। इस ज्ञान से इतना ऊँचा सुख मिलता है। फिर भी इस ज्ञान के पश्चात् विषय
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
१०
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य जिसे ब्रह्मचर्य ही पालन करना है, उसे तो संयम की बहुत प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए, कसौटी करनी चाहिए और यदि फिसल पड़ेंगे ऐसा लगे तो शादी करना बेहतर है। फिर भी वह संयमपूर्वक होना चाहिए। ब्याहता से कह देना चाहिए कि मुझे ऐसे कंट्रोल से (संयमपूर्वक) रहना
है।
२. विकारों से विमुक्ति की ओर.. प्रश्नकर्ता : 'अक्रम मार्ग' में विकारों को हटाने का साधन कौन
सा?
तुरंत चले नहीं जाते हैं, पर धीरे-धीरे जाते हैं। फिर भी खुद को सोचना तो चाहिए कि यह विषय कैसी गंदगी है!
पुरुष को स्त्री है ऐसा दिखे, तो पुरुष में रोग है तभी 'स्त्री' है ऐसा दिखता है। पुरुष में रोग न हो तो स्त्री नहीं दिखती (केवल उसका आत्मा ही दिखाई देता है)।
कितने ही जन्मों से गिनें, तो पुरुषों ने इतनी सारी स्त्रियों से ब्याह किया और स्त्रियों ने पुरुषों से ब्याह किया फिर भी अभी उसे विषय का मोह नहीं टूटता। तब फिर इसका अंत कैसे हो? उसके बजाय अकेले हो जाओ ताकि झंझट ही मिट जाए न!
वास्तव में तो ब्रह्मचर्य समझदारी से पालन करने योग्य है। ब्रह्मचर्य का फल यदि मोक्ष नहीं मिलता हो तो वह ब्रह्मयर्च खसी करने के समान ही है। फिर भी ब्रह्मचर्य से शरीर तंदुरुस्त होता है, मजबूत होता है, सुंदर होता है, अधिक जिन्दगी जीते हैं! बैल भी हृष्टपुष्ट होकर रहता है न?
प्रश्नकर्ता : मुझे शादी करने की इच्छा ही नहीं होती है। दादाश्री : ऐसा? तो बिना शादी किए चलेगा?
प्रश्नकर्ता : हाँ, मेरी तो ब्रह्मचर्य की ही भावना है। उसके लिए कुछ शक्ति दीजिए, समझ दीजिए।
दादाश्री : उसके लिए भावना करनी चाहिए। तुम्हें हर रोज़ बोलना चाहिए कि, 'हे दादा भगवान ! मुझे ब्रह्मचर्य पालन करने की शक्ति दीजिए।' और विषय का विचार आते ही उसे उखाड़कर फेंक देना। वर्ना उसका बीज पडेगा। वह बीज दो दिन रहे तब तो फिर मार ही डाले। फिर से उगे। इसलिए विचार आते ही उखाड़ फेंकना और किसी स्त्री की ओर दृष्टि मत डालना। दृष्टि खिंच जाए तो हटा देना और दादाजी का स्मरण करके क्षमा मांगना। विषय आराधन करने योग्य ही नहीं ऐसा भाव निरंतर रहे तो फिर खेत साफ़ सुथरा हो जाएगा। अभी भी हमारी निश्रा में रहेंगे उसका सब पूर्ण हो जाएगा।
दादाश्री : यहाँ विकार हटाने नहीं है। यह मार्ग अलग है। कुछ लोग यहाँ मन-वचन-काया का ब्रह्मचर्य लेते हैं और कितने ही स्त्रीवाले (परीणित) हैं, उन्हें हमने रास्ता दिखाया है उस तरह से उसे हल करते हैं। अतः ऐसे 'यहाँ' विकारी पद ही नहीं है, पद ही यहाँ निर्विकारी है। विषय सारे विष हैं मगर बिलकुल विष नहीं हैं। विषय में निडरता विष है। विषय तो लाचार होकर, जैसे चार दिन का भूखा हो और पुलिसवाला पकड़कर (मांसाहार) करवाए और करना पड़े, वैसा हो तो उसमें हर्ज नहीं। अपनी स्वतंत्र मरज़ी से नहीं होना चाहिए। पुलिसवाला पकड़कर जेल में बिठाए तो वहाँ आपको बैठना ही पड़ेगा न? वहाँ कोई अन्य उपाय है? अत: कर्म उसे पकड़ता है और कर्म उसे टकराव में लाता है, उसमें ना नहीं कह सकते न! जहाँ विषय की बात भी है, वहाँ धर्म नहीं है। धर्म निर्विकार में होता है। चाहे जितना कम अंश में धर्म हो, मगर धर्म निर्विकारी होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : बात ठीक है पर उस विकारी किनारे से निर्विकारी किनारे तक पहुँचने के लिए कोई नाव (रूपी साधन) तो होनी चाहिए न?
दादाश्री : हाँ, उसके लिए ज्ञान होता है। उसके लिए ऐसे गुरु मिलने चाहिए। गुरु विकारी नहीं होने चाहिए। गुरु विकारी हो तो सारा समूह नर्क में जाएगा। फिर से मनुष्य गति भी नहीं देख पाएँगे। गुरु को विकार शोभा नहीं देता।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
किसी धर्म ने विकार को स्वीकार नहीं किया। विकार का स्वीकार करें वे वाममार्गी कहलाते हैं। पहले के समय में वाममार्गी थे। विकार के साथ ब्रह्म को खोजने निकले थे।
प्रश्नकर्ता: वह भी एक विकृत रूप ही हुआ कहलाए न?
दादाश्री : हाँ, विकृत ही न! इसलिए वाममार्गी कहा न ! वाममार्गी अर्थात् मोक्ष में जाए नहीं और लोगों को भी मोक्ष में जाने नहीं दे। खुद अधोगति में जाए और लोगों को भी अधोगति में ले जाए।
प्रश्नकर्ता: कामवासना का सुख क्षणिक है यह जानते हुए भी कभी उसकी प्रबल इच्छा होने का कारण क्या है और उसे कैसे अंकुश में रख सकते हैं?
दादाश्री : कामवासना का स्वरूप जगत् ने जाना ही नहीं है। कामवासना क्यों उत्पन्न होती है, वह यदि जानें तो उस पर काबू कर सकते हैं पर वस्तुस्थिति में वह कहाँ से उत्पन्न होती है, इसका ज्ञान ही नहीं है। फिर कैसे काबू कर सकते हैं? कोई काबू नहीं कर सकता। जिसने काबू किया ऐसा दिखता है, वह तो पूर्व में की गई भावना का परिणाम है। कामवासना का स्वरूप कहाँ से उत्पन्न हुआ उसे जाने, वहीं ताला लगाए, तभी वह काबू में कर सकते हैं। अन्यथा फिर ताले लगाए या कुछ भी करे, तो भी कुछ चलता नहीं है। कामवासना न करनी हो तो हम उसका रास्ता दिखाएँगे।
प्रश्नकर्ता: विषयों में से मोड़ने के लिए ज्ञान महत्वपूर्ण वस्तु है।
दादाश्री : सभी विषयों से मुक्त होने के लिए ज्ञान ही ज़रूरी है। अज्ञान से ही विषय लिपटे हुए हैं। इसलिए कितने भी ताले लगाएँ तो भी विषय कुछ बंद होनेवाला नहीं है। इन्द्रियों को ताले लगानेवाले मैंने देखे हैं, पर ऐसे विषय बंद नहीं होता।
ज्ञान से सब (दोष) चला जाता है। इन सभी ब्रह्मचारियों को (विषय का) विचार भी नहीं आता, ज्ञान के कारण।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य प्रश्नकर्ता: सायकोलोजी ऐसा कहती है कि एक बार आप पेट भरकर आईस्क्रीम खा लें, फिर आपको खाने का मन ही नहीं करेगा।
१२
दादाश्री : ऐसा दुनिया में हो नहीं सकता। पेट भरकर खाने पर तो खाने का मन करेगा ही। पर यदि आपको खाना नहीं हो और खिलाएँ, उसके बाद उलटियाँ होने लगें, तब बंद हो जाए। भरपेट खाने से तो फिर से जगता (खाने की इच्छा होती) है। इस विषय में तो हमेशा ज्यों-ज्यों विषय भोगता जाता है, त्यों-त्यों अधिक सुलगता जाता है।
नहीं भोगने से थोड़े दिन परेशान होते हैं, शायद महीना - दो महीना । मगर बाद में अपरिचय से बिलकुल भूल ही जाते हैं। और भोगनेवाला मनुष्य वासना निकाल सके उस बात में कोई दम नहीं है। इसलिए हमारे लोगों की, शास्त्रों की खोज है कि यह ब्रह्मचर्य का रास्ता ही उत्तम है इसलिए सबसे बड़ा उपाय, अपरिचय !
1
एक बार उस वस्तु से अलग रहें न, बारह महीने या दो साल तक दूर रहें तो फिर उस वस्तु को ही भूल जाता है। मन का स्वभाव कैसा है ? दूर रहा कि भूल जाता है। नज़दीक आया, कि फिर बार-बार कोंचता रहता है। परिचय मन का छूट गया। 'हम' अलग रहें तो मन भी उस वस्तु से दूर रहा, इसलिए भूल जाता है फिर, सदा के लिए। उसे याद भी नहीं आता। फिर कहें तो भी उस ओर नहीं जाता। ऐसा आपकी समझ में आता है ? तू अपने दोस्त से दो साल दूर रहे तो तेरा मन उसे भूल जाएगा।
प्रश्नकर्ता: मन को जब विषय भोगने की हम छूट देते हैं, तब वह नीरस रहता है और जब हम उसे विषय भोगने में कंट्रोल (नियंत्रित ) करते हैं तब वह अधिक उछलता हैं, आकर्षण रहता है, तो इसका क्या कारण है?
दादाश्री : ऐसा है न, इसे मन का कंट्रोल नहीं कहते। जो हमारा कंट्रोल स्वीकार नहीं करता तो वह कंट्रोल ही नहीं है। कंट्रोलर होना चाहिए न? खुद कंट्रोलर हो तो कंट्रोल स्वीकारेगा। खुद कंट्रोलर है नहीं, इसलिए मन मानता नहीं है। मन आपकी सुनता नहीं है न?
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
१३
मन को रोकना नहीं है। मन के कारणों को नियंत्रित करना है। मन तो खुद एक परिणाम है। वह परिणाम दिखाए बगैर रहेगा नहीं। परीक्षा का वह परिणाम है। परिणाम नहीं बदलता, परीक्षा बदलनी है। वह परिणाम जिस कारण से आता है, उन कारणों को बंद करना है। वह किस प्रकार पकड़ में आए ? मन किससे पैदा हुआ है? तब कहे कि विषय में चिपका हुआ है। 'कहाँ चिपका है?' यह खोज निकालना चाहिए। फिर वहाँ काटना है।
प्रश्नकर्ता: वासना छोड़ने का सबसे आसान उपाय क्या है?
दादाश्री : 'मेरे पास आओ' वही उपाय और क्या उपाय? वासना आप खुद छोड़ेंगे तो दूसरी घुस जाएगी। क्योंकि अकेला अवकाश रहता ही नहीं। आप वासना छोड़ेंगे कि अवकाश होगा और वहाँ फिर दूसरी वासना घुस जाएगी।
प्रश्नकर्ता : ये क्रोध - मान-माया-लोभ आपने कहा न, तो विषय किसमें आता है ? 'काम' किसमें आता है?
दादाश्री : विषय अलग और ये कषायें अलग है। विषयों की यदि हम हद पार कर दें, हद से अधिक माँगे, वह लोभ है।
३. माहात्म्य, ब्रह्मचर्य का
प्रश्नकर्ता: जो बाल ब्रह्मचारी हों वह उत्तम कहलाता है या शादी के बाद ब्रह्मचर्य पालें वह उत्तम कहलाता है?
दादाश्री : बाल ब्रह्मचारी की तो बात ही अलग होती है न! पर आज के बालब्रह्मचारी कैसे है? यह जमाना खराब है। उसका आज तक जो जीवन बीता है उस जीवन के बारे में पढ़ो, तो पढ़ते ही आपका सिर दर्द करने लगेगा।
यदि आपको ब्रह्मचर्य पालन करना है तो आपको उपाय बतलाऊँ । वह उपाय आपको करना होगा, वर्ना ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए वह अनिवार्य वस्तु नहीं है। वह तो जिसे भीतर कर्म का उदय हो तो होता
१४
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना वह तो उसका पूर्वकर्म का उदय होगा तो होगा। पहले भावना की होगी तो सँभलेगा या तो यदि आप सँभालने का निश्चय करें तो सँभलेगा। हम क्या कहते हैं कि आपका निश्चय चाहिए और हमारा वचनबल साथ में है, तो यह रह पाए ऐसा है।
प्रश्नकर्ता: देह के साथ जो कर्म चार्ज होकर आए हैं उनमें तो परिवर्तन नहीं होता न?
दादाश्री : नहीं, कुछ परिवर्तन नहीं होता। फिर भी विषय ऐसी वस्तु है न कि अकेले ज्ञानी पुरुष की आज्ञा से ही परिवर्तन होता है। फिर भी यह व्रत सभी को नहीं दिया जाता। हमने कुछ लोगों को ही यह दिया है। ज्ञानी की आज्ञा से सब कुछ बदल जाता है। सामनेवाले को केवल निश्चय ही करना है कि चाहे कुछ भी हो पर मुझे यह चाहिए ही नहीं। तब फिर हम उसे आज्ञा देते हैं और हमारा वचनबल काम करता है। इसलिए फिर उसका चित्त अन्यत्र नहीं जाता।
1
यदि कोई ब्रह्मचर्य पाले और यदि अंत तक पार उतर जाए तो ब्रह्मचर्य तो बहुत बड़ी वस्तु है। यह 'दादाई ज्ञान', 'अक्रम विज्ञान' और साथ में ब्रह्मचर्य हो तो उसे और क्या चाहिए? एक तो यह अक्रम विज्ञान ही ऐसा है कि यदि उसने यह अनुभव, विशेष परिणाम पा लिया, तो वह राजाओं का राजा है। सारी दुनिया के राजाओं को भी वहाँ नमस्कार करने होंगे ! प्रश्नकर्ता : अभी तो पड़ोसी भी नमस्कार नहीं करता ! प्रश्नकर्ता: समझने पर भी संसार के विषयों में मन आकर्षित होता है। समझते हैं कि सच-झूठ क्या है, फिर भी विषयों से छूट नहीं पाते। तो उसका क्या उपाय?
दादाश्री : जो समझ क्रियाकारी हो वही सच्ची समझ है। बाकी सभी बाँझ समझ कहलाती है।
प्रश्नकर्ता: वह समझ क्रियाकारी हो, इसके लिए क्या प्रयत्न करने
चाहिए?
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
दादाश्री : मैं आपको सविस्तार समझा दूँ। फिर वह समझ ही काम करती है। आपको कुछ करना नहीं है। आप उलटे दखल करने जाएँ तो बिगड जाता है। जो ज्ञान, जो समझदारी क्रियाकारी हो वह सच्ची समझदारी है और वही सच्चा ज्ञान है।
इस दुनिया में किसी चीज़ की निंदा करने जैसा हो तो वह अब्रह्मचर्य है। अन्य दूसरी सारी चीज़ इतनी निंदा करने जैसी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : पर मानसशास्त्री कहते हैं कि विषय बंद होगा ही नहीं, अंत तक रहेगा। इसलिए फिर वीर्य का ऊर्ध्वगमन होगा ही नहीं न?
दादाश्री : मैं क्या कहता हूँ कि विषय का अभिप्राय बदले तो फिर विषय रहता ही नहीं है। जब तक (विषय का) अभिप्राय बदलता नहीं तब तक वीर्य का ऊर्ध्वगमन होगा ही नहीं। हमारे यहाँ तो अब सीधा आत्मपक्ष में ही डाल देना है, उसका नाम ही ऊर्ध्वगमन है। विषय बंद करने से उसे आत्मा का सुख अनुभव में आता है और विषय बंद हुआ तो वीर्य का ऊर्ध्वगमन होगा ही। हमारी आज्ञा ही ऐसी है कि विषय बंद हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : आज्ञा में क्या होता है? स्थूल बंद करने का?
दादाश्री : स्थूल को बंद करने के लिए हम कहते ही नहीं हैं। मनबुद्धि-चित्त और अहंकार ब्रह्मचर्य में रहें ऐसा होना चाहिए। और मन-बुद्धिचित्त और अहंकार, ब्रह्मचर्य के पक्ष में आ गए तो स्थल तो अपने आप आएगा ही। तेरे मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार को पलट। हमारी आज्ञा ऐसी है कि ये चारों ही पलट जाएँगे!
खंड : २ 'ब्याहना ही नहीं' वाले निश्चयी के लिए राह
१. विषय से, किस समझदारी से छूटा जाए? प्रश्नकर्ता : मेरी शादी करने की इच्छा नहीं है, परन्तु माता-पिता और अन्य सगे-संबंधी शादी के लिए जोर देते हैं, तो मुझे शादी करनी चाहिए कि नहीं?
दादाश्री : यदि आपकी शादी करने की इच्छा ही न हो और हमारा यह 'ज्ञान' आपने लिया है तो आप कर पाओगे। इस ज्ञान के प्रताप से सब कुछ हो सके ऐसा है। मैं आपको समझाऊँगा कि कैसे बरतना और यदि पार उतर गए तब तो अति उत्तम। आपका कल्याण हो जाएगा!
ब्रह्मचर्य व्रत लेने का विचार आए और यदि उसका निश्चय हो जाए तो उसके जैसी बड़ी वस्तु और क्या कहलाए? वह सभी शास्त्रों को समझ गया! जिसे निश्चय हुआ कि मुझे अब मुक्त ही होना है, वह सारे शास्त्रों को समझ गया। विषय का मोह ऐसा है कि निर्मोही को भी मोही बना दे। अरे, साधु-आचार्यों को भी ठंडा कर दे!
प्रश्नकर्ता : ब्रह्मचर्य का निश्चय किया है, उसे दृढ़ करने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : बार-बार निश्चय दोहराना है और 'हे दादा भगवान ! मैं निश्चय दृढ़ करता हूँ, मुझे निश्चय दृढ़ करने की शक्ति दीजिए।' ऐसा बोलने से शक्ति बढ़ेगी।
प्रश्नकर्ता : विषय के विचार आएँ तो भी देखते रहना है? दादाश्री : देखते ही रहना। तब क्या उसका संग्रह करना? प्रश्नकर्ता : उड़ा नहीं देना चाहिए? दादाश्री : देखते ही रहना, देखने के पश्चात् है तो हम चंद्रेश से
प्रश्नकर्ता : वह वचनबल ज्ञानी को कैसे प्राप्त हुआ होता है?
दादाश्री : खुद निर्विषयी हों तभी वचनबल प्राप्त होता है, वर्ना विषय का विरेचन करवाए ऐसा वचनबल होता ही नहीं न! मन-वचनकाया से पूर्णतया निर्विषयी हों तब उनके शब्द से विषय का विरेचन होता
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य जो पकड़े उसे ब्रह्मचर्य कायम रहेगा।
इस बीज का स्वभाव कैसा है कि निरंतर पडता ही रहता है। आँखें तो तरह-तरह का देखती हैं इसलिए भीतर बीज पड़ता है, इसलिए उसे उखाड देना। जब तक बीज के रूप में है तब तक उपाय है, बाद में कुछ नहीं होनेवाला।
कहें कि इनके प्रतिक्रमण करो। मन-वचन-काया से विकारी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ, आदि सारे दोष जो हुए हों, उनका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। विषय के विचार आते हैं मगर खुद उससे अलग रहें, तो कितना आनंद होता है! तब विषय से हमेशा के लिए छूटें तो कितना आनंद रहे?
___ मोक्ष में जाने के चार आधार है; ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप । अब तप कब करना होता है? मन में विषय के विचार आते हो और खुद का दृढ निश्चय हो कि मुझे विषय भोगना ही नहीं है। इसे भगवान ने तप कहा। खुद की किंचित् मात्र इच्छा न हो, फिर भी विचार आते रहें, वहाँ तप करना है।
अब्रह्मचर्य के विचार आएँ, मगर ब्रह्मचर्य की शक्ति माँगते रहें, वह बहुत उच्च कक्षा की बात है। ब्रह्मचर्य की शक्तियाँ बार-बार माँगने पर किसी को दो साल में, किसी को पाँच साल में ऐसा उदय में आ जाता है। जिसने अब्रह्मचर्य जीत लिया उसने सारा संसार जीत लिया। ब्रह्मचर्य पालनेवाले पर तो शासन देवी-देवता बहुत प्रसन्न रहते हैं।
एक सावधान रहने योग्य तो विषय के बारे में है। एक विषय को जीत लिया तो बहुत हो गया। उसका विचार आने से पहले ही उखाड़ फेंकना चाहिए। भीतर विचार उगा कि तुरंत ही उखाड़ देना पड़ता है। दूसरी बात, यों ही दृष्टि मिली किसी के साथ तो तुरंत हटा लेनी पड़ती है। वर्ना वह पौधा जरा भी बड़ा हो तो तुरंत उसमें से फिर बीज पड़ते हैं। इसलिए वह पौधा तो उगते ही उखाड़ देना पड़ता है।
जिस संग में हम फँस जाएँ ऐसा हो उस संग से बहुत दूर रहना चाहिए, वर्ना एक बार फँसे कि बार-बार फँसते ही जाएँगे। इसलिए वहाँ से भाग निकलना। फिसलानेवाली जगह हो वहाँ से दूर रहना, तो फिसलेंगे नहीं। सत्संग में तो दूसरी फाइलें इकट्ठा नहीं होतीं न? समान विचारवाले ही इकट्ठा होते हैं न?
___ मन में विषय का विचार आते ही उसे उखाड़ देना चाहिए और कहीं आकर्षण हुआ कि तुरंत ही प्रतिक्रमण करना चाहिए। इन दो शब्दों को
ये सारी स्त्रियाँ आपको आकर्षित नहीं करतीं, जो आकर्षित करती हैं वे आपका पिछला हिसाब है। इसलिए उसे उखाड़कर फैंक दो, स्वच्छ कर दो। हमारे इस ज्ञान के पश्चात् कोई रुकावट नहीं है, केवल एक विषय के बारे में हम सावधान करते हैं। दृष्टि मिलाना ही गुनाह है और यह समझने के पश्चात् जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। इसलिए किसी के साथ दृष्टि ही नहीं मिलाना।
भावनिद्रा आती है कि नहीं? भावनिद्रा आए तो संसार तुझे लिपटेगा। अब भावनिद्रा आए तो वहीं उसी व्यक्ति के शुद्धात्मा के पास ब्रह्मचर्य के लिए शक्तियाँ माँगना कि 'हे शुद्धात्मा भगवान, मुझे सारे संसार के साथ ब्रह्मचर्य पालन करने की शक्तियाँ दीजिए।' यदि हमारे पास शक्तियाँ माँगे तो वह उत्तम ही है, परंतु जिस व्यक्ति के साथ व्यवहार हुआ है, वहाँ पर डिरेक्ट (सीधा) माँग लेना वह सर्वोत्तम है।
प्रश्नकर्ता : आँख मिल जाए तो क्या करें?
दादाश्री : हमारे पास प्रतिक्रमण का साधन है, उससे धो डालना। आँखें मिलें तो तुरंत ही प्रतिक्रमण कर डालना चाहिए। इसीलिए तो कहा है न कि स्त्री की फोटो, चित्र अथवा मूर्ति भी मत रखना।
प्रश्नकर्ता : विषय में सबसे ज्यादा मिठास मानी गई है, तो वह किस आधार पर मानी गई है?
दादाश्री : वह जो मिठास उसमें लग गई है और अन्य जगह मिठास देखी नहीं है, इसलिए उसे विषय में बहुत मिठास लगती है। पर देखा जाए तो ज्यादा से ज्यादा गंदगी वहीं है, पर मिठास के कारण उसे भान नहीं रहता।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
प्रश्नकर्ता : बिलकुल पसंद ही नहीं है, फिर भी आकर्षण हो जाता है। जिसका बहुत खेद रहा करता है।
दादाश्री : ऐसे खेद रहे तो विषय जाता है। केवल एक आत्मा ही चाहिए, तो फिर विषय कैसे खड़ा हो? अन्य कुछ चाहिए. तो विषय होगा न? तुम्हें विषय का पृथक्करण करना आता है?
प्रश्नकर्ता : आप बताइए।
दादाश्री : पृथक्करण अर्थात् क्या कि विषय आँखों को भाए ऐसे होते हैं? कान सुनें तो अच्छा लगता है? और जीभ से चाटे तो मीठा लगता है? किसी भी इन्द्रिय को पसंद नहीं है। इस नाक को तो सच में ही अच्छा लगता है न? अरे, बहुत सुगंध आती है न? इत्र लगाया होता है न? अतः ऐसे पृथक्करण करें तब पता चलता है। सारा नर्क ही वहाँ पड़ा है, पर ऐसा पृथक्करण नहीं होने से लोग उलझे रहते हैं। वहीं मोह होता है, यह भी अजूबा ही है न!
'एक विषय को जीतते, जीता सब संसार, नृपति जीतते जीतिए, दल, पुर व अधिकार।'
- श्रीमद् राजचंद्र केवल एक राजा को जीत ले तो दल, पुर (नगर) और अधिकार सब हमें मिल जाएँ।
प्रश्नकर्ता : आपके ज्ञान के पश्चात् हम इसी जन्म में विषय बीज से एकदम निग्रंथ हो सकते हैं?
दादाश्री : सब कुछ हो सकता है। अगले जन्म के लिए बीज नहीं पड़ता। ये पुराने बीज हों उन्हें आप धो डालें और नये बीज नहीं पड़ते।
प्रश्नकर्ता : इससे अगले अवतार में विषय संबंधी एक भी विचार नहीं आएगा?
दादाश्री : नहीं आएगा। थोड़ा-बहुत कच्चा रह गया हो तो पहले के थोड़े विचार आएँगे पर वे विचार बहुत छुएँगे नहीं। जहाँ हिसाब नहीं,
उसका जोखिम नहीं।
प्रश्नकर्ता : शीलवान किसे कहते हैं?
दादाश्री : जिसे विषय का विचार न आए। जिसे क्रोध-मान-मायालोभ नहीं हो, वे शीलवान कहलाते हैं।
___ कसौटी के कभी अवसर आएँ, तो उसके लिए दो-तीन उपवास कर लेना। जब (विषय के) कर्मों का जोर बहुत बढ़ जाए तब उपवास किया कि बंद हो जाता है। उपवास से मर नहीं जाते।
२. दृष्टि उखड़े, 'थ्री विज़न' से मैंने जो प्रयोग किया था, वही प्रयोग इस्तेमाल करना। हमें वह प्रयोग निरंतर रहता ही है। ज्ञान होने से पहले भी हमें जागृति रहती थी। किसी स्त्री ने ऐसे सुंदर कपड़े पहने हों, दो हजार की साड़ी पहनी हो तो भी देखते ही तुरंत जागृति आ जाती है, इससे नेकेड (नग्न) दिखता है। फिर दूसरी जागृति उत्पन्न हो तो बिना चमड़ी का दिखता है और तीसरी जागति में फिर पेट काट डालें तो भीतर आँतें नज़र आती हैं, आँतों में क्या परिवर्तन होता है वह दिखता है। खुन की नसें नज़र आती हैं अंदर में, संडास नज़र आती है, इस प्रकार सारी गंदगी दिखती है। फिर विषय होता ही नहीं न! इनमें आत्मा शुद्ध वस्तु है, वहाँ जाकर हमारी दृष्टि रुकती है, फिर मोह किस प्रकार होगा?
श्रीमद् राजचंद्र ने कहा है कि 'देखते ही होनेवाली भूल टले तो सर्व दुःखों का क्षय हो।' शास्त्रों में पढ़ते हैं कि स्त्री पर राग मत करना, लेकिन स्त्री को देखते ही भूल जाते है, उसे 'देखते ही होनेवाली भल' कहते हैं। 'देखते ही होनेवाली भल टले' का अर्थ क्या कि यह मिथ्या दृष्टि है, वह दृष्टि परिवर्तित हो और सम्यक् दृष्टि हो तो सारे दुःखों का क्षय होता है। फिर वह भूल नहीं होने देगी, दृष्टि खिंचती नहीं।
प्रश्नकर्ता : एक स्त्री को देखकर पुरुष को खराब भाव हो, तो उसमें स्त्री का दोष है क्या?
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
२२
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
तो भी हम उसके वश नहीं हों! भीतर कैसे भी समझानेवाले मिलें फिर भी हम उनकी एक न सुनें! निश्चय किया, फिर वह फिरे नहीं, उसका नाम निश्चय।
दादाश्री : नहीं, उसमें स्त्री का कोई दोष नहीं है। भगवान महावीर का लावण्य देखकर कई स्त्रियों को मोह उत्पन्न होता था, पर इससे भगवान को कुछ नहीं छूता था। अर्थात् ज्ञान क्या कहता है कि आपकी क्रियाएँ सहेतुक होनी चाहिए। आपको बाल ऐसे नहीं सँवारने चाहिए अथवा वस्त्र ऐसे नहीं पहनने चाहिए कि जिससे सामनेवाले को मोह उत्पन्न हो। हमारा भाव शुद्ध हो तो कुछ भी बिगड़े ऐसा नहीं है। भगवान केश लोचन किस लिए करते थे कि 'मेरे ऊपर किसी स्त्री का इन बालों के कारण भाव बिगड़े तो? इसलिए ये बाल ही निकाल दो ताकि भाव नहीं बिगड़ें।' क्योंकि भगवान तो बहुत स्वरूपवान थे, भगवान महावीर का रूप, सारे संसार में अनुपम था!
प्रश्नकर्ता : स्त्री पर से मोह और राग चले जाएँ तो रुचि खतम होने लगती है?
दादाश्री : रुचि की गाँठ तो अनंत जन्मों से पड़ी हुई है, कब फूटे यह नहीं कह सकते। इसलिए इस सत्संग में ही रहना। इस संग से बाहर निकले कि फिर से उस रुचि के आधार पर सब कुछ फिर से उग जाएगा। इसलिए इन ब्रह्मचारियों के संग में ही रहना होगा। अभी यह रुचि गई नहीं है, इसलिए अन्य कुसंगों में घुसते ही वह तुरंत शुरू हो जाएगा। क्योंकि कुसंग का स्वभाव ही ऐसा है। पर जिसकी रुचि उड़ गई है, उसे फिर कुसंग नहीं छूता।
हमारी आज्ञा पालोगे तो आपका मोह चला जाएगा। मोह को आप खुद निकालने जाएँगे तो वह आपको निकाल बाहर करे ऐसा है। इसलिए उसे निकालने के बजाय उससे कहो कि 'बैठिए साहिब, हम आपकी पूजा करेंगे!' फिर उससे अलग होकर हमने उस पर उपयोग केन्द्रित किया और दादाजी की आज्ञा में आए कि मोह को तुरंत अपने आप जाना ही पड़ेगा।
३. दृढ़ निश्चय, पहुँचाए पार निश्चय किसका नाम कि कैसा भी (विषय का) लश्कर हमला करे
निश्चय अर्थात् सभी विचारों को बंद करके एक ही विचार पर आ जाना कि हमें यहाँ से स्टेशन पर ही जाना है। स्टेशन से गाड़ी में ही बैठना है। हमें बस में नहीं जाना है। तब फिर ऐसे गाड़ी के ही सभी संयोग आ मिलते हैं, आपका निश्चय पक्का हो तो। निश्चय कच्चा हो तो गाड़ी के संयोग प्राप्त नहीं होते।
प्रश्नकर्ता : निश्चय के सामने टाइमिंग बदल जाता है?
दादाश्री : निश्चय के आगे सारे टाइमिंग बदल जाते हैं। ये सज्जन बता रहे थे कि 'हो सका तो मैं वहाँ आ जाऊँगा, पर शायद न आ पाऊँ तो आप निकल जाना।' इस पर हम समझ गए कि इसका निश्चय ढुलमुल है, इसलिए आगे एविडन्स ऐसे प्राप्त होंगे कि हमारी धारणा अनुसार नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : हमारे निश्चय को डिगाता कौन है?
दादाश्री : हमारा ही अहंकार। मोहवाला अहंकार है न! मूर्छित अहंकार!
प्रश्नकर्ता : नियत चोर होनी वह निश्चय की कमी कहलाती है?
दादाश्री : कमी नहीं कहलाती, वह निश्चय ही नहीं है। कमी तो निकल जाती है सारी, पर वह तो निश्चय ही नहीं है।
प्रश्नकर्ता : नियत चोर न हो, तो विचार बिलकुल आना बंद हो जाता है?
दादाश्री : नहीं, विचार को आने दो। विचार आएँ उसमें हमें क्या हर्ज है? विचार बंद नहीं हो जाते। नियत चोर नहीं होनी चाहिए। भीतर किसी भी लालच को वश नहीं हों ऐसे स्ट्रोंग ! विचार ही क्यों आएँ?
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
२३
कुएँ में गिरना ही नहीं है ऐसा निश्चय है, वह चार दिनों से सोया नहीं हो और उसे कुएँ के किनारे पर बिठाएँ फिर भी नहीं सोएगा वहाँ । आपका संपूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का निश्चय और हमारी आज्ञा, दोनों मिलकर अचूक कार्य सिद्धि होगी ही, यदि भीतर में निश्चय जरा-सा भी इधर-उधर नहीं हुआ तो हमारी आज्ञा तो वह जहाँ जाएगा वहाँ मार्गदर्शन करेगी और हमें जरा भी प्रतिज्ञा नहीं छोड़नी चाहिए। विषय का विचार आए तो आधे घंटे तक धोते रहना कि अभी तक क्यों विचार आता है ? और आँख तो किसी के सामने मिलाना ही नहीं। जिसे ब्रह्मचर्य पालना है उसे आँख तो मिलानी ही नहीं।
किसी स्त्री को यदि हाथ यों ही छू गया हो तो भी निश्चय को डिगा दे। वे परमाणु रात को सोने भी नहीं दें। इसलिए स्पर्श तो होना ही नहीं चाहिए और दृष्टि बचाएँ तो फिर निश्चय डिगेगा नहीं ।
प्रश्नकर्ता: किसी का ब्रह्मचर्य का निश्चय अस्थिर हो तो क्या वह उसकी पूर्व भावना ऐसी होगी, इसलिए?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं, वह निश्चय ही नहीं है उसका। यह पहले का प्रोजेक्ट नहीं है और यह जो निश्चय किया है, वह लोगों का देखकर किया है। यह केवल अनुकरण है इसलिए अस्थिर हुआ करता है। इसके बजाय शादी कर ले न भैया, क्या नुकसान होनेवाला है? कोई लड़की ठिकाने लग जाएगी!
ब्रह्मचर्य में अपवाद रखा जाए ऐसी वस्तु नहीं है, क्योंकि मनुष्य का मन पोल ढूँढता है । किसी जगह ज़रा सा भी छिद्र हो तो मन उसे बड़ा कर देता है।
प्रश्नकर्ता : यह पोल ढूँढ निकालते है, उसमें कौन-सी वृत्ति काम करती है?
दादाश्री : वह मन ही काम करता है, वृत्ति नहीं। मन का स्वभाव ही ऐसा है पोल ढूँढने का ।
२४
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य प्रश्नकर्ता: मन पोल मारता हो तो उसे कैसे रोकें?
दादाश्री : निश्चय से । निश्चय हो तो फिर वह पोल मारेगा ही कैसे ? हमारा निश्चय है, तो वह पोल मारेगा ही नहीं। जिसे 'मांसाहार नहीं करना' ऐसा निश्चय है, वह मांसाहार नहीं ही करता ।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् प्रत्येक विषय में निश्चय कर लेना ? दादाश्री निश्चय से ही सारा कार्य होता है।
प्रश्नकर्ता: आत्मा प्राप्त करने के पश्चात् निश्चय बल रखना पड़ता
है ?
दादाश्री : खुद को रखना ही नहीं है, हमें तो 'चंद्रेश' से कहना है कि आप ठीक से निश्चय रखो। इसके बारे में प्रश्न पूछने हों तो वह पोल ढूँढता है । इसलिए ये प्रश्न पूछनें पड़ें तब उसे चुप करा देना, 'गेट आउट' कह देना, ताकि वह चुप हो जाए। 'गेट आउट' कहते ही सब भाग जाते है।
तुझे क्या होता है?
प्रश्नकर्ता: दिन में ऐसा एविडन्स (संयोग ) मिले तो विषय की एकाध गाँठ फूटती है, पर फिर तुरंत ऐसे थ्री विज़न से देख लेता हूँ।
दादाश्री : नदी में तो एक ही बार डूबा तो मर जाएगा कि रोज़रोज़ डूबे तो मरेगा? नदी में एक बार ही डूब मरेगा, फिर कोई हर्ज है? नदी का कोई नुकसान होगा क्या?
शास्त्रकारों ने तो एक ही बार के अब्रह्मचर्य को 'मृत्यु' कहा है। मर जाना मगर अब्रह्मचर्य मत होने देना ।
कर्म का उदय आए और जागृति नहीं रहती हो तो तब ज्ञान के वाक्य ऊँची आवाज़ में बोलकर जागृति लाए और कर्मों का सामना करे वह 'पराक्रम' कहलाता है। स्व- वीर्य को स्फुरायमान करे, वह पराक्रम है। पराक्रम के सामने किसी की ताकत नहीं है।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
२५
जितना तू सिन्सियर (निष्ठावान) उतनी तेरी जागृति। यह तुझे सूत्र के रूप में हम देते हैं और छोटा बच्चा भी समझ सके ऐसे स्पष्ट रूप में देते हैं। जो जितना सिन्सियर उसकी उतनी जागृति। यह तो विज्ञान है। इसमें जितनी सिन्सियारिटी उतना ही हमारा खुद का (काम) होता है और यह सिन्सियारिटी तो ठेठ मोक्ष की ओर ले जाए। सिन्सियारिटी का फल मोरालिटी (नैतिकता) में आता है।
प्रश्नकर्ता: उस दिन आप कुछ बता रहे थे कि जवानी में भी 'रीज पोइन्ट' होता है, तो वह 'रीज पोइन्ट' क्या है?
दादाश्री : 'रीज पोइन्ट' अर्थात् यह छप्पर होता है न, उसमें 'रीज पोइन्ट' कहाँ पर आया? चोटी पर ।
जवानी जब 'रीज पोइन्ट' पर जाती है उस समय ही सब तहसनहस कर डालती है। उसमें से जो 'पास' हो गया, गुज़र गया, वह जीता। हम तो सब कुछ सँभाल लेते हैं, पर यदि उसका खुद का मन परिवर्तन हो जाए तो फिर उपाय नहीं है। इसलिए हम उसे अभी उदय होने से पहले सिखा देते हैं कि भैया, नीचे देखकर चलना । स्त्री को मत देखना, बाकी पकौड़े- जलेबियाँ सब देखना। इस बारे में आपके लिए गारन्टी नहीं दे सकते, क्योंकि अभी जवानी है।
४. विषय विचार, परेशान करें तब ...
कभी भीतर कोई खराब विचार आए और निकालने में देर हो गई तो फिर उसका भारी प्रतिक्रमण करना पड़ता है। विचार उदय होते ही तुरंत निकाल देना है, उसे फेंक देना है।
५. नहीं चलते, मन के कहने के अनुसार
मन के कहने के अनुसार चलना ही नहीं। मन का कहना यदि हमारे ज्ञान के अनुसार हो तो उतना एडजस्ट कर लेना। हमारे ज्ञान से विरुद्ध चले तो बंद कर देना ।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य देखिए न, चार सौ साल पहले कबीरजी ने कहा, कितने समझदार मनुष्य थे वह ! कहते हैं, 'मन का चलता तन चले, ताका सर्वस्व जाय। ' सयाने नहीं कबीरजी ? और यह तो मन के कहने के अनुसार चलता रहता है। मन कहे कि 'इससे शादी कर लो तो क्या शादी कर लेनी ?
प्रश्नकर्ता: नहीं, ऐसा नहीं कर सकते।
२६
दादाश्री : मन अभी तो बोलेगा। ऐसा बोलेगा तो उस वक्त क्या करेंगे आप? ब्रह्मचर्य व्रत पालन करना हो तो स्ट्रोंग रहना होगा। मन तो ऐसा भी बोलेगा और आपसे भी बुलवाएगा। इसी कारण से मैं कहता था न कि कल सवेरे आप भाग भी जाएँगे। उसका क्या कारण? मन के कहे अनुसार चलनेवाले का भरोसा ही क्या?
प्रश्नकर्ता : अब हम यहाँ से कहीं भी भाग नहीं जाएँगे ।
दादाश्री : मगर मन के कहने के अनुसार चलनेवाला मनुष्य यहाँ से नहीं जाएगा, यह किस गारन्टी के आधार पर ? अरे! मैं तुझे दो दिन हिलाऊँ, अरे, ज़रा-सा हिलाऊँ न, तो परसों ही तू चला जाए! यह तो तुझे पता ही नहीं । तुम्हारे मन का क्या ठिकाना ?
अभी तो तुम्हारा मन तुम्हें 'शादी करने योग्य नहीं है, शादी करने में बहुत दु:ख है' (ऐसा विचार करके) सहाय करता है। यह सिद्धांत दिखलानेवाला तुम्हारा मन पहला है। तुमने यह सिद्धांत ज्ञान से निश्चित नहीं किया है, यह तुम्हारे मन से निश्चित किया है, 'मन' ने तुम्हें सिद्धांत दिखलाया कि 'ऐसा करो।'
प्रश्नकर्ता: ज्ञान से निश्चय किया हो तो फिर उसका मन विरोध ही नहीं करे न?
दादाश्री : नहीं, नहीं करेगा। ज्ञान के आधार पर निश्चय किया हो तो उसका फाउन्डेशन (नींव) ही अलग तरह का होगा न! उसका सारा फाउन्डेशन आर. सी. सी. जैसा होगा। और यह तो रोड़ा का, भीतर क्रोंक्रीट किया हुआ, फिर दरार ही पड़ जाएगी न?
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
२७
६. 'खुद' खुद को डाँटना
इस भाई को देखिए न, खुद ने खुद को डाँटा था, धमका दिया था। वह रोता भी था और खुद को धमकाता भी था, दोनों देखने योग्य चीजें थी।
प्रश्नकर्ता: एक बार दो-तीन दफ़ा चंद्रेश को डाँटा था, तब बहुत रोया भी था। पर मुझे ऐसा भी कहता था कि अब ऐसा नहीं होगा, फिर भी दुबारा होता है।
दादाश्री : हाँ, वह होगा तो सही, पर हर बार फिर से कहते रहना। हमें कहते रहना हैं और वह होता रहेगा। कहने से हमारा जुदापन रहता है, तन्मयाकार नहीं हो जाते। वह पड़ोसी (फाइल नं. १) को डाँटते हैं, इस प्रकार से चलता रहता है। ऐसा करते-करते पूरा हो जाएगा और सभी फाइलें पूरी हो जाएँगी। विषय का विचार आए तब 'यह मैं नहीं हूँ, अलग है' ऐसा रखना और उसे डाँटना होगा।
यह
प्रश्नकर्ता: आप जो शीशे में सामायिक करने का प्रयोग बतलाते हैं न, फिर प्रकृति के साथ बातचीत, वे सभी प्रयोग अच्छे लगते हैं मगर दो-तीन दिन ठीक से होते हैं, फिर उसमें ढीलापन आ जाता है।
:
दादाश्री ढीलापन आए तो फिर से नये सिरे से करना। पुराना हो जाए तब ढीलापन आ जाता है। पुद्गल का स्वभाव, पुराना हो तब बिगड़ने लगता है। उसे फिर से ठीक करके रख देना ।
प्रश्नकर्ता: उस प्रयोग के द्वारा ही कार्य सिद्ध हो जाना चाहिए। लेकिन वह हो नहीं पाता और बीच में ही प्रयोग पूरा हो जाता है। दादाश्री : ऐसा करते-करते सिद्ध होगा, तुरंत नहीं हो जाता ।
७. पश्चाताप सहित के प्रतिक्रमण
प्रश्नकर्ता: कभी कभी तो प्रतिक्रमण करने से ऊब जाते हैं, एक साथ इतने सारे करने पड़ते है।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य दादाश्री : हाँ, यह अप्रतिक्रमण का दोष है। उस वक्त प्रतिक्रमण नहीं किए, उसको लेकर यह हुआ। अब प्रतिक्रमण करने से फिर से दोष नहीं होगा।
२८
प्रश्नकर्ता: कपड़ा (दोष) धुल गया कब कहलाता है? दादाश्री : प्रतिक्रमण करें तब ! हमें खुद को ही पता चले कि मैंने धो डाला।
प्रश्नकर्ता भीतर खेद रहना चाहिए?
:
दादाश्री : खेद तो रहना ही चाहिए। जब तक यह निबटारा नहीं होता तब तक खेद तो रहना ही चाहिए। हमें तो देखते रहना है कि वह खेद रहता है या नहीं। हमें अपना काम करना हैं, वह उसका काम करे। प्रश्नकर्ता : यह सब चिकना बहुत है। उसमें थोड़ा-थोड़ा फर्क पड़ता जाता है।
दादाश्री : जैसा दोष भरा था, वैसा निकलता है। पर वह पाँच साल या दस साल में, बारह साल में सब खाली हो जाएगा। टँकियाँ सभी साफ़ कर देगा। फिर शुद्ध ! फिर आनंद करना !
प्रश्नकर्ता: एक बार बीज पड़ गया हो फिर रूपक में तो आएगा ही न?
दादाश्री : जो बीज पड़ ही जाए न, वह रूपक में आएगा। मगर जब तक वह जम नहीं गया, तब तक कम-ज्यादा हो सकता है। इसलिए मरने से पहले वह शुद्ध हो सकता है।
विषय के दोष हुए हों, अन्य दोष हुए हों, उसे हम कहते हैं कि रविवार को तू उपवास करना और सारा दिन उन दोषों का बार-बार विचार करके उन्हें धोते रहना । ऐसे आज्ञापूर्वक करें तो कम हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता: विषय-विकार संबंधी सामायिक प्रतिक्रमण कैसे करें? किस प्रकार ?
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
२९ दादाश्री: आज तक जो भूलें हो गई हों उनका प्रतिक्रमण करना। और भविष्य में ऐसी भूलें नहीं हों ऐसा निश्चय करना।
प्रश्नकर्ता : हमें सामायिक में जो दोष हुए हैं, वे बार-बार दिखते हों तो?
दादाश्री : दिखें तब तक उसकी क्षमा माँगना, क्षमापना करना, उसके लिए पश्चाताप करना, प्रतिक्रमण करना।
प्रश्नकर्ता : अभी सामायिक में बैठे, यह जो दिखा, फिर भी वही बार-बार क्यों आता है?
दादाश्री : वह तो आएगा न, भीतर परमाणु हों तो आएगा, उसमें हमें क्या हर्ज है?
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य ही नहीं रहता न?
दादाश्री: वह व्यवहार ही बंद हो जाता है। आलपिन और लोहचुंबक का संबंध ही खतम हो जाता है। वह संबंध ही नहीं रहता। उस गाँठ के कारण यह व्यवहार चलता है न! अब विषय स्थूल स्वभावी है और आत्मा सूक्ष्म स्वभावी है, ऐसा भान रहना बड़ा मुश्किल है। इसलिए एकाग्रता हुए बगैर रहती ही नहीं न! वह काम तो ज्ञानी पुरुष का है, दूसरे किसी का यह काम ही नहीं है।
विषय की गाँठ बड़ी होती है, उसके उन्मूलन की बहुत ही आवश्यकता है। इसलिए कुदरती तौर पर हमारे यहाँ यह सामायिक खड़ा हो गया है! सामायिक करो, सामायिक से सब खतम हो जाएगा। कुछ करना तो पड़ेगा न? दादाजी हैं, तब तक सारा रोग निकाल देना पड़ेगा न? एकाध गाँठ ही भारी होती है, पर जो रोग है उसे तो निकालना ही पड़ेगा। उसी रोग के कारण ही अनंत जन्म भटके हैं। यह सामायिक तो किसलिए है कि विषय-भाव का बीज अभी तक गया नहीं है और उस बीज में से ही चार्ज होता है, उस विषय-भाव के बीज के उन्मूलन के लिए यह सामायिक है।
८. स्पर्श सुख की भ्रामक मान्यता
प्रश्नकर्ता : वह आता है तो लगता है कि अभी धुला नहीं।
दादाश्री : नहीं, वह माल तो अभी लम्बे समय तक रहेगा। अभी भी दस-दस बरस तक रहेगा, पर तुम्हें सब निकालना है।
प्रश्नकर्ता : यह जो अंकुर रूप में ही उखाड़ फेंकने का विज्ञान है. कि विषय की गाँठ फटे तब दो पत्तियाँ आते ही उखाड़ फेंकना, तो जीत जाएँगे न?
दादाश्री: हाँ, मगर विषय ऐसी वस्त है कि यदि उसमें एकाग्रता हो तो आत्मा को भूल जाते हैं। यह गाँठ नुकसानदायक है, वह इसी लिए कि यह गाँठ फूटे तब एकाग्रता हो जाती है। एकाग्रता हुई तो वह विषय कहलाता है। एकाग्रता हुए बगैर विषय कहलाता ही नहीं न। वह गाँठ फूटे तब इतनी जागति रहनी चाहिए कि विचार आने के साथ ही उसे उखाड़कर फेंक दे तो फिर वहाँ उसे एकाग्रता नहीं होती। यदि एकाग्रता नहीं है तो वहाँ विषय ही नहीं है, तब वह गाँठ कहलाती है और वह गाँठ खत्म होगी तब काम होगा।
विषय की गंदगी में लोग पड़े हैं। विषय के समय उजाला करें तो खुद को भी अच्छा न लगे। उजाला हो तो डर जाए, इसलिए अंधेरा रखते हैं। उजाला हो तो भोगने की जगह देखना अच्छा नहीं लगता। इसलिए कृपालुदेव ने भोगने के स्थान के संबंध में क्या कहा है?
प्रश्नकर्ता : 'वमन करने योग्य भी चीज़ नहीं है।'
प्रश्नकर्ता : फिर भी स्त्री के अंग की ओर आकर्षण होने का क्या कारण होगा?
दादाश्री : हमारी मान्यता, रोंग बिलीफ़ हैं, इस वजह से। गाय के अंग के प्रति क्यों आकर्षण नहीं होता है? केवल मान्यताएँ; और कुछ होता
प्रश्नकर्ता : वह गाँठ खतम हो जाए तो फिर आकर्षण का व्यवहार
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य नहीं है। मात्र बिलीफ़ हैं। बिलीफ़ तोड़ डालें तो कुछ भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : वह मान्यता खड़ी होती है, वह संयोग के मिलने के कारण होती है?
दादाश्री : लोगों के कहने से हमें मान्यता होती है और आत्मा की उपस्थिति में मान्यता होती है इसलिए दृढ़ हो जाती है वर्ना उसमें ऐसा क्या है? केवल मांस के लौदे हैं!
मन में विचार आए, वह विचार अपने आप ही आते रहते हैं, उसे हम प्रतिक्रमण से धो डालें। फिर वाणी में ऐसा नहीं बोलना कि विषयों का सेवन बहुत अच्छा है और वर्तन में भी ऐसा मत रखना। स्त्रियों की ओर दृष्टि मत करना। स्त्रियों को देखना नहीं, छना नहीं। स्त्री को छ लिया हो तो भी मन में प्रतिक्रमण हो जाना चाहिए कि 'अरे, इसे कहाँ छूआ!' क्योंकि स्पर्श से विषय का असर होता है।
प्रश्नकर्ता : उसे तिरस्कार किया नहीं कहलाता?
दादाश्री : उसे तिरस्कार नहीं कहते। प्रतिक्रमण में तो हम उसके आत्मा से कहते हैं कि 'हमारी भूल हो गई, फिर से ऐसी भूल नहीं हो ऐसी शक्ति दीजिए।' उसीके आत्मा से ऐसा कहना कि मझे शक्ति दीजिए। जहाँ हमारी भूल हुई हो वहीं शक्ति माँगना ताकि शक्ति मिलती रहे।
प्रश्नकर्ता : स्पर्श का असर होता है न?
दादाश्री : उस घड़ी हमें मन संकुचित कर देना है। मैं इस देह से अलग हूँ, मैं चंद्रेश ही नहीं हूँ, यह उपयोग रहना चाहिए, शुद्ध उपयोग रहना चाहिए। कभी कभार ऐसा हो जाए तो शुद्ध उपयोग में ही रहना, मैं 'चंद्रेश' ही नहीं हूँ।
स्पर्श सुख का आनंद लेने का विचार आए तो उसे आने से पहले ही उखाड़ फेंकना। यदि तुरंत उखाड़कर नहीं फेंका तो वह पहले सेकन्ड में वृक्ष बन जाता है, दूसरे सेकन्ड में हमें वह अपनी पकड़ में ले लेता है और तीसरे सेकन्ड में फांसी पर लटकने की बारी आ जाती है।
૩૨
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य हिसाब नहीं होता तो टच (स्पर्श) भी नहीं होता। स्त्री-पुरुष एक ही कमरे में हों फिर भी विचार तक नहीं आता।
प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि हिसाब है इसलिए आकर्षण होता है। तो वह हिसाब पहले से कैसे उखाड़ा जाए?
दादाश्री : वह तो उसी समय, ओन द मोमेन्ट करें तो ही जाए ऐसा है। पहले से नहीं होगा। मन में विचार आए कि 'स्त्री के लिए पास में जगह रखें' तब तुरंत ही उस विचार को उखाड़ देना। 'हेतु क्या है' यह देख लेना। हमारे सिद्धांत के अनुरूप है या सिद्धांत के विरुद्ध है? सिद्धांत के विरुद्ध हो तो तुरंत ही उखाड़कर फेंक देना।
प्रश्नकर्ता : मुझे स्पर्श करना ही नहीं है पर कोई लड़की आकर स्पर्श करे तो फिर मैं क्या करूँ?
दादाश्री : ठीक है। साँप जान-बूझकर छूए उसे हम क्या करते हैं? स्पर्श करना कैसे भाए पुरुष या स्त्री को? जहाँ मात्र गंध ही है, वहाँ छूना कैसे अच्छा लगे?
प्रश्नकर्ता : लेकिन स्पर्श करते समय इसमें से कुछ याद नहीं आता।
दादाश्री : हाँ, वह याद कैसे आए पर? उस समय तो वह स्पर्श इतना पोइजनस (जहरीला) होता है कि मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सभी के ऊपर आवरण आ जाता है। मनुष्य मुर्छित हो जाता है, मानों जानवर ही हो उस घड़ी!
स्पर्श या ऐसा कुछ हो तब आकर मुझे बता देना, मैं तुरंत शुद्ध कर दूंगा।
स्त्री अथवा विषय में रमणता करें, ध्यान करें, निदिध्यासन करें तब तो वह विषय की गाँठ पड़ जाती है। वह कैसे खतम हो? विषय के विरोधी विचारों से खतम हो जाए।
दृष्टि बदले (खींचे) फिर रमणता शुरू होती है। दृष्टि बदले तो उसके
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
३३ पीछे पिछले जन्म के कॉज़ेज़ (कारण) हैं। इसी लिए हर एक को देखकर दृष्टि बदलती नहीं। कुछ को देखें तभी दृष्टि बदलती है। कॉज़ेज़ हों, उसका आगे से हिसाब चला आता हो और फिर रमणता हो तो समझना कि बड़ा भारी हिसाब है। इसलिए वहाँ अधिक जागृति रखनी होगी। उसके प्रति प्रतिक्रमण के तीर बार-बार छोड़ते रहना। आलोचना-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान जबरदस्त करने होंगे।
यह विषय एक ऐसी चीज़ है कि मन और चित्त को जिस तरह रहता हो वैसे नहीं रहने देता और एक बार इसमें पड़े कि उसमें आनंद मानकर उल्टे चित्त का वहीं जाने का बढ़ जाता है और 'बहुत अच्छा है, बड़ा मजेदार है' ऐसा मानकर अनंत बीज पड़ते हैं!
प्रश्नकर्ता : पर वह पहले का वैसा लेकर आया होता है न?
दादाश्री : उसका चित्त वहीं का वहीं चला जाता है, वह पहले का लेकर नहीं आया किन्तु बाद में उसका चित्त छिटक ही जाता है हाथों से! खुद मना करे फिर भी छिटक जाता है। इसलिए ये लड़के ब्रह्मचर्य भाव में रहे तो अच्छा और फिर यों ही जो स्खलन होता है वह तो गलन है। रात में हो गया, दिन में हो गया, वह सब गलन है। पर इन लड़कों को यदि एक ही बार विषय ने छू लिया हो न, तो फिर रात-दिन उसीके ही सपने आते हैं।
३४
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य पूर्णरूप से स्वतंत्र हो गया हूँ। मन में कैसे भी बुरे विचार आएँ उसमें हर्ज नहीं, पर चित्त का हरण नहीं ही होना चाहिए।
चित्तवृत्तियाँ जितना भटकेंगी उतना आत्मा को भटकना पड़ता है। जहाँ चित्तवृत्ति जाए, वहाँ हमें जाना पड़ेगा। चित्तवृत्ति अगले जन्म के लिए आवागमन का नक्शा बना देती है। उस नक्शे के अनुसार फिर हम घूमेंगे। कहाँ-कहाँ घूम आती होगी चित्तवृत्तियाँ?
प्रश्नकर्ता : चित्त जहाँ-तहाँ नहीं अटक जाता, पर किसी एक जगह अटक गया तो वह पिछला हिसाब है?
दादाश्री : हाँ, हिसाब हो तभी अटक जाता है। पर अब हमें क्या करना है? पुरुषार्थ वही कहलाए कि जहाँ हिसाब है वहाँ पर भी अटकने नहीं दे। चित्त जाए और धो डालें तब तक अब्रह्मचर्य नहीं माना जाता। चित्त गया और धो नहीं डाला तो वह अब्रह्मचर्य कहलाता है।
चित्त को जो डिगा दें वे सभी विषय ही हैं। ज्ञान के बाहर जिन जिन वस्तुओं में चित्त जाता है, वे सारे विषय ही हैं।
प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि कैसा भी विचार आए उसमें हर्ज नहीं है, पर चित्त वहाँ जाए उसमें हर्ज है।
दादाश्री : हाँ, चित्त का ही झमेला है न! चित्त भटकता है वही झमेला न! विचार तो कैसे भी हों, उसमें हर्ज नहीं पर इस ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् चित्त इधर-उधर नहीं होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : कभी ऐसा हो तो उसका क्या?
दादाश्री : हमें वहाँ पर 'अब ऐसा नहीं हो' ऐसा पुरुषार्थ करना होगा। पहले जितना जाता था अब भी उतना ही जाता है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, उतना ज्यादा स्लिप नहीं होता, फिर भी पूछता
तुझे ऐसा अनुभव है कि विषय में चित्त जाता है तब ध्यान बराबर नहीं रहता?
प्रश्नकर्ता : यदि चित्त ज़रा-सा भी विषय के स्पंदन को छू गया तो कितने ही समय तक खुद की स्थिरता नहीं रहने देता।
दादाश्री : इसलिए मैं क्या कहना चाहता हूँ कि सारे संसार में घूमो पर यदि कोई भी चीज़ आपके चित्त का हरण नहीं कर सके तो आप स्वतंत्र हो। कई सालों से मैंने अपने चित्त को देखा है कि कोई चीज़ उसका हरण नहीं कर सकती, इसलिए फिर मैंने खुद को पहचान लिया कि मैं
दादाश्री : नहीं, मगर चित्त तो जाना ही नहीं चाहिए। मन में कैसे
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य फाइल आए उस घड़ी भीतर तूफ़ान मचा दे। ऊपर जाए, नीचे जाए, उसका विचार आने के साथ ही। भीतर तो सिर्फ गंदगी भरी है, कचरा माल ही है। भीतर आत्मा की ही क़ीमत है।
___ फाइल गैरहाजिर हो और याद रहे तो बड़ा जोखिम कहलाए। फाइल गैरहाजिर हो तो याद न रहे पर आते ही असर करे वह सेकन्डरी (दूसरे प्रकार का) जोखिम। हम उसका असर होने ही नहीं दें। स्वतंत्र होने की जरूरत है। हमारी उस घड़ी लगाम ही टूट जाती है। फिर लगाम रहती नहीं न!
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य भी खराब विचार आएँ उसमें हर्ज नहीं, उसे बार-बार हटाते रहो। उसके साथ दूसरी बातचीत का व्यवहार करो कि फलाँ आदमी मिलेगा तो उसका क्या करेंगे? उसके लिए ट्रक, मोटरें कहाँ से लाएँगे? अथवा सत्संग की बात करो ताकि मन फिर नये विचार दिखाएगा।
अधिक से अधिक चित्त किसमें फँसता है? विषय में, और चित्त विषय में फँसा कि उतना आत्मऐश्वर्य टूट गया। ऐश्वर्य टूटा तो जानवर (जैसा) हो गया। अतः विषय ऐसी वस्तु है कि उससे ही सारा जानवरपन आया है। मनुष्य में से जानवरपन विषय के कारण हुआ है। फिर भी हम आपसे क्या कहते हैं कि यह तो पहले से संग्रह किया माल है, इसलिए निकलेगा तो सही लेकिन अब नये सिरे से संग्रह नहीं करें वह उत्तम कहलाए।
९. 'फाइल' के प्रति कड़ाई प्रश्नकर्ता : वह यदि मोह-जाल डाले तो उससे कैसे बचें?
दादाश्री : हम दृष्टि ही नहीं मिलाएँ। हम समझ जाएँ कि यह जाल खींचनेवाली है, इसलिए उसके साथ दृष्टि ही नहीं मिलाना।
जहाँ हमें लगे कि यहाँ फँसाव ही है, वहाँ उसे मिलना ही नहीं।
किसी भी स्त्री के साथ आँख मिलाकर बात नहीं करना, आँखें नीचे करके ही बात करना। दृष्टि से ही बिगड़ता है। उस दृष्टि में विष होता है और बाद में विष चढ़ने लगता है। इसलिए नज़र मिली हो, दृष्टि
आकर्षित हुई हो तो तुरंत प्रतिक्रमण कर लेना। वहाँ तो सावधान ही रहना चाहिए। जिसे यह जीवन बिगड़ने नहीं देना है, उसे सावधान रहना पड़ता है।
जहाँ मन आकर्षित होता हो, वह फाइल (व्यक्ति) आए तो उस घड़ी मन चंचल ही रहा करता है। उस घडी तुम्हारा मन चंचल हो तो हमें भीतर बहुत दु:ख होता है। इसका मन चंचल हआ था इसलिए हमारी दृष्टि उस पर सख्त हो जाती है।
जिसको फाइल (विशेष आकर्षण या लगाव हो गया हो ऐसी व्यक्ति) हो चुकी है, उसके लिए भारी जोखिम है। उसके लिए सख़्ती बरतनी चाहिए। सामने आए तो आँख दिखानी पडे ताकि वह फाइल तुझसे डरती रहे। उलटा, फाइल हो जाने के बाद तो लोग चप्पल मारते हैं ताकि दोबारा वह मुँह दिखाना ही भूल जाए।
प्रश्नकर्ता : फाइल हो और उसके प्रति हमें तिरस्कार नहीं होता हो तो जान-बूझकर तिरस्कार पैदा करें क्या?
दादाश्री : हाँ, तिरस्कार क्यों नहीं पैदा होगा? जो हमारा इतना भारी अहित करे, उस पर तिरस्कार नहीं होगा क्या? इसलिए अभी पोल है! नियत चोर है!
प्रश्नकर्ता : बहुत परिचय हो तो उसका अपरिचय कैसे करे? तिरस्कार करके?
दादाश्री : 'नहीं है मेरी, नहीं है मेरी' करके, बहुत प्रतिक्रमण करना। फिर सामने मिल जाए तो सुना देना कि 'क्या ऐसा मुँह लेकर घूम रही है? जानवर जैसी, युजलेस (निकम्मी)!' फिर वह दोबारा मुँह नहीं दिखाएगी।
प्रश्नकर्ता : सामनेवाली फाइल हमारे लिए फाइल नहीं है, पर उसके लिए हम फाइल हैं ऐसा हमें पता चले तो हमें क्या करना चाहिए?
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
दादाश्री : तब तो फिर पहले से ही उड़ा देना। ज्यादा सख्त हो जाना। वह कल्पनाएँ ही बंद कर दे। न हो तो भी कुछ पागल जैसा भी बोल देना। उसे कहना कि 'चार चपत लगा दूँगा यदि मेरे सामने आएगी तो। मेरे जैसा कोई चक्रम नहीं मिलेगा।' ऐसा कहें तो वह फिर आएगी ही नहीं। वह तो ऐसे ही खिसके।
१०. विषयी वर्तन? तो डिसमिस यहाँ किसी पर दृष्टि बिगड़े वह गलत कहलाए। यहाँ तो सभी विश्वास से आते हैं न!
दूसरी जगह पर पाप किया हो, वह यहाँ आने से धुल जाएगा किन्तु यहाँ पर किया गया पाप नर्कगति में भोगना पड़ेगा। जो हो गए हैं उन्हें लेट गो (जाने दें) करें पर नया तो होने ही नहीं दें न! हो गया है उसका कोई उपाय है क्या?
पाशवता करना उसके बजाय शादी करना बेहतर। शादी में क्या हर्ज है? शादी की पाशवता फिर भी ठीक है। शादी करनी नहीं और गलत छेड़-छाड़ करना वह तो भयंकर पाशवता कहलाए। वे तो नर्कगति के अधिकारी! और वह तो यहाँ होना ही नहीं चाहिए न? शादी तो हक़ का विषय कहलाता है।
ब्रह्मचर्य भंग करना वह तो सबसे बड़ा दोष है। ब्रह्मचर्य भंग हो वह तो बड़ी मुश्किल, थे वहाँ से लुढ़क गए। दस साल पहले बोया हुआ पेड़ हो और आज गिर पड़े तो आज से ही बोया ऐसा ही हुआ न और दसों साल बेकार गए न! ब्रह्मचर्यवाला एक ही दिन गिर जाए तो खतम हो गया।
प्रश्नकर्ता : निश्चय तो है मगर भूलें हो जाती है।
दादाश्री : दूसरी भूलें होंगी तो चला लेंगे, लेकिन विषय संयोग नहीं होना चाहिए।
दो कलमें (बातें); ऐसा लिखने का कि एक, अगर विषयी वर्तन
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य हो तो हम अपने आप निवृत हो जाएँगे, किसी को हमें निवृत करना नहीं पड़ेगा। हम खुद ही यह स्थान छोड़कर चले जाएंगे और दूसरा, यदि प्रमाद होगा, दादाजी की उपस्थिति में नींद के झोंके आएँ तो उस समय संघ जो हमें शिक्षा करेगा, तीन दिन भूखा रहने की या ऐसी कोई, जो भी शिक्षा करेंगे उसे स्वीकारेंगे।
११. सेफसाइड तक की बाड़ ब्रह्मचर्य पाल सके उसके लिए इतने कारण होने चाहिए। एक तो हमारा यह 'ज्ञान' होना चाहिए। ब्रह्मचारियों का समूह होना चाहिए। ब्रह्मचारियों के रहने की जगह शहर से ज़रा दूर होनी चाहिए और साथ ही उनका पोषण होना चाहिए। अर्थात् ऐसे सभी 'कॉज़ेज़' (कारण) होने चाहिए।
प्रश्नकर्ता : उसका अर्थ ऐसा हुआ कि कुसंग निश्चयबल को काट डालता है?
दादाश्री : हाँ, निश्चयबल को काट डालता है। अरे, मनुष्य में सारा परिवर्तन ही कर देता है और सत्संग भी मनुष्य का परिवर्तन कर डालता है। लेकिन जो एक बार कुसंग में गया उसे सत्संग में लाना हो तो बहुत मुश्किल हो जाए और सत्संगवाले को कुसंगी बनाना हो तो देर नहीं लगती।
प्रश्नकर्ता : सभी गाँठे हैं, उनमें विषय की गाँठ जरा ज्यादा परेशान करती है।
दादाश्री : कुछ गाँठे अधिक परेशान करती है। उनके लिए हमें सैना तैयार रखनी होगी। ये सारी गाँठे तो धीरे-धीरे एग्जॉस्ट (खाली) हुआ ही करती हैं, घिसती ही रहती हैं, इसलिए एक दिन सारी नष्ट हो ही जाएंगी।
प्रश्नकर्ता : सैना यानी क्या? प्रतिक्रमण?
दादाश्री : प्रतिक्रमण, दृढ़ निश्चय, वह सारी सैना तो रखनी होगी और साथ में 'ज्ञानी पुरुष' के दर्शन, उस दर्शन से अलग हो जाने पर भी मुश्किल आ पड़ेगी। यानी सेफसाइड कोई आसान बात नहीं है।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
३९
प्रश्नकर्ता: संपूर्ण सेफसाइड कब होती है ?
दादाश्री : संपूर्ण सेफसाइड कब हो, उसका तो कोई ठिकाना ही नहीं न! पर पैंतीस साल की उम्र होने के बाद ज़रा उसके दिन ढलने लगते हैं। इससे वह आपको ज्यादा परेशान नहीं करता। फिर आपकी धारणा के अनुसार चलता रहता है। वह आपके विचारों के अधीन रहता है। आपकी इच्छा न बिगड़े। आपको फिर कोई नुकसान नहीं करता । पर पैंतीस साल की उम्र होने तक तो बहुत बड़ा जोखिम है !
१२. तितिक्षा के तप से तपाइए मन - देह
प्रश्नकर्ता: उपवास किया हो, उस रात अलग ही तरह के आनंद का अनुभव होता है, उसका क्या कारण?
दादाश्री : बाहर का सुख नहीं लेते तब अंदर का सुख उत्पन्न होता है। यह बाहरी सुख लेते हैं इसलिए अंदर का सुख बाहर प्रकट नहीं होता । हमने ऊणोदरी तप आखिर तक रखा था। दोनों वक्त जरूरत से कम ही खाना, सदा के लिए। ताकि भीतर निरंतर जागृति रहे । ऊणोदरी तप यानी क्या कि रोज़ाना चार रोटियाँ खाते हों तो दो खाना, वह ऊणोदरी तप कहलाता है।
प्रश्नकर्ता: आहार से ज्ञान को कितनी बाधा होती है?
दादाश्री : बहुत बाधा आती है। आहार बहुत बाधक है, क्योंकि यह आहार जो पेट में जाता है, उसका फिर मद होता है और सारा दिन फिर उसका नशा, कैफ़ ही कैफ़ चढ़ता रहता है।
जिसे ब्रह्मचर्य का पालन करना है, उसे ख्याल रखना होगा कि कुछ प्रकार के आहार से उत्तेजना बढ़ जाती है। ऐसा आहार कम कर देना । चरबीवाला आहार जैसे कि घी तेल (अधिक मात्रा में) मत लेना, दूध भी ज़रा कम मात्रा में लेना । दाल-चावल, सब्ज़ी-रोटी आराम से खाओ पर उस आहार का प्रमाण कम रखना। दबाकर मत खाना । अर्थात् आहार
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य कितना लेना चाहिए कि ऐसे केफ़ (नशा) नहीं चढ़े और रात को तीनचार घंटे ही नींद आए, बस उतना ही आहार लेना चाहिए।
४०
इतने छोटे-छोटे बच्चों को बेसन और गोंद से बनी मिठाइयाँ खिलातें हैं! जिसका बाद में बहुत बुरा असर होता है। वे बहुत विकारी हो जाते हैं। इसलिए छोटे बच्चों को यह सब अधिक मात्रा में नहीं देना चाहिए। उसका प्रमाण रखना चाहिए।
मैं तो चेतावनी देता हूँ कि ब्रह्मचर्य पालना हो तो कंदमूल नहीं खाने चाहिए।
प्रश्नकर्ता: कंदमूल नहीं खाने चाहिए?
दादाश्री : कंदमूल खाना और ब्रह्मचर्य पालना, वह रोंग फिलासफ़ी ( गलत दर्शन) है, विरोधी बात है।
प्रश्नकर्ता: कंदमूल नहीं खाना, जीव हिंसा के कारण है या और
कुछ ?
1
दादाश्री : कंदमूल तो अब्रह्मचर्य को जबरदस्त पुष्टि देनेवाला है। इसीलिए ऐसे नियम रखने की आवश्यकता है कि जिससे उनका ब्रह्मचर्य टिका रहे।
१३. न हो असार, पुद्गलसार
ब्रह्मचर्य क्या है? वह पुद्गलसार है। हम जो आहार खाते-पीते हैं, उन सभी का सार क्या रहा? 'ब्रह्मचर्य'! वह सार यदि आपका चला गया तो आत्मा को जिसका आधार है, वह आधार ढीला हो जाएगा। इसलिए ब्रह्मचर्य मुख्य वस्तु है। एक ओर ज्ञान हों और दूसरी ओर ब्रह्मचर्य हो तो सुख की सीमा ही नहीं रहेगी! फिर ऐसा 'चेन्ज' (परिवर्तन) हो जाए कि बात ही मत पूछिए ! क्योंकि ब्रह्मचर्य तो पुद्गलसार है।
यह सब खाते हैं, पीते हैं, उसका क्या होता होगा पेट में? प्रश्नकर्ता: रक्त होता है।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
४२
दादाश्री : उस रक्त का फिर क्या होता है? प्रश्नकर्ता : रक्त से वीर्य होता है।
दादाश्री : ऐसा? वीर्य को समझता है? रक्त से वीर्य होगा, उस वीर्य का फिर क्या होगा? रक्त की सात धातुएँ कहते हैं न? उनमें एक से हड्डियाँ बनती है, एक से मांस बनता है, उनमें से फिर अंत में वीर्य बनता है। आखरी दशा वीर्य होती है। वीर्य पुद्गलसार कहलाता है। दूध का सार घी कहलाता है, ऐसे ही यह जो आहार ग्रहण किया उसका सार वीर्य कहलाता है।
लोकसार मोक्ष है और पुद्गलसार वीर्य है। संसार की सारी चीजें अधोगामी हैं। वीर्य अकेला ही यदि चाहें तो ऊर्ध्वगामी हो सकता है। इसलिए वीर्य ऊर्ध्वगामी हो ऐसी भावना करनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान में रहें तो अपने आप ऊर्ध्वगमन होगा ही न?
दादाश्री : हाँ, और यह ज्ञान ही ऐसा है कि यदि इस ज्ञान में रहें तो कोई हर्ज नहीं है, पर अज्ञान खड़ा हो जाए तब भीतर यह रोग पैदा होता है। उस समय जागृति रखनी पड़ती है। विषय में तो अत्याधिक हिंसा है, खाने-पीने में कुछ ऐसी हिंसा नहीं होती है।
इस संसार में साइन्टिस्ट आदि सब लोग कहते हैं कि वीर्य-रज अधोगामी है। मगर अज्ञानता के कारण अधोगामी है। ज्ञान में तो ऊर्ध्वगामी होता है, क्योंकि ज्ञान का प्रभाव है न! ज्ञान हो तो कोई विकार ही नहीं होता है।
प्रश्नकर्ता : आत्मवीर्य प्रकट हो तब उसमें क्या होता है? दादाश्री : आत्मा की शक्ति बहुत बढ़ जाती है।
प्रश्नकर्ता : तब यह जो दर्शन है, जागृति है वह और उस आत्मवीर्य का, उन दोनों का कनेक्शन क्या है?
दादाश्री : जागृति आत्मवीर्य कहलाती है। आत्मवीर्य का अभाव
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य हो तो वह व्यवहार का सोल्युशन नहीं करता, पर व्यवहार को हटाकर अलग कर देता है। आत्मवीर्यवाला तो कहेगा, 'चाहे जो भी आए', उसे उलझन नहीं होती। अब वे शक्तियाँ उत्पन्न होंगी।
प्रश्नकर्ता : वे शक्तियाँ ब्रह्मचर्य से पैदा होती हैं?
दादाश्री: हाँ, यदि ब्रह्मचर्य अच्छी तरह से पाला जाए तब और ज़रा-सा भी लीकेज नहीं होना चाहिए। यह तो क्या हुआ है कि व्यवहार सीखे नहीं और यों ही यह सब हाथ में आ गया है!
जहाँ रुचि वहाँ आत्मा का वीर्य बरतेगा। इन लोगों की रुचि किसमें है? आईस्क्रीम में है पर आत्मा में नहीं।
यह संसार रुचे नहीं, बहुत सुंदर से संदर चीज़ ज़रा भी रुचे नहीं। सिर्फ आत्मा की ओर ही रुचि रहा करे, रुचि बदल जाए। और जब देहवीर्य प्रकट होता है तब आत्मा की रुचि नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : आत्मवीर्य प्रकट होना, किस प्रकार होता है?
दादाश्री : निश्चय किया हो और हमारी आज्ञा पाले. तब से उर्ध्वगति में जाता है।
वीर्य को ऐसी आदत नहीं है, अधोगति में जाने की। वह तो खुद का निश्चय नहीं है इसलिए अधोगति में जाता है। निश्चय किया तो फिर दूसरी ओर मुड़ता है। फिर चेहरे पर दूसरों को तेज दिखने लगता है और यदि ब्रह्मचर्य पालते हुए चेहरे पर कोई असर नहीं हो, तो 'ब्रह्मचर्य पूर्ण रूप से पालन नहीं किया' ऐसा कहलाए।
प्रश्नकर्ता : वीर्य का ऊर्ध्वगमन शुरू होनेवाला हो तो उसके लक्षण क्या हैं?
दादाश्री : तेज आने लगता है, मनोबल बढ़ता जाता है, वाणी फर्स्ट क्लास (बहुत अच्छी) निकलती है, वाणी मिठासवाली होती है, वर्तन मिठासवाला होता है। ये सारे उसके लक्षण होते हैं। ऐसा होने में तो देर
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य लगती है, वैसे ही तुरंत नहीं होगा। अभी, एकदम से नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : स्वप्नदोष क्यों होता होगा?
दादाश्री : ऊपर पानी की टंकी हो, और उसमें से पानी नीचे गिरने लगे तो हम नहीं समझें कि छलक गई ! स्वप्नदोष अर्थात् छलकना। टंकी छलक गई! उसके लिए कॉक नहीं रखना चाहिए?
आहार पर नियंत्रण रखेंगे तो स्वप्नदोष नहीं होगा। इसलिए ये महाराज एक बार ही आहार लेते हैं न वहाँ! और कछ लेते ही नहीं. चायवाय कुछ नहीं लेते।
प्रश्नकर्ता : उसमें रात्रि भोजन का महत्व है, रात्रि भोजन कम करना चाहिए।
दादाश्री: रात में भोजन ही नहीं लेना चाहिए। यह महाराज एक ही बार आहार करते हैं।
फिर भी अगर डिस्चार्ज हो उसमें हर्ज नहीं है। यह तो भगवान ने कहा है कि हर्ज नहीं। वह तो जब भर जाता है तब ढक्कन खुल जाता है। ब्रह्मचर्य ऊर्ध्वगमन हुआ नहीं है, तब तक अधोगमन ही होता है। ऊर्ध्वगमन तो ब्रह्मचर्य का निश्चय किया तब से ही शुरू होता है।
सावधान होकर चलना अच्छा। महीने में चार बार डिस्चार्ज हो तो भी हर्ज नहीं है। हमें जान-बूझकर डिस्चार्ज नहीं करना चाहिए। वह गुनाह है, आत्महत्या कहलाए। यों ही हो जाए उसमें हर्ज नहीं है। यह सब उलटासीधा खाने का परिणाम है। ऐसी डिस्चार्ज की कौन देगा? वे लोग कहते हैं, डिस्चार्ज भी नहीं होना चाहिए। तब कहें, 'क्या मैं मर जाऊँ? कुएँ में जा गिरूँ?'
प्रश्नकर्ता : वीर्य का गलन होता है, वह पुद्गल के स्वभाव में होता है या किसी जगह हमारा लीकेज होता है, इसलिए होता है?
दादाश्री : हम देखें और हमारी दृष्टि बिगड़ी, तब वीर्य का कुछ
४४
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य भाग 'एग्जॉस्ट' (स्खलित) हो गया कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : वह तो विचारों से भी हो जाता है।
दादाश्री : विचारों से भी 'एग्जॉस्ट' होता है, दृष्टि से भी 'एग्जॉस्ट' होता है। वह 'एग्जॉस्ट' हुआ माल फिर डिस्चार्ज होता रहता है।
प्रश्नकर्ता : पर ये जो ब्रह्मचारी हैं, उन्हें तो कुछ ऐसे संयोग नहीं होते, वे स्त्रियों से दूर रहते हैं, तसवीरें नहीं रखते, केलेन्डर नहीं रखते हैं, फिर भी उन्हें डिस्चार्ज हो जाता है, तो उनका स्वाभाविक डिस्चार्ज नहीं कहलाता?
दादाश्री : फिर भी उन्हें मन में यह सब दिखता है। दूसरे, वे आहार अधिक लेते हो और उसका वीर्य अधिक बनता हो, फिर वह प्रवाह बह जाता हो ऐसा भी हो सकता है।
वीर्य का स्खलन किसे नहीं होता? जिसका वीर्य बहुत मज़बूत हो गया हो, बहुत गाढ़ा हो गया हो, उसे नहीं होता। यह तो सभी पतले हो गये वीर्य कहलाएँ।
प्रश्नकर्ता : मनोबल से भी उसे रोका जा सकता है?
दादाश्री : मनोबल तो बहुत काम करता है। मनोबल ही काम करता है पर वह ज्ञानपूर्वक होना चाहिए। यों ही मनोबल टिकता नहीं न!
प्रश्नकर्ता : स्वप्न में डिस्चार्ज जो होता है, वह पिछला घाटा है?
दादाश्री : उसका कोई सवाल नहीं। ये पिछले घाटे सभी स्वप्नावस्था में चले जाएंगे। स्वप्नावस्था के लिए हम किसी को गुनहगार नहीं मानते हैं। हम जागृत अवस्था (में डिस्चार्ज करनेवाले) को गुनहगार मानते हैं, खुली आँख से जागृत अवस्था ! फिर भी स्वप्नावस्था में जो हो जाता है उसे बिलकुल नज़रअंदाज़ करने जैसा नहीं है, वहाँ सावधानी बरतना। स्वप्नावस्था के बाद सबेरे पछतावा करना पड़ता है। उसका प्रतिक्रमण करना होगा कि दुबारा ऐसा नहीं हो। हमारी पाँच आज्ञा का पालन
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य नहीं।' मैंने कहा, 'तेरी नियत यदि शुद्ध है तो ब्रह्मचर्य ही है।' तब कहता है, 'पर ऐसा हो जाता है। मैंने कहा, 'भैया, वह गलन नहीं है। वह तो जो पूरण हुआ है वही गलन हो जाता है। उसमें तेरी नियत नहीं बिगड़नी चाहिए, ऐसा रखना, वह संभालना। नियत नहीं बिगड़नी चाहिए कि इसमें सुख है।' भीतर दु:खी हो रहा था बेचारा! ऐसे कह दे तो तुरंत धो दें।
अभी विषय का कोई विचार आया, तुरंत तन्मयाकार हुआ इसलिए भीतर भरा हुआ माल गिरकर (सूक्ष्म में स्खलन होकर) नीचे गया। फिर सारा जमा होकर निकल जाता है, फ़ौरन। परंतु विचार आते ही तुरंत उसे उखाड़ फेंके तो भीतर फिर झड़ता नहीं, ऊर्ध्वगामी होता है। इतना सारा भीतर में विज्ञान है!
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य करें तो उसमें कभी विषय विकार हो ऐसा है ही नहीं।
आपको ब्रह्मचर्य पालन करना हो तो हर प्रकार से सावधान रहना होगा। वीर्य ऊर्ध्वगामी हो फिर अपने आप चलता रहेगा। अभी तो वीर्य ऊर्ध्वगामी हुआ नहीं है। अभी तो उसका अधोगामी स्वभाव है। वीर्य ऊर्ध्वगामी हो फिर सभी ऊपर उठेगा। फिर वाणी-बाणी बढिया निकलेगी. भीतर दर्शन भी उच्च प्रकार का विकसित हुआ होगा। वीर्य उर्ध्वगामी होने के बाद परेशानी नहीं होगी। तब तक खाने-पीने में बहुत नियम रखना पड़ता है। वीर्य उर्ध्वगामी हो इसके लिए आपको उसे मदद तो करनी पड़ेगी या सब यों ही चलता रहेगा?
यदि ब्रह्मचर्य की नियंत्रण में रहकर कुछ साल के लिए रक्षा हुई, तो फिर वीर्य ऊर्ध्वगामी होगा और तभी ये शास्त्र-पुस्तकें सभी दिमाग में धारण कर सकेंगे। धारण करना कोई आसान बात नहीं है, वर्ना पढ़ता जाएगा और भूलता जाएगा।
प्रश्नकर्ता : यह प्राणायाम, योग आदि ब्रह्मचर्य के लिए सहायक हो सकते हैं क्या?
दादाश्री: यदि ब्रह्मचर्य की भावना से यह सब करे तो सहायक हो सकता है। ब्रह्मचर्य की भावना होनी चाहिए और यदि आपको शरीर स्वस्थ रखने के लिए करना हो तो उससे शरीर स्वस्थ होगा। अर्थात् भावना पर सब आधार है। पर आप इन सब बातों में मत पड़ना, वर्ना हमारा आत्मा एक ओर रह जाएगा।
ब्रह्मचर्य व्रत लिया हो और कुछ उलटा-सीधा हो जाए तो उलझ जाता है। एक लड़का उलझन में था, मैंने पूछा, 'क्यों भाई, किस उलझन में हो?' उसने कहा, 'आपको बताते हए मुझे शर्म आती है। मैंने कहा, 'क्यों शर्म आती है? लिखकर दे। मुँह से कहते शर्म आती हो तो लिखकर दे।' तब कहने लगा, 'महीने में दो-तीन बार मुझे डिस्चार्ज हो जाता है।' मैंने पूछा 'अरे पगले, उसमें इतना घबराता क्यों है? तेरी नियत तो नहीं न? तेरी नियत में खोट है?' तब कहता है, 'बिलकुल नहीं, बिलकुल
प्रश्नकर्ता : विचार आने के साथ ही?
दादाश्री : ओन द मोमेन्ट (उसी क्षण)। वह बाहर नहीं निकले मगर भीतर में अलग हो गया। बाहर निकलने के लायक जो माल हो गया फिर वह शरीर में नहीं रहता।
प्रश्नकर्ता : अलग हो जाने के बाद प्रतिक्रमण करें तो फिर ऊपर नहीं उठेगा अथवा ऊर्ध्वगमन नहीं होगा?
दादाश्री : प्रतिक्रमण करें तो क्या होता है कि आप उससे अलग हैं ऐसा अभिप्राय दिखाते हो कि हमारा उसमें लेना-देना नहीं है।
भरा हुआ माल है वह तो निकले बगैर रहेगा नहीं। विचार आया उसे पोषण दिया, तो फिर वीर्य कमज़ोर हो गया। इसलिए किसी भी रास्ते डिस्चार्ज हो जाता है और यदि भीतर टिका, विषय का विचार ही नहीं आया तो ऊर्ध्वगामी होता है। वाणी मज़बूत होकर निकलती है। वर्ना विषय को हमने संडास कहा हुआ ही है। यह सब जो उत्पन्न होता है वह संडास बनने के लिए ही होता है। ब्रह्मचर्य पालनेवाले को सब कुछ प्राप्त होता है। खुद को वाणी में, बुद्धि में, समझ में, सबमें प्रकट होता है। वर्ना वाणी बोलें तो प्रभाव नहीं होता, परिणाम भी नहीं आता। वीर्य का ऊर्ध्वगमन
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७
४८
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य हो फिर वाणी फर्स्ट कलास हो जाती है और सारी शक्तियों का आविर्भाव होता है। सारे आवरण टूट जाते हैं।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य किस तरह से है। यदि विचार यों ही नहीं आता तो बाहर देखने से भी विचार पैदा होते हैं।
विषय का विचार तो कब आता है? यों देखा और आकर्षण हुआ इसलिए विचार आता है। कभी कभार ऐसा भी होता है कि बिना आकर्षण हुए विचार आता है। विषय का विचार आया कि मन में एकदम मंथन होता है और जरा-सा मंथन हुआ कि वहाँ फिर तुरंत स्खलन हो ही जाता है। इसलिए हमें पौधा उगने से पहले ही उखाड़ फेंकना चाहिए। दूसरा सब चलेगा, पर यह (विषय का) पौधा बड़ा दुःखदायी होता है। जो स्पर्श नुकसानदायक हो, जिस मनुष्य का संग नुकसानदायक हो, वहाँ से दूर रहना चाहिए। इसलिए तो शास्त्रकारों ने यहाँ तक कहा है कि स्त्री जिस जगह पर बैठी हो उस स्थान पर मत बैठना, यदि ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो। और यदि संसारी रहना हो तो वहाँ बैठना।
प्रश्नकर्ता : वास्तव में तो विचार ही नहीं आना चाहिए न?
दादाश्री : विचार तो आए बिना रहता नहीं है। भीतर माल भरा हुआ है इसलिए विचार तो आएगा, पर प्रतिक्रमण उसका उपाय है। विचार नहीं आना चाहिए ऐसा हो तो गुनाह है।
प्रश्नकर्ता : (विषय का विचार ही न आए) वह स्टेज आनी चाहिए?
दादाश्री : हाँ, पर विचार न आने की स्थिति तो, लम्बे अरसे के बाद जब डिवेलप होते होते आगे बढ़ता है तब आए। प्रतिक्रमण करते करते आगे बढ़े, फिर उसकी पूर्णाहुति हो! प्रतिक्रमण करने लगे तो फिर पाँच जन्मों-दस जन्मों के बाद भी पूर्णाहुति हो जाएगी। एक जन्म में तो खत्म न भी हो।
१४. ब्रह्मचर्य से प्राप्ति ब्रह्मांड के आनंद की
इस कलियुग में, इस दुषमकाल में ब्रह्मचर्य का पालन बहुत मुश्किल है। अपना ज्ञान ऐसा ठंडकवाला है कि भीतर हमेशा ठंडक रहती है। इसलिए ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं। अब्रह्मचर्य किस कारण से है? जलन की वजह से है। सारा दिन कामकाज करके जलन, निरंतर जलन पैदा हुई है। यह ज्ञान है इसलिए मोक्ष के लिए हर्ज नहीं, पर साथ-साथ ब्रह्मचर्य हो तो उसका आनंद भी ऐसा ही होगा न! अहो! अपार आनंद! वह तो दुनिया ने कभी चखा ही नहीं, वैसा आनंद उत्पन्न हो जाए! ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत में ही यदि पैंतीस साल की वह अवधि निकाल दे, उसके बाद तो अपार आनंद उत्पन्न होगा!
ब्रह्मचर्य व्रत सभी को लेने की आवश्यकता नहीं होती। वह तो जिसके उदय में आए, भीतर ब्रह्मचर्य के बहुत विचार आते रहते हों, तो फिर व्रत लें। जिसे ब्रह्मचर्य बरते, उसके दर्शन की तो बात ही अलग न? किसी को ही उदय में आए, उसीके लिए यह ब्रह्मचर्य व्रत है। अगर उदय में नहीं आए तो उलटे मुश्किल हो जाए। ब्रह्मचर्य व्रत साल भर के लिए या छ: महीने के लिए भी ले सकते हैं। हमें ब्रह्मचर्य के बहुत सारे विचार आते रहते हों, उस विचार को हम दबाते रहें तब भी उसके विचार आते रहते हों, तभी ब्रह्मचर्य व्रत माँगना; वर्ना यह ब्रह्मचर्य व्रत माँगने जैसा नहीं है। यहाँ ब्रह्मचर्य व्रत लेने के पश्चात् उसे तोड़ना महान अपराध है। आपको किसी ने बाध्य नहीं किया कि आप ब्रह्मचर्य व्रत लें ही।
इस काल में तो ब्रह्मचर्य व्रत सारी ज़िन्दगी का दिया जाए ऐसा नहीं है। देना ही जोखिम है। साल भर के लिए दे सकते हैं। बाकी सारी ज़िन्दगी की आज्ञा ली और यदि वह गिरे तो खुद तो गिरे पर हमें भी निमित्त बनाएँ। फिर हम महाविदेह क्षेत्र में वीतराग भगवान के पास बैठे हों तो वहाँ भी आए और हमें खड़ा करे और कहे, 'क्यों आज्ञा दी थी? आपको सयाना
यह तो लोगों को मालूम ही नहीं है कि यह विचार आया तो क्या होगा? वे तो कहते हैं कि विचार आया तो क्या बिगड़ गया? लोगों को यह ख्याल भी नहीं होता कि विचार और डिस्चार्ज दोनों मे लिंक (संबंध)
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य होने को किसने कहा था?' ऐसे वीतराग के पास भी हमें चैन से बैठने नहीं दें! अर्थात् खुद तो गिरे मगर दूसरों को भी घसीट जाएँ। इसलिए तू भावना करना और हम तुझे भावना करने की शक्ति देते हैं। अच्छी तरह से भावना करना, जल्दबाजी मत करना। जितनी जल्दबाजी उतना कच्चापन।
५०
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य तो हजारों चीजें छोड़ो तो भी कोई बरकत नहीं आती।
ज्ञानी पुरुष के पास चारित्र्य ग्रहण करे, तो खाली ग्रहण ही किया है, अभी पालन तो हुआ ही नहीं, फिर भी तब से ही बहुत आनंद होता है। तुझे कुछ आनंद आया?
प्रश्नकर्ता : आया न, दादाजी! उस घड़ी से ही भीतर सब निरावरण हो गया।
यदि यह ब्रह्मचर्य व्रत लेगा और पूर्णतया पालन करेगा, तो वर्ल्ड में गज़ब का स्थान प्राप्त करेगा और यहाँ से सीधा एकावतारी होकर मोक्ष में जाएगा। हमारी आज्ञा में बल है, जबरदस्त वचनबल है। यदि तू कच्चा न पड़े तो व्रत नहीं टूटेगा, ऐसा हमारा वचनबल है।
तब तक भीतर ही कसौटी करके देख लेना कि भावना जगत् कल्याण की है या मान की? खुद के आत्मा की कसौटी करे तो सब पता चले ऐसा है। अगर भीतर मान रहा हो तो भी वह निकल जाएगा।
एक ही सच्चा मनुष्य हो तो वह जगत् कल्याण कर सकता है। संपूर्ण आत्मभावना होनी चाहिए। एक घंटे तक भावना करते रहना और यदि टूट जाए तो जोड़कर फिर से चालू करना।
जगत् का अधिक कल्याण कब हो? त्यागमुद्रा हो तो अधिक होता है। गृहस्थमुद्रा में जगत् का अधिक कल्याण नहीं होता। ऊपर से हो पर अंदरूनी तौर पर सारी पब्लिक (जनता) नहीं पा सकती! ऊपर ऊपर से सारा बड़ा वर्ग प्राप्त कर लेता है, पर सारी पब्लिक प्राप्त नहीं करती। त्याग अपने जैसा होना चाहिए। अपना त्याग अहंकारपूर्वक का नहीं न! और यह चारित्र्य तो बहुत उच्च कहलाता है।
'मैं शद्धात्मा हैं' यह निरंतर लक्ष्य में रहे वह महानतम ब्रह्मचर्य है। उसके समान दूसरा ब्रह्मचर्य नहीं है। फिर भी आचार्य पद की प्राप्ति करने की भावना भीतर हो तब वहाँ बाह्य ब्रह्मचर्य भी चाहिए, उसे स्त्री नहीं होनी चाहिए।
मात्र यह अब्रह्मचर्य छोड़े तो सारा संसार खत्म होता जाता है, तीव्रता से। एक ब्रह्मचर्य पालने से तो सारा संसार ही खत्म हो जाता है और नहीं
दादाश्री: लेने के साथ ही आवरण हटे न? लेते समय उसका मन क्लीयर (स्वच्छ) होना चाहिए। उसका मन उस समय क्लीयर था, मैंने पता किया था। इसे चारित्र्य ग्रहण किया कहलाता है ! व्यवहार चारित्र्य!
और वह 'देखना'-'जानना' रखें, वह निश्चय चारित्र्य! चारित्र्य का सुख जगत् समझा ही नहीं है। चारित्र्य का सुख ही अलग तरह का होता है।
प्रश्नकर्ता : विषय से छूटा कब कहलाता है? दादाश्री : उसे फिर विषय का एक भी विचार न आए।
विषय संबंध में कोई भी विचार नहीं, दृष्टि नहीं, वह लाइन ही नहीं। मानों वह जानता ही नहीं हो इस प्रकार हो, वह ब्रह्मचर्य कहलाता है।
१५. 'विषय' के सामने 'विज्ञान' की जागृति
प्रश्नकर्ता : वह वस्तु खुद के समझ में कैसे आए कि इसमें खुद तन्मयाकार हुआ है?
दादाश्री : 'खुद' का उसमें विरोध हो, 'खुद' का विरोध वही तन्मयाकार नहीं होने की वृत्ति। 'खुद' को विषय के संग एकाकार नहीं होना है, इसलिए 'खुद' का विरोध तो होगा ही न? विरोध रहा वही अलगाव, और भूल से एकाकार हो गए, हमें चकमा देकर चिपक जाए, तो फिर उसका प्रतिक्रमण करना होगा।
प्रश्नकर्ता : निश्चय को लेकर खुद का विषय के सामने विरोध तो
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य है ही, फिर भी ऐसा होता है कि उदय ऐसे आएँ कि उसमें तन्मयाकार हो जाएँ, तो वह क्या है?
दादाश्री : विरोध हो तो तन्मयाकार नहीं होते और तन्मयाकार हुए तो 'चकमा खा गए है' ऐसा कहलाए। जो ऐसे चकमा खा जाएँ. उसके लिए प्रतिक्रमण है ही।
वह तो दोनों दृष्टियाँ रखनी पड़ती हैं। वह शुद्धात्मा है, वह दृष्टि तो हमें है ही और वह दूसरी दृष्टि (थ्री विज़न) तो थोड़ा भी आकर्षण हो जाए तो जैसा है वैसा रखना चाहिए, वर्ना मोह हो जाता है।
पुद्गल का स्वभाव यदि ज्ञान सहित रहता हो तब तो फिर आकर्षण हो, ऐसा है ही नहीं। लेकिन पुद्गल का स्वभाव ज्ञान सहित रहता हो, ऐसा है नहीं न किसी मनुष्य को! पुद्गल का स्वभाव हमें तो ज्ञानपूर्वक रहता
प्रश्नकर्ता : पुद्गल का स्वभाव ज्ञानपूर्वक रहे तो आकर्षण न रहे, यह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : ज्ञानपूर्वक यानी क्या कि किसी स्त्री या पुरुष ने कैसे भी कपड़े पहने हों पर वह बिना कपड़ों का दिखे, वह फर्स्ट विज़न (पहला दर्शन)। सेकन्ड विजन (दूसरा दर्शन) यानी शरीर पर से चमडी हट जाए वैसा दिखे और थर्ड विज़न (तीसरा दर्शन) यानी अंदर का सभी (भीतर कटे हुए हड्डी-माँस, मल-मूत्र आदि) दिखता हो ऐसा नजर आए। फिर आकर्षण रहेगा क्या?
कोई स्त्री खड़ी हो उसे देखा, पर तुरंत दृष्टि वापस खींच ली। फिर भी दृष्टि तो वापिस वहीं की वहीं चली जाती है, ऐसे दृष्टि वहीं खींचती रहे तो वह 'फाइल' कहलाती है। अत: इतनी ही भूल इस काल में समझनी है।
प्रश्नकर्ता : ज्यादा स्पष्ट कीजिए कि दृष्टि किस प्रकार निर्मल करें? दादाश्री : 'मैं शुद्धात्मा हूँ' इस जागृति में आ जाएँ, तो फिर दृष्टि
५२
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य निर्मल हो जाती है। दृष्टि निर्मल नहीं हुई हो तो शब्द से पाँच-दस बार बोलना कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ' तब फिर हो जाएगी अथवा 'मैं दादा भगवान जैसा निर्विकारी हूँ, निर्विकारी हूँ' ऐसा बोलने पर भी हो जाएगी। उसका उपयोग करना पड़े, और कुछ नहीं। यह तो विज्ञान है, तुरंत फल देता है और कोई ज़रा-सा जो ग़ाफ़िल रहा तो दूसरी ओर उड़ा ले जाए ऐसा है।
प्रश्नकर्ता : असल में जागृति मंद कैसे होती है?
दादाश्री : उस पर एक बार आवरण आ जाए। वह शक्ति की रक्षा करनेवाली जो शक्ति है, उस शक्ति पर आवरण आ जाता है। वह काम करनेवाली शक्ति कुंठित हो जाती है। फिर उस घड़ी जागृति मंद हो जाती है। वह शक्ति कुंठित हो गई, फिर कुछ नहीं होगा। वह कोई परिणाम नहीं देगी। फिर वापिस मार खाएगा, फिर मार खाता ही रहेगा। फिर मन, वृत्तियाँ, सभी उसे उलटा समझाते हैं कि 'अब हमें कोई हर्ज नहीं है, इतना सब कुछ तो है न?'
प्रश्नकर्ता : उस शक्ति को रक्षण देनेवाली शक्ति अर्थात् क्या?
दादाश्री : एक बार स्लिप (फिसला) हुआ, तो उससे स्लिप नहीं होने की, जो भीतर शक्ति थी वह कम हो जाती है अर्थात् वह शक्ति ढीली होती जाती है। बोतल यों आडी हुई कि दूध अपने आप बाहर निकल जाता है, जबकि पहले तो हमें डाट निकालना पड़ता था।
१६. फिसलनेवालों को उठाकर दौड़ाए...
आपको तो 'फिसलना नहीं है' ऐसा तय करना है और फिर फिसल गए तो मुझे आपको माफ़ करना है। यदि आपका भीतर बिगड़ने लगे कि तुरंत मुझे बताओ ताकि उसका कोई हल निकल आए। कोई एकदम से थोड़े ही सुधर जानेवाला है? हाँ, बिगड़ने की संभावना है।
ऐसा है न, इस गनाह का क्या फल है वह जानें नहीं तब तक वह गुनाह होता रहता है। कोई कुएँ में क्यों नहीं गिरता? ये वकील गुनाह कम
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य करते हैं, ऐसा क्यों? इस गुनाह का यह परिणाम आएगा, ऐसा वे जानते हैं। इसलिए गुनाह का फल जानना चाहिए। पहले पता लगाना चाहिए कि गुनाह का क्या फल मिलेगा? यह गलत करता है, उसका फल क्या मिलेगा, वह पता लगाना चाहिए।
जिसे दादाजी का निदिध्यासन रहे उसके सारे ताले खुल जाएँगे। दादाजी के साथ अभेदता वही निदिध्यासन है ! बहुत पुण्य हों तब ऐसा रहता है और 'ज्ञानी' के निदिध्यासन का साक्षात् फल मिलता है। वह निदिध्यासन खुद की शक्ति को उसीके अनुसार कर देगा, तद्प कर देगा, क्योंकि 'ज्ञानी' का अचिंत्य चिंतामणी स्वरूप है, इसलिए उस रूप कर देता है। 'ज्ञानी' का निदिध्यासन निरालंब बनाता है। फिर 'आज सत्संग हुआ नहीं, आज दर्शन हुए नहीं' ऐसा कुछ उसे नहीं रहता। ज्ञान स्वयं निरालंब है, वैसा ही खुद को निरालंब हो जाना पड़ेगा, 'ज्ञानी' के निदिध्यासन से।
जिसने जगत कल्याण का निमित्त बनने का बीड़ा उठाया है, उसे जगत् में कौन रोक सकता है? कोई शक्ति नहीं कि उसे रोक सके! सारे ब्रह्मांड के सभी देवलोक उस पर फूल बरसा रहे हैं। इसलिए वह एक ध्येय निश्चित करो! जब से यह निश्चित करो तब से ही इस शरीर की आवश्यकताओं की चिंता करने की नहीं रहती। जब तक संसारी भाव है तब तक आवश्यकताओं की चिंता करनी पड़ती है। देखो न ! 'दादाजी' को कैसा ऐश्वर्य है! यह एक ही प्रकार की इच्छा रहे तो फिर उसका हल निकल आया। और दैवी सत्ता आपके साथ है। ये देव तो सत्ताधीश हैं, वे निरंतर सहाय करें ऐसी उनकी सत्ता है। ऐसे एक ही ध्येयवाले पाँच की ही ज़रूरत है! दूसरा कोई ध्येय नहीं, अनिश्चिततावाला ध्येय नहीं! परेशानी में भी एक ही ध्येय और नींद में भी एक ही ध्येय!
सावधान रहना और 'ज्ञानी पुरुष' का आसरा जबरदस्त रखना। मुश्किल तो किस घड़ी आ जाए वह कह नहीं सकते पर उस घड़ी 'दादाजी' से सहायता माँगना, जंजीर खींचना तो 'दादाजी' हाज़िर हो जाएँगे!
५४
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य आप शुद्ध हैं तो कोई नाम देनेवाला नहीं है! सारी दुनिया आपके सामने हो जाए तो भी मैं अकेला (काफी) हैं। मुझे मालम है कि आप शद्ध हैं तो मैं किसी का भी मुकाबला कर सकूँ ऐसा हूँ। मुझे शत प्रतिशत विश्वास होना चाहिए। आपसे तो जगत् का मुकाबला नहीं हो सकता, इसलिए मुझे आपका पक्ष लेना पड़ता है। इसलिए मन में जरा भी घबराना मत। हम शुद्ध हैं, तो दुनिया में कोई हमारा नाम लेनेवाला नहीं है! यदि दादाजी की बात दुनिया में कोई करता हो तो यह 'दादा' दुनिया से निबट लेगा, क्योंकि पूर्णतया शुद्ध मनुष्य है, जिसका मन ज़रा-सा भी बिगड़ा हुआ नहीं है।
१७. अंतिम जन्म में भी ब्रह्मचर्य तो आवश्यक
ब्रह्मचर्य को तो सारे जगत् ने स्वीकार किया है। ब्रह्मचर्य के बिना तो कभी आत्मप्राप्ति होती ही नहीं। ब्रह्मचर्य के विरुद्ध जो हो, उस मनुष्य को आत्मा कभी भी प्राप्त नहीं होता। विषय के सामने तो निरंतर जागृत रहना पड़ता है। एक क्षणभर के लिए भी अजागृति चलती नहीं।
प्रश्नकर्ता : ब्रह्मचर्य और मोक्ष में आपसी-संबंध कितना?
दादाश्री : बहुत लेना-देना है। ब्रह्मचर्य के बगैर तो आत्मा का अनुभव पता ही नहीं चले। आत्मा में सुख है या विषय में सुख है' इसका पता ही नहीं चले!
प्रश्नकर्ता : अब दो प्रकार के ब्रह्मचर्य हैं। एक, अपरिणीत ब्रह्मचर्य दशा और दूसरा, शादी के बाद ब्रह्मचर्य पालता हो, दोनों में उच्च कौनसा?
दादाश्री : शादी के बाद पाले वह उच्च है। परंतु शादी करके पालना मुश्किल है। हमारे यहाँ कुछ लोग शादी के बाद ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, मगर वे लोग चालीस साल से ऊपर के हैं।
शादीशुदा को भी आख़िरी दस-पंद्रह साल छोड़ना होगा। सभी से मुक्त होना पड़ेगा। महावीर स्वामी भी आख़िरी बयालीस साल मुक्त रहे
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
थे ! इस संसार में स्त्री के साथ रहने में तो बहुत परेशानियाँ है। जोड़ी बनी कि परेशानी बढ़ी। दोनों के मन कैसे एक हों? कितनी बार मन एक होते हैं? मान लें कि कढ़ी दोनों को समान रूप से अच्छी लगी, पर फिर सब्ज़ी का क्या? वहाँ मन एक होते नहीं और काम बनता नहीं। मतभेद हो, वहाँ सुख नहीं होता।
ज्ञानी पुरुष को तो 'ओपन टु स्काइ' (आसमान की तरह खुला ) ही होता हैं। रात को किसी भी समय उनके वहाँ जाओ तब भी 'ओपन टु स्काइ'। हमें तो ब्रह्मचर्य पालना पड़े ऐसा नहीं होता ! हमें तो विषय याद ही नहीं आता ! इस शरीर में वे परमाणु ही नहीं होते ! इसलिए ऐसी ब्रह्मचर्य संबंधी वाणी निकलती है! विषय के सामने तो कोई बोला ही नहीं है। लोग खुद विषयी हैं, इसलिए उन लोगों ने विषय पर उपदेश ही नहीं दिया है और हम तो यहाँ सारी पुस्तक बने उतना ब्रह्मचर्य के संबंध में बोले हैं। उसमें अंत तक की बात बतलाई है, क्योंकि हम में तो वे परमाणु ही खतम हो गए हैं। देह से बाहर (आत्मा में) हम रहते हैं। बाहर अर्थात् पड़ोसी की तरह निरंतर रहते हैं वर्ना ऐसा आश्चर्य मिले ही नहीं न कभी भी !
अब फल खाएँ पर पछतावे के साथ खाएँ, तब उस फल में से फिर बीज नहीं पड़ते और खुशी से खाएँ कि 'हाँ, आज तो बड़ा मज़ा आया' तो फिर बीज पड़ता है।
इस विषय के मामले में लटपटा हो जाता है। ज़रा ढील दी कि हो गया लटपटा । इसलिए ढीला मत रखना । सख़्ती से रहना। मर जाऊँ तो भी यह विषय नहीं चाहिए ऐसे सख्ती से रहना चाहिए।
हमें तो बचपन से ही यह पसंद नहीं है कि लोगों ने इसमें सुख कैसे माना है? तब मुझे ऐसा होता था कि यह किस तरह का है? हमें तो बचपन से ही इस थ्री विज़न की प्रेक्टिस (अभ्यास) हो गई थी। इसलिए हमें तो बहुत वैराग्य आता रहता था, इस पर बहुत ही चिढ़ होती थी। ऐसी वस्तु में ही इन लोगों को आराधन रहता है। यह तो कैसा कहलाए ?
५६
हैं?
है।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य प्रश्नकर्ता: यह जो पिछला घाटा है, उसे निश्चय के द्वारा मिटा सकते
दादाश्री : हाँ, सभी घाटे पूरे कर सकते हैं। निश्चय सब काम करता
उदयकर्म भारी आए तब हमें हिला देता है। अब भारी उदय का अर्थ क्या? कि हम स्ट्रोंग रूम में बैठे हों और बाहर कोई शोर मचा रहा हो। फिर चाहे पाँच लाख मनुष्य शोर मचा रहे हों कि 'हम मार डालेंगे' ऐसे बाहर से ही चिल्ला रहे हों, तो हमें क्या करनेवाले हैं? वे भले ही शोर मचाएँ। उसी प्रकार यदि इसमें भी स्थिरता हो तो कुछ हो ऐसा नहीं है, पर स्थिरता डिगे तो फिर वह आ चिपकेगा। अर्थात् चाहे कैसे भी (उदय) कर्म आ पड़े तब स्थिरता के साथ 'यह मेरा नहीं है, मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा करके स्ट्रोंग (मज़बूत) रहना होगा। फिर दुबारा आएगा भी और थोड़ी देर उलझाएगा, पर अपनी स्थिरता हो तो कुछ नहीं होता।
ये लड़के ब्रह्मचर्य पालते हैं, वे मन-वचन-काया से पालते हैं। बाहर के लोग तो मन से पाल ही नहीं सकते। वाणी और देह से सभी पालते हैं। हमारा यह ज्ञान है इसलिए मन से पाल सकते हैं। यदि मन-वचनकाया से ब्रह्मचर्य पाले तो उसके समान महान शक्ति दूसरी कोई उत्पन्न हो ऐसी नहीं है। उसी शक्ति से हमारी आज्ञा का पालन होता है वर्ना उस ब्रह्मचर्य की शक्ति के बिना तो आज्ञा कैसे पाली जाएँ? ब्रह्मचर्य की शक्ति की तो बात ही अलग होती है न!
ये ब्रह्मचारी तैयार हो रहे हैं और ये ब्रह्मचारीणियाँ भी तैयार हो रही हैं। उनके चेहरे पर नूर आएगा फिर लिपस्टिक और पावडर लगाने की ज़रूरत नहीं रहेगी। शेर का बच्चा बैठा हो वैसा लगे, तब लगे कि नहीं! कुछ बात है! वीतराग विज्ञान कैसा है कि यदि पच गया तो शेरनी का दूध पचने के बराबर है! तभी शेर के बच्चे जैसा वह लगता है, वर्ना मेमने जैसा दिखे !
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
प्रश्नकर्ता : ये लोग शादी करने से इनकार करते हैं तो वह अंतराय कर्म नहीं कहलाता?
दादाश्री : हम यहाँ से भादरण गाँव जाएं, इससे क्या हमने अन्य गाँवों के साथ अंतराय डाला? जिसे जहाँ अनुकूलता हो, वहाँ वह जाए। अंतराय कर्म तो किसे कहते हैं कि आप किसी को कछ दे रहे हैं और मैं कहूँ कि नहीं, उसे देने जैसा नहीं है। अर्थात् मैंने आपको अंतराय डाला, तो मुझे फिर से ऐसी वस्तु नहीं मिलेगी। मुझे उस वस्तु का अंतराय पड़ा।
प्रश्नकर्ता : यदि ब्रह्मचर्य ही पालना हो तो उसे कर्म कह सकते
दादाश्री : हाँ, उसे कर्म ही कहते हैं। उससे कर्म तो बँधेगा! जब तक अज्ञान है तब तक कर्म कहलाता है। चाहे फिर वह ब्रह्मचर्य हो या अब्रह्मचर्य हो। ब्रह्मचर्य से पुण्य बँधता है और अब्रह्मचर्य से पाप बँधता
दादाश्री : हाँ, डिस्चार्ज ही! पर इस डिस्चार्ज के साथ उसका भाव है वह अंदर चार्ज होता है। और भाव हो तभी मज़बूती रहेगी न? वर्ना डिस्चार्ज हमेशा फीका पड़ जाता है और यह जो उसका भाव है कि मुझे ब्रह्मचर्य का पालन करना ही है, उससे मज़बूती रहेगी। इस अक्रम मार्ग में कर्ताभाव कितना है, किस अंश तक है कि हम जो पाँच आज्ञा देते हैं न, उस आज्ञा का पालन करना, उतना ही कर्ताभाव है। कोई भी वस्तु पालनी ही पड़े, वहाँ उसका कर्ताभाव है। अत: 'ब्रह्मचर्य पालना ही है' इसमें 'पालना' वह कर्ताभाव है, बाकी ब्रह्मचर्य वह डिस्चार्ज वस्तु है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ब्रह्मचर्य पालना वह कर्ताभाव है?
दादाश्री : हाँ, पालना वह कर्ताभाव है और इस कर्ताभाव का फल उसे अगले जन्म में सम्यक् पुण्य मिलेगा। अर्थात् क्या कि जरा-सी भी मुश्किल के बगैर सारी चीजें आ मिलें और ऐसा करते-करते मोक्ष में जाएँ। तीर्थंकरों के दर्शन हों और तीर्थंकरों के पास रहने का अवसर भी प्राप्त हो! यानी सभी संयोग उसके लिए बहुत सुंदर हों।
प्रश्नकर्ता : रविवार का उपवास और ब्रह्मचारियों का क्या कनेक्शन (अनुसंधान) है?
दादाश्री : यह रविवार का उपवास किस लिए करता है? विषय के विरोध में बैठा है। विषय मेरी ओर आए ही नहीं यानी विषय का विरोधी हुआ, तब से ही निर्विषयी हुआ। मैं इनको विषय का विरोधी ही बनाता हूँ, क्योंकि इनसे यों विषय छूटे ऐसा नहीं है। ये तो सभी आरिया (गोल ककड़ी जैसा फल, जो पकने पर थोड़ा छूते ही फट जाता है) हैं, ये तो दुषमकाल के खदखदते आरिया हैं। इनसे कुछ छटनेवाला नहीं है, इसलिए तो मुझे फिर दूसरे रास्ते निकालने पड़ते हैं न?
वास्तव में यह विज्ञान ऐसा है कि किसी से 'आप ऐसा करें कि वैसा करें' ऐसा कुछ बोल नहीं सकते। किन्तु यह काल ऐसा है इसलिए
"
प्रश्नकर्ता : कोई ब्रह्मचर्य का अनुमोदन करता हो. ब्रह्मचारियों को पुष्टि देता हो, उनके लिए हर तरह से उन्हें सुविधा उपलब्ध कराता हो, तो उसका फल क्या है?
दादाश्री : फल का हमें क्या करना है? हमें एक अवतारी होकर मोक्ष में जाना है, अब फल का क्या करेंगे? उस फल में तो सौ स्त्रियाँ मिलेंगी, ऐसे फलों का हमें क्या करना है? हमें ऐसे फल नहीं चाहिए। फल खाना ही नहीं है न अब!
इसलिए मुझे तो उन्होंने पहले से पूछ लिया था कि 'यह सब करता हँ, तो मेरा पुण्य बँधेगा?' मैंने कहा, 'नहीं बँधेगा।' अभी यह सभी डिस्चार्ज रूप में है और बीज तो सारे भुन जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : ये सभी जो ब्रह्मचारी होंगे, वह 'डिस्चार्ज' ही माना जाएगा न?
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
५९
हमें यह कहना पड़ता है। इन जीवों का ठिकाना ही नहीं न? यह ज्ञान पाकर उलटे विपरीत राह पर चले जाएँ। इसलिए हमें कहना पड़ता है और वह भी हमारा वचनबल हो तो फिर हर्ज नहीं है। हमारे वचन सहित करते हैं उसे कर्तापद की जोखिमदारी नहीं न! हम कहें कि 'आप ऐसा करें।' इसलिए आपकी जोखिमदारी नहीं और मेरी जिम्मेदारी इसमें नहीं रहती!
अब अनुपम पद को छोड़कर उपमावाला पद कौन ग्रहण करे? ज्ञान है तो फिर सारे संसार के कूड़े को कौन छूएगा? जगत् को जो विषय प्रिय है, वे ज्ञानी पुरुष को कूड़ा नज़र आते हैं। इस जगत् का न्याय कैसा है कि जिसे लक्ष्मी संबंधी विचार नहीं हों, विषय संबंधी विचार नहीं हों, जो देह से निरंतर अलग ही रहता हो, उसे संसार 'भगवान' कहे बगैर रहेगा नहीं !!!
१८. दादाजी दें पुष्टि, आप्तपुत्रियों को
संसार जानता ही नहीं है कि (इस शरीर में) यह सब रेशमी चद्दर में लपेटा हुआ है। खुद को जो पसंद नहीं है, वही सारा कूड़ा, इस रेशमी चद्दर (चमड़ी) में लपेटा है। ऐसा आपको लगता है कि नहीं लगता? इतना समझ जाएँ तो निरा बैराग ही आए न? इतना भान नहीं रहता, इसलिए यह संसार ऐसे चल रहा है न? इन बहनों में से ऐसी जागृति किसी को होगी ? कोई मनुष्य सुंदर दिखता हो, उसे काटें तो क्या निकलेगा? कोई लड़का अच्छे कपड़े पहनकर, नेकटाई लगाकर बाहर जा रहा हो, उसको काटें तो क्या निकले? तू फिजूल में क्यों नेकटाई पहना करता है? मोहवाले लोगों को पता नहीं है। इसलिए खूबसूरत देखकर उलझन में पड़ जाते हैं बेचारे! जबकि मुझे तो सब कुछ खुला (जैसा है वैसा) आरपार नज़र आता है।
इसी प्रकार स्त्री को पुरुषों को नहीं देखना चाहिए और पुरुष को स्त्रियों को नहीं देखना चाहिए, क्योंकि वे हमारे काम के नहीं हैं। दादाजी बता रहे थे कि यही कचरा है, फिर उसमें क्या देखने को रहा ?
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
अतः आकर्षण का नियम है कि किसी खास जगह पर ही आकर्षण होता है। हर किसी जगह आकर्षण नहीं होता। अब यह आकर्षण क्यों होता है यह आपको बतला दूँ।
६०
इस जन्म में आकर्षण नहीं होता हो फिर भी कभी किसी पुरुष को देखा और मन में हुआ कि 'अहा ! यह पुरुष कितना सुंदर है ! कितना खूबसूरत है!' ऐसा हमें हुआ कि होने के साथ ही अगले जन्म की गांठ पड़ गई। इससे अगले जन्म में आकर्षण होगा।
निश्चय वह है कि जो भूले ही नहीं। हमने शुद्धात्मा का निश्चय किया है, वह भूलाता नहीं न? थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएँ मगर लक्ष्य में तो होता ही है, उसे निश्चय कहते है।
निदिध्यासन यानी 'यह स्त्री खूबसूरत है या यह पुरुष खूबसूरत है' ऐसा विचार किया, वह निदिध्यासन हुआ उतनी देर के लिए। विचार आते ही निदिध्यासन होता है, फिर खुद वैसा हो जाता है। इसलिए यदि हम उसको देखें तो दखल हो न? उसके बजाय आँखें नीची करके चलो, आँख मिलानी ही नहीं चाहिए। सारा संसार एक फँसाव है। फँसने के बाद तो छुटकारा ही नहीं है। कितनी ही जिंदगियाँ खतम हो जाएँ मगर उसका अंत ही नहीं है!
पति, पति जैसा हो कि वह चाहे कहीं भी जाए, मगर एक क्षण के लिए भी हमें नहीं भूले ऐसा हो तो ठीक है, पर ऐसा कभी होता नहीं है। तब फिर ऐसे पति का क्या करना ?
इस काल के मनुष्य प्रेम के भूखे नहीं हैं, विषय के भूखे हैं। प्रेम का भूखा हो उसे तो विषय नहीं मिले तो भी चले। ऐसे प्रेम भूखे मिले हों तो उसके दर्शन करें। लेकिन ये तो विषय के भूखे हैं। विषय के भूखे यानी क्या कि संडास। यह संडास वह विषय भूख है।
यदि कभी लगनवाला प्रेम हो तो संसार है, वर्ना फिर विषय, वह तो संडास है। वह फिर कुदरती हाजत में गया। उसे हाजतमंद कहते हैं
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
६२
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य में जाना है और वह व्यक्ति जानवर में जानेवाला हो तो हमें भी वहाँ खींच जाएगा। (विकारी) संबंध हुआ इसलिए वहाँ जाना पड़ेगा। इसलिए विकारी संबंध पैदा ही न हो, इतना ही देखना है। मन से भी बिगड़े हुए नहीं हों तब चारित्र्य कहलाए। उसके बाद ये सभी तैयार हो जाएँगे। मन बिगड़े तो फिर सब फ्रेक्चर हो जाता है, वर्ना एक-एक लड़की में कितनी-कितनी शक्तियाँ होती हैं ! वह कुछ ऐसी-वैसी शक्ति होती है? यह तो हिन्दुस्तान की स्त्रियाँ हों और उनके पास वीतरागों का विज्ञान हो, फिर क्या बाकी रहे?
न? जैसे सीताजी और रामचंद्रजी परिणीत ही थे न? सीताजी को ले गए तो भी रामचंद्रजी का चित्त सीताजी और केवल सीताजी में ही था और सीताजी का चित्त रामचंद्रजी में ही था। विषय तो चौदह साल देखा ही नहीं था, फिर भी चित्त एक-दूसरे में था। इसे (सच्ची) शादी कहते है। बाकी ये तो हाजतमंद कहलाएँ, कुदरती हाजत!
इसलिए पति हो तो झंझट न? पर यदि ब्रह्मचर्य व्रत लिया हो तो यह विषय संबंधी झंझट ही नहीं न! और ऐसा ज्ञान हो तब तो फिर काम ही बन जाए!
इस बहन का तो निश्चय है कि 'एक ही जन्म में मोक्ष में जाना है। अब यहाँ रहना गवारा नहीं। इसलिए एक अवतारी ही होना है।' अतः उसे सभी साधन मिल आए, ब्रह्मचर्य की आज्ञा भी मिल गई!
प्रश्नकर्ता : हम भी एक अवतारी ही होंगे?
दादाश्री : तुझे अभी देर लगेगी। अभी तो थोड़ा हमारे कहने के अनुसार चलने दे। एक अवतारी तो आज्ञा में आने के बाद, इस ज्ञान में आने के बाद काम होगा। आज्ञा बगैर भी यों तो दो-चार जन्म में मोक्ष होनेवाला है, पर (यदि संपूर्ण) आज्ञा में आ जाए तब एक अवतारी हो जाए! इस ज्ञान में आने के बाद हमारी आज्ञा में आना पड़ता है। अभी आप सभी को ऐसी ब्रह्मचर्य की आज्ञा नहीं दी गई न? हम ऐसे तुरंत देते भी नहीं, क्योंकि सभी को पालन करना नहीं आता, अनुकूल भी नहीं आता, उसके लिए तो मन बहुत मज़बूत होना चाहिए।
यदि तुझे ब्रह्मचर्य पालना हो तो इतनी सावधानी बरतनी होगी कि पुरुष का विचार भी नहीं आना चाहिए। यदि विचार आए तो उसे धो डालना चाहिए।
एक शुद्ध चेतन है और एक मिश्र चेतन है। यदि मिश्र चेतन में कहीं फँस गया तो आत्मा प्राप्त हुआ हो, फिर भी उसे भटका देता है। अर्थात् इसमें विकारी संबंध हुआ तो भटकना पड़ता है, क्योंकि हमें मोक्ष
'ज्ञानी पुरुष' के पास खुद का कल्याण कर लेना है। खद कल्याण स्वरूप हुआ तो बिना बोले लोगों का कल्याण होता है और जो लोग बोलते रहते हैं उनसे कुछ नहीं होता। केवल भाषण करने से, बोलते रहने से कुछ नहीं होता। बोलने पर तो बुद्धि इमोशनल (भावुक) होती है। यों ही ज्ञानी का चारित्र्य देखने से, उस मूर्ति को देखने से ही सारे भावों का शमन हो जाता है। इसलिए उन्हें तो केवल खुद ही उस रूप हो जाने जैसा है! 'ज्ञानी पुरुष' के पास रहकर उस रूप हो जाना। ऐसी पाँच ही लड़कियाँ यदि तैयार हों तो कई लोगों का कल्याण करेंगी! संपूर्ण रूप से निर्मल होनी चाहिए। 'ज्ञानी पुरुष' के पास निर्मल हो सकते हैं और निर्मल होनेवाले
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
(संक्षिप्त रूप में)
खंड : १ परिणीतों के लिए ब्रह्मचर्य की चाबियाँ
१. विषय नहीं परंतु निडरता विष यह विज्ञान किसी को भी, परिणीतों को भी मोक्ष में ले जाएगा। परंतु ज्ञानी की आज्ञा अनुसार चलना चाहिए। कोई दिमाग की खुमारीवाला हो, वह कहे, 'साहब, मैं दूसरी ब्याहना चाहता हूँ।' तो मै कहूं कि तेरी ताकत चाहिए। पहले क्या नहीं ब्याहते थे? राजा भरत को तेरह सौ रानियाँ थीं, फिर भी मोक्ष में गए! यदि रानियाँ बाधक होती तो मोक्ष में जाते क्या? तब क्या बाधक है? अज्ञान बाधक है।
विषय विष नहीं हैं, विषय में निडरता विष है। इसलिए घबराना नहीं। सभी शास्त्रों ने जोर देकर कहा है कि सारे विषय विष हैं। कैसे विष है? विषय कहीं विष होता होगा? विषय में निडरता विष है। यदि विषय विष होता, तब फिर आप सभी घर में रहते हो और आपको मोक्ष में जाना हो तो मुझे आपको हाँकना पड़ता कि 'जाओ उपाश्रय में, यहाँ घर पर मत पड़े रहो।' पर मुझे किसी को हाँकना पड़ता है?
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य भगवान महावीर को भी बेटी थी। अतः विषयों में निडरता विष है। अब मुझे कुछ बाधा नहीं करेगा, ऐसा सोचें वह विष है।
निडरता शब्द मैंने इसलिए दिया है कि विषय में डर रखें, विवशता हो तभी विषय में पड़ें। इसलिए विषय से डरिए, ऐसा कहते हैं, क्योंकि भगवान भी विषय से डरते थे। बड़े-बड़े ज्ञानी भी विषय से डरते थे। तब आप ऐसे कैसे हैं कि विषय से नहीं डरते? जैसे स्वादिष्ट भोजन आया हो, आमरस-रोटी वह सब मज़े से खाओ मगर डरकर खाओ। डरकर किस लिए कि अधिक खाओगे तो परेशानी होगी, इसलिए डरो।
प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा स्वरूप होने के बाद संसार में पत्नी के साथ संसार व्यवहार करना या नहीं? और वह किस भाव से? यहाँ समभाव से निकाल (निपटारा) कैसे करें?
दादाश्री : व्यवहार तो आपकी पत्नी हो तो उसके साथ दोनों को समाधानकारी हो ऐसा व्यवहार रखना। आपका समाधान और उसका समाधान होता हो ऐसा व्यवहार रखना। उसका असमाधान होता हो और आपका समाधान हो ऐसा व्यवहार बंद करना। आपसे पत्नी को कोई दुःख नहीं होना चाहिए। __मैं आपसे कहता हूँ कि यह जो 'दवाई' (विषय संबंध) है, वह मिठासवाली दवाई है। इसलिए दवाई हमेशा जिस प्रकार प्रमाण से लेते हैं, उस तरह यह भी प्रमाण से लेना। वैवाहिक जीवन कब शोभा देगा कि जब दोनों को बुखार चढ़े तब दवाई पीएँ तो। बिना बखार के दवाई पीते हैं या नहीं? एक को बुख़ार नहीं हो और दवाई लें, ऐसा वैवाहिक जीवन शोभायमान नहीं हो। दोनों को बुखार चढ़े तब ही दवाई लें। दिस इज
ओन्ली मेडिसिन (केवल यह दवाई ही है।) यदि मेडिसिन (दवाई) मीठी हो, तो रोज़ पीने जैसी नहीं होती।
पहले राम-सीता आदि जो हो गए, वे सभी संयमवाले थे ! स्त्री के साथ संयमी! तब यह असंयम क्या दैवी गुण है? नहीं, वह पाशवी गुण है। मनुष्य में यह नहीं होता। मनुष्य असंयमी नहीं होना चाहिए। जगत् को
भगवान ने जीवों के दो भेद किए; एक संसारी और दूसरे सिद्ध। जो मोक्ष में गए हैं वे सिद्ध कहलाते हैं और अन्य सभी संसारी। इसलिए यदि आप त्यागी हैं तब भी संसारी हैं और यह गृहस्थ भी संसारी ही है। इसलिए आप मन में कुछ मत रखना। संसार बाधा नहीं डालता, विषय बाधा नहीं डालते, कुछ बाधा नहीं करता, अज्ञान बाधा डालता है। इसलिए मैंने पुस्तक में लिखा है कि 'विषय विष नहीं हैं. विषयों में निडरता विष है।'
यदि विषय विष होते तो भगवान महावीर तीर्थंकर ही नहीं हो पाते।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
६५
मालूम ही नहीं कि विषय क्या है? एक बार के विषय में करोड़ों जीवों का घात होता है, एकबार में ही यह नहीं समझने के कारण यहाँ मौज उड़ाते हैं। समझते ही नहीं! मजबूरन जीव मरें ऐसा होना चाहिए। लेकिन समझ नहीं हो, वहाँ क्या किया जाए?
यह हमारा थर्मामीटर मिला है। इसलिए हम कहते हैं न, कि स्त्री के साथ मोक्ष दिया है! अब आपको जैसा सदुपयोग करना हो वैसा करना । ऐसी सरलता किसी ने नहीं दी। बहुत सरल और सीधा मार्ग रखा है। अतिशय सरल! ऐसा हुआ नहीं! यह निर्मल मार्ग है, भगवान भी स्वीकार करें, ऐसा मार्ग है !
प्रश्नकर्ता: वाइफ (पत्नी) की इच्छा नहीं हो और हसबंड (पति) के फोर्स से दवाई पीनी पड़े, तब क्या करना चाहिए?
दादाश्री : पर अब क्या करें? किसने कहा था कि शादी कर ?
प्रश्नकर्ता: भुगते उसीकी भूल। लेकिन दादाजी कुछ ऐसी दवाई बताइए कि सामनेवाले मनुष्य का प्रतिक्रमण करें, कुछ करें तो कम हो
जाए।
दादाश्री : वह तो यह बात खुद समझने से, उसे बात समझाने से कि दादाजी ने कहा है कि यह बार-बार पीने जैसी चीज़ नहीं है। जरा सीधे चलिए। महीने में छ:- आठ दिन दवाई लेनी चाहिए। हमारा शरीर अच्छा रहे, दिमाग अच्छा रहे तो फाइल का निकाल हो ।
अतः हम अक्रम विज्ञान में तो खुद की स्त्री के साथ होते अब्रह्मचर्य व्यवहार को ब्रह्मचर्य कहते हैं। किन्तु वह विनयपूर्वक का और बाहर किसी स्त्री पर दृष्टि नहीं बिगड़नी चाहिए। दृष्टि बिगड़े तो तुरंत हटा देनी चाहिए। ऐसा हो तब उसे इस काल में हम 'ब्रह्मचारी' कहते हैं। अन्य जगह दृष्टि नहीं बिगड़ती इसलिए 'ब्रह्मचारी' कहते हैं। यह क्या ऐसा-वैसा पद कहलाए ? और फिर लम्बे समय के बाद उसे समझ में आए कि इसमें भी बहुत भूल है, तब हक़ का भी विषय छोड़ देता है ।
६६
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
२. दृष्टि दोष के जोखिम
अभी तो सब ओपन (खुला) बाज़ार ही हो गया है। इसलिए शाम होते ऐसा लगता है कि कोई सौदा ही नहीं किया, मगर यों ही बारह सौदे हो गए होते हैं, यों देखने से ही सौदा हो जाता है। दूसरे सौदे तो होनेवाले होंगे वे तो होंगे, पर यह तो केवल देखने से ही सौदा हो जाता है! हमारा ज्ञान हो तो ऐसा नहीं होता। स्त्री जा रही हो तो आपको उसमें शुद्धात्मा दिखें, किन्तु दूसरे लोगों को शुद्धात्मा कैसे दिखें?
किसी के यहाँ शादी में गए हों, उस दिन तो हम बहुत कुछ देखते हैं न? सौ एक सौदे हो जाते हैं न? अतः ऐसा है सब ! उसमें तेरा दोष नहीं है। मनुष्य मात्र को ऐसा हो ही जाता है, क्योंकि आकर्षणवाला देखे तो दृष्टि खिंच ही जाती है। उसमें स्त्रियों को भी ऐसा और पुरुषों को भी ऐसा, आकर्षणवाला देखा कि सौदा हो ही जाता है।
विषय बुद्धि से दूर हो जाएँ ऐसा है। मैंने विषय बुद्धि से ही दूर किए थे। ज्ञान नहीं हो फिर भी विषय बुद्धि से दूर हो सकते हैं। यह तो कम बुद्धिवाले हैं, इससे विषय में टिके हैं।
३. बिना हक़ की गुनहगारी
यदि तू संसारी है तो तेरे हक़ का विषय भोगना, परंतु बिना हक़ का विषय तो मत ही भोगना, क्योंकि उसका फल भयंकर है। और यदि तू त्यागी हो तो तेरी विषय की ओर दृष्टि ही नहीं जानी चाहिए। बिना हक़ का ले लेना, बिना हक़ की इच्छा रखना, बिना हक़ के विषय भोगने की भावना करना, वे सभी पाशवता कहलाएँ। हक़ और बिना हक़, इन दोनों के बीच लाईन ऑफ डिमार्केशन (भेदरेखा) तो होनी चाहिए न? और उस डिमार्केशन लाईन के बाहर निकलना ही नहीं। फिर भी लोग डिमार्केशन लाईन के बाहर निकले हैं न? वही पाशवता कहलाती है।
प्रश्नकर्ता: बिना हक़ का भोगने में कौन-सी वृत्ति घसीट ले जाती
है?
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
दादाश्री : हमारी नियत चोर है, वह वृत्ति।
हक़ का छोड़कर दूसरी किसी जगह पर 'प्रसंग' हुआ तो वह स्त्री जहाँ जाए, वहाँ हमें जन्म लेना पड़ता है। वह अधोगति में जाए तो हमें वहाँ जाना पड़े। आजकल बाहर तो सब यही चल रहा है। 'कहाँ जन्म होगा' उसका कोई ठिकाना ही नहीं है। बिना हक़ के विषय जिसने भोगे. उसे तो भयंकर यातनाएँ भुगतनी पड़ती है। उसकी बेटी भी किसी एक जन्म में चरित्रहीन होती है। नियम कैसा है कि जिसके साथ बिना हक़ के विषय भोगे होंगे वही फिर माँ अथवा बेटी बनती है।
हक़ के विषय के लिए तो भगवान ने भी मना नहीं किया है। भगवान मना करें तो भगवान गुनहगार ठहरें। बिना हक़ के लिए तो मना ही है। यदि पछतावा करे तो भी छूट जाए। लेकिन ये तो बिना हक़ का आनंद के साथ भोगते हैं, इसलिए गाँठ पक्की हो जाती है।
बिना हक़ का भोगने में तो पाँचों महाव्रतों का दोष आ जाता है। उसमें हिंसा होती है, झठ आ जाता है. यह खलेआम चोरी कहलाती है। बिना हक़ का तो सरेआम चोरी कहलाता है। फिर अब्रह्मचर्य तो है ही और पाँचवा परिग्रह। यह तो सबसे बडा परिग्रह है। हक़ के विषयवालों का मोक्ष है मगर बिना हक़ के विषयवालों का मोक्ष नहीं है, ऐसा भगवान ने कहा है।
इन लोगों को तो कोई होश ही नहीं होता न! हरहा (भागा फिरनेवाला निरंकुश पशु, जिसका कोई मालिक न हो) की तरह होते हैं। हरहा का मतलब आप समझ गए? आपने देखा है कोई हरहा? हरहा यानी जिसका हाथ में आए उसका खा जाए। ऐसे भैंस-बंधु को आप जानते हैं न? वे सभी खेतों का सफाया ही कर देते हैं।
बहुत कम लोग हैं कि जिन्हें इसका कुछ महत्व समझ में आया है। बाकी तो जब तक मिला नहीं तब तक हरहा नहीं हए! मिला कि हरहा होते देर नहीं लगती। यह हमें शोभा नहीं देता। हमारे हिन्दस्तान की कैसी विकसित प्रजा! हमें तो मोक्ष पाना है।
६८
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य अब्रह्मचर्य का तो ऐसा है कि इस जन्म में पत्नी हुई हो, अथवा तो दूसरी रखैल हो तो अगले जन्म में खुद की बेटी बनकर आए ऐसी इस संसार की विचित्रता है! इसीलिए तो समझदार पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करके मोक्ष में गए हैं न!
४. एक पत्नीव्रत का अर्थ ही ब्रह्मचर्य जिसने शादी की है, उसके लिए तो हमने एक ही नियम रखा है कि तुझे दूसरी किसी स्त्री की ओर दृष्टि नहीं बिगाड़नी है। यदि कभी दृष्टि ऐसी हो जाए तो प्रतिक्रमण करके तय करना कि ऐसा फिर से नहीं करूंगा। खुद की स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्री को देखता नहीं, दूसरी स्त्री पर जिसकी दृष्टि रहती नहीं है, दृष्टि जाए फिर भी उसके मन में विकारी भाव होता नहीं, विकारी भाव हो तो खुद बहुत पछतावा करता है, वह इस काल में एक स्त्री होने के बावजूद भी ब्रह्मचर्य कहलाता है।
आज से तीन हजार साल पहले हिन्दुस्तान में सौ में से नब्बे मनुष्य एक पत्नीव्रत का पालन करते थे। एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत का पालन, कैसे अच्छे मनुष्य कहलाएँ वे! जब कि आज शायद ही हजार में एक होगा!
प्रश्नकर्ता : मान लीजिए कि दो वाइफ हों तो वह क्यों खराब है?
दादाश्री : रखो न दो वाइफ। रखने में हर्ज नहीं है। पाँच वाइफ रखो तो भी हर्ज नहीं है। लेकिन दूसरी किसी पर दृष्टि नहीं बिगाडो. दुसरी स्त्री जा रही हो, उस पर दृष्टि बिगाड़े तो बुरा कहलाए है। कुछ नीतिनियम तो होने चाहिए न?
दूसरी बार ब्याहने में हर्ज नहीं है। मसलमानों ने एक कानुन निकाला कि बाहर दृष्टि बिगाड़नी नहीं चाहिए। बाहर किसी को छेड़ना नहीं चाहिए। यदि आप एक स्त्री से संतुष्ट नहीं हैं तो दो कीजिए। उन लोगों का कानून है कि चार तक आपको छूट है! और यदि अनकलता है तो चार कीजिए न? कौन मना करता है? लोग भले ही चिल्लाएँ। परन्तु अपनी स्त्री को दुःख नहीं होना चाहिए।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
७०
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
बस! देवों में भी ज्यों ज्यों ऊपर उठते हैं, त्यों त्यों विषय कम होता जाता है। कुछ तो बातचीत करें कि विषय पूर्ण हो जाता है। जिन्हें स्त्री सहवास पसंद है ऐसे भी देव हैं और जिन्हें केवल यों ही एक घंटा स्त्री से मिले तब भी बहुत आनंद होता है ऐसे भी देव हैं और कितने ही ऐसे भी देवता हैं कि जिन्हें स्त्री की ज़रूरत ही नहीं होती। अतः हर तरह के देव होते हैं।
इस काल में एक पत्नीव्रत को हम ब्रह्मचर्य कहते हैं और तीर्थकर भगवान के समय में ब्रह्मचर्य का जो फल प्राप्त होता था, वही फल उन्हें प्राप्त होगा, उसकी हम गारन्टी देते हैं।
प्रश्नकर्ता : एक पत्नीव्रत जो कहा, वह सूक्ष्म में या मात्र स्थूल ही? मन तो जाए ऐसा है न?
दादाश्री : सूक्ष्म से भी होना चाहिए। कभी मन जाए तो मन से अलग रहना चाहिए और उसके प्रतिक्रमण करते रहना चाहिए। मोक्ष में जाने की लिमिट (मर्यादा) क्या? एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत। एक पत्नीव्रत या एक पतिव्रत का कानून हो, वह लिमिट कहलाता है।
जितने श्वासोच्छवास अधिक खर्च हों, उतना आयुष्य कम होता है। श्वासोच्छवास किसमें अधिक खर्च होते हैं? भय में, क्रोध में, लोभ में. कपट में और उनसे भी ज्यादा स्त्री संग में। उचित स्त्री संग में तो बहुत अधिक खर्च हो जाते हैं मगर उससे भी कहीं अधिक अनुचित स्त्री संग में खर्च हो जाते हैं। मानो कि सारी फिरकी ही एकदम से खुल जाए!
प्रश्नकर्ता : देवों में एक पत्नीव्रत होता होगा?
दादाश्री : एक पत्नीव्रत यानी कैसा कि सारी ज़िन्दगी एक ही देवी के साथ बितानी। पर जब दूसरे की देवी देखें तब मन में ऐसे भाव होते हैं कि, ये तो मेरी है उससे भी अच्छी है।' ऐसा होता है ज़रूर, किन्तु जो है उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : देवगति में पुत्र का प्रश्न नहीं है फिर भी वहाँ विषय तो भोगते ही हैं न?
दादाश्री : वहाँ ऐसा विषय नहीं होता। यह तो निपट गंदगी ही है। देव तो यहाँ खड़े भी न रहें। वहाँ उनका विषय कैसा होता है? केवल देवी आए कि उन्हें देखा, कि उनका विषय पूरा हो गया, बस! कुछ देवीदेवता को तो ऐसा होता हैं कि दोनों यों ही हस्त स्पर्श करें अथवा आमनेसामने दोनों एक दूसरे के हाथ दबा रखें तो उनका विषय पूर्ण हो गया,
५. बिना हक़ का विषयभोग, नर्क का कारण
परस्त्री और परपुरुष प्रत्यक्ष नर्क का कारण है। नर्क में जाना हो तो वहाँ जाने की सोचो। हमें उसमें हर्ज नहीं है। तम्हें ठीक लगे तो नर्क के उन दु:खों का वर्णन करूँ। जिसे सुनते ही बुखार चढ़ जाएगा, तब वहाँ उनको भुगतते तेरी क्या दशा होगी? मगर खुद की स्त्री हो तो कोई आपत्ति नहीं है।
पति-पत्नी के संबंध को कुदरत ने स्वीकार किया है। उसमें यदि कभी विशेषभाव न हो तो आपत्ति नहीं है। कुदरत ने उतना स्वीकार किया है। उतना परिणाम पापरहित कहलाए। मगर इसमें अन्य पाप बहुत समाए हैं। एक ही बार विषय भोगने में करोड़ों जीव मर जाते हैं, वह क्या कम पाप है? फिर भी वह परस्त्री जैसा बड़ा पाप नहीं कहलाता।
प्रश्नकर्ता : नर्क में अधिकतर कौन जाता है?
दादाश्री : शील के लुटेरों के लिए सातवाँ नर्क है। जितनी मिठास आई होगी, उससे अनेक गुना कड़वाहट का अनुभव हो, तब वह तय करता है कि अब वहाँ नर्क में नहीं जाना। अत: इस संसार में यदि कोई नहीं करने योग्य कार्य हो तो, किसी के शील को मत लूटना। कभी भी दृष्टि मत बिगड़ने देना। शील लूटे तो फिर नर्क में जाए और मार खाता ही रहे। इस संसार में शील जैसी कोई उत्तम चीज़ नहीं है।
हमारे यहाँ इस सत्संग में ऐसा छल-कपट का विचार आए तो मैं कहँ कि यह अर्थहीन बात है। यहाँ ऐसा व्यवहार किंचित् मात्र नहीं चलेगा और ऐसा व्यवहार चल रहा है ऐसा मेरे लक्ष्य में आया तो मैं निकाल बाहर करूँगा।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
७१
इस दुनिया में कैसे भी गुनाह किए हों, कैसे भी गुनाह लेकर यहाँ आए, तब भी यदि वह फिर से जीवन में ऐसे गुनाह न करनेवाला हो, तो मैं हर तरह से शुद्ध कर दूँ।
यह सुनकर तुझे कुछ पछतावा होता है?
प्रश्नकर्ता: बहुत ही होता है ।
दादाश्री : पछतावे में जलेगा तो भी पाप खतम हो जाएँगे। दोचार लोग यह बात सुनकर मुझसे पूछने लगे कि 'हमारा क्या होगा?' मैंने कहा, 'अरे भैया, में तुझे सब ठीक कर दूँगा। तू आज से समझ जा ।' जागे तब से सवेरा। उसकी नर्कगति उड़ा दूँ, क्योंकि मेरे पास सब रास्ते हैं, मैं कर्ता नहीं हूँ इसलिए। यदि मैं कर्ता होऊँ तो मुझे बंधन हो। मैं आपको ही दिखाऊँ कि अब ऐसा करो। उसके बाद फिर सब खतम हो जाता है और साथ में हम अन्य विधियाँ कर देते हैं।
परायी स्त्री के साथ घूमें तो लोग उँगली उठाएँ न? इसलिए वह समाजविरोधी है और साथ ही कई तरह की मुश्किलें खड़ी होती है। नर्क की वेदनाएँ अर्थात् इलेक्ट्रिक गेस में बहुत काल तक जलते रहना! एक, इलेक्ट्रिक गरमी की वेदनावाला नर्क है और दूसरा, ठंड की वेदनावाला नर्क है। वहाँ पर इतनी ठंड है कि हम इतना बड़ा पर्वत ऊपर से डालें तो उसका इतना बड़ा पत्थर न रहे, पर उसका कण-कण बिखर जाए !
परस्त्री के जोखिम सोचें तो उसमें कितने-कितने जोखिम है ! वह जहाँ जाए वहाँ आपको जाना पड़ेगा। उसे माँ भी बनाना पड़े ! आज ऐसे कितने ही बेटे हैं कि जो उनकी पिछले जन्म की रखैल के पेट से जन्मे हैं। यह सारी बात मेरे ज्ञान में भी आई थी। (पिछले जनम में) बेटा उच्च ज्ञाति का हो और माँ निम्न ज्ञाति की हो। माँ निम्न जाति में जाती है और (उसका होनेवाला) बेटा उच्च ज्ञाति में से निम्न ज्ञाति में वापस आता है। कितना भयंकर जोखिम ! पिछले जन्म में जो पत्नी थी वह इस जन्म माता हो और इस जन्म में माता हो वह अगले जन्म में पत्नी बने ! ऐसा जोखिमवाला यह संसार है! बात को इतने में ही समझ लेना! प्रकृति विषयी
७२
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य नहीं है, यह बात मैंने अन्य प्रकार से कही थी। लेकिन यह तो हम पहले से कहते आए हैं कि यह अकेला ही जोखिम है।
प्रश्नकर्ता: दोनों पार्टियाँ सहमत हो तो जोखिम है क्या?
दादाश्री : सहमति हो फिर भी जोखिम है। दोनों परस्पर राजी हो उससे क्या होगा? वह जहाँ जानेवाली है वहाँ हमें जाना पड़ेगा। हमें मोक्ष में जाना है और उसके धंधे ऐसे हैं, तो हमारी क्या दशा हो? गुणाकार (दोनों (का हिसाब ) कब मिले? इसलिए सभी शास्त्रकारों ने प्रत्येक शास्त्र में विवेक के लिए कहा है कि शादी कर लेना। वर्ना ये हरहा ढोर हो तो किसका घर सलामत रहे? फिर सेफसाइड ही क्या रहे ? कौन-सी सेफसाइड रहे? तू बोलता क्यों नहीं? पिछली चिंता में पड़ गया क्या ?
प्रश्नकर्ता: हाँ जी ।
दादाश्री : मैं तुझे धो दूँगा । हमें तो इतना चाहिए कि अभी हमें मिलने के बाद कोई दखल नहीं है न? पिछली दख़ल हो तो उसको छुड़ाने के हमारे पास बहुत से तरीके हैं। तू मुझे अकेले में बता देना। मैं तुझे तुरंत धो दूंगा। कलयुग में मनुष्य से क्या भूल नहीं होती? कलयुग है और भूल नहीं हो ऐसा होता ही नहीं है न!
एक के साथ डायवोर्स (तलाक) लेकर दूसरी के साथ शादी करने की इच्छा हो तो उसमें आपत्ति नहीं है, पर शादी करनी होगी। अर्थात् उसकी बाउन्ड्री होनी चाहिए। 'विदाउट एनी बाउन्ड्री' अर्थात् हरहा ढोर । फिर उसमें और जानवर में अंतर ही नहीं।
प्रश्नकर्ता रखैल रखी हो तो?
दादाश्री : रखैल रखी हो, पर वह रजिस्टर्ड (मान्य) होना चाहिए। फिर दूसरी नहीं होनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता: उसकी रजिस्ट्री नहीं करा सकते। रजिस्ट्री करने पर जायदाद में हिस्सा माँगे, कई झंझट हो जाती हैं।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य ये सारी स्त्रियाँ इसी कारण ही स्लिप हुई हैं। कोई मीठा बोले तो वहाँ स्लिप हो जाती हैं। यह बहुत सूक्ष्म बात है। समझ में आए ऐसी नहीं
दादाश्री : जायदाद तो देनी होगी, यदि हमें स्वाद लेना हो तो! सीधे रहो न एक जन्म, ऐसा किस लिए करते हो? अनंत जन्मों से ऐसा ही करते
आए हो! एक जन्म सीधे रहो न! सीधे हए बिना चारा नहीं है। साँप भी बिल में घुसते समय सीधा होता है या टेढ़ा चलता है?
प्रश्नकर्ता: सीधा चलता है। परस्त्री में जोखिम है, वह गलत है, ऐसा आज ही समझ में आया। आज तक तो इसमें क्या गलत है. ऐसा ही रहता था।
दादाश्री : आपको किसी जन्म में किसी ने 'यह गलत है' ऐसा अनुभव नहीं करवाया, वर्ना इस गंदगी में कौन पड़े? ऊपर से नर्क का जोखिम आए!
हमारा यह विज्ञान प्राप्त होने के बाद हृदयपूर्वक पछतावा करें तो भी सारे पाप जल जाएँ। अन्य लोगों के पाप भी जल जाएंगे, परंतु पूर्ण रूप से नहीं जलेंगे। आप ऐसा विज्ञान प्राप्त होने के बाद, उस विषय पर खूब पछतावा करते रहेंगे तो फिर पार उतर जाएँगे!
प्रश्नकर्ता : बीच में जो बात बताई थी कि पुरुष ने (स्त्री को) कपट करने हेतु प्रोत्साहित किया है, तो उसमें पुरुष प्रधान कारणरूप है। हमारा जो जीवन व्यवहार है और उनका जो कपट है, उनकी जो गांठ है, उसमें यदि मैं कुछ जिम्मेदार हूँ तो उसकी विधि कर देना ताकि मैं उन्हें छोड़ सकूँ।
दादाश्री : हाँ, विधि कर देंगे। उसका कपट बढ़ा, उसके लिए हम पुरुष रिस्पोन्सिबल (जिम्मेदार) हैं। कई पुरुषों को इस जिम्मेदारी का भान बहुत कम होता है। यदि वह हर तरह से मेरी आज्ञा का पालन करता हो, फिर भी स्त्री को भोगने के लिए वह पुरुष स्त्री को क्या समझाता है? स्त्री से कहेगा कि अब इसमें कोई दिक्कत नहीं है। इससे स्त्री बेचारी से भूल हो जाती है। उसे दवाई नहीं पीनी हो... और पीनी ही नहीं हो, फिर भी प्रकृति पीनेवाली ठहरी न! प्रकृति उस घडी खश हो जाती है। पर वह उत्तेजन किसने दिया? इसलिए पुरुष उसका जिम्मेदार है।
अतः इस विषय को लेकर स्त्री हुआ है। केवल एक विषय के कारण ही। पुरुष ने भोगने के लिए उसे प्रोत्साहित किया है और बेचारी को बिगाड़ा। बरकत नहीं हो फिर भी अपने में बरकत है ऐसा वह मन में मान लेती है। तब कहें, क्यों मान लिया? कैसे मान लेती है? पुरुषों ने बार-बार दोहराया, इसलिए वह समझे कि यह कहते हैं, इसमें गलत क्या है? अपने आप मान लिया नहीं होता। आपने कहा हो, 'तू बहुत अच्छी है, तेरे जैसी तो कोई स्त्री है ही नहीं।' उसे कहें कि 'तू सुंदर है।' तो वह अपने को सुंदर समझ लेती है। इन पुरुषों ने स्त्रियों को स्त्री के रूप में रखा है और स्त्री मन में समझे कि मैं पुरुषों को मुर्ख बनाती हैं। पुरुष ऐसा करके भोगकर अलग हो जाते हैं। उसके साथ भोग लेते हैं. जैसे कि इस राह भटकना हो... बहुत समझ में नहीं आता न? थोड़ा-थोड़ा?
प्रश्नकर्ता : पूरा समझ में आता है। पहले पुरुषों का कोई दोष नहीं है इस प्रकार से सत्संग होते थे। लेकिन आज बात निकली तो समझे कि पुरुष भी इस प्रकार जोखिम बहुत बड़ा उठा लेता है।
दादाश्री : पुरुष ही जिम्मेदार है। स्त्री को स्त्री के रूप में रखने के लिए पुरुष ही जिम्मेदार है।
पति नहीं हो, पति चला गया हो, कुछ भी हो जाए, फिर भी दूसरे के पास जाए नहीं। वह चाहे जैसा भी हो, खुद भगवान पुरुष होकर आए हों, पर नहीं। 'मेरे लिए मेरा पति है, पतिवाली हूँ' वह सती कहलाती है। आज सतीत्व कह सकें ऐसा है इन लोगों का? हमेशा नहीं है ऐसा, नहीं? जमाना अलग तरह का है न! सत्युग में ऐसा समय कभी ही आता है, सतियों के लिए ही। इसलिए सतियों का नाम लेते हैं न अपने लोग!
सती होने की इच्छा से उसका नाम लिया हो तो कभी सती बने परंतु आज तो विषय चूड़ियों के भाव बिकता है। यह आप जानते हैं?
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
समझे नहीं मैं क्या कहना चाहता हूँ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, चूड़ियों के मोल बिकता है।
दादाश्री : कौन-से बाजार में? कॉलेजों में! किस मोल बिकती हैं? सोने के दाम चूड़ियाँ बिकती हैं! हीरों के दाम चूड़ियाँ बिकती हैं! सब जगह ऐसा नहीं मिलता। सब जगह ऐसा नहीं है। कुछ लड़कियाँ तो सोना दें तो भी न लें। चाहे कुछ भी दें तो भी न लें! पर दूसरी तो बिक भी जाती हैं, आज की स्त्रियाँ । सोने के भाव नहीं हो तो दूसरे किसी दाम पर भी बिकती हैं!
(कोई स्त्री) पहले से सती न हों किन्तु बिगड़ जाने के बाद भी सती हो सकती हैं। जब से निश्चय किया तब से सती हो सकती हैं।
प्रश्नकर्ता : ज्यों-ज्यों उस सतीत्व की रक्षा करेंगे, त्यों-त्यों कपट खत्म होता जाएगा?
दादाश्री : सतीत्व में रहे तो कपट तो जाने ही लगेगा, अपने आप ही। आपको कुछ कहना नहीं पड़ेगा। वो मल सती है, वह तो जन्म से सती होती है। इसलिए उसे पहले का कोई दाग़ नहीं होता। आपको पहले के दाग़ रह जाते हैं और फिर बाद में पुरुष होते हो। सतीत्व से सब पुरा हो जाए। जितनी सतियाँ हुई थीं, उसका सब पूरा हो जाता है और वे मोक्ष में जाती हैं। कुछ समझ में आया? मोक्ष में जाते हुए सती होना पड़ेगा। हाँ, जितनी सतियाँ हुईं, वे मोक्ष में गईं, अन्यथा पुरुष होना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, अर्थात् ऐसा निश्चित नहीं है कि जो स्त्री है वह लम्बे काल तक स्त्री के जन्म ही पाएगी। पर इन लोगों को पता नहीं चलता, इसलिए उसका उपाय नहीं होता है।
दादाश्री : उपाय हो तो स्त्री, पुरुष ही है। बेचारे उस गाँठ को जानते ही नहीं है और वहाँ पर इन्टरेस्ट आता है. वहाँ मज़ा आता है इसलिए पड़े रहते हैं। दूसरा कोई ऐसा रास्ता जानता नहीं इसलिए दिखाता नहीं। वह केवल सती स्त्रियाँ अकेली ही जानती हैं। सतियाँ अपने एक पति के
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य सिवाय और किसी का विचार ही नहीं करतीं और वह कभी भी नहीं। यदि उसका पति तुरंत मर जाए, चल बसे, तब भी नहीं। उसी पति को ही पति मानती है। अब ऐसी स्त्रियों का सारा कपट चला जाता है।
ये लड़कियाँ बाहर जाती हों, पढ़ने के लिए जाती हों, तब भी यों शंका। 'वाइफ' के ऊपर भी शंका। ऐसा सब दगा! घर में भी दगा ही है न, आजकल! इस कलयुग में खुद के घर में भी दगा होता है। कलयुग अर्थात् दगा का काल। कपट और दगा, कपट और दगा, कपट और दगा! इसमें किस सुख के लिए यह सब करते हैं? वह भी बिना होश. बेहोशी में!
प्रश्नकर्ता : किन्तु शंका से देखने की मन की ग्रंथि पड़ गई होती है वहाँ क्या एडजस्टमेन्ट लें?
दादाश्री: यह आपको नज़र आता है कि इसका चारित्र खराब है, तो क्या पहले नहीं था? यह क्या अचानक ही पैदा हो गया है? अत: यह संसार समझ लेने जैसा है, कि यह तो ऐसा ही है। इस काल में चारित्र संबंध में किसीका देखना ही नहीं। इस काल में तो सब जगह ऐसा ही है। खुला नहीं होता परंतु मन तो बिगड़ता ही है। उसमें स्त्री चारित्र तो निरा कपट और मोह का ही संग्रहस्थान, इसलिए तो स्त्री का जन्म आता है। इसमें सबसे अच्छा कि जो विषय से छूटे हों।
प्रश्नकर्ता : चारित्र में तो ऐसा ही होता है यह जानते हैं, फिर भी मन शंका करे तब तन्मयाकार हो जाते हैं, वहाँ क्या एडजस्टमेन्ट लें?
दादाश्री : आत्मा होने के पश्चात् अन्य में पड़ना ही नहीं। यह सभी फ़ोरिन डिपार्टमेन्ट (अनात्म विभाग) का है। हमें होम (आत्मा) में रहना। आत्मा में रहिए न ! ऐसा ज्ञान बार-बार मिलनेवाला नहीं है। इसलिए अपना काम निकाल लीजिए। एक आदमी को उसकी बीवी पर शंका होती रहती थी। मैंने उससे पूछा कि किस कारण शंका होती है? तूने देखा इसलिए शंका होती है? तूने नहीं देखा था क्या तब यह सब नहीं हो रहा था? हमारे लोग तो पकड़े जाएँ उसे 'चोर' कहते हैं। किन्तु पकड़े नहीं गए वे सभी
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
७७
७८
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य नहीं है न! इसलिए पुरुष स्त्रियों से ठगे जाते हैं!
इसलिए जब तक 'सिन्सियारिटी-मोरालिटी' (सदाचार) थे, वहाँ तक संसार भोगने योग्य था। आजकल तो भयंकर दगाबाजी है। यह प्रत्येक को उसकी वाइफ' की बात बता दूँ, तो कोई अपनी वाइफ के पास जाएगा नहीं। मैं सबका जानता हूँ मगर कुछ कहता-करता नहीं। अलबत्त पुरुष भी दगाबाजी में कुछ कम नहीं है लेकिन स्त्री तो निरा कपट का कारखाना ही! कपट का संग्रहस्थान और कहीं नहीं होता, एक स्त्री में ही होता है।
। ये लोग तो 'वाइफ' जरा देर से आए तब भी शंका किया करते हैं। शंका करने जैसी नहीं है। ऋणानुबंध (कर्मों के लेन-देन का हिसाब) के बाहर कुछ होनेवाला नहीं है। उसके घर आने के बाद उसे समझाना परंतु शंका मत करना। शंका से तो उलटे अधिक बिगडेगा। हाँ. सावधान जरूर करना पर कोई शंका नहीं रखनी। शंका करनेवाला मोक्ष खो बैठता
भीतर से चोर ही हैं।
यदि आप आत्मा हैं, तो डरने जैसा कहाँ रहा? यह तो सब जो 'चार्ज' हो गया था, उसका ही 'डिस्चार्ज' है। जगत् स्पष्टरूप से 'डिस्चार्ज'मय है। 'डिस्चार्ज' से बाहर यह जगत् नहीं है। इसलिए हम कहते हैं न, 'डिस्चार्ज'मय है, इसलिए कोई गुनहगार नहीं है।
प्रश्नकर्ता : तो उसमें भी कर्म का सिद्धांत काम करता है न?
दादाश्री : हाँ, कर्म का सिद्धांत ही काम कर रहा है, और कुछ नहीं। मनुष्य का दोष नहीं है, यह कर्म ही बेचारे को घुमाते हैं। पर उसमें शंका करें, तो बिना वजह वह मारा जाएगा!
इसलिए जिसे पत्नी के चारित्र संबंधी शांति चाहिए तो उसे एकदम काले रंग की, गोदनेवाली (चमड़ी में सूई चुभाकर बनाई हुई आकृति वाली स्त्री) पत्नी लानी चाहिए ताकि उसके पर कोई आकर्षित ही न हो, कोई उसे रखे ही नहीं। और वही ऐसा कहे कि 'मुझे दूसरा कोई रखनेवाला नहीं है, यह जो एक पति मिले वही संभालते हैं।' इसलिए वह आपको 'सिन्सियर' (वफादार) रहेगी, बहुत 'सिन्सियर' रहेगी। अगर सुंदर हो तो उसे लोग (मन से) भोगेंगे ही। सुंदर हो तो लोगों की दृष्टि बिगड़ने ही वाली है। कोई सुंदर पत्नी लाए तो हमें (दादाश्री को) यही विचार आता है कि क्या दशा होगी इसकी?
पत्नी बहुत रूपवान हो तो वह भगवान को भूले न? और पति बहुत रूपवान हो तो वह स्त्री भी भगवान को भूलेगी। इसलिए सामान्य हो, मर्यादा में हो वह सब अच्छा।
ये लोग तो कैसे हैं? जहाँ होटल देखा वहाँ खाया। शंका रखने योग्य संसार नहीं है। शंका ही दुःखदायक है। अब जहाँ होटल देखा वहाँ खाया, उसमें पुरुष भी ऐसा करता है और स्त्री भी ऐसा करती है।
पुरुष भी स्त्रियों को पाठ पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ भी पुरुषों को पाठ पढ़ाती हैं ! फिर भी स्त्रियों की जीत होती है, क्योंकि इन पुरुषों में कपट
अत: यदि हमें छूटना है, मोक्ष प्राप्त करना है, तो हमें शंका नहीं करनी चाहिए। कोई अन्य मनुष्य आपकी 'वाइफ' के गले में हाथ डालकर घूमता हो और यह आपके देखने में आया, तो क्या आप जहर खाएँगे?
प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसा किस लिए करें? दादाश्री : तो फिर क्या करें?
प्रश्नकर्ता : थोड़ा नाटक करना पड़ेगा, फिर समझाना पड़े। फिर जो करे वह 'व्यवस्थित'। दादाश्री : हाँ, सही है।
६. विषय बंद वहाँ दख़ल बंद इस संसार में लड़ाई-झगड़ा कहाँ होता है? जहाँ आसक्ति हो वहीं। झगड़े कब तक होते रहेंगे? विषय है तब तक! फिर 'मेरा-तेरा' करने लगते हैं, 'यह तेरा बेग उठा ले यहाँ से। मेरे बेग में साड़ियाँ क्यों रखीं?' ऐसे
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
७९
झगड़े विषय में एक हैं तब तक और विषय से छूटने के बाद हमारे बेग में रखें तो भी हर्ज नहीं। झगड़े नहीं होते फिर ? फिर कोई झगड़ा ही नहीं ।
प्रश्नकर्ता: पर यह सब देखकर हमें कँपकँपी छूटती है। फिर ऐसा होता है कि रोज़-रोज़ ऐसे ही झगड़े होते रहते हैं, फिर भी पति-पत्नी को इसका हल निकालने को मन नहीं करता, यह आश्चर्य है न?
दादाश्री : वह तो कई सालों से, शादी हुई तभी से ऐसा चलता है। शादी के समय से ही एक ओर झगड़े भी चलते हैं और एक ओर विषय भी चलता है! इसलिए तो हमने कहा कि आप दोनों ब्रह्मचर्य व्रत ले लो तो लाइफ (जिन्दगी) उत्तम हो जाएगी। यह सारा लड़ाई-झगड़ा खुद की गरज से करते हैं। यह जानती है कि आख़िर वे कहाँ जानेवाले हैं ? वह भी समझता है कि यह कहाँ जानेवाली है? ऐसे आमने-सामने गरज से टिका हुआ है।
विषय में सुख से अधिक, विषय के कारण परवशता के 'दुःख है ! ऐसा समझ में आने के बाद विषय का मोह छूटेगा और तभी स्त्री जाति (पत्नी) पर प्रभाव डाल सकेंगे और वह प्रभाव उसके बाद निरंतर प्रताप में परिणमित होगा। नहीं तो इस संसार में बड़े-बड़े महान पुरुषों ने भी स्त्री जाति से मार खाई थी। वीतराग ही बात को समझ पाए ! इसलिए उनके प्रताप से ही स्त्रियाँ दूर रहती थीं। वर्ना स्त्री जाति तो ऐसी है कि देखते ही देखते किसी भी पुरुष को लट्टू बना दे, ऐसी उसके पास शक्ति है। उसे ही स्त्री चरित्र कहा है न! स्त्री संग से तो दूर ही रहना और उसे किसी प्रकार के प्रपंच में मत फँसाना, वर्ना आप खुद ही उसकी लपेट में आ जाएँगे। और यही की यही झंझट कई जन्मों से होती आई है।
स्त्रियाँ पति को दबाती हैं, उसकी वजह क्या है? पुरुष अति विषयी होता है, इसलिए दबाती हैं। ये स्त्रियाँ आपको खाना खिलाती हैं इसलिए दबाव नहीं डालतीं, विषय के कारण दबाती हैं। यदि पुरुष विषयी न हो तो कोई स्त्री दबाव में नहीं रख सकती! कमजोरी का ही फ़ायदा उठाती हैं। यदि कमज़ोरी न हो तो कोई स्त्री परेशानी नहीं करेगी। स्त्री बहुत
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य कपटवाली है और आप भोले ! इसलिए आपको दो-दो, चार-चार महीनों का (विषय में) कंट्रोल (संयम) रखना होगा। फिर वह अपने आप थक जाएगी। तब फिर उसे कंट्रोल नहीं रहेगा।
८०
स्त्री वश में कब होगी? यदि आप विषय में बहुत सेन्सिटिव (संवेदनशील) हों तब वह आपको वश में कर लेती है। भले ही आप विषयी हों पर उसमें सेन्सिटिव न हों तो वह वश होगी। यदि वह 'भोजन' के लिए बुलाए तब आप कहो कि अभी नहीं, दो-तीन दिन के बाद, तो आपके वश में रहेगी। वर्ना आप वश हो जाएँगे। यह बात मैं पंद्रह साल की आयु में समझ गया था। कुछ लोग तो विषय की भीख माँगते हैं कि 'आज का दिन !' अरे ! विषय की भीख माँगते हैं कहीं? फिर तेरी क्या दशा होगी? स्त्री क्या करेगी? सिर पर चढ़ बैठेगी! सिनेमा देखने जाएँगे तो कहेगी, 'बच्चे को उठा लीजिए।' हमारे महात्माओं को विषय होता है, मगर विषय की भीख नहीं होती !
एक स्त्री अपने पति को चार बार साष्टांग करवाती है, तब एक बार छूने देती है। मुए, इसके बजाय समाधि लेता तो क्या बुरा था ? समुद्र में समाधि ले तो समुद्र सीधा तो है, झंझट तो नहीं ! विषय के लिए चार बार साष्टांग!
प्रश्नकर्ता: पहले तो हम ऐसा मानते थे कि घर के कामकाज को लेकर टकराव होता होगा परंतु घर के काम में हाथ बटाएँ फिर भी टकराव होता है।
दादाश्री : वे सारे टकराव होने ही वाले हैं। जब तक विकारी बातें हैं, विकारी संबंध हैं तब तक टकराव होगा। टकराव का मूल ही यह है 1 जिसने विषय जीत लिया, उसे कोई हरा नहीं सकता। कोई उसका नाम भी नहीं देगा। उसका प्रभाव पड़ता है।
जब से हीराबा (दादाश्री की धर्मपत्नी ) के साथ मेरा विषय बंद हुआ, तब से मैं उन्हें 'हीराबा' कहता हूँ। उसके बाद हमें कोई खास अड़चन
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
८२
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य उन दिनों में पुरुष कभी स्त्री (पत्नी) के साथ एक बिछौने में नहीं सोता था। उन दिनों कहावत थी कि सारी रात स्त्री के साथ सो जाए तो वह स्त्री हो जाए। उसके पर्याय असर करते हैं। इसलिए कोई ऐसा नहीं करता था। यह तो किसी अक्लमंद की खोज है, इसलिए डबल बेड बिकते चले जा रहे हैं ! इसलिए प्रजा डाउन हो गई। डाउन होने (नीचे गिरने) में फ़ायदा क्या हुआ? उन दिनों के जो तिरस्कार थे वे सब चले गए। अब डाउन हुएँ को चढ़ाने में देर नहीं लगेगी।
अरे, हिन्दुस्तान में कही डबल बेड होते होंगे? किस प्रकार के जानवर (जैसे लोग) हैं? हिन्दुस्तान के स्त्री-पुरुष कभी एक रूम में होते ही नहीं थे! हमेशा अलग रूमों मे रहते थे। उसके बजाय यह आज देखिए तो सही! आजकल तो ये बाप ही बेडरूम बनवा देता है. डबल बेडवाले! तो ये बच्चे समझ गए कि यह दुनिया इसी प्रणाली से चली आ रही है। हमने यह सब देखा है।
आई नहीं है। और पहले विषय की संगत के कारण टकराव होता था थोड़ाबहुत। किन्तु जब तक विषय का डंक है तब तक वह नहीं जाता। उस डंक से मुक्त हों तब जाता है। हमारा खुद का अनुभव बतलाते हैं।
यह विज्ञान तो देखिए ! संसार के साथ झगडे ही बंद हो जाएँ। पत्नी के साथ तो झगड़ा नहीं, पर सारे संसार के साथ झगड़े समाप्त हो जाएँ। यह विज्ञान ही ऐसा है और झगड़े बंद हुए तो छूट गए।
विषय के प्रति घृणा उत्पन्न हो तभी विषय बंद हो। वर्ना विषय कैसे बंद होगा?
७. विषय वह पाशवता ही! हमारे समय की प्रजा एक बात में बहुत अच्छी थी। विषय का विचार नहीं था। किसी स्त्री की ओर कुदृष्टि नहीं थी। कुछ लोग वैसे होते थे, सौ में से पाँच-सात लोग। वे केवल विधवाओं को ही खोज निकालते थे, दूसरा कुछ नहीं। जिस घर में कोई (पुरुष) रहता नहीं हो वहाँ। विधवा यानी बिना पति का घर, ऐसा कहलाता था। हम चौदह-पंद्रह साल के हुए तब तक लड़कियाँ देखें तो 'बहन' कहते थे, बहत दर का रिश्ता हो तो भी। वह वातावरण ही ऐसा था क्योंकि बचपन में दस-ग्यारह साल की उम्र तक तो दिगंबर अवस्था में घूमते थे।
विषय का विचार ही नहीं आता था, इसलिए झंझट ही नहीं थी। तब, विषय के बारे में जागृति ही नहीं थी।
प्रश्नकर्ता : समाज का एक प्रकार का प्रेशर (दबाव) था, इसलिए?
दादाश्री : नहीं, समाज का प्रेशर नहीं। माता-पिता की वृत्ति, संस्कार ! तीन साल के बच्चे को यह मालूम नहीं होता था कि मेरे मातापिता का ऐसा कोई संबंध है ! इतनी अच्छी सीक्रेसी (गुप्तता) होती थी!
और ऐसा हो, उस दिन बच्चे अलग रूम में सोते थे, ऐसे माता-पिता के संस्कार थे। अभी तो यहाँ बेडरूम और वहाँ बेडरूम। ऊपर से डबल बेड होते हैं न?
इन स्त्रियों का संग मनुष्य यदि पंद्रह दिनों के लिए छोड़ दे, पंद्रह दिन दूर रहे, तो भगवान जैसा हो जाए!
एकांत शैयासन अर्थात् क्या, कि शैया में कोई साथ में नहीं और आसन में भी कोई साथ में नहीं। संयोगी 'फाइलों' का किसी तरह का स्पर्श नहीं। शास्त्रकार तो यहाँ तक मानते थे कि जिस आसन पर परजाति बैठी, उस आसन पर तू बैठेगा तो तुझे उसका स्पर्श होगा, विचार आएँगे।
प्रश्नकर्ता : विषय दोष से जो कर्मबंधन होता है, उसका स्वरूप कैसा होता है?
दादाश्री : जानवर के स्वरूप जैसा। विषय पद ही जानवर पद है। पहले तो हिन्दुस्तान में निर्विषय-विषय था अर्थात् एक पुत्रदान के लिए ही विषय था।
प्रश्नकर्ता : आप ब्रह्मचर्य पर अधिक भार देते हैं और अब्रह्मचर्य के प्रति तिरस्कार दिखाते हैं किन्तु ऐसा करें तो सृष्टि पर से मनुष्यों की
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य संख्या भी कम होगी, तो इस बारे में आपका क्या अभिप्राय है?
दादाश्री : इतने सारे (कुटुंब नियोजन के) ओपरेशन करवाने पर भी जन-संख्या कम नहीं हुई है तो ब्रह्मचर्य पालन से क्या कम होगा? यह जन-संख्या घटाने के लिए तो ओपरेशन करते हैं पर फिर भी कम नहीं होता न! ब्रह्मचर्य तो (मोक्षमार्ग में) बड़ा साधन है।
प्रश्नकर्ता : यह जो नेचुरल प्रोसेस (नैसर्गिक प्रक्रिया) है, उसके प्रति हम तिरस्कार करते हैं ऐसा नहीं कहलाए?
दादाश्री : यह नेचुरल प्रोसेस नहीं है, यह तो पाशवता है। मनुष्य में यदि नेचुरल प्रोसेस रहता तो ब्रह्मचर्य पालने का रहता ही नहीं न! ये जानवर बेचारे ब्रह्मचर्य पालते हैं, सीज़न (ऋत) में कुछ समय ही पंद्रहबीस दिन ही विषय, फिर कुछ भी नहीं!
८. ब्रह्मचर्य की क़ीमत, स्पष्ट वेदन-आत्मसुख
प्रश्नकर्ता : दादाजी से ज्ञान प्राप्ति के बाद ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है कि नहीं?
दादाश्री : ब्रह्मचर्य की आवश्यकता तो जो पालन कर सके उसके लिए है और जो पालन नहीं कर सके उसके लिए नहीं है। यदि अनिवार्य होता तो ब्रह्मचर्य नहीं पालनेवालों को सारी रात नींद ही नहीं आती कि अब हमारा मोक्ष चला जाएगा। अब्रह्मचर्य गलत है, इतना समझें तो भी बहुत हो गया।
प्रश्नकर्ता : फिलासफ़र (तत्वज्ञ) ऐसा बताते हैं कि सेक्स को दबाने से विकृति आती है। स्वास्थ्य के लिए सेक्स (विषयभोग) ज़रूरी
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य यह विषय ऐसी वस्तु है कि एक दिन का विषय तीन दिनों तक किसी भी प्रकार की एकाग्रता नहीं होने देता। एकाग्रता डाँवाँडोल होती रहती है। जब कि महीना भर विषय का सेवन नहीं करें तो, उसकी एकाग्रता डाँवाँडोल नहीं होती। ___ अब्रह्मचर्य और शराब, दोनों इस ज्ञान पर बहुत आवरण लानेवाली चीजें हैं। इसलिए बहुत जागृत रहना। शराब का तो ऐसा है कि 'मैं चंदूभाई हूँ' यह भान ही भूल जाता है! तब फिर आत्मा तो भूल ही जाएगा न! इसलिए भगवान ने (विषय से) डरने को कहा है। जिसे पूर्णतया अनुभव ज्ञान हो जाए, उसे नहीं छुए, फिर भी भगवान के ज्ञान को भी उखाड़कर बाहर फेंक दे इतना भारी इसमें जोखिम है!
जिसे संपूर्ण होना है उसे तो विषय होना ही नहीं चाहिए, फिर भी ऐसा नियम नहीं है। वह तो आख़िरी जन्म में आखिरी पंद्रह साल विषय छूट गया हो, तो बस हो गया। इसकी जन्मों तक कसरत करने की आवश्यकता नहीं है कि त्याग करने की भी ज़रूरत नहीं है। त्याग सहज होना चाहिए कि अपने आप ही छूट जाए। निश्चय भाव ऐसा रखना कि मोक्ष में जाने से पहले जो दो-चार जन्म हों, वे बिन-ब्याहे जाएँ तो बेहतर। उसके जैसा एक भी नहीं।
अब आत्मा का स्पष्टवेदन कब तक नहीं होता? जब तक ये विषय विकार नहीं जाते, तब तक स्पष्टवेदन नहीं होता। अत: यह आत्मा का सुख है या और कोई सुख है, यह 'एग्ज़ैक्ट' (यथार्थ) समझ में नहीं आता है। ब्रह्मचर्य हो तो 'ओन द मोमेन्ट' समझ में आ जाता है। स्पष्टवेदन हो तो वह परमात्मा ही हो गया कहलाता है।
९. लीजिए व्रत का ट्रायल
दादाश्री : उनकी बात सही है, परंतु अज्ञानियों को सेक्स की जरूरत है। वर्ना शरीर को आघात पहुँचेगा। जो ब्रह्मचर्य की बात समझता है उसे सेक्स की जरूरत नहीं है और अज्ञानी मनुष्य को यदि इसका बंधन करें तो उसका शरीर टूट जाएगा, खतम हो जाएगा।
हम आपको बार-बार सावधान करते हैं, मगर सावधान रहना इतना आसान नहीं है न! फिर भी यों ही प्रयोग करते हों कि महीने में तीन दिन अथवा पाँच दिन और यदि सप्ताह भर के लिए (विषय में संयम) करें
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य तो बहुत अच्छा। खुद को पता चलेगा। सप्ताह के मध्य में ही इतना आनंद होगा! आत्मा का सुख और आस्वाद आएगा कि कैसा सुख है! यह आप खुद महसूस करेंगे!
कितने ही लोग कहते हैं, मुझसे विषय छूटता नहीं है। मैंने कहा, ऐसा पागलपन क्यों करता है? थोड़ा-थोड़ा नियम से चल! नियम में रहना, फिर नियम छोड़ना मत। इस काल में यदि नियम नहीं करें तो फिर चलेगा ही नहीं! थोड़ी-सी ढील तो रखनी ही पड़ती है। नहीं रखनी पड़ती?
प्रश्नकर्ता : यदि पुरुष की इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो और स्त्री की इच्छा नहीं हो तो क्या करें?
दादाश्री : नहीं हो तो उसमें क्या हर्ज है? उसके बारे में उसे समझा देना।
प्रश्नकर्ता : कैसे समझाएँ?
दादाश्री : वह तो समझाते-समझाते समाधान होगा, धीरे-धीरे! एकदम से बंद नहीं होगा। दोनों आपस में समाधानकारी मार्ग लो! इसमें क्या नुकसान है, यह सब बतलाना और ऐसे विचारणा करना।
मोक्ष में जाना हो तो विषय हटाना होगा। हज़ार महात्मा हैं, जो सालसालभर का व्रत लेते हैं। कहते हैं, 'हमें सालभर के लिए व्रत दीजिए।' सालभर में उसे पता चल जाता है।
अब्रह्मचर्य तो अनिश्चय है। अनिश्चय उदयाधीन नहीं है।
मैंने तो चार-पाँच लोगों को पछा तो अवाक रह गया। मैंने कहा, भैया, ऐसा पोल नहीं चलेगा। अनिश्चय है यह तो। उसे तो निकालना ही होगा। ब्रह्मचर्य तो पहले चाहिए। वैसे निश्चय से तो आप ब्रह्मचारी ही हैं मगर व्यवहार से भी होना चाहिए।
ब्रह्मचर्य और अब्रह्मचर्य का जिसे अभिप्राय नहीं, उसे ब्रह्मचर्य व्रत वर्तन में आया कहलाता है। आत्मा में निरंतर रहना यह हमारा ब्रह्मचर्य है।
८६
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य फिर भी हम इस बाहर के ब्रह्मचर्य का स्वीकार नहीं करते ऐसा नहीं है। आप संसारी हैं, इसलिए मुझे कहना पड़ता है कि अब्रह्मचर्य का हर्ज नहीं है, परन्तु अब्रह्मचर्य का अभिप्राय तो होना ही नहीं चाहिए। अभिप्राय तो ब्रह्मचर्य का ही होना चाहिए। अब्रह्मचर्य हमारी निकाली 'फाइल' है। परंतु अभी उसमें अभिप्राय बरतता है और उस अभिप्राय की वजह से 'जैसा है वैसा' आर-पार देख नहीं पाते। मुक्त आनंद का अनुभव नहीं होता, क्योंकि उस अभिप्राय का आवरण बाधा करता है। अभिप्राय तो ब्रह्मचर्य का ही होना चाहिए। व्रत किसे कहते हैं? (अपने आप) बरते उसे व्रत कहते हैं। ब्रह्मचर्य महाव्रत बरता किसे कहते हैं? जिसे अब्रह्मचर्य की याद ही न आए, उसे ब्रह्मचर्य महाव्रत वर्तन में है, ऐसा कहते हैं।
१०. आलोचना से ही जोखिम टलें, व्रत भंग के
भगवान ने क्या कहा है कि व्रत तो तू स्वयं तोड़े तो टूटेगा। कोई तुझे क्या तुड़वाएगा? ऐसे किसी के तुड़वाने से व्रत टूट नहीं जाता। व्रत लेने के बाद व्रत का भंग हो तो आत्मा (का ज्ञान) भी चला जाए। व्रत लिया हो तो उसका भंग हमसे नहीं होना चाहिए और भंग हो तो बता देना चाहिए कि अब मेरी नहीं चलती है।
११. चारित्र का प्रभाव व्यवहार चारित्र यानी पुद्गल चारित्र, आँख से दिखे ऐसा चारित्र और वह निश्चय चारित्र उत्पन्न हुआ कि भगवान हुआ कहलाए। अभी आप सभी को 'दर्शन' है, फिर 'ज्ञान' में आएगा, परंतु चारित्र उत्पन्न होते देर लगेगी। यह हमारा अक्रम है न, इसलिए चारित्र शुरू होता भी है, परंतु वह आपकी समझ में आना मुश्किल है।
प्रश्नकर्ता : व्यवहार चारित्र के लिए दूसरा विशेष क्या करें?
दादाश्री : कुछ नहीं। व्यवहार चारित्र के लिए और क्या करना? ज्ञानी की आज्ञा में रहना वही व्यवहार चारित्र और यदि उसमें यह ब्रह्मचर्य भी आ जाए तो अत्ति उत्तम और तभी सच्चा चारित्र कहलाए।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
८७
संसार जीतने के लिए एक ही चाबी बताता हूँ कि विषय यदि विषयरूप नहीं हो तो सारा संसार जीत जाएँगे, क्योंकि वह फिर शीलवान में गिना जाएगा। संसार का परिवर्तन कर सकते हैं । आपका शील देखकर ही सामनेवाले में परिवर्तन हो जाएगा। वर्ना कोई परिवर्तन पाता ही नहीं। उल्टें विपरित होता है। अभी तो सारा शील ही समाप्त हो गया है!
चौबीसों तीर्थकरों ने कहा कि एकांत शैयासन! क्योंकि दो प्रकृतियाँ एकरूप, पूर्णतया 'एडजस्टेबल' होती नहीं हैं। इसलिए 'डिस्एडजस्ट' होती रहेंगी और इसलिए संसार खड़ा होगा। इसलिए भगवान ने खोज निकाला कि एकांत शैया और आसन ।
खंड : २ आत्मजागृति से ब्रह्मचर्य का मार्ग
१. विषयी स्पंदन, मात्र जोखिम
विषयों से भगवान भी डरे हैं। वीतराग किसी वस्तु से डरे नहीं थे, किन्तु वे एक विषय से डरे थे। डरे अर्थात् क्या कि जैसे साँप आए तो प्रत्येक मनुष्य पैर ऊपर कर लेता है कि नहीं करता?
२. विषय भूख की भयानकता
जिसे खाने में असंतोष है उसका चित्त भोजन में जाता है और जहाँ होटल देखा वहाँ आकर्षित होता है, परंतु क्या खाना ही अकेला विषय है? यह तो पाँच इन्द्रियाँ और उनके कितने ही विषय हैं! खाने का असंतोष हो तो खाना आकर्षित करता है, वैसे ही जिसे देखने का असंतोष है वह यहाँ-वहाँ आँखे ही घुमाता रहता है। पुरुष को स्त्री का असंतोष हो और स्त्री को पुरुष का असंतोष हो तो फिर चित्त वहाँ खिंचता है। इसे भगवान ने 'मोह' कहा। देखते ही खिंचता है। स्त्री नज़र आई कि चित्त चिपक जाता है।
'यह स्त्री है' ऐसा देखते हैं। वह पुरुष के भीतर रोग हो तभी स्त्री
८८
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य दिखती है, वर्ना आत्मा ही दिखे और 'यह पुरुष है' ऐसा देखती है, वह उस स्त्री का रोग है । निरोगी हो तो मोक्ष होता है। अभी हमारी निरोगी अवस्था है। इसलिए मुझे ऐसा विचार ही नहीं आता है।
स्त्री-पुरुष को एक दूसरे को छूना नहीं चाहिए, बड़ा जोखिम है । जब तक पूर्ण नहीं हुए हैं, तब तक नहीं छू सकते। वर्ना एक परमाणु भी विषय का प्रवेश करे तो कई जन्म बिगाड़ डाले। हम में तो विषय का परमाणु ही नहीं है। एक परमाणु भी बिगड़े तो तुरंत ही प्रतिक्रमण करना पड़े। प्रतिक्रमण करने पर सामनेवाले को ( विषय का) भाव उत्पन्न नहीं होता।
एक तो अपने स्वरूप का अज्ञान और वर्तमानकाल का ज्ञान इसलिए फिर उसे राग उत्पन्न होता है। बाकी यदि उसकी समझ में यह आए कि यह गर्भ में थी तब ऐसी दिखती थी, जन्म हुआ तब ऐसी दिखती थी, छोटी बच्ची थी तब ऐसी दिखती थी, बाद में ऐसी दिखती थी, अभी ऐसी दिखती है, बाद में ऐसी दिखेगी, बुड्ढी होने पर ऐसी दिखेगी, पक्षाघात हो जाए तो ऐसी दिखेगी, अरथी उठेगी तब ऐसी दिखेगी, ऐसी सभी अवस्थाएँ जिसके लक्ष्य में है, उसे वैराग्य सिखाना नहीं होता! यह तो जो आज का दिखता है उसे देखकर ही मूर्छित हो जाते हैं।
३. विषय सुख में दावे अनंत
इन चार इन्द्रियों के विषय कोई परेशानी नहीं करते, किन्तु यह जो पाँचवा जो विषय है स्पर्श का, वह तो सामनेवाले जीवंत व्यक्ति के साथ है। वह व्यक्ति दावा दायर करे ऐसी है। अतः यह अकेले इस स्त्री विषय में ही हर्ज है। यह तो जीवित 'फाइल' कहलाए। हम कहें कि अब मुझे विषय बंद करना है तब वह कहे कि यह नहीं चलेगा। तब शादी क्यों की? अर्थात् यह जीवित 'फाइल' तो दावा दायर करेगी और दावा दायर करे तो हमें कैसे पुसाए? अर्थात् जीवित के साथ विषय ही नहीं करना ।
दो मन एकाकार हो ही नहीं सकते। इसलिए दावे ही शुरू हो जाते हैं। इस विषय के अलावा अन्य सभी विषयों में एक मन है, एकपक्ष है,
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य इसलिए सामने दावा दायर नहीं करते।
प्रश्नकर्ता : विषय राग से भोगते हैं या द्वेष से? दादाश्री : राग से। उस राग में से द्वेष उत्पन्न होता है।
प्रश्नकर्ता : द्वेष के परिणाम उत्पन्न हो तो उलटे कर्म ज्यादा बँधते हैं न?
९०
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य में उनकी पोटली खोलकर देखा तो क्या पाया कि एक पुस्तक के अंदर सोने की गिन्नी रखी हुई पाई। वह उसने निकाल ली और लेकर चला गया। फिर जब महाराज ने पोटली खोली तो गिन्नी गायब थी। गिन्नी की बहुत खोज की मगर नहीं मिली। दूसरे दिन से महाराज ने व्याख्यान में लोभ की बात करनी शुरू कर दी कि लोभ नहीं करना चाहिए।
अब आप यदि विषय के संबंध में बोलने लगें तो आपकी वह लाइन होगी तो भी टूट जाएगी, क्योंकि आप मन के विरोधी हो गए। मन की वोटिंग अलग और आपकी वोटिंग अलग हो गई। मन समझ जाएगा कि 'ये हमारे विरोधी हो गए, अब हमारा वोट नहीं चलेगा।' पर भीतर कपट है इसलिए लोग बोल नहीं पाते और ऐसा बोलना इतना आसान भी नहीं
है न!
दादाश्री : निरा बैर ही बँधता है। जिसे ज्ञान नहीं हो, उसे पसंद हो तब भी कर्म बँधते हैं और पसंद न हो तब भी कर्म बँधते हैं और जिसे ज्ञान हो तो उसे किसी प्रकार के कर्म बँधते नहीं है।
इसलिए जहाँ-जहाँ जो-जो व्यक्ति पर हमारा मन उलझता है उस व्यक्ति के भीतर जो शुद्धात्मा है वही हमें छुड़वानेवाला है। इसलिए उनसे माँग करना कि मुझे इस अब्रह्मचर्य विषय से मुक्त कीजिए। दूसरी सभी जगहों पर यों ही छूटने के लिए प्रयास करेंगे वह व्यर्थ जाएगा। उसी व्यक्ति के शुद्धात्मा हमें इस विषय से छुड़वानेवाले हैं।
विषय आसक्ति से उत्पन्न होते हैं और फिर उनमें से विकर्षण होता है। विकर्षण होने पर बैर बँधता है और बैर के 'फाउन्डेशन' पर यह संसार खड़ा रहा है।
ऐसा है न, इस अवलंबन का हमने जितना सुख लिया वह सब उधार लिया गया सुख है, 'लोन' (ऋण) पर। और 'लोन' यानी 'रीपे' (चूकते) करना पड़ता है। जब 'लोन' 'रीपे' हो जाए, फिर आपको कोई झंझट नहीं रहती।
४. विषय भोग, नहीं निकाली एक महाराज थे, वे व्याख्यान में विषय के बारे में बहुत कुछ बोलते, पर लोभ की बात आने पर कुछ नहीं कहते थे। कोई विचक्षण श्रोता को हुआ कि ये लोभ की बात कभी क्यों नहीं करते? सब बातें कहते हैं, विषय के बारे में भी बोलते हैं। फिर वह उन महाराज के पास गया और अकेले
प्रश्नकर्ता : कई ऐसा समझते हैं कि 'अक्रम' में ब्रह्मचर्य का कोई महत्त्व ही नहीं है। वह तो डिस्चार्ज ही है न?
दादाश्री : अक्रम का ऐसा अर्थ होता ही नहीं है। ऐसा अर्थ निकालनेवाला 'अक्रम मार्ग' समझा ही नहीं है। यदि समझा होता तो मुझे उसे विषय के संबंध में अलग से कहने की ज़रूरत ही नहीं रहती। अक्रम मार्ग यानी क्या कि डिस्चार्ज को ही डिस्चार्ज माना जाता है। पर इन लोगों के डिस्चार्ज ही नहीं है। यह तो अभी लालच हैं अंदर। यह तो सब राजीखुशी से करते हैं। डिस्चार्ज को कोई समझा है?
५. संसार वृक्ष का मूल, विषय इस दुनिया का सारा आधार पाँच विषयों के ऊपर ही है। जिसे विषय नहीं, उसे टकराव नहीं।
प्रश्नकर्ता : विषय और कषाय, इन दोनों में मूलत: फर्क क्या है?
दादाश्री : कषाय अगले जन्म का कारण है और विषय पिछले जन्म का परिणाम है। इन दोनों में भारी अंतर है।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
प्रश्नकर्ता : इसे जरा विस्तार से समझाइए।
दादाश्री : ये सारे जितने विषय हैं, वे पिछले जन्म के परिणाम हैं। इसलिए हम डाँटते नहीं कि मोक्ष चाहते हैं तो जाइए अकेले पड़े रहिए, घर से हाँककर बाहर नहीं करते। पर हमने अपने ज्ञान में देखा कि विषय तो पिछले जन्म का परिणाम है। इसलिए कहा कि जाइए. घर जाकर सो जाइए, आराम से फाइलों का निकाल कीजिए। हम अगले जन्म का कारण तोड़ देते हैं पर जो पिछले जन्म का परिणाम है, इसका हम छेद नहीं कर सकते। किसी से छेदा नहीं जा सकता। महावीर भगवान से भी नहीं छेदा जा सकता, क्योंकि भगवान को भी तीस साल तक संसार में रहना पड़ा था और बेटी हुई थी। विषय और कषाय का अर्थ यही होता है, पर लोगों को इसका पता ही नहीं चलता न! यह तो भगवान महावीर अकेले ही जानें कि इसका क्या अर्थ है।
प्रश्नकर्ता : पर विषय आए तो कषाय खड़े होते हैं न?
दादाश्री : नहीं, सभी विषय तो विषय ही हैं, परंतु विषय में अज्ञानता हो तब कषाय खड़े होते हैं और ज्ञान हो तब कषाय नहीं होते। कषाय कहाँ से जन्मे? तब कहें, विषय में से। ये सारे कषाय जो उत्पन्न हुए हैं, वे सारे विषय में से हए हैं। पर इसमें विषय का दोष नहीं है, अज्ञानता का दोष है। मूल कारण क्या है? अज्ञानता।
६. आत्मा, अकर्ता-अभोक्ता विषय का स्वभाव अलग है, आत्मा का स्वभाव अलग है। आत्मा ने पाँच इन्द्रियों के विषय में से कुछ भी. कभी भी भोगा ही नहीं है। तब लोग कहते हैं कि मेरे आत्मा ने विषय भोगा! अरे, आत्मा कहीं भुगतता होगा? इसलिए कृष्ण भगवान ने कहा, 'विषय विषय में बरतते हैं।' ऐसा कहा, फिर भी लोगों की समझ में नहीं आया। और ये तो कहते हैं कि 'मैं ही भोगता हूँ।' वर्ना लोग तो ऐसा कहेंगे कि 'विषय विषय में बरतते हैं, आत्मा तो सूक्ष्म है।' इसलिए भोगो! ऐसा उसका भी दुरुपयोग कर डालें।
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य ७. आकर्षण-विकर्षण का सिद्धांत यह सब आकर्षण के कारण ही टिका हुआ है ! छोटे-बड़े आकर्षण की वजह से यह सारा संसार खड़ा रहा है। इसमें भगवान को कुछ करने की ज़रूरत ही पैदा नहीं हुई है। केवल आकर्षण ही है। यह स्त्री-पुरुष को लेकर जो है, वह भी केवल आकर्षण ही है। पिन और चुंबक में जैसा आकर्षण है, वैसा यह स्त्री-पुरुष का आकर्षण है। सभी स्त्रियों की ओर आकर्षण नहीं होता। परमाणु मेल खाते हों, उस स्त्री की ओर आकर्षण होता है। आकर्षण होने के बाद खुद तय करे कि मुझे नहीं खिंचना है, फिर भी खिंच जाएगा।
प्रश्नकर्ता : वह पूर्व का ऋणानुबंध हुआ न?
दादाश्री : ऋणानुबंध कहे तो यह सारा संसार ऋणानुबंध ही कहलाता है। परंतु खिंचाव होना वह ऐसी वस्तु है कि उनका परमाणु का आमने-सामने हिसाब है, इसलिए खिंचते हैं। अभी जो राग उत्पन्न होता है, वह वास्तव में राग नहीं है। ये चुंबक और पिन होते हैं, तब चुंबक ऐसे घुमाएँ तो पिन ऊपर-नीचे होगी। दोनों में जीव नहीं है फिर भी चुंबक के गुण के कारण दोनों को केवल आकर्षण रहता है। इसी प्रकार इस देह के समान परमाणु होते हैं, तब उसीके साथ आकर्षण होता है। उसमें चुंबक है, इसमें इलेक्ट्रिकल बोडी (तेजस शरीर) है! जैसे चुंबक लोहे को खींचता है, दूसरी किसी धातु को नहीं खींचता।
यह तो इलेक्ट्रिसिटी की वजह से परमाणु प्रभावित होते हैं और इसलिए परमाणु खिंचते हैं। जैसे पिन और चुंबक के बीच में आता है कोई अंदर? पिन को हमने सिखाया था कि तू ऊपर-नीचे होना?
अत: यह देह सारी विज्ञान है। विज्ञान से यह सब चलता है। अब आकर्षण हुआ उसे लोग कहें कि मुझे राग हुआ। अरे ! आत्मा को राग होता होगा कहीं? आत्मा तो वीतराग है! आत्मा को राग भी नहीं होता और द्वेष भी नहीं होता है। यह तो दोनों स्व-कल्पित है। वह भ्रांति है।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य भ्रांति चली जाए तो कुछ है ही नहीं!
प्रश्नकर्ता : आकर्षण का प्रतिक्रमण करना पड़ता है?
दादाश्री : हाँ, ज़रूर! आकर्षण-विकर्षण इस शरीर को होता हो तो हमें 'चंदुभाई' (फाइल नं. १) से कहना होगा कि 'हे चंदुभाई, यहाँ आकर्षण होता है, इसलिए प्रतिक्रमण कीजिए।' तो आकर्षण बंद हो जाएगा। आकर्षण-विकर्षण दोनों हैं, वे हमें भटकानेवाले हैं।
८. 'वैज्ञानिक गाईड' ब्रह्मचर्य के लिए ऐसी पुस्तक (किताब) हिन्दुस्तान में छपी नहीं है। हिन्दुस्तान में ऐसी पुस्तक ब्रह्मचर्य की, खोजोगे तो भी नहीं मिलेगी। क्योंकि जो खरे ब्रह्मचारी हुए, वे कहने के लिए नहीं रहे हैं और जो ब्रह्मचारी नहीं हैं, वे कहने को रहे मगर उन्होंने लिखा नहीं है। ब्रह्मचारी नहीं है वे कैसे लिख पाएँगे? खुद के जो दोष हों, उस पर कोई विवेचन लिखना संभव नहीं है। अत: जो ब्रह्मचारी थे वे कहने को नहीं ठहरे, जो खरे ब्रह्मचारी थे वे चौबीस तीर्थकर! कृपालुदेव ने भी थोड़ा-बहुत इस बारे में कहा है।
यह तो हमारी ब्रह्मचर्य की पुस्तक जिसने पढ़ी हो, वही ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है, वर्ना ब्रह्मचर्य पालन करना कोई आसान वस्तु
नौ कलमें (भावनाएँ) १. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी
अहम् न दुभे (दुःखे), न दुभाया (दु:खाया) जाये या दुभाने (दुःखाने) के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम
शक्ति दो। २. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभे, न दुभाया जाये या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाया जाये ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की
परम शक्ति दो। ३, हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या
आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो। ४. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र
भी अभाव. तिरस्कार कभी भी न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता
के प्रति न अनुमोदित किया जाये, ऐसी परम शक्ति दो। ५. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी
कठोर भाषा, तंतीली भाषा न बोली जाये, न बुलवाई जाये या बोलने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोलें तो मुझे मृदु-ऋजु भाषा बोलने की
शक्ति दो। ६. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति स्त्री, पुरुष या
नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किचिंत्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किये जायें, न करवाये जायें या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी
जय सच्चिदानंद
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________ परम शक्ति दो। मुझे निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दो। 7. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दो। समरसी आहार लेने की परम शक्ति दो। 8. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो। 9. हे दादा भगवान ! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। (इतना आप दादा भगवान से माँगा करें। यह प्रतिदिन यंत्रवत् पढ़ने की चीज नहीं है, हृदय में रखने की चीज़ है। यह प्रतिदिन उपयोगपूर्वक भावना करने की चीज है। इतने पाठ में समस्त शास्त्रों का सार आ जाता है।) प्रतिक्रमण विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, देहधारी (जिसके प्रति दोष हुआ हो, उस व्यक्ति का नाम) के मन-वचन-काया के योग, भावकर्मद्रव्यकर्म-नोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, आपकी साक्षी में, आज दिन तक मुझसे जो जो ** दोष हुए हैं, उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ। मुझे क्षमा करें। और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं करूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ। उसके लिए मुझे परम शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए। ** क्रोध-मान-माया-लोभ, विषय-विकार, कषाय आदि से किसी को भी दुःख पहुँचाया हो, उस दोषो को मन में याद करें। प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सौमंधर सीटी, अहमदाबाद- कलोल हाई वे, पोस्ट : अडालज, जि. गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 39830100, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाई वे, तरघडीया चोकडी, पोस्ट : मालियासण, जि. राजकोट, फोन : 99243 43478 वडोदरा : दादा भगवान परिवार, (0265)2414142 मुंबई : दादा भगवान परिवार, 9323528901 पूणे : महेश ठक्कर, दादा भगवान परिवार, 9822037740 बेंगलुर : अशोक जैन, दादा भगवान परिवार, 9341948509 कोलकता : शशीकांत कामदार, दादा भगवान परिवार, 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel: 785-271-0869, E-mail: bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 951-734-4715, E-mail: shirishpatel@sbcglobal.net : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH Tel.: 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W6B7. Tel. : 416675 3543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada :+1416-675-3543 Australia:+61421127947 Dubai :+971506754832 Singapore: +65 81129229 Malaysia :+60 126420710 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org दादा भगवानना असीम जय जयकार हो (प्रतिदिन कम से कम 10 मिनट से लेकर 50 मिनट तक जोर से बोलें)