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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य जाना चाहिए।
एक व्यक्ति मुझे बता रहा था कि, 'मेरी वाइफ के बगैर मुझे ऑफिस में अच्छा नहीं लगता।' एक बार यदि उसके हाथ में पीप पड़ जाए तो क्या उसे तू चाटेगा? नहीं? तो क्या देखकर स्त्री पर मोहित होता है? सारा बदन पीप से ही भरा है। यह गठरी (शरीर) किस चीज़ की है. उसका विचार नहीं आता? मनुष्य को अपनी स्त्री पर प्रेम है उससे ज्यादा सूअर को अपनी सूअरनी पर है। क्या इसे प्रेम कह सकते है? यह तो निपट पाशवता है! प्रेम तो वह कि जो बढ़े नहीं, घटे नहीं, वह प्रेम कहलाता है। यह तो सब आसक्ति है।
विषयभोग तो निपट जूठन ही है, सारी दुनिया की जूठन है। आत्मा का ऐसा आहार तो होता होगा कहीं? आत्मा को किसी बाह्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है, वह निरालंब है। किसी अवलंबन की उसे आवश्यकता नहीं है।
भ्रांतिरस में संसार तदाकार पड़ा है। भ्रांतिरस यानी वास्तविक रस नहीं हैं, फिर भी मान बैठा है! न जाने क्या मान बैठा है? उस सुख का वर्णन करने जाएँ तो उल्टियाँ होने लगें!
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य पाँच इन्द्रियों के विषय में एक जीभ का विषय ही अकेला सच्चा विषय है। दूसरे सब तो बनावट है। शद्ध विषय तो यह अकेला ही! फर्स्ट क्लास (बढ़िया) हाफूज़ आम हों तब कैसा स्वाद आता है? भ्रांति में यदि कोई शुद्ध विषय हो तो इतना ही है।
विषय तो संडास है। नाक में से, कान में से, मुँह में से हर जगह से जो-जो निकलता है, वह सब संडास ही है। डिस्चार्ज वह भी संडास ही है। जो पारिणामिक भाग है, वह संडास है, पर तन्मयाकार हुए बगैर गलन नहीं होता।
विचारवंत मनुष्य विषय में सुख किस प्रकार मान बैठा है वही मुझे आश्चर्य होता है! विषय का पृथक्करण करें तो खाज खुजलाने के समान है। हमें तो खूब-खूब विचार आता है कि अरेरे! अनंत अवतार यही का यही किया! जो हमें पसंद नहीं वह सब विषय में है। निरी गंध है। आँख को देखना न भाए। नाक को सूंघना न भाए। तूने सूंघकर देखा कभी? सूंघना था न? तो वैराग्य तो आए! कान को रुचता नहीं। केवल चमड़ी को रुचता है।
विषय तो बुद्धिपूर्वक का खेल नहीं, यह तो केवल मन की ऐंठन ही है।
मझे तो इस विषय में इतनी गंदगी दिखती है कि मझे यों ही ज़रासा भी उस ओर का विचार नहीं आता। मुझे विषय का कभी विचार ही नहीं आता। मैंने (ज्ञान में) इतना कुछ देख लिया है कि मुझे मनुष्य आरपार दिखते है।
इस शरीर की राख होती है और उस राख के परमाणओं से फिर से शरीर बनता है। ऐसे अनंत अवतारों की राख का यह परिणाम है। बिलकुल जूठन है! यह तो जूठन की जूठन और उसकी भी जूठन! वही की वही खाक, वही के वही परमाणु सारे, उन्हीं से बार-बार निर्माण होता रहता है! बर्तन को दूसरे दिन रगड़कर साफ करें तो स्वच्छ नज़र आए पर माँजे बगैर उसमें ही रोज़ाना खाते रहें तो गंदगी नहीं है?
अरे, ऐसी मजेदार खीर खाई हो, तो भी उल्टी हो जाए तो कैसी दिखती है? हाथ में रखें ऐसी सुंदर दिखती है? कटोरा स्वच्छ हो, खीर अच्छी हो, पर खाने के बाद वही की वही खीर, उलटी हो जाएँ और आपसे कहे कि दुबारा उसे पी जाओ, तो आप नहीं पीएँगे और कहेंगे, 'जो होना हो सो हो, पर नहीं पीऊँगा।' अत: यह सब भान नहीं रहता है न!
मनुष्य की रोंग बिलीफ़ (गलत मान्यता) है कि विषय में सख है। अब विषय से बढ़कर सुख प्राप्त हो तो विषय में सुख न लगे। विषय में सुख नहीं है पर देहधारी को व्यवहार में छुटकारा ही नहीं है। वर्ना जानबूझकर (इस देहरूपी) गटर का ढक्कन कौन खोले? विषय में सुख होता तो चक्रवर्ती इतनी सारी रानियाँ होते हए सख की खोज में नहीं निकलते। इस ज्ञान से इतना ऊँचा सुख मिलता है। फिर भी इस ज्ञान के पश्चात् विषय