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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
३३ पीछे पिछले जन्म के कॉज़ेज़ (कारण) हैं। इसी लिए हर एक को देखकर दृष्टि बदलती नहीं। कुछ को देखें तभी दृष्टि बदलती है। कॉज़ेज़ हों, उसका आगे से हिसाब चला आता हो और फिर रमणता हो तो समझना कि बड़ा भारी हिसाब है। इसलिए वहाँ अधिक जागृति रखनी होगी। उसके प्रति प्रतिक्रमण के तीर बार-बार छोड़ते रहना। आलोचना-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान जबरदस्त करने होंगे।
यह विषय एक ऐसी चीज़ है कि मन और चित्त को जिस तरह रहता हो वैसे नहीं रहने देता और एक बार इसमें पड़े कि उसमें आनंद मानकर उल्टे चित्त का वहीं जाने का बढ़ जाता है और 'बहुत अच्छा है, बड़ा मजेदार है' ऐसा मानकर अनंत बीज पड़ते हैं!
प्रश्नकर्ता : पर वह पहले का वैसा लेकर आया होता है न?
दादाश्री : उसका चित्त वहीं का वहीं चला जाता है, वह पहले का लेकर नहीं आया किन्तु बाद में उसका चित्त छिटक ही जाता है हाथों से! खुद मना करे फिर भी छिटक जाता है। इसलिए ये लड़के ब्रह्मचर्य भाव में रहे तो अच्छा और फिर यों ही जो स्खलन होता है वह तो गलन है। रात में हो गया, दिन में हो गया, वह सब गलन है। पर इन लड़कों को यदि एक ही बार विषय ने छू लिया हो न, तो फिर रात-दिन उसीके ही सपने आते हैं।
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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य पूर्णरूप से स्वतंत्र हो गया हूँ। मन में कैसे भी बुरे विचार आएँ उसमें हर्ज नहीं, पर चित्त का हरण नहीं ही होना चाहिए।
चित्तवृत्तियाँ जितना भटकेंगी उतना आत्मा को भटकना पड़ता है। जहाँ चित्तवृत्ति जाए, वहाँ हमें जाना पड़ेगा। चित्तवृत्ति अगले जन्म के लिए आवागमन का नक्शा बना देती है। उस नक्शे के अनुसार फिर हम घूमेंगे। कहाँ-कहाँ घूम आती होगी चित्तवृत्तियाँ?
प्रश्नकर्ता : चित्त जहाँ-तहाँ नहीं अटक जाता, पर किसी एक जगह अटक गया तो वह पिछला हिसाब है?
दादाश्री : हाँ, हिसाब हो तभी अटक जाता है। पर अब हमें क्या करना है? पुरुषार्थ वही कहलाए कि जहाँ हिसाब है वहाँ पर भी अटकने नहीं दे। चित्त जाए और धो डालें तब तक अब्रह्मचर्य नहीं माना जाता। चित्त गया और धो नहीं डाला तो वह अब्रह्मचर्य कहलाता है।
चित्त को जो डिगा दें वे सभी विषय ही हैं। ज्ञान के बाहर जिन जिन वस्तुओं में चित्त जाता है, वे सारे विषय ही हैं।
प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि कैसा भी विचार आए उसमें हर्ज नहीं है, पर चित्त वहाँ जाए उसमें हर्ज है।
दादाश्री : हाँ, चित्त का ही झमेला है न! चित्त भटकता है वही झमेला न! विचार तो कैसे भी हों, उसमें हर्ज नहीं पर इस ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् चित्त इधर-उधर नहीं होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : कभी ऐसा हो तो उसका क्या?
दादाश्री : हमें वहाँ पर 'अब ऐसा नहीं हो' ऐसा पुरुषार्थ करना होगा। पहले जितना जाता था अब भी उतना ही जाता है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, उतना ज्यादा स्लिप नहीं होता, फिर भी पूछता
तुझे ऐसा अनुभव है कि विषय में चित्त जाता है तब ध्यान बराबर नहीं रहता?
प्रश्नकर्ता : यदि चित्त ज़रा-सा भी विषय के स्पंदन को छू गया तो कितने ही समय तक खुद की स्थिरता नहीं रहने देता।
दादाश्री : इसलिए मैं क्या कहना चाहता हूँ कि सारे संसार में घूमो पर यदि कोई भी चीज़ आपके चित्त का हरण नहीं कर सके तो आप स्वतंत्र हो। कई सालों से मैंने अपने चित्त को देखा है कि कोई चीज़ उसका हरण नहीं कर सकती, इसलिए फिर मैंने खुद को पहचान लिया कि मैं
दादाश्री : नहीं, मगर चित्त तो जाना ही नहीं चाहिए। मन में कैसे