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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य ये सारी स्त्रियाँ इसी कारण ही स्लिप हुई हैं। कोई मीठा बोले तो वहाँ स्लिप हो जाती हैं। यह बहुत सूक्ष्म बात है। समझ में आए ऐसी नहीं
दादाश्री : जायदाद तो देनी होगी, यदि हमें स्वाद लेना हो तो! सीधे रहो न एक जन्म, ऐसा किस लिए करते हो? अनंत जन्मों से ऐसा ही करते
आए हो! एक जन्म सीधे रहो न! सीधे हए बिना चारा नहीं है। साँप भी बिल में घुसते समय सीधा होता है या टेढ़ा चलता है?
प्रश्नकर्ता: सीधा चलता है। परस्त्री में जोखिम है, वह गलत है, ऐसा आज ही समझ में आया। आज तक तो इसमें क्या गलत है. ऐसा ही रहता था।
दादाश्री : आपको किसी जन्म में किसी ने 'यह गलत है' ऐसा अनुभव नहीं करवाया, वर्ना इस गंदगी में कौन पड़े? ऊपर से नर्क का जोखिम आए!
हमारा यह विज्ञान प्राप्त होने के बाद हृदयपूर्वक पछतावा करें तो भी सारे पाप जल जाएँ। अन्य लोगों के पाप भी जल जाएंगे, परंतु पूर्ण रूप से नहीं जलेंगे। आप ऐसा विज्ञान प्राप्त होने के बाद, उस विषय पर खूब पछतावा करते रहेंगे तो फिर पार उतर जाएँगे!
प्रश्नकर्ता : बीच में जो बात बताई थी कि पुरुष ने (स्त्री को) कपट करने हेतु प्रोत्साहित किया है, तो उसमें पुरुष प्रधान कारणरूप है। हमारा जो जीवन व्यवहार है और उनका जो कपट है, उनकी जो गांठ है, उसमें यदि मैं कुछ जिम्मेदार हूँ तो उसकी विधि कर देना ताकि मैं उन्हें छोड़ सकूँ।
दादाश्री : हाँ, विधि कर देंगे। उसका कपट बढ़ा, उसके लिए हम पुरुष रिस्पोन्सिबल (जिम्मेदार) हैं। कई पुरुषों को इस जिम्मेदारी का भान बहुत कम होता है। यदि वह हर तरह से मेरी आज्ञा का पालन करता हो, फिर भी स्त्री को भोगने के लिए वह पुरुष स्त्री को क्या समझाता है? स्त्री से कहेगा कि अब इसमें कोई दिक्कत नहीं है। इससे स्त्री बेचारी से भूल हो जाती है। उसे दवाई नहीं पीनी हो... और पीनी ही नहीं हो, फिर भी प्रकृति पीनेवाली ठहरी न! प्रकृति उस घडी खश हो जाती है। पर वह उत्तेजन किसने दिया? इसलिए पुरुष उसका जिम्मेदार है।
अतः इस विषय को लेकर स्त्री हुआ है। केवल एक विषय के कारण ही। पुरुष ने भोगने के लिए उसे प्रोत्साहित किया है और बेचारी को बिगाड़ा। बरकत नहीं हो फिर भी अपने में बरकत है ऐसा वह मन में मान लेती है। तब कहें, क्यों मान लिया? कैसे मान लेती है? पुरुषों ने बार-बार दोहराया, इसलिए वह समझे कि यह कहते हैं, इसमें गलत क्या है? अपने आप मान लिया नहीं होता। आपने कहा हो, 'तू बहुत अच्छी है, तेरे जैसी तो कोई स्त्री है ही नहीं।' उसे कहें कि 'तू सुंदर है।' तो वह अपने को सुंदर समझ लेती है। इन पुरुषों ने स्त्रियों को स्त्री के रूप में रखा है और स्त्री मन में समझे कि मैं पुरुषों को मुर्ख बनाती हैं। पुरुष ऐसा करके भोगकर अलग हो जाते हैं। उसके साथ भोग लेते हैं. जैसे कि इस राह भटकना हो... बहुत समझ में नहीं आता न? थोड़ा-थोड़ा?
प्रश्नकर्ता : पूरा समझ में आता है। पहले पुरुषों का कोई दोष नहीं है इस प्रकार से सत्संग होते थे। लेकिन आज बात निकली तो समझे कि पुरुष भी इस प्रकार जोखिम बहुत बड़ा उठा लेता है।
दादाश्री : पुरुष ही जिम्मेदार है। स्त्री को स्त्री के रूप में रखने के लिए पुरुष ही जिम्मेदार है।
पति नहीं हो, पति चला गया हो, कुछ भी हो जाए, फिर भी दूसरे के पास जाए नहीं। वह चाहे जैसा भी हो, खुद भगवान पुरुष होकर आए हों, पर नहीं। 'मेरे लिए मेरा पति है, पतिवाली हूँ' वह सती कहलाती है। आज सतीत्व कह सकें ऐसा है इन लोगों का? हमेशा नहीं है ऐसा, नहीं? जमाना अलग तरह का है न! सत्युग में ऐसा समय कभी ही आता है, सतियों के लिए ही। इसलिए सतियों का नाम लेते हैं न अपने लोग!
सती होने की इच्छा से उसका नाम लिया हो तो कभी सती बने परंतु आज तो विषय चूड़ियों के भाव बिकता है। यह आप जानते हैं?