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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य होने को किसने कहा था?' ऐसे वीतराग के पास भी हमें चैन से बैठने नहीं दें! अर्थात् खुद तो गिरे मगर दूसरों को भी घसीट जाएँ। इसलिए तू भावना करना और हम तुझे भावना करने की शक्ति देते हैं। अच्छी तरह से भावना करना, जल्दबाजी मत करना। जितनी जल्दबाजी उतना कच्चापन।
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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य तो हजारों चीजें छोड़ो तो भी कोई बरकत नहीं आती।
ज्ञानी पुरुष के पास चारित्र्य ग्रहण करे, तो खाली ग्रहण ही किया है, अभी पालन तो हुआ ही नहीं, फिर भी तब से ही बहुत आनंद होता है। तुझे कुछ आनंद आया?
प्रश्नकर्ता : आया न, दादाजी! उस घड़ी से ही भीतर सब निरावरण हो गया।
यदि यह ब्रह्मचर्य व्रत लेगा और पूर्णतया पालन करेगा, तो वर्ल्ड में गज़ब का स्थान प्राप्त करेगा और यहाँ से सीधा एकावतारी होकर मोक्ष में जाएगा। हमारी आज्ञा में बल है, जबरदस्त वचनबल है। यदि तू कच्चा न पड़े तो व्रत नहीं टूटेगा, ऐसा हमारा वचनबल है।
तब तक भीतर ही कसौटी करके देख लेना कि भावना जगत् कल्याण की है या मान की? खुद के आत्मा की कसौटी करे तो सब पता चले ऐसा है। अगर भीतर मान रहा हो तो भी वह निकल जाएगा।
एक ही सच्चा मनुष्य हो तो वह जगत् कल्याण कर सकता है। संपूर्ण आत्मभावना होनी चाहिए। एक घंटे तक भावना करते रहना और यदि टूट जाए तो जोड़कर फिर से चालू करना।
जगत् का अधिक कल्याण कब हो? त्यागमुद्रा हो तो अधिक होता है। गृहस्थमुद्रा में जगत् का अधिक कल्याण नहीं होता। ऊपर से हो पर अंदरूनी तौर पर सारी पब्लिक (जनता) नहीं पा सकती! ऊपर ऊपर से सारा बड़ा वर्ग प्राप्त कर लेता है, पर सारी पब्लिक प्राप्त नहीं करती। त्याग अपने जैसा होना चाहिए। अपना त्याग अहंकारपूर्वक का नहीं न! और यह चारित्र्य तो बहुत उच्च कहलाता है।
'मैं शद्धात्मा हैं' यह निरंतर लक्ष्य में रहे वह महानतम ब्रह्मचर्य है। उसके समान दूसरा ब्रह्मचर्य नहीं है। फिर भी आचार्य पद की प्राप्ति करने की भावना भीतर हो तब वहाँ बाह्य ब्रह्मचर्य भी चाहिए, उसे स्त्री नहीं होनी चाहिए।
मात्र यह अब्रह्मचर्य छोड़े तो सारा संसार खत्म होता जाता है, तीव्रता से। एक ब्रह्मचर्य पालने से तो सारा संसार ही खत्म हो जाता है और नहीं
दादाश्री: लेने के साथ ही आवरण हटे न? लेते समय उसका मन क्लीयर (स्वच्छ) होना चाहिए। उसका मन उस समय क्लीयर था, मैंने पता किया था। इसे चारित्र्य ग्रहण किया कहलाता है ! व्यवहार चारित्र्य!
और वह 'देखना'-'जानना' रखें, वह निश्चय चारित्र्य! चारित्र्य का सुख जगत् समझा ही नहीं है। चारित्र्य का सुख ही अलग तरह का होता है।
प्रश्नकर्ता : विषय से छूटा कब कहलाता है? दादाश्री : उसे फिर विषय का एक भी विचार न आए।
विषय संबंध में कोई भी विचार नहीं, दृष्टि नहीं, वह लाइन ही नहीं। मानों वह जानता ही नहीं हो इस प्रकार हो, वह ब्रह्मचर्य कहलाता है।
१५. 'विषय' के सामने 'विज्ञान' की जागृति
प्रश्नकर्ता : वह वस्तु खुद के समझ में कैसे आए कि इसमें खुद तन्मयाकार हुआ है?
दादाश्री : 'खुद' का उसमें विरोध हो, 'खुद' का विरोध वही तन्मयाकार नहीं होने की वृत्ति। 'खुद' को विषय के संग एकाकार नहीं होना है, इसलिए 'खुद' का विरोध तो होगा ही न? विरोध रहा वही अलगाव, और भूल से एकाकार हो गए, हमें चकमा देकर चिपक जाए, तो फिर उसका प्रतिक्रमण करना होगा।
प्रश्नकर्ता : निश्चय को लेकर खुद का विषय के सामने विरोध तो