Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्गशीर्ष, वीरनि०सं०२४६६ ।
१ अनेकान्त
वर्ष ३, किरण २ वार्षिक मूल्य ३ रु०
दिसम्बर १९३९
OINDIDEIOPOTODIODIODID101010100090FIDEOAGEIGONOMOTOROTOINDEAONNO सम्पादक
संचालकजुगलकिशोर मुख्तार
तनसुखराय जैन न अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनॉट सर्कस पो० ब० नं०४८ न्यू देहली। A MONCLN17011010101011CONONOS COLOLOFOLOOM FOFOLLOFCHOLLO TO
TZ IT ITT
TITTITIZ TUOI
2009 Terc
PHOTOFORE
CrCOLOGO4
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
* विषय सूची के
१४६
१. अकलंक-स्मरण २. बौद्ध तथा जैन ग्रन्थोंमें दीक्षा [प्रो. जगदीशचन्द्र एम. ए. ... ३. राग
[श्रीमद् राजचन्द्र , ४. विधवा सम्बोधन (कविता)-[श्री० 'युगवीर' ५. बंगीय विद्वानोंकी जैन साहित्यमें प्रगति [श्री० अगरचन्द नाहटा ६. अहिंसाकी कुछ पहेलियाँ [श्री० किशोरलाल मशरूवाला ७. ऊँच-नीच-गोत्र विषयक चर्चा [श्री० बालमुकन्द पाटोदी ८. अनुपम क्षमा [श्रीमद् राजचन्द्र ६. श्वेताम्बर न्याय साहित्य पर एक दृष्टि [पं० रत्नलाल संघवी १०. गोत्रविचार [ सम्पादकीय ११. बुद्धि हत्याका कारखाना [ग्रहस्थसे उद्धृत १२. साहित्य परिचय और समालोचन [सम्पादक
१६२ १६५
१७६
१७७
१८६
5.
१.
४
२००
अनेकान्तकी फाइल
अनेकान्तके द्वितीय वर्षकी किरणोंकी कुछ फाइलोंकी साधारण जिल्द बंधवाली गई हैं। १२वी किरण कम हो जानेके कारण फाइलें थोड़ी ही बन्ध सकी हैं । अतः जो बन्धु पुस्तकालय या मन्दिरोंमें भेंट करना चाहें या अपने पास रखना चाहें वे २॥) रु० मनिबार्डरसे भिजवा देंगे तो उन्हें सजिल्द अनेकान्तकी फाइल भिजवाई जा सकेगी।
जो सजन अनेकान्तके ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जानेके कारण जिल्द बन्धवाने में असमर्थ हैं उन्हें १२वीं किरण छोड़कर प्रत्येक किरणके लिये चार आना और विशेषांक के लिए आठ आना भिजवाना चाहिए तभी आदेशका पालन हो सकेगा।
-व्यवस्थापक
क्षमा-याचना
सम्पादकजीके अस्वस्थ रहनेके कारण 'धवलादि श्रुत परिचय' और 'ऐतिहासिक जैन व्यक्ति कोष' लेख समय पर न मिलनेके कारण इस किरणमें नहीं दिये जा सकते है । आशा है इस विवशताके लिये क्षमा दी जायगी।
-व्यवस्थापक
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष - ३
ॐ अर्हम्
अनेकान
नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्त्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
सम्पादन-स्थान - वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि० सहारनपुर प्रकाशन-स्थान – कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली मार्गशीर्ष पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं० १९६६
कलंक-स्मरण
श्रीमद्भट्टा कलंकस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनेकान्त मरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥
TIMIR
किरण २
- ज्ञानार्णवे, श्रीशुभचन्द्राचार्यः
श्रीसम्पन्न भट्ट - कलंकदेवकी वह पुण्या सरस्वती - पवित्र भारती - हमारी रक्षा करो - हमें मिथ्यात्वरूपी गर्त में पड़ने से बचाओ – जो अनेकान्तरूपी श्राकाशमें चन्द्रमाके समान देदीप्यमान है - सर्वोत्कृष्टरूपसे वर्तमान है । भावार्थ - श्री अकलंक देवकी मंगलमय वचनश्री पद पद पर अनेकान्तरूपी सन्मार्गको व्यक्त करती है और इस तरह अपने उपासकों एवं शरणागतोंको मिथ्या एकान्तरूप कुमार्ग पर लगने नहीं देती । अतः हम उस अकलंक -सरस्वतीकी शरण में प्राप्त होते हैं, वह अपने दिव्य तेज द्वारा कुमार्गसे हमारी रक्षा करो । जीयात्समन्तभद्रस्य देवागमनसंज्ञिनः । स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलंको महर्द्धिकः ॥
- नगर - ताल्लुक, शिमोगा-शि० लेख नं० ४६ स्वामी समन्तभद्र 'देवागम' नामक स्तोत्रका जिन्होंने भाष्य रचा है-उसपर 'अष्टशती' नामका विवरण लिखा है - वे महाऋद्धि के धारक कलंकदेव जयवन्त हों - अपने प्रभावसे सदा लोकहृदयोंमें व्याप्त होवें ।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
अनेकान्त
अकलंकगुरुर्जीयादकलंकपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धि-वैधव्य-दीक्षागुरुरुदाहृतः ॥
[ मार्गशीर्ष, वीर- निर्वाण सं० २४६६
- हनुमच्चरिते, ब्रह्मश्रजितः
जो बौद्धोंकी बुद्धिको वैधव्य-दीक्षा देनेवाले गुरु कहे जाते हैं - जिनके सामने बौद्धविद्वानोंकी बुद्धि विधवाजैसी दशा को प्राप्त होगई थी, उसका कोई ऐसा स्वामी नहीं रहा था जो बौद्ध-सिद्धान्तोंकी प्रतिष्ठाको कायम रख सके—वे अकलंकपदके अधिपति श्री कलंकगुरु जयवन्त हो— चिरकाल तक हमारे हृदयमन्दिर में विराजमान रहें । तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः । जगद्द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यद्स्यवः ॥
- पार्श्वनाथ चरिते, वादिराजसूरिः
जिन्होंने जगत् के द्रव्योंको चुरानेवाले – शून्यवाद - नैरात्म्यवादादि सिद्धांतोंके द्वारा जगतके द्रव्योंका अपहरणकरनेवाले, उनका अभाव प्रतिपादन करनेवाले — बौद्ध दस्युत्रोंको दण्डित किया, वे अकलंकबुद्धिके धारक तर्काधिराज श्रीकलंकदेव जयवन्त हैं—सदा ही अपनी कृतियोंसे पाठकोंके हृदयोंपर अपना सिक्का जमानेवाले हैं। भट्टाकलंकोऽकृत सौगतादि- दुर्वाक्यपंकैस्स कलंकभूतम् । जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ समन्तादकलंकमेव ॥ - श्रवणबेलगोल - शिलालेख नं० १०५
बौद्धादि - दार्शनिकों के मिथ्यैकान्तवादरूप दुर्वचन-पंकसे सकलंक हुए जगत को भट्टाकलंक देवने, अपने नामको मानों पूरी तौर से सार्थक करनेके लिये ही, अकलंक बना डाला है - अर्थात् उसकी बुद्धिमें प्रविष्ट हुए 'एकान्त मलको, अपने अनेकान्तमय वचनप्रभाव से धो डाला है ।
इत्थं समस्तमतवादि-करीन्द्र-दर्पमुन्मूलयन्न मलमानदृढप्रहारैः । स्याद्वाद-केसरसटाशततीत्रमूर्तिः, पंचाननो भुवि जयत्यकलंकदेवः ॥
- न्याय कुमुदचन्द्रे, प्रभाचन्द्राचार्यः
इस प्रकार जिन्होंने निर्दोष प्रमाण के दृढ प्रहारोंसे समस्त श्रन्यमतवादिरूपी राजेन्द्रोंके गर्वको निर्मूल कर दिया है वे स्याद्वादमय सैंकड़ों केसरिक जटाओं से प्रचण्ड एवं प्रभावशालिनी मूर्तिके धारक श्रीकलंकदेव भूमं डल पर केहरिसिंह के समान जयशील हैं - अपनी प्रवचन- गर्जनासे सदा ही लोक- हृदयों को विजित करनेवाले हैं । जीयाश्चिरमकलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपति-वरतनयः । अनवरत - निखिलजन - नुतविद्यः प्रशस्तजन-हृद्यः ॥
- तस्वा०रा०, प्रथमाध्याय - प्रशस्तिः
जिनकी विद्या - ज्ञानमाहात्म्य — के सामने सदा ही सब जन नतमस्तक रहते थे और जो सज्जनोंके हृदयों को हरनेवाले थे — उनके प्रेमपात्र एवं आराध्य बने हुए थे — वे लघुहव्वराजाके श्रेष्ठपुत्र श्रीअकलंकब्रह्मा–कलंक नामके उच्चात्मा महर्षि - - चिरकाल तक जयवन्त हों - अपने प्रवचनतीर्थ-द्वारा लोकहृदयों में सदा सादर विराजमान रहें ।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
बौद्ध तथा जैन-ग्रन्थोंमें दीक्षा
[ ले० - श्री० प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन एम. ए. ]
त्र्यस्यन्त प्राचीन समयसे भारतीय इतिहासमें दो धारायें देखने में श्राती हैं । कुछ लोग ऐसे थे जो वेदपाठी थे, श्रग्नि-पूजक थे और देवी-देवताओं को प्रसन्न करनेके लिये यज्ञ-याग आदि करनेमें ही कल्याण `मानते थे । 'दूसरे लोग उक्त बातों में विश्वास न करते थे; उनका लक्ष्य था त्याग, तप, अहिंसा, ध्यान और काय -क्लेश | प्रथम वर्ग के लोगोंका लक्ष्य प्रवृत्ति प्रधान और दूसरे वर्गका निवृत्ति प्रधान था । एक वर्ग के लोग ब्राह्मण थे, दूसरे वर्ग के क्षत्रिय अथवा श्रमण थे । ऋग्वेदमें भी ऐसे लोगोंका उल्लेख श्राता है जो वेदोंको न मानते थे और इन्द्रके अस्तित्वमें विश्वास न करते थे । यजुर्वेद - -संहिता में इन लोगोंका 'यति' के नामसे उल्लेख किया गया है । श्रापस्तंभ, बोधायन आदि ब्राह्मणों के धर्मसूत्रोंमें इन श्रमणोंके विधि-विधान का विस्तारसे कथन श्राता है। इसी तरह उपनिषदों में 'भिक्षाचर्या' आदिके उल्लेखोंके साथ स्पष्ट कहा गया है - " नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः, न मध्या न वा बहुना श्रुतेन" - अर्थात् श्रात्मा शास्त्र, बुद्धि आदिके गोचर है | SBI C
1
श्रमण (समण) शब्दकी व्युत्पत्ति बताते हुए शास्त्रकारोंने लिखा है- श्राम्यति तपस्यतीति श्रमरणः, अथवा सह शोभनेन मनसा वर्त्तत इति समनाःअर्थात् जो श्रम करते हैं-तप करते हैं. वे श्रमण हैं,
अथवा जिनका मन सुन्दर हो उन्हें भ्रमण कहते हैं । यहाँ यह बात खास ध्यान रखने योग्य है कि श्रमणका अर्थ केवल जैनसम्प्रदाय ही नहीं, किंतु श्रभयदेवसूरिने 'निर्मथ, शाक्य, तापस, गेरुक और श्राजीवक' इस तरह श्रमणोंके पांच भेद बताये हैं । जैसा ऊपर बताया गया है श्रमणोंका धर्म निवृत्ति प्रधान है । उनका कहना है कि यह संसार क्षण भंगुर है, संसारमें मोह करना योग्य नहीं संसार में रहकर मनुष्य मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता, इसलिये इसका त्याग कर बनमें जाकर अपने ध्येयकी सिद्धि तपश्चर्या और ध्यानयोगसे करनी चाहिये । गृहत्यागके साथ साथ श्रमण लोगों में श्रात्मोत्सर्गकी भी चरम सीमा बताई गई है । उदाहरणके लिये महाभारत में शिवि राजाका वर्णन श्राता है जिसने एक अंधे आदमीको अपनी आँखें निकालकर दे दी थीं। मनुस्मृति और ब्राह्मणों के पुराण-साहित्य में श्रात्म-त्याग के विविध प्रकार बताकर उनका गुणगान किया गया है । अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, पर्वतसे गिरना, वृक्षसे गिरना आदि ग्रात्मोत्सर्ग के अनेक प्रकारोंका वर्णन पुराणों में आता है। साथ ही वहाँ यह भी बताया गया है कि इन उपायोंसे श्रात्मोत्सर्ग करने वाला मनुष्य : श्रात्मघाती नहीं कहलाता, बल्कि वह हजारों वर्ष तक स्वर्ग सुखका अनुभव करता है । बुद्ध भगवान् ने भी अपने किसी पूर्वभवमें एक पक्षीको बचानेके लिये अपने
W
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
अनेकान्त
शरीरका मांस दान करने को तैयार हो गये थे । जैनशास्त्रोंमें भी श्रात्मोत्सर्ग के अनेक उदाहरण पाये जाते हैं, अवश्य ही वे कुछ भिन्न प्रकारके हैं। उदाहरणके लिये सुकुमाल मुनि तप कर रहे हैं और उनका शरीर एक जंगलकी गीदड़ी खा गई । इसी तरह श्वेताम्बर शास्त्रों के अनुसार, गजसुकुमाल स्मशान में कायोत्सर्गसे ध्यानावस्थित हैं । सोमिल ब्राह्मण श्राकर उनके सिर पर मिट्टीकी बाड़ बनाता है, उसे धधकते हुए अंगारोंसे भरकर उसपर ईंधन चिन देता है । गजसुकुमाल मुनि अत्यन्त उग्र वेदना सहन करते हैं और अन्त में उनका शरीर भस्म हो जाता है ।
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
जो लोग प्रव्रज्या (दीक्षा) लेने के लिये उत्सुक रहते थे, उनके माता-पिता और बन्धुजन उनको आग्रहपूर्वक बनमें जाने से बहुत रोकते थे । वे लोग करुण क्रंदन करते थे, नाना प्रकार के आलाप विलाप करते थे, और उनको नाना प्रकारकी युक्तियाँ देकर समझाते थे । पर इसका उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं होता था । विप्र और नमिराज के संवाद में विप्रने नमिराजसे कंहा कि महाराज आप दीक्षा न लें, आपकी मिथिला नगरी मिसे जल रही है; पहले वहाँ जाकर अग्निको शांत करें। किंतु नमिराज उत्तरमें कहते हैं - 'मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दहति किंचन' अर्थात् मिथिला नगरीके जलजाने से मेरा कुछ भी नहीं जलता । बौद्धोंके बंधनागार जातक में इस संबन्धमें जो कथा आती है, वह इस तरह है
"जिस समय हिन्दुस्तानमें जैन और बौद्धोंका बोलबाला था, उस समय अनेक ब्राह्मण और श्रमण महावीर अथवा बुद्धके पास जाकर दीक्षित होते थे। दीक्षाउत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता था । जो गृहपति दीक्षा लेता था, वह अपने सम्बन्धी जनों को निमन्त्रण देता था, उनका ब सम्मान करता था। तथा स्नान इत्यादि करके अपने ज्येष्ठ पुत्रको घरका भार सौंपकर उसकी श्राज्ञा लेकर, पालकी में सवार होकर अपने इष्ट मित्रोंके साथ दीक्षागुरुके पास पहुँचता था, इन लोगों के संसारसे वैराग्य होनेका कारण नाशवान वस्तु होती थी। जैसे जातक ग्रंथोंमें आता है कि एक बार किसी राजाको घास पर पड़ी हुई श्रोसकी विन्दु देखकर वैराग्य हो आया । गन्धार जातक में कहा गया है कि एक बार किसी राजाने देखा कि चन्द्रमाको राहुने ग्रस लिया है, बस इसी बात पर उसने संसारका त्याग कर दिया । कभी कभी अपने सिर पर कोई सफ़ेद बाल देखकर भी लोगों को वैराग्य ह े श्राता था । इसी तरह संध्या कालीन मेघपंक्तिको शीर्णवशीर्ण देखकर लोग नकी तैयारी करने लगते थे ।
एक बार बोधिसत्त्व एक घनहीन गृहपतिके घर पैदा हुए । जब बोधिसत्त्व बड़े हुए, उनके पिता मर गये और वे नौकरी करके अपना तथा अपनी माताका उदर-पोषण करने लगे। कुछ समय बाद उनकी माँने उनकी इच्छा के विरुद्ध बोधिसत्वकी शादी करदी, और आप परलोक सिधार गईं। बोधिसत्वकी स्त्री गर्भवती हुई । वोधिसत्त्वको यह बात मालूम न थी । उन्होंने अपनी स्त्रीसे कहा – प्रिये, मैं गृह त्याग करना चाहता हूँ, तुम मेहनत करके अपना पोषण कर लेना । उनकी पत्नीने कहा - स्वामिन्, मैं गर्भवती हूँ, मेरे प्रसव कर नेके बाद, शिशुका मुख देखकर, आप प्रव्रज्या लेना । प्रसव हो गया। बौधिसत्त्वने फिर अनुमति चाही । स्त्रीने कहा- शिशु जरा बड़ा हो जाय तो श्राप जाइये । इस बीचमें बोधिसत्त्वकी पत्नीने दूसरी बार गर्भ धारण क्रिया । बोधिसत्वने सोचा कि यदि इस तरह मैं अपनी पत्नीकी बात पर रहूँगा तो मैं कभी भी अपना कल्याण
:
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में दीक्षा
१४
न कर सकूँगा । इसलिये वे एक दिन रातको उठकर कारण फिर अपने अाँसुश्रोंकों नहीं रोक सकती, और बिना कहे ही घरसे चल दिये और हिमालय पहुँच कर “घडियब्बं जाया,जइयब्बं जाया,परिक्कमयथं जाया" तप करने लगे।
..
अर्थात् संयममें यत्नशील रहना श्रादि शब्द कहकर ___ भगवती सूत्र आदि श्वेताम्बर सत्रों में इस प्रकार के वापिस चली जाती है. । हृदयस्पर्शी वर्णन अनेक स्थानों पर आते हैं । जामालि मालूम होता है इन्हीं सब बातोंसे महावीर और महावीरके दर्शन करने जाते हैं । दीक्षा लेने का उनका बुद्धको यह घोषणा करनी पड़ी कि बिना माता पिताकी दृढ़ निश्चय हो जाता है। इस निश्चयको वे घर अनुज्ञाके कोई दीक्षा लेनेका अधिकारी न हो सकेगा। अाकर अपने माता पितासे कहते हैं। उनकी माँ यह श्वेताम्बर ग्रंथों के अनुसार तो स्वयं महावीर भगवान्को सुनते ही पछाड़ खाकर ज़मीन पर गिर पड़ती है और भी अपने बंधुजनोंकी अाज्ञा न मिलनेसे, दीक्षा लेनेका बेहोश हो जाती है । जब वह अनेक उपचार करने पर मन होते हुए भी, कुछ समय तक गृहवासमें रहना होशमें आती है । उनको अपने पुत्र के निश्चय पर पड़ा । श्वेताम्बर समा में तो दीक्षाके नाम पर आज अत्यंत दुःख होता है । जामालिके माता-पिता बहुत भी अनेक उपद्रव होते हैं । बड़ौदा आदि रियासतोंमें समझाते हैं, परंतु जामालि अटल रहते हैं । दोनोंसे बाल दीक्षा के विरुद्ध बहुतसे कानून बना दिये गये हैं । अनेक प्रश्नोत्तर होते हैं और आखिर जामालि अपने यहाँ हम एक ईसाई पादरीका पत्र. उद्धृत करते हैं । निश्चयको मान्य रखते हैं। दीक्षाकी तैयारी बड़ी धूम- जो ईसाइयोंकी साधुदीक्षा पर कितना ही प्रकाश डालता. धामसे होती है । जामालिके लिये र जोहरण और पात्र है। यह पत्र इन पादरीने एक सज्जनको लिखा था जो. लाये जाते हैं और एक नाईको बुलाया जाता है । नाई अपने स्वजनोंकी इच्छा के विरुद्ध साधु (Priest) होना सुगन्धित जलसे हाथ पैर धोता है और साफ कपड़े की चाहते थे । वे लिखते हैंअाठ तह बना कर अपने मुँह पर रखकर जामालिके ... Even if your little nephew throws पास श्राता है । जामालि उसको चार अंगुल केश छोड़ his arms round your neck, if your mobi. कर दीक्षाके योग्य केश काटने को कहते हैं । नाई ther tears her hair and cloth and beats :
आज्ञाका पालन करता है। उस समय क्षत्रियकुमार . her breast which you, sucked even if . जामालिकी माता भी वहाँ रहती है और वे अग्र केशोंको your father throws himself on the साफ वस्त्रमें ले लेती है, उनको गंधोदकसे धोती है ground before you-move, even the
और पुत्रके वियोगके कारण बड़े बड़े मोतियोंकी लडी body of your father, flee with tearless जैसे सफेद अांसू टपकाती हुई कहती है कि अनेक eyes to the sign of cross. In this: शुभ तिथियों और उत्सवोंके अवसर पर हम इन्हीं केशों case, cruelty is the only virtue. For को देखकर सन्तोष कर लिया करेंगे । जामालिकुमार how many monks have lost their पालकीमें बैठकर महावीर भगवान्के पास पहुँचते हैं। souls, because they had pity for their साथमें माता घन्धुजन भी जाते हैं । मां पुत्र-वियगके fhahers and mothers."
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६
-
अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
अर्थात्-यदि आपका नन्हासा भतीजा आपके में एक निर्दयता ही बड़ा गुण है। न जाने कितने गलेमें बांहें डालकर लिपट जाय, यदि आपकी माता साधुअोंने अपने माता-पिताकी दयाके कारण ही अपनी अपने केश और वस्त्रोंको फाड़ डाले और जिस छातीका आत्माको भुला दिया है । तुमने दुग्धपान किया उसको वे पीट डाले, तथा यदि जैन शास्त्रोंमें जगह जगह पर महावीरके ज़मानेकी
आपका पिता आपके समक्ष प्राकर ज़मीन पर गिर सामाजिक परिस्थितिका वर्णन करनेवाले दीक्षासम्बन्धी पड़े तो भी अपने पिताके शरीरको हटा दो और अश्रु अनेक उल्लेख पाते हैं । इन सबका एक बहुत रोचक रहित नेत्रोंसे क्रॉसकी ओर दौड़े चले जाओ। ऐसी दशा. इतिहास तैयार हो सकता है।
भगवान महावीरके मुख्य गणधरका नाम तुमने बहुत बार सुना है । गौतमस्वामीके उपदेश किये हुए बहुतसे शिष्योंके केवलज्ञान पाने पर भी स्वयं गौतमको केवल ज्ञान नहीं हुआ, क्योंकि भगवान् महावीरके अंगोपांग, वर्ण, रूप इत्यादिके ऊपर अब भी गौतमको मोह था । निग्रन्थ प्रवचनका निष्पक्षपाती न्याय ऐसा है कि किसी भी वस्तुका राग दुःखदायक होता है । राग ही मोह है और मोह ही संसार है । गौतमके हृदयसे यह राग जबतक दूर नहीं हुआ तबतक उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई । श्रमणं भगवान ज्ञातपुत्रने जब अनुपमेय सिद्धि पाई उस समय गौतम नगरमेंसे आ रहे थे । भगवान्के निर्वाण समाचार सुनकर उन्हें खेद हुआ। विरहसे गौतमने ये अनुरागपूर्ण वचन कहे " हे भगवान् महावीर ! आपने मुझे साथ तो न रक्खा, परन्तु मुझे याद तक भी नहीं किया । मेरी प्रीतिके सामने आपने दृष्टि भी नहीं की, ऐसा आपको उचित न था।" ऐसे विकल्प होते होते गौतमका लक्ष फिर। और वे निराग-श्रेणी चढ़े । “मैं बहुत मूर्खता कर रहा हूँ। ये वीतराग निर्विकारी और रागहीन हैं वे मुझपर मोह कैसे रख सकते हैं ? उनकी शत्रु और मित्रपर एक समान दृष्टि थी । मैं इन रागहीनका मिथ्या मोह रखता हूँ। मोह संसारका प्रबल कारण है।" ऐसे विचारते विचारते गौतम शोकको छोड़कर रागरहित हुए । तत्क्षण ही गौतमको अनन्त ज्ञान प्रकाशित हुआ और वे अन्तमें निर्वाण पधारे। .. गौतम मुनिका राग हमें बहुत सूक्ष्म उपदेश देता है । भगवानके ऊपरका मोह गौतम जैसे गणधरको भी दुःखदायक हुआ तो फिर संसारका और फिर उसमें भी पामर आत्माओंका मोह कैसा अनन्त दुःख देता होगा ! संसाररूपी गाडीके राग और द्वेक रूपी दो बैल हैं। यदि ये न हों, तो संसार अटक जाय। जहाँ राग नहीं, वहाँ द्वेष भी नहीं, यह माना हुआ सिद्धान्त है। राग तीव्र कर्मबंधका', कारण है और इसके क्षयसे आत्मसिद्धि है। ..
-श्रीमदराजचन्द्र
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
विधवा-सम्बोधन
[विधवा-कर्तव्य-सूत्र ] विधवा बहिन, समझ नहीं पड़ता- शोक किये क्या लाभ ? व्यर्थ ही ___ क्यों उदास हो बैठी हो। अकर्मण्य बन जाना है, क्यों कर्तव्यविहीन हुई तुम, आत्मलाभसे वंचित होकर, निजानन्द खो बैठी हो!
फिर पीछे पछताना है !! ४ कहाँ गई वह कान्ति, लालिमा, योग अनिष्ट,वियोग इष्टका, खोई चंचलताई है !
अघतरु दो फल लाता है। सब प्रकारसे निरुत्साहकी,
फल नहीं खाना वक्ष जलाना, छाया तुम पर छाई है !!१ इह-परभव सुखदाता है। अंगोपांग न विकल हुए कुछ, इससे पतिवियोगमें दुख कर, ___ तनमें रोग न व्यापा है।
भला न पाप कमाना है, और शिथिलता लानेवाला किन्तु-स्व-पर-हितसाधनमें ही, आया नहीं बुढ़ापा है !
उत्तम योग लगाना है ॥ ५ मुरझाया पर वदन, न दिखती श्रात्मोन्नतिमें यत्न श्रेष्ठ है, जीनेकी अभिलाषा है !
जिस विधि हो उसको करना, गहरी आहे निकल रही हैं, उसके लिए लोकलज्जा अपमुँह से, घोर निराशा है !!२
मानादिकसे नहिं डरना । हुआ हाल ऐसा क्यों ? भगिनी जो स्वतंत्रता-लाभ हुआ है, ___ कौन विचार समाया है,
दैवयोगसे सुखकारी, जिसने करके विकल हृदयको, दुरुपयोग कर उसे न खोओ, 'पापा' आप भुलाया है ?
खोने पर होगी ख्वारी !! ६ निज-परका नहिं ज्ञान, सदा माना हमने, हुआ, हो रहा ___ अपध्यान हृदयमें छाया है,
तुम पर अत्याचार बड़ा, भय न भटकनेका भव-चनमें, साथ तुम्हारे पंचजनोंका ___ क्या अन्धेर मचाया है !!३ . होता है व्यवहार कड़ा । शोकी होना स्वात्मक्षेत्रमें,
पर तुमने इसके विरोधमें पाप-बीजका बोना है,
किया न जब प्रतिरोध खड़ा, जिसका फल अनेक दुःखोंका, तब क्या स्वत्व भुलाकर तुमने ___ संगम आगे होना है।
किया नहीं अपराध बड़ा ॥७
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
(RAMA
AAAAAAAA"
HALPAPAR)
स्वार्थ-साधु नहिं दया करेंगे, दुर्लभ मनुज-जन्मको पाकर,
उनसे इस अभिलाषाको । निज कर्त्तव्य समझ लेना । छोड़, स्वावलम्बिनी बनो तुम, उस ही के पालनमें तत्पर रह,
पूर्ण करो निज आशा को ॥ प्रमादको तज देना ॥११ सावधान हो स्वबल बढ़ाओ, दीन-दुखी जीवोंकी सेवा,
.. निज समाच उत्थान कगे। करनी सीखो हितकारी । 'दैव दुर्बलोंका घातक', दीनावस्था दूर तुम्हारी, ___इस नीति वाक्य पर ध्यान धरो॥८ हो जाए जिससे सारी ॥ बिना भावके बाह्यक्रियासे, न दे करके अवलम्ब उठाओ,
धर्म नहीं बन पाता है। निर्बल जीवोंको प्यारी। रक्खो सदा ध्यानमें इसको, इससे वृद्धि तुम्हारे बलकी,
यह आगम बतलाता है ॥ निःसंशय होगी भारी ॥१२ भाव बिना जो व्रत-नियमादिक, हो विवेक जागृत भारतमें,
करके ढोंग बनाता है । इसका यत्न महान करो। आत्म पतित होकर वह मानव, अज्ञ जगतको उसके दुख
ठग-दम्भी कहलाता है ॥६ दारिद्रय आदिका ज्ञान करो॥ इससे लोकदिखावा करके, फैलाओ सत्कर्म जगतमें,
धर्मस्वाँग तुम मत धरना । सबको दिलसे प्यार करो। सरल चित्तसे जो बन आए, बने जहाँतक इस जीवनमें,
भाव-सहित सो ही करना ॥ औरोंका उपकार करो ॥ १३ प्रबल न होने पाएँ कषायें, 'युग-चीरा' बनकर स्वदेशका,
लक्ष्य सदा इस पर रखना। फिरसे तुम उत्थान करो। स्वार्थ त्यागके पुण्य-पन्थ पर मैत्रीभाव सभीसे रखकर,
प्रेम सहित निशदिन चलना ॥१० गुणियोंका सम्मान करो ॥ क्षण-भंगुर सब ठाठ जगतके, उन्नत होगा आत्म तुम्हारा,
इन पर मत मोहित होना। इन ही सकल उपायोंसे । काया-मायाके धोखेमें पड, शान्ति मिलेगी, दुःख टलेगा, अचेत हो नहिं सोना ॥ छूटोगी विपदाओंसे ॥१४॥
–'युगवीर'
मममममें
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
बंगीय-विद्वानोंकी जैन-साहित्यमें प्रगति
[ले०-श्री अगरचन्द नाहटा ]
भारतके अन्य प्रान्तोंकी अपेक्षा बंगालप्रान्तमें पिपासाने प्रबलरूप धारण नहीं किया। इसबार कलकत्ते
'शिक्षाप्रचार अत्यधिक है । साहित्य के प्रत्येक में मुझे अनेक विद्वानोंसे साक्षात्कार होनेका सौभाग्य क्षेत्रमें बंगीय विद्वानोंने जैसा उत्तम और अधिक कार्य प्राप्त हुअा । उन लोगोंसे वार्तालाप होनेपर सभीने एक किया है वह सचमुच ही बंगाल के लिए गौरवकी वस्तु स्वरसे यही कहा कि “जैनदर्शनके सूक्ष्म तत्त्वोंको जानने है । विश्वकवि-रवीन्द्रनाथ, महान् उपन्यासकार स्वर्गीय की हमें बड़ी उत्कण्ठा है पर क्या करें ? साधन नहीं बङ्किमचन्द्र चटर्जी और शरत बाबू , पुरातत्त्व विद् सर मिलते !” इन शब्दोंको श्रवण कर मेरे हृदयमें गहरी श्री जदुनाथ सरकार; महान् वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र चोट लगी पर करता क्या ? बंगीय जैनसमाजने अभी वसु, श्राचार्य प्रफुल्लचंद्रराय और मेघनाद शाह, महा- तक एक भी ऐसा आयोजन नहीं किया कि जिसके द्वारा योगी स्वर्गीय रामकृष्ण, विवेकानन्द और अरविन्द घोष, साहित्यिक सामग्री जुटाता और उसे लेजाकर बंगीय त्यागवीर स्वर्गीय देशबन्धु चितरञ्जनदास, देशसेवक भूत. विद्वानोंको देता, जिससे वे अपनी जिज्ञासाकी प्यासको पूर्व राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस, महान् कानूनवेत्ता रास- बुझाते, अस्तु । विहारी घोष, परमसंगीतज्ञ तिमिरवर्ण,गिरिजाशंकर चक्र- अब मैं उन बंगीय विद्वानोंके विषयमें लिखता हूँ वर्ती, भीष्मदेव चटर्जी, ज्ञानेन्द्र गोस्वामी; ललित नृत्यकार जिन्होंने समुचित साधन नहीं मिलने पर भी अपनी विश्वमुग्धकर उदयशंकर भट्ट; समाज संस्कारक राजा अपूर्व कर्मठवृत्ति द्वारा जैनसाहित्य में अच्छे अच्छे कार्य राममोहनराय, केशवचन्द्रसेन और ईश्वरचन्द्र विद्या- किये हैं। ये विद्वान जैनधर्म के पूर्ण अनुरागी हैं । सागर इत्यादि नररत्नोंने अपनी असाधारण प्रतिभाद्वारा इनके विषयमें मैंने जो कुछ खोज की है, जिन जिनसे विश्वमें बंगभूमिको गौरवान्वित कर दिया है। केवल व्यक्तिगत वार्तालाप हुश्रा और उनके कार्यका परिचय बंगाल ही क्यों समस्त भारतभूमि इन महापुरुषोंको मिला है उसीके आधार पर संक्षेपमें इस विषयमें लिख जन्म देकर सौभाग्यवती हुई है । विश्व इन महापुरुषोंके रहा हूँ। कार्य कलापों-द्वारा चकित एवं मुग्ध है।
१ श्रीयुत हरिसत्य भट्टाचार्य M. A. B. L., __ दार्शनिक चिन्तामें भी बंगीय विद्वानोंने अपनी वकील हवड़ाकोर्टबौद्धिक शक्तिका अच्छा परिचय दिया है । जैनदर्शन (पता-नं० १ कैलाशबोस लेन; हबड़ा) भारतीय दर्शनोंमें प्रधान और मननीय उत्कृष्ट दर्शन है। जैनसाहित्यसेवी बंगाली विद्वानों में आपका स्थान अतः बंगीय विद्वानोंका इस ओर ध्यान देना सर्वथा सर्वोच्च है । आपकी दार्शनिक अालोचनाकी शैली बड़ी उपयुक्त है । किन्तु साधनाभावके कारण उनकी शान- ही हृदयग्राही और गंभीर है । भारतीय दर्शनोंके अति
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
अनेकान्त
रिक्त पाश्चात्य दर्शनोंके सम्बन्ध में श्रापका ज्ञान बहुत विशाल है area पका लेखन तुलनात्मक र तलस्पर्शी होता है । आपके लिखे हुए भारतीय दर्शनसमूहे जैनदर्शनेर स्थान, ईश्वर, जीव, कर्म, षड्द्रव्यधर्म धर्म, पुद्गल, काल, आकाश इत्यादि निबंध इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । आपके इन निबन्धोंमेंसे प्रथम निबंधका गुजराती अनुवाद जब मेरे अवलोकनमें श्राया तभीसे आपसे मिलकर आपके लिखे अन्य सब निबंधोंको प्राप्त करनेकी उत्कंठा हुई; पर पता ज्ञात न होनेसे वैसा शीघ्र ही न बन सका । बहुत प्रयत्न करने पर बाबू छोटेलालजी जैनसे आपका पता ज्ञात हुआ और मैं बाबू हरषचन्द्रजी बोथराके साथ आपसे मिला । वार्त्तालाप होनेपर ज्ञात हुआ कि क़रीब २५ वर्ष पूर्वसे प जैन ग्रंथों का अध्ययन व लेखन कार्य कर रहे हैं, पर उनके लिखित ग्रंथोंके प्रकाशनकी कोई सुव्यवस्था न होने से इधर कई वर्षोंसे उन्हें लिखना बंद कर देना पड़ा। जैन समाज के लिये यह कितने दुखका विषय है कि ऐसे तुलनात्मक गंभीर लेखकको प्रकाशन - प्रबन्ध न होनेसे लिखना बंद करना पड़ा, निरुत्साह होना पड़ा ! भट्टाचार्यजी से वार्तालाप होनेपर ज्ञात हुआ कि उनको जैनधर्म के प्रति हार्दिक आदर व भक्ति भाव है, उन्होंने यहाँ तक कहा कि यदि प्रबन्ध किया जा सके तो मेरा विचार तो पाश्चात्य देशोंमें घूम घूमकर जैनधर्मके प्रचार करने का है । एक बंगाली विद्वानके इतने उच्च हार्दिक विचार सुनकर किसे आनन्द न होगा ? मेरे हृदय में तो हमारे समाजकी उपेक्षाको स्मरण कर बड़ी ही गहरी चोट पहुँची । क्या जैनसमाज अब भी आँखें नहीं खोलेगा ?
श्रीयुत भट्टाचार्यजी के तलस्पर्शी गहन अध्ययन व लेखन के विषय में पं० सुखलाल जीने “जिनवाणी" ग्रंथके
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
निदर्शनमें जो उद्गार प्रगट किये हैं उनमें से श्रावश्यक अंश नीचे उद्धृत किया जाता है
1
"श्रीयुक्त हरिसत्य भट्टाचार्य घणां वर्ष अगाऊ चोरीएटल कॉन्फरेन्सना प्रथम अधिवेशन प्रसंगे पूनामां मलेलातेवखतेज तेमना परिचयथी मारा उपर एटली छाप पडेली के एक बंगाली अने ते पण जैनेतर होवाछताँ जैनसाहित्य विषे जे अनन्य रस धरावे छे ते नवयुगनी जिज्ञासानुं जीवतुं प्रमाण छे । तेमणे "रत्नाकरावतारिका" नो अँग्रेज़ी करेलो तेने तपासी अने छपावी देवो एवी एमनी इच्छा हती, ए अनुवाद मे छपावी तो न शक्या पण मारी एटली खात्री थइ के भट्टाचार्यजीए अनुवाद माँ खूब महेनत करी छे। अने ते द्वारा तेमने जैनशास्त्रमा हृदयनो स्पर्श करवानी एक सरस तक मली छे । त्यारबाद एटलो वर्षे ज्यारे तेमना बंगाली लेखोना अनुवादों में वांच्यां त्यारे ते वखते भट्टाचार्यजी विषे मैं जे धारणा बांधेली ते वधारे पाक्की थई ने साची पण सिद्ध थइ | श्रीयुक्त भट्टाचार्यजी ए जैनशास्त्र नु वांचन ने परिशीलन लांबा बखत लगी चलावेलु ऐना परिपाक रूपेज तेमना आ लेखो छे एम कहवु जोइए, जन्म ने वातावरण थी जैनेतर होवाछतां तेमना लेखो माँ जे अनेकविध जैन विगतो नी यथार्थ माहितीछे अने जैन विचारसरणीनो जे वास्तदिक स्पर्श छे, ते तेमना अभ्यासी अने चोकसाइ प्रधान मानसनी साबीती पुरी पाडे छे । पूर्वीय तेमज़ पश्चिमीय तत्त्वाचिंतननु विशालवाचन एमनी M. A. डीग्रीने शोभावे तेवु छे अने एमनु दलिलपूर्वक निरुपण एमनी वकीली वुद्धिनी साक्षी श्रापेछे । भट्टाचार्य जीनी या सेवामात्र जैन जनता मांज नहीं परन्तु जैनदर्शनना जिज्ञासु जैन-जैनेतर सामान्य जगत मां चिरस्मरणीय बनी रहथे ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
बंगीय विद्वानोंकी जैन - साहित्य में प्रगति
३. किरण २ ]
भट्टाचार्यजीके लिखित ग्रन्थों व लेखों की सूची नीचे दी जाती है :
अनुवादित
१ प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारटीका "रत्नाकरावतारिका" का अंग्रेजी अनुवाद—
मूल ग्रन्थ श्वेताम्बर न्यायग्रन्थों में प्रमुख ग्रंथोंमें से एक है। इसकी टीका बड़ी ही विचित्र एवं कठिन है, अंग्रेजीमें उसका अनुवाद करना कोई साधारण काम नहीं है। इस अनुवाद में भट्टाचार्यजीका दर्शनशास्त्र, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषा पर असाधारण अधिकार स्पष्ट है | बहुत वर्ष पहले प्रस्तुत अनुवाद " जैनगज़ट " में धारावाहिक रूपसे बहुत समय तक निकला था । अब आपका उसे पुनः शुद्धि और वृद्धि कर स्वतंत्र ग्रंथरूपसे प्रकाशन करनेका विचार है, पाश्चात्य दर्शन के साथ समन्वय-सूचक व तुलनात्मक टिप्पणियें आप शीघ्र ही लिखेंगे । सिंघी- ग्रन्थमालासे उसके प्रकाशनका प्रबन्ध कर भट्टाचार्य जीके उत्साहको बढ़ानेका श्रीमान् बहादुरसिंह जी सिंघी व मुनि जिनविजय जीसे अनुरोध है ।
मौलिक रचनाएँ
पृ० ३८
२. Lord Mahavira
३. Lord Parsva पृ० ४०
४. Lord Arishta nemi पृ० ६०
प्रकाशक “जैन मित्रमंडल, देहली ।" प्रकाशन स १९२६ - १६२८ - १६२६
५. Divinity in Jainism ( जैनगज़ट मद्रास से प्रकाशित )
. A comparative Study in Indian
१५१
science of thoughts from the Jain stand point; (प्रका • The Indian Philosphy and religion, page 129-136) ७. The Jain Theory of space ( प्रका० उप
युक्त पृ० ११५ से १२० जैनगज़ट फरवरी १६२७) ८. The theory of Time in Jain Philo• sophy पृ० १० (जैनगजट १६२७ फरवरी) E.Ancient concepts of matter:- Review of philosophy and religion V. III N.I. P. 13 (जैनगजट मार्च से दिसम्बर १९३०) १०. First principles of Indian Ethical
systems:-The Philosophical Quar - terly P. 308-314
११. The message of Mahavira and Krishna Vir 1929:– पृ० ७१-७६ १२. A comparative study of the Indi
an Doctrine of non-soul from the Jain standpoint. (To The Indian philosophical congress page 129136)
बंगला भाषा में
१. पुरुषार्थसिद्धिउपाय
अनुवाद - प्र० बंग-विहार अहिंसा धर्मपरिषद्, पूर्ण मुद्रित एवं जिनवाणी वर्ष २, पृ०६५-१०६
२. भारतीय दर्शनसमूहे जैनदर्शनेर स्थान, प्र० जिनवाणी वर्ष १, पृ०८
३. (जैनदृष्टिए) ईश्वर—प्र० जिनवाणी वर्ष १,१०२५४ ४. जीव - प्र० जिनवाणी वर्ष १, पृ० १२६ वर्ष २, प० १०६
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
अनेकान्त
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२०६६
५. जैनदर्शने कर्मवाद-प्र०जिनवानी वर्ष १, पृ०२०५ का हिन्दी अनुवाद आपने तैयार भी कर दिया है जो
वर्ष २, पृ० २२ शीघ्र ही प्रकाशित किया जायगा। ६- जैनकथा, ७ संवत ८ अब्द,६ चन्द्रगुप्त-प्र०जिनः भट्टाचार्य अभी एक अत्यन्त उपयोगी ग्रंथ वानी वर्ष १ पृ० ७१-२६८
अंग्रेज़ीमें लिख रहे हैं, जिसमें जैनधर्म सम्बन्धी सभी १० भगवान् पार्श्वनाथ–प्र०जिनवानी वर्ष २,अंक ४, अावश्यक ज्ञातव्यों का समावेश रहेगा। इसके कई पृ० १४१
प्रकरण लिखे भी जा चुके हैं। जैनसमाजका कर्तव्य ११. महामेघवाहन खारखेल-प्र० जिनवानी वर्ष २ है कि इस ग्रन्थको शोध ही पूर्ण तैयार करवाकर 'पृ० ६६
प्रकाशित करे, जिससे एक बड़े अभावकी पति हो १२. जैनदर्शने धर्मश्रो अधर्म-प्र० साहित्यपरिषद्- जाय । - पत्रिका भाग ३४ संख्या २ सन १३३४
२ प्रो०चिन्ताहरण चक्रवर्ती काव्यतीर्थ M.A. १३. प्रमाण-प्र. साहित्य परिषद पत्रिका भाग ३३ Prof. Bethune collegeपृ०१८ से
(पता-नं० २८।३ झानगर रोड, कालीघाट, कलकत्ता) १४. जैनदर्शने आत्मवृत्ति निचय-प्र० साहित्यसंवाद आप भी बहुत उत्साही लेखक हैं । जैनधर्मके ___ इन लेखोंमेंसे कतिपय लेख पहले अंग्रेज़ीमें प्रचारके लिये आपकी महती इच्छा है। संस्कृत-साहिलिखे गये थे फिर उनका बंगानुवाद कर “जिनवाणी" त्यमें दूतकाव्य आदि अनेकों गंभीर अन्वेषणात्मक लेख पत्रिकामें प्रकाशित किये गये थे । “जिनवाणी' आपने लिखे हैं । जैनसाहित्यके प्रचारमें आप बहुत पत्रिकामें प्रकाशित नं० २-३-४-५-६-१०-११-१२ का अच्छा सहयोग देनेकी भावना रखते हैं। आपके लेखोंगुजराती अनुवाद श्रीयुक्त सुशील ने बहुत सरस किया कीसंक्षिप्त सूची इस प्रकार है :है और उसके संग्रहस्वरूप "जिनवाणी" नामक ग्रंथ १. जैनपद्मपुराण-जिनवाणी पत्रिकामें धारावाहिक 'ऊंझा आयुर्वेदिक फार्मेसी अहमदाबाद' से प्रकाशित भी रूपसे प्रकाशित, एवं बंगबिहारधर्मपरिषदसे स्वतन्त्र हो चुका है, इसको जनताने अच्छा अपनाया । इससे ग्रन्थरूपसे प्रकाशित, मूल्य ।)। इस ग्रंथकी द्वितीयावृत्ति भी हो चुकी है।। प्रकाशक आपके इस लेखकी जैन पत्रोंमें बड़ी प्रशंसा हुई महाशयने भी प्रचारार्थ २६० पृष्ठ के सजिल्द ग्रन्थ थी व शोलापुर के दि० पं० जिनदास पार्श्वनाथ का मूल्य केवल ॥) ही रखा है।
शास्त्री जीने इसका मराठी अनुवाद भी प्रगट हिन्दी-भाषा-भाषी भी भट्टाचार्य के गंभीर लेखोंके किया था । अध्ययनसे वंचित न रहें, अतः मैंने इन लेखोंका २. जैनपुराणे श्रीकृष्ण-जिनवानी वर्ष २, अंक १ में हिन्दी अनुवाद भी करवाना प्रारम्भ कर दिया है। प्रकाशित व उक्त परिषदद्वारा स्वतन्त्र रूपसे दो सिलहट-निवासी जैनधर्मानुरागी रामेश्वरजी बाज- फरमा अपूर्ण मुद्रित । । पेई ने मेरे इस कार्य में सहयोग देनेका वचन दिया ३. जैन त्रिरत्न-"भारतवर्ष" नामक प्रसिद्ध बंगीय है और "भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान" लेख मासिकपत्रमें प्रकाशित अग्राहयन सं० १३३१
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
बंगीय विद्वानोंकी चैन - साहित्य में प्रगति
वर्ष ३, किरण २]
पृ० ८०१ ७ । एवं उपरोक्त परिषद द्वारा स्वतन्त्र रूपसे जैनबालाविश्राम के छात्रगणों के सहायसे प्रकाशित ।
द्रव्य
इस निबन्धका हिन्दी अनुवाद भी ट्रैक्टरूपसे श्रा त्मानंद जैन ट्रैक्ट-सोसायटीसे प्रकाशित हुआ था । ४. जैनधर्मेर वैशिष्ट्य - भा०व० दि ० जैनपरिषद बिजनौर
से जैन ट्रैक्ट नं ० १ रूपसे प्रकाशित, श्रीयुत कामता - प्रसादजी जैन के प्रयत्न एवं सूरतनिवासी मूलचंद किशनदास कापड़िया के आर्थिक सहायसे प्रकाशित पृ० १५ | इसका हिन्दी अनुवाद भी उपर्युक्त सोसायटी द्वारा प्रकाशितहो चुका है ।
५. जैन दिगेर दैनिक षट्कर्म - साहित्य परिषद् पत्रिका भा० ३१ पृ० ७२६–७३६ में प्रकाशित | इसका भी हिन्दी अनुवाद उपर्युक्त सोसायटी द्वारा छप चुका है ।
६. जैनदिगेर षोडश संस्कार - प्रका० विश्ववानी १३३४ आषाढ़ पृ० १६०-६४ ।
८. रक्षाबन्धन ( उपाख्यान ) - प्र० एजुकेशन गजट १३३१ ता० २०-२७ श्राषाढ पृ० १२/४४ व १०६।११०
६. दीपालिका
... प्र० एजुकेशन गज़ट १३३१ ताः १३ पृ० २६६-७१
१०. हिन्दू जैन कालविभाग - प्र० ' कायस्थसमाज'
१३३२ भाद्र पृ० २६६, २७२
११. पार्श्वनाथ चरित्र – प्र० 'तत्त्वबोधिनी' पौष १८४६ पृ० २६६-६८, चैत्र पृ० ३३६-३८, जेष्ठ १८४७ पृ०५०-५३, कार्तिकं पृ०२१७-२१६ । इसे स्वतन्त्र ट्रैक्ट रूप से प्रकाशित करना चाहिये । • • १२. परसनाथ – प्र० ‘शिशुसाथी' पौष १३३३ पृ०
३५६-६१
要
अंग्रेजी में
है
१३. Need of the study of Jainism--- ___ Vir VIII N. I. अक्टूबर १६३५ पु०३७–३६ १४. Jainism in Bengal - Vir V. III N. 5-12-3 पृ० ३७०-७१
१५. Tradition about Vanaras and Raksasas-Indian Historical quarterly V. I. पृ०७७६-८१
१६. Pareshnath — Sanskrit Collegiate School Magazine जनवरी १६२५ भा० २ संख्या १
१७. समालोचनाएँ — कई जैन ग्रन्थोंकी - इण्डियन हिस्टोरीकल क्वार्टरली, इण्डियन कलचर व मोडर्न रिव्यू में प्रकाशित ।
उपर्युक्त सूची भेजने व कई बंगाली विद्वानोंके पते सूचित करने व पत्रव्यवहारद्वारा चक्रवर्ती महोदय से मुझे अच्छी सहायता मिली है, एतदर्थं आपको धन्यवाद देता हूँ ।
३ श्रीसरतचन्द्रघोषाल M. A. B. L. District
Magistrate Coochbihar
भट्टाचार्यजीकी भांति आपका भी जैनदर्शनसम्बन्धी अध्ययन बहुत विशाल एवं गंभीर है ! श्री भट्टाचार्यजीको प्रकाशन व्यवस्था के कारण लिखनेकी इतनी अनुकूलता नहीं रही और आपको बहुत अधिक अनुकूलता मिली अब भी है, अतएव आपने बहुत अधिक कार्य किया है । आपके विशाल कार्यकी श्रोर देखा जाय तो सब बंगीय विद्वानोंसे अधिक जैनीम के विषय में आपने लिखा है । श्रजिताश्रम लखनऊ से प्रका1 शित The sacred books of the Jain series
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२५१५
के पाप जनरल-एडीटर हैं, इस ग्रन्धमालासे १० दिग- १०. प्राचार्य जिनसेन (बंगला)-प्र.भारतवर्ष । म्बर ग्रंथ अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित हो चुके हैं। ११. द्वादशानुप्रेक्षा (बंगला)—प्र. जिनवाणी। जिनमें द्रव्यसंग्रह आपके द्वारा अनुवादित भी है। ४ प्रो० अमूल्यचरण विद्याभूषण, प्रो० विद्या
आपके मुख्य कार्य-कलापकी, जोकि जैनदर्शनके सम्बन्ध- सागर कॉलेज कलकत्तामें किया है, सूची नीचे दी जाती है । दि० साधुओंके (पता:-० ५ जदुभित्रलेन, कलकत्ता) नगरों में विहार-प्रतिबन्धक आन्दोलनके समयतो अापने आप बहुत वर्षों से "बंगीय महाकोष" के सम्पादन एक महत्वपूर्ण लेख लिखकर दिगम्बरत्वके औचित्यकी में लगे हुए हैं । इस कोषमें जैनदर्शनके अनेक शब्दों
ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसके फलस्वरूप वह पर विस्तृत विवेचन किया गया है । कोषके अतिरिक्त प्रतिबन्ध उठा दिया गया है।
स्वतंत्र प्रकाशित जैनदर्शन सम्बन्धी लेखोंमें कतिपय अनुवादित ग्रन्थ
१. Jain Jatakas-प्र. मोतीलाल बनारसीदास १. द्रव्यसंग्रह-सटीक, अंग्रेजीमें अनुवादित-प्र० लाहौर,
उपर्युक्त ग्रन्थमालाका प्रथम पुष्प प्रकाशन- २. Culture, Origin of Jainism. सन् १९१७, मूल्य ५॥)
३. Queen, The History of the Jain २. परीक्षामुख-दि० न्याय ग्रन्थ, प्र. जैनगजट Sects, Parsvanath & Mahavir.. ३. प्रमाण मीमांसा-अंग्रेजी अनुवाद, प्र० जैनगज़ट ४. National Council of Education. १९१५
Lecture on Syadwad. ४. प्रश्नव्याकरण-, , प्र० ,, १६१५ ५. जैनधर्म-प्र.नव्यभारत। ५. बृहद्रतिदत्तकथा-अंग्रेजी अनुवाद, प्र० जैन गज़ट ६. विजयधर्मसूरि-प्र० वानी १३१७ बंगला। १६१५
श्रापकी इच्छा है कि अपने कोषमें जैनदर्शनके ६. The Digambar Saints of India. सभी मुख्य एवं रूढ़ शब्दों पर विस्तारसे विवेचन हो ७. Abuse of Jainism in non-Jain पर यह कार्य बिना जैनविद्वानोंके सहयोगके नहीं हो
Literature. सकता । आपने हमसे यहाँ तक कहा था कि यदिबंगला Published in Jain Gazette 1917 या अँग्रेज़ी भाषाविद् जैनविद्वान् शब्द-विवेचन लिख
Vol. XIII P. 144. भेजें या हम उन्हें लिख भेजें वे उसको पढ़कर शुद्धि८. Gommata Sara. Published in वृद्धि कर भेजें ताकि हमारे कोषमें अपूर्णता एवं भूल Digambar Jain.
भ्रन्ति न रहने पावे | आशा है योग्य विद्वान उन्हें ६. The Rules of ascetics in Jainism. सहयोग देंगे।
(Jain Sidhant Bhaskar. वर्ष २, ५ प्रो० सातकोडी मुखर्जी, प्रो० कलकत्ता किरण ४)
युनीवरसिटी
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २ ]
( पता - नं ०११२ वृन्दावनचरणमल्लिकलेन कलकत्ता) श्रपका अध्ययन भी बहुत गंभीर है, जैनधर्मसे श्रपका बहुत अनुराग है । आपके लिखित निबंध ये हैं
बंगीय विद्वानोंकी जैन साहित्य में प्रगति
Mimansa theories of the self relation to knowledge. प्र० जैन सिं०भास्कर भाग ६, कि० १
७ डा० विमलचरणलाह M. A. BL. PH.D.( पता - नं ० ४३ कैलास बोस स्ट्रीट, कलकत्ता)
आप कलकत्ते के सुप्रसिद्ध जमींदार, पत्रसम्पादक एवं साहित्यिक विद्वान हैं। भारतीय प्राचीन संस्कृतिके
३. The Status of women in Jain अन्वेषण में आपकी बड़ी दिलचस्पी है । बौद्ध एवं
Religion.
. The doctrine of Relativity in Jain Metaphysics.
जैनसाहित्य से आपका बहुत प्रेम है । आपसे मैं दो बार मिला था और आपके लिखित जैनसाहित्य-सम्बंधी लेखोंकी सूची मांगी थी और श्रापने कुछ समय बाद
`५. सभापति भाषण — इंडियन कलचर कान्फरेन्स; जैन देनेकी स्वीकृति भी दी थी पर दो तीन बार फिरसे सूचना
और बौद्ध विभाग
देने पर भी साहित्य कार्यों में विशेष व्यस्त होनेसे श्रापसे सूची नहीं मिल सकी अतः मुझे ज्ञात निबन्धोंकी सूची देकर ही संतोष मानना पड़ता है ।
१. श्रनेकान्तवाद - प्र० विश्वकोष द्वि० श्रावृत्ति २. जैनधर्मेनारीर स्थान - प्र० रुपनंदा (श्रमहायनपौष १३४४)
६. प्रो० हरिमोहन भट्टाचार्य प्रो० श्रासुतोष कालेज ( पता:- नं० ३ तारारोड़ कालीघाट कलकत्ता ) के लिखे हुए निबन्ध ये हैं:
?. The Jain conception of Truth and reality (Proceedings of Indian Philosophical Congress. 1925 )
२. The Jain Theory of knowledge &
errors.
1**
( प्र ० जैन सिद्धान्तभास्कर १६३८ जून ) ३. The Jain Theory of Existence & Evolution
( प्र० इण्डियन कलचर १६३८ एप्रिल ) ४. Studies in Philosophy ( प्र० मोतीलाल बनारसीदास लाहौर)
इस ग्रंथ में जैनदर्शन सम्बन्धमें कई बातें लिखी हैं । ५. स्यादवाद -- प्र० साहित्यपरिषदपत्रिका भा० ३०, पृ० १४३ भा० ३१ पृ० १
ढ़. Jain critique of the Sankhya & the
१. Mahavira ( His Life and Teachings Page 113, प्रकाशक Lunac & Co; 46, G. Russel Street London W. C. I.
1939. स्व० बाबू पूर्णचंद नाहरको समर्पित । प्रस्तुत ग्रन्थ दो विभागों में विभक्त है -१ महावीरकी जीवनी २ उनके उपदेश । जैन संस्कृतिका तथाविध ज्ञान न होनेसे इस ग्रंथ में कई भूल भ्रान्तियें रह गई हैं, तो भी श्रापका परिश्रम सराहनीय है ।
२. Distinguished Menarar (?) women in Jainism - प्र० इंडियन कलचर V. II 669 V. III 89. 343.
३. The Kalpa Sutra प्र० जैनसिद्धान्त भास्कर भा० ३, किरण ३-४
Y. Studies in the Vividha-Tirtha Kalpa (प्र० जैनसिद्धान्त भास्कर भा०४ कि०४पृ०१०६)
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
भनेकान्त
मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं०२९६६
८.प्रो० प्रबोधचंद वागची, कलकत्ता विश्वविद्यालय १० सुरेन्द्रनाथदास गुप्त-.........
(पता-नं० रुस्तमजी स्ट्रीट,कालीगंज, कलकत्ता) (पता-महानिर्वाण रोड बालीगंज कलकत्ता) अापकी निबन्ध-सूची निम्न प्रकार हैं
History of Indian Philosophy नामक १. The Historic beginnings of Jainism ग्रंथमें आपने जैनदर्शनके सम्बंधमें कई बातें लिखी
Part III, 1929. (प्र. सराशूतोष मुखर्जी सिलवर ज्युबली वोलयुम III ११ प्रो. सुरमा मित्र M. A.Part III 1927)
(पता---०६ हिन्दुस्तान पार्क बालीगंज) २. One the Purvas प्र. Journal of Depa- जैनदर्शनका आपने बहुत गंभीर अध्ययन किया
rtment of letters V.XIV1929. है, बंगीय महिलाअोंमें जैनदर्शन-प्रेमी एक मात्र
श्राप चीनी भाषाके विशेषज्ञ हैं और जैन बौद्ध आप ही हैं । आप जैनधर्मके सम्बंधमें एक ग्रंथ धर्मसे भी प्रेम रखते हैं।
___भी लिख रही हैं। ९ प्रो० वेणीमाधव बुड़वाM. A. D. litt. (Lon) १२ डा० आसूतोष शास्त्री M. A. PH. D. अापकी निबन्ध-सूची इस प्रकार है
(पता--नं० २ C नवीन कुंडुलेन, कालेजऐ) 1. The Ajvikas (Journal of the Depart Studies in Post Sankara Diabec
ment of Letters, Calcutta Univer- tiesमें आपने जैन दर्शन के सम्बंधमें भी कुछ sity, Vol. II 1120)
बातें लिखी बतलाते हैं। 2. A History of Pre-Budhist India १३ सतीशचन्द्र चटर्जी M.A., PH. D.-.
Philosophy of Mahavira published (पता-५६ B हिंदुस्तान पार्क) by Calcutta University 1921 The Nyaya Theory of knowledge
(London Doctorate) नामक अापके ग्रंथमें जैनन्याय-सम्बन्धी चर्चा है। 3. Historical Background of Jinology. १४ विनयकुमार सरकार प्रो०कलकत्ता युनिवर्सिटीand Buddhology(Calcutta Review (पता-पुलिस होसपिटल रोड )
1924.) Somedeva ( The Political Philo4. Old Brahmi Inscriptions in Udaya- sopher of the tenth century) नामक
giri and Khandagiri Caves. (Cal- निबन्ध अापका लिखा हुअा है,जो इण्डियन कल
cutta University Published 1929) चर (V. II Page 801) में मुद्रित हुआ है। 5. Minor Old Brahmi 1nscriptions in १५ स्व० सतीशचन्द्र विद्याभूषण-भारतीय न्याय
the Udaigiri and Khandagiri शास्त्रके श्राप लब्धप्रतिष्टि विद्वान् थे, जैन न्यायCaves. Revised Edition (Indian साहित्यका भी आपने गंभीर अध्ययन किया था Historical Quarterly 1938.)
और अपने ग्रंथमें जैनलोजिकके सम्बंधमें विस्तारसे
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
बंगीय विद्वानोंकी जैन-साहित्यमें प्रगति
१५७
अालोचन किया था। उसका हिन्दी अनुवाद कई १८ शिवचंद्र शील- .. वर्ष पूर्व "जैनहितैषी' पत्रमें लगातार कई अंकोंमें आपके निबन्धका नामादिक इस प्रकार हैप्रकाशित हुआ था। इण्डियन रिसर्च सोसायटी १ दीपावली श्रो भ्रातृद्वितीया पर्व-प्र० साहित्य द्वारा सन् १६०६ में आपके द्वारा सम्पादित एवं परिषद पत्रिका भा० १४ पृ० ५१ अंग्रेजीमें अनुवादित 'न्यायावतार' मूल-वृत्ति सह १८ रामदास सेन M. R.A.S.प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त महो० यशो- आपके दो निबंध हैंविजयजी गणीके सम्बंधमें आपका एक लेख भी १ जैनधर्म-प्र० “ऐतिहासिक रहस्य" पत्रिका प्रकाशित हुअा था। जैन-सम्बंधी अापके लिखित २ जैनमत-समालोचना-, भा० ३ पृ० २१७
लेखोंके नाम व प्रकाशनका पता इस प्रकार है:- २० सम्पादक “उद्बोधन"-आपके द्वारा लिखित 1. Maharaja Manika Lekha
निबंधका नाम 'जैनसम्प्रदाय' है-जो "उद्बोधन" 2. Yasovijaya gani (About 1608 1688 भा० १४ पृ० ७६२ भा० १५ पृ० १०५ पर - A. D.) प्र० एसोटिक सोसायटी वंगाल जनरल मुद्रित हुआ है । - N.3 VI
२१ उपेन्द्रनाथ दत्त-आपके द्वारा लिखित तथा अनु3. The Sarak Caste of India identi- वादित निबंधोंकी सूची इस प्रकार हैfied with the Serike of Central
१ जैनधर्म Asia-proceedings, A. S. B. 1903. २ जैनधर्म (मू० लोकमान्य तिलक) अनुवाद 4. Pariksamukha Sutra-Bib. Ind. ३ जैनतत्वज्ञानश्रो चारित्र -अनुवाद 5. TattvarthadhigamaSutra- Bib.Ind. ४ जैनसिद्धांत दिग्दर्शन -अनुवाद 6. History of Indian Logic ग्रंथमें Jain ५ जैनसामयिक पाठ स्तोत्र-भावानुवादित ___Logic Page 157-224
६ जिनेन्द्र-मत-दर्पण -अनुवादित 7. न्यायवतार, मूल-वृत्ति इंगलिश अनुवा० सहित- ७ सार्वधर्म -अनुवादित प्र० इण्डियन रिसर्च सोसायटी सन् १९०६
ये सभी ट्रैक्ट बंगीय सर्वधर्म परिषद काशीसे प्रका१७ स्व० कृष्णचन्द्र घोष “वेदान्तचिन्तामणि" शित हुए हैं । विशेष जाननेके लिये देखें मेरा "बंगला __१ बाबू पूर्णचंद्रजी नाहर लिखित An Epitom भाषामें जैन साहित्य" शीर्षक लेख, जो कि ओसवाल
___of jainism के सहयोगी प्रणेता। नवयुवक वर्ष ८ अंक १० में प्रकाशित हो चुका है। १७ स्व० हरिहर शास्त्री
. २२ ललितमोहन मुखोपाध्याय-आपने 'जैन इतिआपके लिखित दो लेखोंका पता चला है- ___हास समिति' का अनुवाद किया है। १ जैनपुराणे वर्णित कृष्णचरित्र
२३ हरिचरनमित्र-आपके द्वारा अनुवादित "श्रावक २ जैनन्याय-बंगीय साहित्य परिषदके १४वें दिगेर श्राचार"नामक ट्रैक्ट प्राचीन श्रावकोद्धारिणी ...... अधिवेशनमें पठित
सभा कलकत्तासे प्रकाशित हुआ था ।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाय सं०२४.६५
२४ स्व० नगेन्द्रनाथ वसु
छपा है पर इसमें १-पार्श्वनाथके शिष्य श्वे. (पता-विश्वकोषलेन, कलकत्ता ।)
ताम्बर और महावीरके शिष्य दिगम्बर हुए तथा आपके सम्पादित विश्वकोषमें जैनधर्मके सम्बंधमें २ सिद्धार्थ यक्षके अनुग्रहसे वीरकी बुद्धि उत्कर्ष बहुतसे लेख प्रकाशित हुए हैं । एवं एक स्वतंत्र को प्राप्त हुई आदि कई श्रान्त बातें लिखी हैं । लेख भी आपके द्वारा लिखित अवलोकनमें आया ३० रमेश्चन्द्र मजुमदार, वाइस चान्सलर दाका है। १ जैन पुरष काहिमी-प्र० साहित्य परिषद् यूनिवर्सिटी पत्रिका भा.७ पृ०७०
झापका लेन है 'बौद्ध ओ जैनसाहित्ये कृष्णाचरित्र' २५ विभूति भूषणदत्तः-श्राप गणित शास्त्रके प्र० "पंच पुष्प" पत्रिका भाद्र १३३८ . विशेषज्ञ हैं आपने लेख ये हैं
३१ कालीपद मित्र,प्रिन्सिपल डी०जी०कालेज मुंगेर१ जैन साहित्योनाम संख्या-प्र० बंगीय साहित्य आप जैन साहित्यसे बहुत प्रेम रखते हैं, अपने परिषद् पत्रिका मा० ३७ पृ. २८ से ३६ अध्ययनके सुफलसे समय समय पर जैन-सम्बन्धी । ? Mathematics of Nemichandra लेख भी लिखा करते हैं । आपके प्रकाशित लेखोंम-जैन सि० भा० भा० २ कि०२
की नामावली इस प्रकार है:३ A lost Jaina Treatise on Arith- १ Teachers and disciples --प्र० मोडर्न
matic-प्र. जैन सि० भा०२, कि०३ रिव्यू १६३७ नवम्बर २६ सुकुमार रंजनदास M.A., PH. D.
Magic and Miracle in Jaina The Jaina calendar आपने लिरवा है literature प्र० इण्डियन हिस्टोरिकल प्र. जै० सि० भा० भा०४ कि०२
क्वारटरली २७ प्रमोदलाल पाल–आफ्का लेख है
३ The Previous Births of SejjansJainism in Bengal-प्र.इडियन कलचर प्र० भास्कर भा० ४ पृ० ४५ (Vol III) पृ० ५२४
x Knowledge and Conduct in २८ ईस्वरचन्द्र शास्त्री
jain Scripture-प्र० जैन सिद्धान्तभास्कर (पलाः--नं० १ मार्कस स्क्वायर कलकत्ता)
भा०४, कि.० ३ १ नीतिवाक्यामत-दि० सोमदेव सरि रचित ५Note on Devanuppiya-प्र. जैन प्रस्तुन्न नीति अन्थ पर आपने संस्कृत एवं बंगलामें सिद्धान्तभास्कर भा०.५ कि० ३ टीका लिखी है, जो कि छापकाशित है। ३२ यदुनाथसिंह, प्र० मीराट कालेज, पंजाब२ जैनतत्वसारसंग्रह-प्रसारासे प्रकाशित
अापके निवल ये हैं२९ मसिलालसय–पता-प्रवर्तक संघ, चंदननगर) 1. Indian Psychology Perception १ महावीर--आपके "युमगुरु" अंथके म०१० से (By Jadunath Singh) Published
१६ में सचित्र भगवान् महावीरका सरिचय by Kegan Paul, Trenich Trub
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २]
बंगीय विद्वानोंकी जैन-साहित्यमें प्रगति
ur & co. London 1934 at 15. तब जैनधर्म दिनोदिन अवनतिकी अोर अग्रसर है इसका 2. Indian Realism-Published एक मात्र कारण व्यवस्थित प्रचार-कार्यका अभाव है। ___1938 at 10s. 6d.
बंगाल जैसे शिक्षित प्रान्तमें इसका प्रचार बहुत कम ३३ अमृतलाल शील-- (पता-न्युलेन हैदराबाद ) समयमें अच्छे रूप में हो सकता है। जैनोंको अब कुम्भ
अापका लेख है 'जैनदिगेर तीर्थकर' -प्र"मानसी की निद्रा त्याग कर कर्त्तव्य-पालनमें कटिबद्ध होजाना श्रो मर्मवानी" पृ० १०
चाहिये । ३४ अमूल्यचन्द्रमेन, (पता–विद्याभवन विश्वभारती प्रिय पाठक गण ! इस लेखको पढ़कर आपको
शांतिनिकेतन )-आपके . लेखका नाम है विदित ही हुअा होगा कि समुचित साधन, प्रोल्साहन Schools and Sects in jain Lite- नहीं मिलने पर भी इन विद्वानोंने कहां तक कार्य किये rature-प्र० विश्वभारती ।
हैं और साधनादि मिलने पर वे कितने प्रेम और उत्साह इनके अतिरिक्त अन्य कई विद्वानोंने भी जैनधर्म के साथ जैन साहित्यकी प्रशस्त सेवा कर सकते हैं। . सम्बन्धी लेखादि लिखे हैं ऐसा कई व्यक्तियोंसे अब किन किन उपायों द्वारा बंगीय विद्वानोंको मौखिक पता चला था पर उन्हें कई पत्र देने पर समुचित साधन व प्रोत्साहन मिल कर उनके द्वारा भी प्रत्युत्तर नहीं मिलनेसे इस लेखमें वह उल्लेख बङ्ग-प्रदेशमें जैनधर्मका प्रचार हो सकता है, इस विषयन कर सका।
में कुछ शब्द लिखे जाते हैं । प्रो० बिधुशेखर भट्टाचार्य, डा० काजी मोहन नाग १ जैनग्रन्थोंका एक विशाल संग्रहालय हो और हीरेन्द्रनाथदत्त अटी आदि बंगीय विद्वानोंस मैं मिला था ___ उसमें यह सुव्यवस्था रहे कि प्रत्येक पाठकको यद्यपि इन महानुभावोंने अभी तक जैनदर्शनके सम्बंध सुगमतापूर्वक पुस्तकें मिल सकें। यदि भ्रमणशील में स्वतन्त्र कोई निबन्धादि नहीं लिखा है फिर भी इनकी पुस्तकालय हों तो फिर कहना ही क्या ? कलकत्तेजैनधर्म के प्रति असीम श्रद्धा है। कई कई विद्वान् तो के जैन पुस्तकालयोंमें सुप्रसिद्ध नाहरजीकासंग्रहालय जैनधर्मके प्रचार के सम्बन्धमें विचार विनिमय करने पर सर्वोत्कृष्ट है। यदि ऐसा पुस्तकालय सर्वोपयोगी और हार्दिक दुःख प्रगट करते हुए कहते है कि “बौद्ध धर्मके सार्वजनिक हो सके तो निस्सन्देह एक बड़े भारी सम्बन्धमें लो नित नये २ विचार पत्र पत्रिकायोंमें अभावकी पूर्ति हो सकती है । प्रत्येक सुप्रसिद्ध उप
आये दिन पढ़नेको मिलते हैं पर जैनी लोग योगीग्रन्थकी दो दो तीन तीन प्रतियाँ पुस्तकालयमें कर्तव्य विमुख हो बैठे हैं, अन्यथा कभी संभव रहना आवश्यक हैं क्योंकि जो विद्वान उसकी एक नहीं कि ऐसे आदर्श धर्मके अनुयायी : १४ लाखमेंही प्रति मनन कर कुछ लिखने के लिये ले गये अतः सीमित रहें।"
उनके यहांसे उसका देवेसे वापिस प्राप्त होना पादरियों तथा आर्य समात्रियोंने प्रचार कार्यके बल स्वभाविक है, इसी बीच अन्य विद्वानोंको उसकी फर.माज क्या कर दिखाया है । बौद्धधर्म जो शताब्दियों विशेष अावश्यकता हुई तो अन्य प्रति हो तो उन्हें से भारतसे दूर हो गया था पुनः प्रचारित हो रहा है भी मिल सके । अच्छे अच्छे ग्रन्थोंको समय पर
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
अनेकान्त
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
संगृहीत करते रहनेका भी प्रबन्ध होना चाहिये एवं संगृहीत हो सकते हैं । इसी प्रकार पत्रसम्पादक एवं .. इस पस्तकालयकी सूचना प्रसिद्ध सभी संवादपत्रोंमें प्रकाशक महाशय भी पत्र फ्री भेज सकते हैं.ऐसे उपयोगी
दे देना आवश्यक है। कलकत्ते में बंगीय विद्वानोंका पुस्तकालयके लिये कोई अधिक कठिनता. नहीं होगी खासा जमाव है। अतः पस्तकालय कलकत्तेमें कार्यकर्ता सेवाभावी और प्रभावशाली अनभवी हो तो ही होना विशेष लाभप्रद है।
बहूत थोड़े अर्थव्ययसे बहुत अच्छा संग्रह एवं व्यवस्था पुस्तकालयका लाइब्रेरीयन (अध्यक्ष)अनुभवी विद्वान हो सकती है। होना चाहिये, जिससे विद्वानोंकी माँगका समुचित प्रबंध (२) केवल एक पुस्तकालय स्थापनसे ही कार्य नहीं कर सके । अच्छे २ ग्रन्थ जो वे लोग मांगें और अपने चलेगा,साथ साथ जैनेतर अन्य प्रसिद्ध पुस्तकालयोंपुस्तकालयमें नहीं हों उन्हें तुरन्त मंगाने एवं हो सके तो को भी जैनधर्मके उत्कृष्ट ग्रन्थोंकी प्रतियाँ देना अन्य पुस्तकालयोंसे उन्हें प्राप्त करने का प्रबन्ध हो सके परमावश्यक है, ताकि उस पस्तकालयके ग्रन्थोंके तो उसका प्रबन्ध कर सके और जो ग्रंथ प्रकाशित नहीं पाठक विद्वानोंका भी जैनधर्म के आदर्श ग्रंथोंकी हुए हैं उनको भी विशेष आवश्यकता होने पर भंडारोंसे ओर ध्यान आकर्षित हो । कलकत्ते में के विद्वानोंके मंगा कर पाठकोंको ज्ञान-जिज्ञासाको पर्ण कर सके । केन्द्रस्थानीय पुस्तकालयोंमें इम्पीरियल लायब्रेरी, .
मेरे ध्यानमें ऐसा व्यवस्थित पस्तकालय आगरेका विश्वविद्यालय एवं एशियाटिक सोसायटीका पस्तविजयधर्मसूरि-ज्ञान-मंदिर है । इधर कई वर्षोंसे प्रका- कालय, संस्कृत कॉलेज ग्रंथालय, बंगीय-साहित्यशित पुस्तकोंकी उसमें कमी है उसकी पूर्तिकी जासके परिषद पुस्तकालय मुख्य हैं। इनमें उत्तमोत्तम
और विद्वानोंको बाहर भेजने श्रादिका सुप्रबन्ध हो तो उपयोगी जैनग्रंथोंकी १-१ प्रति अवश्य देदेनी इस ज्ञानमन्दिरसे बहुत लाभ हो सकता है । ऐसे ही चाहिये । या उनके पस्तकाध्यक्षोंको उन ग्रंथोंके जैन-सिद्धान्त-भवन बारा,ऐल्लक पन्नालाल सरस्वती भवन संग्रहकी प्रेरणा करना चाहिये । बम्बई, ब्यावर, झालरपाटन आदि दिगम्बर-पुस्तकालयों (३) पस्तकालयके अन्दर एक अभ्यासक मंडल भी से भी सहयोग प्राप्त कर लेना परमावश्यक है । उनके स्थापित किया जाय । बंगीय विद्वानोंको जैनधर्म सूचीपत्रोंकी नकल मुद्रित हो तो मुद्रित प्रति कलकत्तेके सम्बंधी लेख-निबंध लिखनेकी. प्रेरणाकी जाती रहे, पस्तकालयमें रखी जाय और समय २ पर आवश्यक प्रत्येक रविवारको भाषणका आयोजन हो जिनमें ग्रंथ वहाँसे मंगाकर भी विद्वानोंकी मांग पर्णकी जाय तो जैनधर्म के विद्वानों एवं अभ्यासी जैनेतर विद्वानोंका बड़ा भारी ज्ञानप्रचार हो स कता है। विद्वानोंको पाठ्य भाषण हो, अभ्यासियोंके भाषण लिखितरूपसे हों एवं लेखन-सामग्रीकी सुविधा प्राप्त होने पर उनकी तो विशेष अच्छा हो । यानी वे प्रकाशित भी किये लेखनी बहुत अधिक काय कर सकेगी। आशा है जैन- जासकें और समय भी कम लगे। मौखिकभाषण धर्म-प्रचार के प्रेमी धनी सज्जन इस परमावश्यक योजना- देनेवाले विशेष विद्वानोंके भाषणोंका सार भी की अोर अवश्य ही ध्यान देंगे। और इसे अति शीघ्र शोर्टहेंडसे लिखा जाकर प्रकाशित किये जानेका कार्यरूपमें परिणत करके प्रचारकार्य में हाथ बटावेंगे। प्रबन्ध होनेसे वह कार्य स्थायी एवं विशेष व्यापक - हाँ, इतने विशाल पुस्तकालयके लिये बड़े भारी होगा । सुन्दर विशिष्टनिबंध-लेखकोंको पारितोषिक अर्थसंग्रहकी आवश्यकता है। पर जैनसमाजके अन्य दिये जानेका प्रबन्ध होना भी उचित है। जिससे पस्तकालयों एवं ग्रंथसंग्रहोंमें जिन जिन ग्रंथोंकी वे समुचित उत्साहित हों। उन निबंधोंको जैन एवं अधिक अतिरिक्त प्रतियाँ पड़ी हैं उनको वे इस संग्रहमें प्रदान करदें एवं जैनग्रन्थ प्रकाशक अपने प्रकाशनकी देखें, मेरा 'कलकत्तेके जैन पुस्तकालय' शीर्षक १-१ प्रति इसको भेट देदें तो हज़ारों रुपयेके ग्रंथ सहज लेख, प्र० श्रोसवाल नवयुवक वर्ष ८ अंक ३
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष
३, किरण २ ]
बंगीय विद्वानोंकी जैन साहित्य में प्रगति
जैनेतर विशिष्ट पत्रोंमें प्रकाशित किये जानेका प्रबन्ध रहनेसे प्रचारकार्य बहुत शीघ्र आगे बढ़ेगा । निबंधों के प्रकाशनके पूर्व अच्छी तरह परीक्षा करलेनी चाहिये ताकि किसी लेखकने कोई भूलभ्रान्ति की हो तो वह पहले सुधारी जा सके, इससे लेखकको अपनी भूलें विदित हो जायँगी और प्रकाशन भी भ्रान्तिरहित होगा ।
इसी प्रकार बंगीय विद्वानोंके लिखित ग्रंथोंको भी सिन्धी जैन ग्रंथमाला आदि द्वारा प्रकाशित करनेका प्रबन्ध होना चाहिये, ताकि लेखकको प्रकाशकौंके ढूंढनेकी चिन्ता न हो ।
(४) एक सामयिक मासिक पत्र भी पूर्व प्रकाशित "जिनवाणी" की भांति प्रकाशित किया जाय, जिसमें हिन्दी, बंगला और अँग्रेजी लेखोंको प्रकाशित किया जासके । सामयिकपत्रसे प्रगति बहुत फलवती होती है और प्रचारका प्रशस्तमार्ग सरल हो जाता है ।
(५) कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक जैन चेयरकी बड़ी श्रावश्यकता है, जिसमें जैनदर्शन, साहित्य, कलाश्रादिकी समुचित शिक्षा जैनविद्वान द्वारा बंगीय जैन, जैनेतर छात्रोंको दी जाय । योग्य छात्रोंको छात्रवृत्ति भी अवश्य दी जाय ।
(६) धर्मप्रचारका कार्य जैसा त्यागी विद्वान मुनियोंसे हो सकता है वैसा अन्य से नहीं, उनके ज्ञान एवं चारित्रका प्रभाव भी बहुत अच्छा पड़ता है । जैन दर्शन सम्बन्धी शंकाओंका बंगीय विद्वान उनसे निराकरण कर सकते हैं और भी उनके उपदेशसे कई विद्वान प्रचार एवं साहित्य सेवा में जुट सकते हैं साथ ही, आदर्श सिद्धान्तों का शिक्षितसमाज में सहज प्रचार हो सकता है, पर खेद है कि हज़ारों जैनी आसाम-बंगाल में रहते हैं पर उनकी प्रगति इतनी सीमित है कि उसका दूसरोंको पता नहीं चलता । श्वे० जैन मुनि एवं दिगम्बर विद्वान बंगला और अँग्रेजी भाषाका आवश्यक ज्ञान प्राप्त करके ग्राम ग्राममें घूमें तो पुनः जिस बंगाल-बिहारमें एक समय
१६१
जैनधर्म ऊँचे शिखर पर चढ़ा हुआ था वह फिरसे नज़र जाय, कमसे कम हज़ारों मनुष्य मांसमत्स्य भक्षणका त्याग कर सकते हैं । जिससे लाखों I करोड़ों जीवोंको अभयदान मिले। श्राशा है वे अब अपना कर्तव्य सँभालेंगे ।
( ७ ) कई स्थानों में मुनिमहाराजोंके जाने में नाना सुविधायें हैं, उन स्थानों में कतिपय प्रचारक विद्वानों
कार्य होसकता है । अतः २-४ प्रचारकोंकी भी नियुक्ति परमावश्यक है, जिससे प्रचारकार्य व्यापक एवं विशिष्ट हो ।
1
इसी प्रकार अल्पमूल्य में या अमूल्यरूपसे जैन दर्शन के सारभूत कई ग्रंथोंका प्रचार इंगलिश एवं बंगला भाषा में करने द्वारा तथा अन्य विविध योजनाओं द्वारा पुनः पूर्ण प्रयत्न कर जैनधर्मका संदेश सर्वत्र प्रसारित करना परमावश्यक है । मैंने इस लघुलेख में दिशा सूचक . रूपसे महत्वकी कतिपय योजनात्रों को ही जैन समाजके समक्ष रखा है, अन्य विद्वान एवं जैनधर्मके प्रचार-प्रेमी सज्जन अपने अपने विचार शीघ्र ही अभिव्यक्त करें, एवं समाज उन्हें कार्य रूपमें परिणत करनेमें तन मन धनसे सहयोग दे, यही पुनः पुनः सादर विज्ञप्ति है ।
स्थानीय बंगीय जैन समाजका इस दिशा में प्रयत्न करनेका सर्वप्रथम कर्त्तव्य । मुर्शिदाबाद एवं कलकत्तेके जैन भाइयोंको मैं पुनः उनके श्रावश्यक कर्त्तव्यकी याद दिलाता हूँ, आशा है वे इसपर अवश्य विचार करेंगे एवं अन्य प्रान्तोंके भाइयोंके सन्मुख भी आदर्श उपस्थित करेंगे ।
लेख समाप्त करनेके पश्चात् नं० ५ योजनाके संबंध में कलकत्तेकी गत महावीर जयन्ती पर श्रीयुक्त बहादुरसिंहजी सिंधीने जो विचार व्यक्त किये उनको कार्यरूप में परिणत देखने को मैं उत्कंठित हूँ । एवं नाहरजीके कलाभवनकी ४० हजारकी बहूमूल्य वस्तुएँ कलकत्ते के विश्वविद्यायय के आशुतोष म्युजियमको दानके संवाद मिले हैं। क्या ही अच्छा हो उनका पुस्तकालय भी नं० १ योजनानुसार कर दिया जाय ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहिंसाकी कुछ पहेलियाँ
[श्री. किशोरनाल मशरू वाला]
पाहिंसा के बारे में कभी-कभी गहरे और जटिल सवाल सालके इतिहासमें उसमेंसे एक भी गामा या राममूर्ति
किये जाते हैं। इनमेंसे कुछका मैं यहाँ थोड़ा भले ही न निकला हो । इन अखाड़ोंमें गामा और विचार करना चाहता हूँ।
राममूर्तियोंका सम्मान, तथा मार्गदर्शनकी हैसियतसे ___(१) प्रश्न-पूर्णतया प्राप्त किये बगैर संपूर्ण उपयोग हो सकता है। लेकिन उन जैसा बननेकी अहिंसा शक्य नहीं है। तो फिर, सारे समाजको या सबकी महत्वाकांक्षा नहीं हो सकती। उसके उस्ताद के हमारे जैसे अपूर्ण व्यक्तियोंको अहिंसाकी सिद्धि किस लिए भी वह कसौटी नहीं हो सकती। तरह मिल सकती है ?
दूसरा भी एक उदाहरण ले लीजिए । सेनापतिमें उत्तर-कभी कभी बहुत गहरे विचार में उतर जाने. बुद्ध-शास्त्रकी जिसनी काबिलियत चाहिए उतनी हरेक से हम गगन-विहारी बन जाते हैं । कसरत करनेवाला छोटे अमलेमें, तथा छोटे अमलेकी जितनी काबिलियत हरेक व्यक्ति दौड़ती हुई मोटर रोकने, या चार-पाँच सामान्य सिपाहियोंमें हो, ऐमी अपेक्षा कोई नहीं करेगा। मनका पत्थर छाती पर रखने या गामाकी बराबरी करने उसी तरह गांधीजीकी अहिंसावत्ति हरेक कार्यकर्ता की शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता । फिर भी, यह भुमकिन अपनेमें पा न सके, अथवा कार्यकर्त्ताकी लियाकत है कि इन लोगोंसे भी बढ़कर कोई पहलवान दुनियाँ में साधारण जनतामें पाना संभव न हो, तो इसमें घबपैदा हो। अगर इन्हींको शारीरिक शक्तिका श्रादर्श रानेकी कोई बात नहीं । उससे उल्टी स्थितिकी अपेक्षा माना जाये तो साधारण आदमी--चाहे वह कितनी भी करना ही ग़लत होगा । ज़रूरत तो यह खोजनेकी है कि मेहनतसे शरीरको मजबूत बनानेकी कोशिश करे, तो अहिंसाकी कम से-कम तालीम कितनी और किस भी--अपूर्ण ही रहेगा । तब क्या श्राम जनताके लिए तरहकी होनी चाहिए ? उमसे अधिक लियाकत रखनेजो अखाड़े हैं वे बन्द कर दिये जायें ? उत्तर साफ है वाला मनुष्य एक छोटा नेता. या गांधी, या सपाई कि 'नहीं। क्योंकि अखाड़ोंका मुख्य उद्देश्य गामा जैसे गांधी, भी बन सकता है । वैसी सदभिलाषा व्यक्तियोंके पहलवानोंको ही निर्माण करना नहीं है, बल्कि साधारण दिलमें भले ही हो, लेकिन जो उस तक नहीं पहुँच दुनियादारीमें सैकड़ों श्रादमियोंको जितने और जिस सकता उसे निराश होनेकी ज़रूरत नहीं। उसके लिए प्रकार के शारीरिक विकासकी ज़रूरत हो उतना और परीक्षाकी कम-से-कम लियाक़त हासिल करनेका ही उस प्रकारका विकास जो व्यायामशाला करा सकती ध्येय रखना काफ़ी है। है उसे हम सफल संस्था कहेंगे; फिर चाहे उसके सौ (२) प्रश्न-जिसे क्रोध आता हो, जो गुम्से में
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २]
अहिंसाकी कुछ पहेलियाँ
कभी बच्चोंको पीट भी देता हो, जिसकी किसीके साथ विचार जिसके मनमें आते रहते हैं और जो उस बात बोलचाल भी हो जाती हो, ऐसा शख्स क्या यह कह को भूल ही नहीं सकता; बल्कि बदला लेनेके मौके सकता है कि उसकी अहिंसाधर्ममें श्रद्धा है ? ही ढूँढता है, और उस आदमीका कुछ अनिष्ट हो
उत्तर-हम इस वक्त जिस प्रकारकी और जिस तब खुश होता है, उसके दिल में हिंसा, द्वेष या वैरकी क्षेत्रकी अहिंसाका विचार कर रहे हैं उसमें "गुस्सेके वृत्ति है । क्रोध भी श्राये शोक भी हो, फिर भी, अगर मानीमें क्रोध" और "द्वेष, वैर, जहरके मानीमें क्रोध" मन में ऐसे भाव न उठ सकें तो वह अहिंसा है। नुक्कका भेद समझना ज़रूरी है। माँ-बाप, शिक्षक श्रादि सान करने वालेका बुरा न चाहनेकी शुभवृत्ति जिसके कभी-कभी बच्चों पर गुस्सा करते हैं और सज़ा भी दिल में है वह प्रसंगवशात् क्रोधवश होता हो, तो भी वह देते हैं । रास्ते पर, पानीके नल या कुएँ पर कभी-कभी अहिंसाधर्मका उम्मीदवार हो सकता है। यह एक स्त्रियोंमें बोलचाल हो जाती है। पड़ोसियोंमें एकका दूसरी बात है कि जितनी हदतक वह अपने गुस्सेको कचरा दूसरेके घरमें उड़ने जैसी छोटी-सी बात पर भी रोकना सीखेगा उतना ही वह अहिंसामें ज्यादा शक्ति झगड़ा हो जाता है । बुढ़ापे या बीमारीमें अनेक लोग हासिल करेगा। तात्विक दृष्टि से कह सकते हैं कि इस बदमिज़ा न हो जाते हैं और छोटी छोटी बातोंसे चिढ़ते चिढ़के क्रोध' और 'वैर के क्रोध' में सिर्फ मात्राका ही हैं । यह मन्त्र क्रोध ही है और दुर्गुण भी, इतने परसे भेद है । फिर भी यह भेद उतना ही बड़ा और महत्व हम इन लोगोंको द्वेषी, ज़हरीले, या वैरवृत्तिवाले नहीं का है जितना कि नहानेका गरम पानी और उबलते कहेंगे । उलटे, कई बार यह भी पाया जायगा हुए गरम पानीका है। कि खुले दिल के और सरल स्वभावके लोगोंमें ही इस (३) प्रश्न-बहस या भाषणोंमें प्रतिपक्षीका मज़ाक प्रकारका क्रोध ज्यादा होता है और कपटी आदमी ज्यादा उड़ाने, बाग्वाण चलाने या तिरस्कारकी भाषा इस्तेमाल संयम बताते हैं । इसप्रकारका गुस्सा जिसके प्रति प्रेम करनेमें जो अहिंसा का भंग होता है वह किस हद तक
और मित्रभाव हो, उसपर भी होता है । बल्कि उमी पर निर्दोष माना जाये ? ज्यादा जल्दी होता है; पराये आदमी पर कम होता है। उत्तर-मान लीजिए कि हिंसाका सादा अर्थ है यह स्वभाव, शिक्षा, संस्कार वगैरहकी कमीका परिणाम घाव करना । जो प्रहार दूसरेको घाबके जैसा मालूम है; लेकिन द्वेषवृत्तिका नहीं ! अहिंसा-धर्ममें प्रगति करने होता है, वह हिंसाहै; फिर वह हाथ-पैर या शस्त्रसे उसके एक आदरपात्र सेवक और अगुवा बननके लिए किया हो, शब्दसे किया हो, याकि दिलसे छिपी हुई यह त्रुटि ज़रूर दूर होनी चाहिये। ऐसा नहीं कि ऐसी बददुश्रा ही हो । स्थूल घाव जब सीधी छुरीका होता है पटि होने के कारण कोई आदमी अहिंसाधर्मका सिपाही तो कम ईज़ा देता है। टेढ़ी बरछीका हो तो बदनका भी नहीं हो सकता । अहिंसाके लिए जो वस्तु महत्वकी ज़्यादा ज़्यादा हिस्सा चीर डालता है। तकलीकी तरह है वह है अद्वेष या अवैर-वृत्ति । जब किसीने कुछ नुकीला शस्त्र हो तो उसका घाव और भी ज्यादा खतरमुकसान या अपमान किया हो तब उसका बदला किस नाक होता है । उसी तरह शब्दोंका घाव सीधा हो तो वरह लें, उसे नुकसान किस तरह पहुँचायें, वगैरह जितनी ईजा देता है, उससे बाह्य दृष्टिसे विनोदात्मक
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
अनेकान्त .
(मार्गशीर्ष, वीर निर्वास सं०२४६६
लेकिन तिरस्कार और वक्रतायुक्त शब्द ज्यादा चोट कुलता हो, वहाँ जो शख्न अहिंसाकी उच्च मर्यादाका पहुँचाता है । जो प्रतिपक्षीके नाजुक भागको जख्म पालन नहीं कर सकता, वह उनका आश्रय ले तो
वह घाव ही है। और यह तो हम जान समाज के लिए आवश्यक अहिंमाकी मर्यादाका पालन सकते हैं कि हमारा शब्द किसी अादमीको महज़ विनोद हुआ माना जायगा । जहाँ वैसा आश्रय लेनेकी गुजामालूम होगा या प्रहार । इमलिए अहिंमा में ऐसे प्रहार इश न हो (जैसे कि, जब चोर या हमला करनेवाला करना अयोग्य है।
प्रत्यक्ष सामने आया हो) वहाँ वह अपनी प्रात्म-रक्षा के (४) प्रश्न-अहिंसा में अपनी व्यक्तिगत अथवा लिए और गुनहगारको पुलिसके हवाले करनेकी गर्नसे संस्थाकी रक्षा, अथवा न्याय के लिए पुलिस या कच- उसे अपने वशमें लाने के लिए,जितना आवश्यक हो उतने हरीकी मदद ली जा सकती है या नहीं ? चोर, डाकू ही बलका उपोयग करे तो उसमें होने वाली हिंसा क्षम्य या गुंडोंके हमलेका सामना बलसे कर सकते हैं या नही मानी जायगी। मगर, बात यह है कि आम तौर पर अहिंसावादी स्त्री अपनी इज्ज़त पर आक्रमण करने लोग उतने ही बलका प्रयोग करके रुकते नहीं । कब्जेवाले पर प्रहार कर सकती है या नहीं ?
माये हुए गुनहगारको बुरी बुरी गालियाँ देते और उत्तर-यहां पर सामान्य जनता और प्रयत्नपूर्वक इतनी बुरी तरह पीटते हैं कि बाज दफा वह अधमरा अहिंसा की उपासना करने वालेमें कुछ भेद करना हो जाता है । यह हिंसा अक्षम्य है; यह हैवानियत है । चाहिए । जो अपेक्षा एक विचारक अहिंसक कार्यकर्ता . समाजको ऐसे बर्तावसे परहेज़ रखनेको तालीम देना से रखी जाती है वह सामान्य जनतासे नहीं रखी जाती ज़रूरी है। अहिंसा पमन्द समाजके लिए यह समझ मतलब, सामान्य जनताके लिए अहिंसाकी मर्यादा लेना ज़रूरी है कि हरेक गुनहगारको एक प्रकारका कुछ मोटी होनी अनिवार्य है। इसलिए अगर हम रोगी ही मानना चाहिए। जिस तरह तलवार लेकर इतना ही विचार करें कि सामान्य जनताके लिए अहिंसा दौड़ते हुए किमी पागलको या सन्निपातमें उइंडता धर्मका कब और कितना पालन ज़रूरी समझना करने वाले किसी रोगीको जबरदस्ती करके भी वशमं चाहिए तो काफी होगा । समझदार व्यक्ति अपनी २ लाना पड़ता है, उसी तरह चोर, लुटेरे या अत्याचारीशक्ति के मुताबिक इससे आगे बढ़ सकते है। . को पकड़ तो लेना होगा, लेकिन पागल या सन्निपात ___ इस दृष्टिसे, अहिंसाके विकास के मानी हैं जंगलके वाले मरीजको बशमें करने के बाद हम उसे पीटते नहीं कानूनमें से सभ्यता अथवा कानूनी व्यवस्थाकी अोर रहते । उलटे, उस को रहमकी दृष्टिस देखते हैं । यही प्रयाण । अगर हरेक अादमी अपने भयदाता या अन्याय दृष्टि दूसरे गुनहगारोंके प्रति भी होनी चाहिए। उसे कर्ताके सामने हमेशा बन्दुक उठाकर या अपने आद- हम पुलिसको सौंपते हैं इसकी मानी ये हैं कि वैसे मियोंको इकट्ठा कर के ही खड़ा होता रहे तो वह जंगल- रोगियोंका इलाज करने वाली संस्था के हाथ हम उसे का कायदा कहा जायगा । इसलिए जहाँ पुलि स या दे देते हैं। कचहरीका आश्रय लेने के लिए भरपूर समय या अनु
(हरिजन सेवकसे)
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऊँच-नीच - गोत्र विषयक चर्चा
| लेखक – श्री० बालमुकुन्द पाटोदी जैन 'जिज्ञासु' ]
[ इस लेख के लेखक पं० बालमुकुन्दजी किशनगंज रियासत कोटाके निवासी हैं । यद्यपि आप कोई प्रसिद्ध लेखक नहीं हैं परन्तु आपके इस लेख तथा इसके साथ भेजे हुए पत्र परसे यह साफ़ मालूम होता है कि आप बड़ी ही विनम्र प्रकृतिके लेखक तथा विचारक हैं, और अच्छे अध्ययनशील तथा लिखने में चतुर जान पड़ते हैं । अपने उपनामके अनुसार आप सचमुच ही जिज्ञासु हैं. इसीलिये आपने अपने पत्र में लिखा है- "आपका श्रनेकान्तपत्र बहुत ऊँची श्रेणीका है और बड़े-बड़े उच्चकोटिके विद्वानोंसे सेवित है। यदि मुझ बालक (ज्ञानहीन ) का यह चर्चारूप प्रश्नात्मक लेख अनेकान्तपत्र में छापना उचित हो तो कृपया छाप दीजियेगा और नहीं तो यदि आपको अपने परोपकारस्वरूप शुभ कार्योंसे अवकाश मिले तो कृपया किसी प्रकार उत्तर लिखकर मेरा समाधान करके मेरी ज्ञानवृद्धि में सहायक तो होना चाहिये ।" साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि "मैंने आजतक किसी भी जैनपत्र में इच्छा रहने पर भी कई कारणों के वशवर्ती होकर कुछ भी लेख नहीं लिखा है ।" और इसके बाद अपनी कुछ त्रुटियोंका – जो बहुत कुछ साधारण जान पड़ती हैं – उल्लेख करते हुए लिखा है - " इतना सब कुछ होने पर भी, केवल अपनी ज्ञानवृद्धि के लिये, मेरे हृदय में लिखने की इच्छा अब कुछ विशेष हुई है । इसलिये प्रश्नात्मक चर्चारूप यह लेख जिज्ञासु भावनासे प्रेरित होकर लिखा जाता है ।" और इससे आपका लेख लिखनेका यह पहला ही प्रयास जान पड़ता है, जिसमें आप बहुत कुछ सफल हुए इस तरहके न मालूम कितने अच्छे लेखक अपनी शक्तिको छिपाए और अपनी इच्छाको दबाए पड़े हुए हैं - उन्हें अपनी इच्छाको कार्य में परित करने और अपनी शक्तिको विकसित करनेका अवसर ही नहीं मिल रहा है, यह निःसन्देह खेदका विषय है । मैं चाहता हूँ ऐसे लेखक संकोच छोड़कर आगे थाएँ और लेखनकला में प्रगति करके विचार क्षेत्रको उन्नत बनाएँ । का ऐसे लेखकों का हृदयसे अभिनन्दन करने और उन्हें अपनी शक्तिभर यथेष्ट सहयोग प्रदान करनेके लिये उद्यत है।
लेखक महोदयकी जिज्ञासा - तृप्ति के लिये मैंने लेख में कहीं-कहीं कुछ समाधानात्मक फुट नोट्स लगा दिये हैं, उनले पाठकों को भी विषयको ठीक रूपसे समझने में आसानी होगी । विशेष समाधान श्रद्धेय बाबू सूरजभान - जी करेंगे, ऐसी श्राशा है, जिनके लेखको लक्ष्य करके ही यह प्रश्नात्मक लेख लिखा गया है और जिनसे समाधान -सम्पादक ]
मांगा गया है।
अनेका
नेकान्तकी द्वितीय वर्षकी प्रथम किरण में एक लेख 'गोत्रकर्माश्रित ऊँच नीचता' शीर्षक प्रकाशित हुआ है, जो कि वयोवृद्ध पूज्य बाबू सूरजभानजी साहब वकीलका लिखा हुआ है । लेख वास्तव में पदार्थके अंतस्त में प्रविष्ट होकर लिखा गया है, उसकी गंभीरता, गहरी छानबीन. उसका ज्ञानाधिक्य, अनुभव पूर्णता
आदि गुण देखते ही बनते हैं। मुझ जैसे बेपढ़े मनुष्य की शक्ति नहीं कि उसकी विशेषताओं का वर्णन कर सके ।
लेखमें गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी १३वीं गाथा देकर ऊँच और नीच गोत्रके स्वरूपका वर्णन किया है अर्थात् बतलाया है कि कुलकी परिपाटीके क्रमसे चले आये
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
अनेकान्त
नीवके ऊँचे चरणको 'ऊँच गोत्र' और नीचे आचरणको 'नीच गोत्र' कहते हैं । ऊँचगोत्र सूचक ऊँचे आचरणको सम्यक् चारित्र, धर्माचरण श्रादि न मानकर व्यवहार योग्य कुलाचरण, नागरिकका श्राचरण या सभ्य मनुष्यका आचरण आदि माना है । और नीचगोत्र - सूचक नीचे श्राचरणको मिथ्याचारित्र, धर्माचरण आदि न मानकर खोटा लौकिक आचरण, लोकयवहार के योग्य उग डकेतोंका निद्य आचरण या असभ्य मनुष्योंका आचरण आदि माना है । और ऐसा मानकर सम्यक् चारित्र, धर्माचरण और व्यवहारयोग्य कुलाचारण या सभ्य मनुष्यके चाचरण में तथा मिथ्याचारित्र, अधर्माचरण और ठग डकेतोंके निद्या चरण या असभ्य मनुष्यके चाचरणमें भेद व्यक्त किया है । और इस तरह पर ऊँचे श्राचरणका अर्थ व्यवहारयोग्य कुलाचरण और नीचे श्राचरणका अर्थ रगकेतोंका निद्य कुलाचरण लगाया है। अर्थात् उपर्युक्त अभिप्राय निकाला है।
परन्तु यदि देखा जावे तो संसारमें दो ही प्रकार के शाश्चरण दृष्टिगोचर होते हैं— एक संयमाचरण और दूसरा असंयमाचरण । लोकव्यवहार - योग्य सभ्य कुलके मनुष्य के आचरणको संयमाचरण अर्थात् ऊँचा श्राचरण कहते हैं और लोकव्यवहारके अयोग्य असभ्यकुलके ठगडकेतोंके निद्य श्राचरणको श्रसंयमाचरण अर्थात् नीचा श्राचरण कहते हैं। जैसे माता पितादि गुरुजनों की सेवा करना, रोगियोंको औषधि यादि देना, असमर्थदीनोंकी कई प्रकार से सहायता करना, किसीकी धरोहर उसे वैसीकी वैसी वापस देना, ऋण लेकर पूरा चुकाना, ठीक पूरे तौलसे देना तथा वैसे ही पूरा लेना, झूठ नहीं बोलना, झूठी साक्षी नहीं देना, किसीको वचन देकर निभाना, दुसरेकी स्त्रीको माता- बहिन या बेटी समझना,
मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २०६६
अपनी स्त्रीसे संतुष्ट रहना वेश्यागमन-परस्त्री गमन न करना, अति लोभ न करना, दूसरेका हक़ ( स्वत्व ) न दबा बैठना, ऋणीकी शक्ति अधिक ब्याज न लेना, अति तृष्णा न करना, अपने से न सँभल सके ऐसे व्यापारादिको न बढ़ाना श्रादि सहस्रों प्रकारके ऊँच गोत्र सूचक व्यवहारयोग्य सभ्य कुलके ऊँचे श्राचरण हैं । और गर्वोन्मत्त होकर निरपराधोंको मार डालनाकाट डालना उन्हें सताना, अनेक प्रकारके कष्ट देना उनका चित्त दुखाना, गुरुजनोंका अपमान तिरस्कार करना, दूसरेकी धरोहर हड़प जाना, ऋण लेकर नहीं देना, अधिक तौलकर लेना तथा कम तौल कर देना, चोरी करना, डाका डालना, किसीका धन ठग लेना, झूठ बोलना, झूठी साक्षी देना, दूसरेसे विश्वासघात करना, बचन देकर नट जाना, ऐसी बात कहना जिससे दूसरा संकटमें पड़ जाय, पुत्र- भाई- नातेदार -पड़ोसी-मित्र आदिकी स्त्रियोंसे बलात्कार व्यभिचार करना, परस्त्रीविधवा - दासी वेश्यादिको घरमें डाल लेना या उनसे छिपकर अथवा प्रकट रूपमें व्यभिचार करना, अति तृष्णा व अति लोभ करना, दूसरे के धनको - रहने के स्थानको हड़प जाना, अधिक ब्याज लेना, अपनेसे न सँभल सके इतने व्यापार यन्त्रालयादिको बढ़ाते जाना
दि सहस्रों प्रकारके नीच गोत्र सूचक व्यवहार के अयोग्य असभ्य ठग डकेतोंके निद्य कुलके नीचे श्राचरण हैं । व्यवहारयोग्य सभ्य कुलके मनुष्यों में कम त्याग व कम संयम होता है और व्रती श्रावक व मुनियों में अधिक त्याग व अधिक संयम वा पूर्ण संयम होता है, और इसी तरह पर ठग - डकेतोंके असभ्य कुलवालोंमें अधिक असंयम व पूर्ण असंयम होता है। और इस तरह पर व्यवहार योग्य सभ्य कुलाचरण व धर्माचरण एक ही बात है तथा असभ्य कुलाचरण व असंयमा
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २ ]
चरण भी एक ही बात है ।
मैं यहाँ प्रश्न करता हूँ कि ऊँच गोत्र सूचक ऊँचे श्रचरणका अर्थ व्यवहारयोग्य सभ्य कुलाचरण व संयम धर्माचरण दोनों ही प्रकारका आचरण किया जावे तथा नीच गोत्र सूचक नीचे आचरणका अर्थ ठगडकेतों के असभ्य कुलका आचरण व श्रसंयमाचरण दोनों ही प्रकारका श्राचरण किया जावे और व्यवहारयोग्य सभ्य कुलाचरण तथा धर्माचरण में और ठगshती सभ्य कुलाचरण में और असंयमाचरण में भेद व्यक्त न किया जावें तो क्या हानि है ?
ऊँच नीच गोत्र विषयक चर्चा
यह
urगे चलकर श्रीपूज्यपादस्वामीकृत सर्वार्थसिद्धिमें वर्णित ऊँचगोत्र और नीचगोत्रका स्वरूप बतलाया है कि 'लोक पूजित कुलों में जन्म होनेको ॐच गोत्र व गर्हित कुलों में जन्म होनेको नीचगोत्र कहते हैं।'
यहाँ पर लोकपूजित कुल व गर्हित कुलका स्वरूप विचारना चाहिये । ओ कुल अपने हिंसा झूठ-चोरी आदि पापोंके त्यागरूप श्रहिंसा सत्य - शील-संयम दान श्रदि धर्माचरणों के धारणरूप श्राचरणोंके कारण पज्य हैं— सन्मानित हैं — प्रतिष्ठा प्राप्त हैं वे ही कुल लोकपूजित कुल माने जाने चाहियें- - राज्य-धन सैन्य बल आदि का पूजित कुल लोक पूजित नहीं माने जाने चाहियें। जो कुल हिंसा झट-चोरी श्रादि पापाचरणोंके कारण गर्हित हैं वे गर्हित कुल माने जाने चाहियें । और इस तरह पर धर्माचरणोंके कारण लोकों द्वारा पूजित कुलमें जन्म लेनेवालेको 'ऊँचगोत्री' व पापाचरणोंसे गर्हित कुलमें जन्म लेनेवालेको नीच-गोत्री मानना चाहिये, और ऐसा माननेसे गोम्मटसास्की १३ वीं गाथा में वर्णित ऊँच-नीच गोत्रके स्वरूप में और श्री पूज्यपादस्वामीरचित सर्वार्थसिद्धि में वर्णित ऊँच
१६७
नीच - गोत्र स्वरूपमें कोई विरोध प्रतिभासित नहीं होगा। क्या नेरा यह कहना ठीक है ? अथवा उक्त प्रकार से मानने पर जैनसिद्धान्तसे क्या कोई विरोध नहीं आएगा ।
आगे लिखा है कि सब ही देव (कल्पवासी आदि धर्मात्मा व भवनवासी आदि पापामारी देव) और भोग भूमियाँ जीव - चाहे वे सम्यकष्टि हों या मिथ्यादृष्टि - जो श्रणु मात्र भी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते वे तो उच्च गोत्री हैं और देशचारित्र धारण कर सकने वाले पंचम गुणस्थानी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच नीच गोत्री ही हैं ।'
श्री वीर भगवान् ने अपने शासनमें विरोध रूप शत्रुको नष्ट करनेके लिये अनेकान्त अपना अपेक्षावाद वा स्याद्वाद जैसे गंभीर सिद्धान्त - श्रमोघा का निर्माण किया है, फिर जहाँ हमें कुछ विरोध प्रतिभासित हो वहाँ हम अनेकान्तसे विरोधका क्यों न समन्वय कर लें क्यों न अपेक्षावादका उपयोग करें ? और वह समन्वय इस प्रकार से कर लिया जावे तो क्या कोई जैनसिद्धान्त से विरोध आवेगा ? -
कल्पवासी देवों और भवनत्रिक देवों में जो उच्चगोत्रका उदय बतलाया है वह उनके शक्तिशाली पनेकी अपेक्षा व विशिष्ट पुण्योदपको अपेक्षा से है और वह भी केवल मनुष्यों के माननेके लिये है अर्थात् मनुष्य ऐसा मानें कि देव हमसे ऊँचे हैं, ऐसा मानना चाहिये । और इसी प्रकार तियंचों में जो नीच गोत्रका उदय बतलाया है वह उनके पशुपने व विशिष्ट प पोदयकी अपेक्षा है, और वह भी केवल मनुष्यों के माननेकी अपेक्षाले है अर्थात् मनुष्य ऐसा मानें कि तिर्यंच हमसे नीचे हैं, ऐसा मानना चाहिये। इसी तरह नारकियों में भी जो नीच गोत्रका उदय बतलाया है वह भी उनके
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
श्रनेकान्त
अत्यन्त पापोदयकी अपेक्षा से है और केवल मनुष्यों के माननेकी वस्तु है, मनुष्य यह अनुभव करें कि नारकी हमसे नीचे हैं ऐसा मानना चाहिये ।
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
त्रिक देव भी यथाशक्ति धर्म-साधन करते हैं तथा सम्यक्त भी ग्रहण कर लेते हैं। यह सब उनके धर्माचरण ही हैं और इसलिये उनमें उच्च गोत्र भो होना ही चाहिये ।
जैनशास्त्रों में पद पद पर यह कथन मिलता है कि शास्त्रों में जो भी बातें कहीं हैं जो म विवेचन किया गया है, वह निरपेक्ष न कहा जाकर किसी न किसी अपेक्षा ही कहा हुआ होता है, भने ही वहाँ उस पेक्षाका स्पष्टीकरण या प्रकटीकरण न किया गया हो । जहाँ जो बात कही गई हो उसे निरपेक्ष न समझ कर जिस अपेक्षा से कही गई हो उसी अपेक्षासे समझने पर ठीक समझी गई ऐसा कहा जा सकता है, बल्कि निर पेक्ष कही हुई व समझी हुई बात 'मिथ्या तक कह दी जाती है । जब यह बात है तब मेरी कही हुई यह बात कि विशिष्ट पुण्योदयकी अपेक्षा सारे देवों में उच्च गोत्रका उदय व विशिष्ट पापोदयको अपेक्षा तिर्यच व नारकियों में नीच गोत्रका उदय माना है, क्यों नहीं ठीक मानी जानी चाहिये ? और यदि मेरी उपर्युक्त ठीक है तो गोम्मटसार कर्मकाण्डकी १३वीं गाथा में ऊँचे व नीचे श्राचरण के आधार पर वर्णित ऊँच नीच गोत्रके स्वरूपकी संगति सारे संसार के प्राणियों पर ठीक बैठ जाती है, और यहाँ ११वीं गाथासे प्रकरण भी सारे संसारके प्राणियोंका आरहा है, इसलिये भी १३वीं गाथा में वर्णित ऊँच-नीच गोत्रका स्वरूप देव मनुष्य तियंच व नारकी रूप सारे संसार के जीवोंके लिये ही वर्णित है । और वह इस तरह पर घटित होता है---
कल्पवासी, भवनवासी, व्यंतर व ज्योतिषी देवोंके धर्माचरणों के विषय में तो पहले लिखा ही जा चुका है कि धर्माचरण उनमें पाये जाते हैं और पापाचरणों तथा उनमें ऊँचे नीचे और छोटे-बड़े भेद-प्रभेदों के विषयपूज्य वकील बाबू सूरजभानजी साहबने अपने लेखमें..
देवोंको ऊँच गोत्र वाले मानना और तियंचों व नारकियोंको नीच गोत्र वाले मानना मनुष्योंके मानने की वस्तु इसलिये है कि देवोंको अपने ऊँचे व अपनेको देवोंसे नीचे तथा तियंचों, नारकियोंको अपनेसे नीचे व अपनेको तियंच नारकियोंसे ऊँचे माननेसे जो तज्जन्य रसानुभव होता है वह मनुष्योंको ही होता है; क्योंकि मनुष्य ही ऐसा मानते हैं । और इसलिये भी उपर्युक्त प्रकारका मानना मनुष्यों के माननेकी वस्तु है । मनुष्यों द्वारा जो देव ऊँचे व तिच नारकी नीचे माने जाते हैं उसका रसानुभव देव तिर्यंच नारकियों को कुछ भी नहीं होता ।
सर्व प्रकार के देव व भोग भूमियाँ जाव अणुमात्र भी चारित्र धारण नहीं कर सकते, इसका भाव यह मानना चाहिये कि वे संप्राप्त भोगोंका त्याग करके और जो कुछ भी चारित्र धर्माचरण पालने के अभ्यासी हैं उससे बढ़ नहीं सकते अणुमात्र चारित्र धारण नहीं कर सकनेसे यह प्रयोजन न समझना चाहिये कि उनमें चारित्रका, धर्माचरणों का अभाव हो है । भोगभूमियां जीव अत्यन्त मंद कषाय होते हैं और इसलिये देव ही उत्पन्न होते हैं तथा वे सम्यक्त भी ग्रहण करते हैं, धर्म चर्चादि भी करते हैं और इसी तरह सर्वार्थसिद्धि श्रादि अनुत्तर विमानोंके देव एक भवावतारी व दो भवावतारी होते हैं तथा सदैव धर्म चर्चा व पूजा प्रभावनादि धर्माचरण किया करते तथा पंचम स्वर्गके देव ब्रह्मचारी देव ऋषि होते हैं। सौधर्मादि स्वर्गोंके देव भी भगवान्के - कल्याणकादिमें व समवसरणादिमें श्राते हैं तथा पूजा प्रभावनाधर्म चर्चादि किया करते हैं । इसी तरह भवन
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २]
ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
भले प्रकार वर्णन कर ही दिया है कि पापाचरण भी उनमें चरण भी इन पशु पक्षियोंके सबको विदित ही हैं । पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त यह आचरण मेरा उनके उदाहरण लिखनेकी यहाँ आवश्यकता नहीं । ऊँचा है और यह आचरण मेरा जघन्य है (जैसे स्वर्गके अपनी ऊँचता नीचताका व धर्माचरण पापाचरणके किन्हीं देवोंने आठवे नारायण लक्ष्मणजीसे कहा कि रसका इन पशु पक्षियोंको भी अनुभव होता है इसलिये तुम्हारे भ्राता रामचन्द्रजी मर गये हैं, यह सुनकर उच्चाचरण नीचाचरणके आधार पर इन सम्पूर्ण लक्ष्मणजी तत्काल मरणको प्राप्त हो गये) तथा अमुक- तियंचोंमें भी ऊँच गोत्रका उदय व नीच गोत्रका उदय देव मुझसे नीचा है तथा इन्द्रादिक देवोंसे मैं नीचा हूँ क्यों न मानना चाहिये।
और अमुक देषोंसे मैं ऊँचा हूँ तथा अमुकदेव मुझसे .. इसी प्रकार नारकियोंकी नीचता व उनके दुष्टाऊँचे हैं इस प्रकारके विचार उमके होते हैं और तजन्य चरण तो सब पर विदित ही हैं, परन्तु उनमें ऊँचता व ऊँचता-नीचताका रसानुभव भी होता है, इसलिये सदाचरण भी पाये जाते हैं । सातवें नरकके मारकियोंसे धर्माचरणों व पापाचरणोंकी अपेक्षा देवों में भी ऊँच उपरके मारकी पहले नरक सक उत्तरोत्तर ऊँगे तथा गोत्र व नीचगोत्रका उदय क्यों न मानना चाहिये ? कम पाप भोगी और कम आयु वाले हैं जैसा कि पूज्य
. तिथंचोंमें भी वनस्पतियों और पशुओंकी ऊँचता बाबू साहबने भी लिखा है तथा उनमें सम्यग्दृष्टि भी तथा व्रताचरणका कथन तो पूज्य बाबू साहबने अपने होते हैं और मुनि केवली यहाँ तक कि तीर्थकर तक लेखमें स्पष्ट कर ही दिया है, मीची जातिके बंबूल होने वाले शुभ भारमा भी उनमें पाये जाते हैं। उन्हें थूहर भादि काँटेदार व निव श्राफ भादि कड़ए पेड़ अपनी ऊँच नीचता व दुराचरण-धर्माचरणका रसानुभव और सूअर, स्याल, सांप, बिच्छू आदि पशु सहनों भी बहुत ही अधिक होता है, इसलिये उच्चाचरण प्रकारके पाये जाते हैं और पक्षी भी इंस, सारस, तोता, नीचाचरणके आधार पर नारकियोंमें उच्चगोत्र तथा मैमा भादि ऊँची जातिके व काक गृद्ध आदि नीची नीचगोत्र क्यों म मानमा चाहिये ? जातिके सहस्रों प्रकारके हैं। वनस्पतियोंके धर्माचरण- भय रहे मनुष्य, जिनकी ऊँच नीचताका वर्णन पापाचरण तो भगवान् केवली गम्य हैं परन्तु ये भी बाबू साहवने लेखमें अच्छा किया है, बल्कि नीचताका जीव हैं, अतः इनमें भी दोनों प्रकार के भाव होंगे वर्णन तो बहुतही विशेष रूपसे लिखा गया है, फिर अवश्य । जब इममें रति प्रादि २३ कषायें बतलाई है भी उनको, नीचगोत्री भी मनुष्य होते हैं ऐसा बतला तब इनमें दोनों प्राचरण हैं, रति कषायका कार्य प्रेम कर केवल उच्चगोत्री ही बतलाया है। मनुष्य अपने करना है और यही इनका सदाचरण हैं शेष कषायोंका उच्चाचरणोंसे मोक्ष तक प्राप्त कर लेता है अतः उच्च कार्य असदाचरण है इनको अपने सदाचरण असदा- गोत्री तो है ही, परन्तु अपने दुराचारोंसे सातवां नरक चरण जन्य ऊँच नीचताका रसानुभव भी होता है। भी प्राप्त कर लेता है. इसलिये उसे नीच गोत्री भी पशु पक्षियोंके धर्माचरण विषयमें जिनागममें स्पष्ट होना चाहिये । गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा २१८ से वर्णन है ही कि ये लोग पंचम गुणस्थामी होकर देश ३०१ तक मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय बतलाया भी चारित्र धारण करके श्रावक तक हो सकते हैं। पापा है। वे गाथाएँ निम्न लिखित हैं:
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
अनेकान्त
मणुवे ओघ थावर तिरियादावदुगएयवियलिंदी | साहरणदरा उतिथं वेगुव्वियछक्क परिहीणो ||२८||
अर्थात् सब मनुष्यों में उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में स्थावर, तिथंच गति, श्रातप श्रादि २० प्रकृतियाँ कम करनेसे १०२ का उदय है। इनमें नीचगोत्र कम नहीं किया, अतः मनुष्योंमें नीचगोत्रका उदय है । मिच्छमपण्णं छेदो अणमिस्स मिच्छुगादितिसु अयदे विदियकसारण दुब्भगऽणादेज्जज्जय || २९९
अर्थात – उन मनुष्यों में मिथ्यात्वादि तीन गुणस्थानियोंके मिथ्यास्व, अपर्याप्त, अनंतानुबंधीकी ४ चौकड़ी आदि प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति होती है। तीसरे गुणस्थान तक नीचगोत्रकी उदय व्युच्छित्ति नहीं हुई, अतः उसका उदय है ।
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
अपने लेख में उसे किस प्रकार अस्वीकार किया, यह बात समझानी चाहिये अथवा मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय स्वीकार करना चाहिये । श्रनुभवमें तो नीच व उच्च दोनों गोत्रों के भाव एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्री देव मनुष्य नारकी व तिर्यच तक सब जीवोंके अपने प्रत्येक सदा चरण व दुराचरणके साथ साथ प्रति समय प्राते रहते हैं और गोम्मटसारकी १३ वीं गाथा के अनुसार सारे संसारके जीवोंपर नीच व ऊँच दोनों गोत्र जीवों के सदाचरण व दुराचरणके आधार पर घटित भी होते हैं । तथा नीचगोत्र से ऊंचगोत्रका और ऊँचगोत्रसे नीचगोत्रका अपने सदाचरणोंसे व दुराचरणोंसे संक्रमण भी होजाता है, ऐसा मैंने कभी जैनमित्रमें पढ़ा है। इसलिये मान, प्रतिष्ठा, राज्य, लक्ष्मी आदिके कारण किसी दुराचारीको जन्म भरके लिये उच्चगोत्री और दरिद्रता, नीची श्राजीविका शादिके कारण किसी सदाचारी धर्मात्माको जन्म भरके लिये नीचगोत्री मान बैठना सरासर अन्याय व पाप बंधका कारण जान पड़ता है।
देस तदियकसाया णीचं एमेव मरणुमसामरणं । पज्जत्ते वय इत्थी वेदाऽवज्जतिपरिहरणो ||३००|| . अर्थात् - पाँचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानी चौकड़ी व etariant उदय व्युच्छित्ति होती है और पर्याप्त मनुयों में पहली १०२ में स्त्री वेद व अपर्याप्त कम करने से २०० का उदय है । इस प्रकार पंचम गुणस्थान में नीच गोत्रकी व्युच्छित्ति हुई है, अतः यहां तक पर्याप्त मनुष्य के नीचगोत्रका उदय पाया जाता है ।
मिथिसहिदा तित्थयराहारपुरिससंदूर पुणिदरेव पुणे सगाणुगदिश्राउगं यं ||३०१
अर्थात् - १०० प्रकृतियों में स्त्री वेद मिलाकर उदययोग्य प्रकृतियोंमेंसे तीर्थंकर, श्राहारक युगल, पुरुष वेद, नपुंसक वेद ये पांच प्रकृतियां कम करने मे ६६ का उदय मनुष्य के हैं। यहां भी नीचगोत्र कम नहीं हुआ, अतः पर्याप्त स्त्रीके नीचगोत्रका उदय वर्तमान है ।
इस तरह पर जब मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय सिद्धान्त में बतलाया गया है, तब पूज्य बाबू साहबने
आगे पूज्य बाबू साहबने सभी मनुष्यको उच गोत्री बतलाते हुए लिखा है कि:-गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा १८ में साफतौर से बतलाया है कि नीच ऊँच गोत्र भवोंके अर्थात् गतियोंके आश्रित है और जिससे यह ध्वनित किया है कि नरक-भव तिर्यच भवके सब जीव नीचगोत्री और देवभव व मनुष्यभव वाले सब उच्चगोत्री हैं । उस गाथाका वह अंश इस प्रकार है:
भव सस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं ॥
इस गाथा वाक्यका तो 'नीच ऊँचगोत्र गतियोंके श्राश्रित है' यह अर्थ नहीं लिखा है बल्कि यह अर्थ लिखा है कि 'नीचता व ऊँचता भवके श्राश्रित है। "इदि गोद " ये शब्द गाथा के तीसरे चरण के न होकर चौथे चरण के हैं, अतः “भवमस्सिय गोचुचं" इस पदके भावसे
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २]
ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
१७१
इदि गोदं" का भाव पृथक् है । “भवमस्सिय णी- नहीं है कि बिना आर्योंका आचार पालन किये या चुच्चं" पदसे नरक तियंचभवके सब जीव नीच व देव बिना सकल संयमी हुए भी वे आर्य और उच्च गोत्री हैं, मनुष्य सब ऊंचगोत्री हैं यह भाव ध्वनित नहीं होता, बल्कि उसमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि वे मातृपक्षकी बल्कि यह ध्वनित होता है कि नीचता व उच्चता प्रत्येक अपेक्षा म्लेच्छ अर्थात् नीच गोत्री ही हैं। हाँ, वे भवके आश्रित है अर्थात् सारे संसारके जो चार प्रकारके आर्योका आचार पालन करनेसे या पालन करते रहनेसे देव, मनुष्य नारकी, तिथंच जीव हैं उनके प्रत्येक भवमें मीच गोत्री (म्लेच्छ) से उच्च गोत्रो हो सकते हैं। नीचता व ऊँचता होती है, अतः उन सभीके नीच व आगे लिखा है कि 'कुभोगभूमियां (मनुष्य) पशु ऊंच दोनों गोत्रोंका उदय है । प्रत्येक भव में नीचता व ही है इन्हें किसी कारणसे मनुष्य गिन लिया है, परन्तु ऊंचता होनेसे यह प्रयोजन है कि प्रत्येक जीव अग्ने इनको प्राकृति-प्रवृत्ति, और लोकपूजित कुलोंमें जन्म न दुराचरण व सदाचरणसे नीच व ऊँच कहलाता है। होनेसे इन्हें मीच गोत्री ही समझना चाहिये ।' परन्तु ___ आगे लिखा है कि गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा सारा शरीर मनुष्यका और मुख केवल पशुका होनेसे २८५ में मनुष्यगति और देवगतिमें उच्च गोत्रका उदय ही वे सर्वथा पशु नहीं कहला सकते, उन्हें शास्त्र में बतलाया है, यह तो ठीक है परन्तु “उच्चदओ रणर- मुखाकृति भिन्न होनेसे ही कुमानुष और म्लेच्छ कहा देवे” इस पदसे मनुष्यों में नीच गोत्रका उदय सर्वथा है, वे मंदकषाय होते हैं मर कर देव ही होते हैं, मंदहै ही नहीं ऐसा प्रमाणित नहीं होता।
कषाय होनेसे सदाचरणीही कहे जायेंगे और सदाचरणी __ श्रागे लिखा है कि म्लेच्छखण्डके सभी ग्लेच्छ होनेसे उच्च गोत्री ही कह लावेंगे और हैं । उनकी प्रवृत्ति सकल संयम ग्रहण कर सकते हैं इसलिये वे उच्चगोत्री हैं, मंदकषाय रूप होनेसे उच्च ही है। लोक पृजित कुल परन्तु म्लेच्छ लोग जब आर्यखण्डमें श्राकर आर्योका और अजित कुल कर्म भूमिमें ही होता है, वहाँ श्राचार पालन करेंगे व सकलसंयम ग्रहण कर लेंगे कुभोग भूमि है, वहां सब समान हैं, लोक पूजित व तब वे उच्च गोत्री हो जावेंगे, 8 इससे पहले वे ओच्छ- अपूजितका भाव वहां नहीं है । लोकपूजित कुलमें खण्ड में रहें व आर्यखण्डमें आकर रहें, बिना पार्योंका जन्म होनेसे उच्च गोत्री व अपूजित कुलमें जन्म होनेसे प्राचार पालन किये उच्च गोत्री न होकर नीच गोत्री नीच गोत्री कर्मभूमिमें ही माना जाता है । कुभोग ही हैं । श्री जयधवल और श्री लब्धिसारका जो भूमि या भोगभुमिमें नहीं माना जाता । बल्कि भोग प्रमाण दिया है उसपे इतना ही सिद्ध है कि म्लेच्छ भूमियां उच्चगोत्री ही होते हैं जिनको पूज्य बाबू साहब लोग सकल संयमको योग्यता रखते हैं, वे सकल संयमके ने भी अपने लेखमें स्वीकार किया हैं। वे नीच गोत्री पात्र हैं, उनके संयम प्राप्तिका विरोध नहीं है, उनमें नहीं होते । और गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा संयमोपलब्धिकी संभावना है। उस प्रमाणसे यह सिद्ध नं० ३०२ "मणुसोयं वा भोगे दुव्भगच उणी च
___यदि सकल संयम ग्रहण करने के बाद उच्चगोवी संढीणतियं" आदिमें भी भोगभूमियाँ मनुष्योंमें होंगे तो यह कहना पड़ेगा कि नीच गोत्री मनुष्य भी उच्च गोत्रका उदय बतलाया है। उन कुमानुष लोगों मुनि हो सकते हैं।
–सम्पादक में व्यभिचार नहीं, एक दूसरेकी स्त्री व कामकी वस्तुएँ
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
श्रनेकान्त
व भोग सामग्री के पदार्थ वे हरण नहीं करते । उनमें कोई दुराचार नहीं, मंदकषाय रूप सदाचार है। फिर उन्हें नीच गोत्री कैसे समझा जावे ?
आगे लिखा है कि अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ मनुष्यों में शामिल करने से ही मनुष्यों में ऊँच नीच गोत्रकी कल्पना हुई है । अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ मनुष्यों में शामिल करनेसे ही मनुष्यों में ऊँच नीचगोत्रकी सृष्टि नहीं हुई, बल्कि ऊँच नीचताके भाव अनादिकालीन हैं और वे मनुष्यों में ही नहीं प्राणीमात्रमें पाये जाते हैं और उन्हींके कारण अर्थात् जीवोंके सद्व्यवहार ( धर्मा - चरण) व कुत्सित व्यवहार ( पापाचरण) के कारणही मनुष्यों में क्या सारे नीवोंमें ऊँच नीच गोत्रता भाई है, वह बलात्कार किसीकी लाई हुई नहीं है। और न अन्तरद्वीपजों म्लेच्छ मनुष्य नीचगोत्री ही हैं बल्कि वे तो कर्मभूमि भी नहीं है । (क) भोग भूमिज है। शास्त्रोंमें उनके ऊँच गोत्रका उदय बतलाया है । उनको
समस्त अन्तरद्वीपजोंके उच्चगोत्रका उदय कौनसे दि० जैनशास्त्रों में बतलाया है उनके नामादिकको यहाँ प्रकट करना चाहिये था। मुझे तो जहाँतक मालूम है किसी भी दिगम्बर शास्त्रमें इस विषयका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । प्रत्युत इसके श्रीविद्यानन्दाचार्यने श्रन्तरद्वीपजोंके दो भेद किये है — एक भोगभूमि समप्रराधि और दूसरा कर्मभूमि समप्रणधि । भोगभूमि समप्रणधि अन्तरद्वीप भोगभूमियां के समान होनेसे किसी तरह पर उच्चगोत्री हो सकते हैं; परन्तु कर्मभूमि समप्रराधि ग्रन्तद्वी भोगभूमिया नहीं हो सकते – उनकी ग्रायु, शरीरकी ऊँचाई और वृत्ति (प्रवृत्ति अथवा श्रा जीविका ) भोग भूमियों के समान न होकर कर्मभूमियोंके समान होती है; और इसलिये उनके लिये उच्चगोत्रका नियम किसी तरह भी नहीं बन सकता । वे प्रायः नीच गोत्री होते हैं;
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
म्लेच्छ केवल उनकी पशु-मुखाकृति की अपेक्षा कह दिया गया है, श्राचरणकी अपेक्षा वे उच्च गोत्री व सदाचारी हैं । श्रन्तरद्वीपजोंको नीच गोत्री व सर्वथा पशु मानना केवल पूज्य बाबू सूरजभानजी साहबही की मान्यता हो सकती है, बहुमत तो जहाँ तक मैं समझता हूँ ऐसी मान्यता वाला नहीं होगा ।
आगे लिखा है कि अफरीका के पतित मनुष्य अपने असभ्य व कुत्सिन व्यवहारोंको छोड़कर सभ्य बनने लग गये हैं। जब पूज्य बाबू साहबने अपने लेख में अफरीका के मनुष्यों को पतित अर्थात् नीचगोत्री मान लिया और यह भी मान लिया कि वे अपने कुत्सित व्यवहारों एवं पापाचरणोंको छोड़कर सभ्य बन गये हैं। र्थात् अपने नीचगोत्र जभ्य कुत्सित व्यवहारों-दुराचरणों को छोड़कर नीचगोत्री से सभ्य एवं उच्चगोत्री बन गये हैं, तब कोई मनुष्य नीचगोत्री नहीं है ऐसा मानने व लिखनेका क्या अर्थ है वह मेरी कुछ समझ में नहीं आया। बड़ी ही कृपा हो यदि वे उसे समुचित रूपसे समझानेका यत्र करें ।
इसके बाद श्रीविद्यानन्दस्वामीके मतका उल्लेख करते हुए पूज्य बाबू साहब ने लिखा है कि 'आर्यके उच्चगोत्रका उदय ज़रूर है और म्लेच्छके नीचगोत्रका उदय श्रवश्य । परन्तु श्रार्य होनेके लिये उच्चगोत्रके साथ 'आदि' शब्दमे दूसरे कारण भी श्रीविद्यानन्दने ज़रूरी बतलाये हैं. और वे दूसरे कारण हैं श्रहिंसा सत्य - शील-संयमादि व्रताचरण अर्थात् उनके इसका विवेचन मैंने 'अन्तर द्वीपज मनुष्य' नामके उस लेखमें किया है, जो गत वर्ष के 'अनेकान्त' की ६ ठी किरण में प्रकाशित हुआ है । मालूम होता है लेखक महोदयका ध्यान उस पर नहीं गया है, उसे देखना चाहिये ।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
पूर्णरूप वाले धर्माचरण व उनके अनुरूपधारी सदाचरण शब्द क्या उसकी सदोषताको दूर नहीं कर सकेगा। व सद्व्यवहार । अहिंसा सत्य-शील-संयमादि सद्व्यवहारों यदि उसमें सदोषता है तो 'उच्च र्गोत्रोदयादेरार्याः' के बिना आर्य मनुष्यके उच्चगोत्रका उदय नहीं है बल्कि इसका अर्थ, उच्च गोत्रोदयको आदि देकर अहिंसा नीचगोत्रका उदय है । इसी तरहसे म्लेच्छ मनुष्य होनेके सत्य शील संयमादि आचरणवाले प्रार्य हैं ऐसा करने लिये नीचगोत्रके उदयके साथ 'पादि' शब्दसे दूसरे पर तथा "नीचैर्गोत्रोदयादेश्च म्लेच्छाः", इसका कारण भी आवश्यक बतलाये हैं और वे दूसरे कारण अर्थ नीचगोत्रोदयको आदि लेकर हिंसा झूठ चोरीहैं, हिंसा-चोरी झूठ व्यभिचार प्रादि पापाचरण । हिंसा कुशीलादि पाचरणधारी म्लेच्छ हैं ऐसा करने पर क्या झुठ चोरी कुशील श्रादि पापाचरणोंके बिना म्लेच्छ फिर भी उक्त स्वरूप कथनमें सदोषता प्रतीत होगी? मनुष्यों के नीचगोत्रका उदय नहीं है, बल्कि अहिंसा मेरी अल्प बुद्धिमें उपर्युक्त विद्यानन्दस्वामीके स्वरूप सत्य शील संयमादिके पालनेके कारण उसके उच्चगोत्र कथनकी सदोषता समझमें नहीं पाई ।। का उदय है ।
आगे श्री अमृतचन्द्राचार्यका तत्वार्थसारका श्लोक आगे श्री विद्यानन्द स्वामीके इस आर्य म्लेच्छ लिखकर उसका अर्थ लिखा है कि "जो मनुष्य आर्यविषयक स्वरूप कथनको श्रीयुत पूज्य संपादकजी साहब खंडमें पैदा होवें सब आर्य हैं जो म्लेच्छ खंडोंमें उत्पन्न ने सदोष बतलाया है जिसे बादको पं० कैलाशचन्द्रजी 'श्रादि' शब्दका उक्त वाच्य मान लेने पर भी शास्त्रीने भी अपने लेखमें (किरण ३ पृ० २०७ ) सदोष लक्षणोंकी सदोषता दूर नहीं हो सकेगी; क्योंकि तब स्वीकार किया है । परन्तु उसमें आया हुआ 'आदि' जिन्हें क्षेत्रार्य, जात्यार्य तथा कार्य कहा जायगा रन
ॐ आर्य और म्लेच्छ के लक्षणोंमें पड़े हुए 'श्रादि' सबमें उच्चगोत्रका उदय और अहिंसादिकका व्यवहार शब्दका जो वाच्य अहिंठा-सत्य-शील-संयमादि तथा बतलाना पड़ेगा और वह बतलाया नहीं जासकेगाहिंसा-झूठ-व्यभिचारादिक लेखक महाशयने प्रकट किया आर्यखण्ड के सब मनुष्याको क्षेत्रार्य होने के कारण उच्च
न्लेख विद्यानन्दस्वामीने कहाँ किया ? गोत्री कहना होगा, मावद्य कर्म आर्योको इधर कार्यकी लोकवार्तिक में तो वह कहीं उपलब्ध होता नहीं । और दृष्टिसे यदि ार्य कहना होगा तो उधर हिंसादिक न यही कहीं उपलब्ध होता है कि अहिंसादिक व्यवहारोंके व्यवहारों के कारण 'म्लेच्छ' भी कहना होगा, यह विरोध बिना उच्चगोत्रका और हिंसादिक व्यवहारोंके बिना नीच ग्राएगा। साथ ही. प्रत्येक आर्यके लिये जब अहिंसा गोत्रका उदय नहीं बन सकता । लक्षणों में 'आदि' शब्दके दिक व्रतोंका अनुष्ठान अनिवार्य होगा तब आर्यखण्डका द्वारा जिन दूसरे प्रायः अप्रधान कारणोंका समावेश कोई भी अविरत सम्यग्दृष्टि आर्य नहीं कहला सकेगा किया गया है वे तो 'गोत्रोदय' से भिन्न हैं तब गोत्रका और चारित्रार्य तथा दर्शनार्यके भेद भी निरर्थक हो उदय उनपर अवलम्बित-उनके बिना न हो सकने जायेंगे. जिन्हें विद्यानन्दने आर्योंके भेदोंमें परिगणित वाला-कैसे कहा जा सकता है ? इसलिये यह विचार किया है । इस तरह बहुत कुछ विरोध उपस्थित होगा श्लोकवार्तिककी दृष्टिसे कुछ ठीक मालूम नहीं होता। तथा आर्य-म्लेच्छकी समस्या और भी अधिक जटिल -सम्पादक हो जायगी।
-सम्पादक
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
अनेकान्त
होनेवाले शकादिक हैं वे सब म्लेच्छ हैं और जो अन्तरद्वीपों में उत्पन्न होते हैं वे भी सब म्लेच्छ ही हैं।" वह श्लोक यह है
--
आर्य खंडोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचित् शकादयः । म्लेच्छखंडोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥
इस श्लोकका उपर्युक्त अर्थ मुझे रुचिकर नहीं लगा, यदि इसका यह अर्थ किया जाय कि 'श्रार्यखंडमें उत्पन्न होनेवाले श्रार्य हैं तथा श्रार्यखंडमें ही उत्पन्न होनेवाले कितने एक शकादिक म्लेच्छ भी हैं, और म्लेच्छ खंडोंमें उत्पन्न होनेवाले म्लेच्छ हैं तथा अन्तरद्वीपज भी म्लेच्छ हैं,' तो क्या हानि है ?
आगे लिखा है कि श्री विद्यानन्द श्राचार्यने यवनादिकको म्लेच्छखंडोद्भव म्लेच्छ माना है । परन्तु श्लोकोंसे तो ऐसा प्रतीत नहीं होता, श्री श्रमृतचंद्रा चार्यने भी शकादिकों को श्रार्यखंडोद्भव म्लेच्छ ही माना है और श्री विद्यानन्दाचार्यने भी "कर्मभूमिभवाम्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः” श्लोकसे यवनादिकों को कर्मभूमि (खंड) में होने वाले म्लेच्छ माना है ।
[ मार्गशीर्ष, वीर- निर्वाण सं० २४६६
तथा जानी हुई सारी दुनियाको पूज्य बाबू साहबने अपने लेख में आर्यखंड ही स्वीकार किया है। फिर शकादि या यवनादिकोंको म्लेच्छ्रखंडोद्भव म्लेच्छ माननेका क्या प्रयोजन है सो समझमें नहीं आया कृपया समझाना चाहिये ।
* इसमें कोई हानि नहीं, बल्कि ऐसा ही अर्थ समुचित प्रतीत होता है । चुनांचे द्वितीय वर्ष के 'अनेकान्त' की ५ वीं किरण में पृ० २७६ पर मैंने ऐसा ही अर्थ करके उसका यथे स्पष्टीकरण किया है और साथ ही पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीकी इस मान्यताका खण्डन भी किया है कि 'खण्डोद्भव कोई म्लेच्छ होते ही नहीं; शकादिकको किसी भी आचार्यने आर्यखण्ड में उत्पन्न होने वाले नहीं लिखा, विद्यानन्दाचार्यने भी यवनादिकको 'म्लेच्छ्रखण्डोद्भव' म्लेच्छ बतलाया है ।' सम्पादक
'कर्मभूमि' का अर्थ यदि श्रार्यखण्ड ही किया जायगा तो म्लेच्छखण्डों के अधिवासी छूट जायँगे -
वे म्लेच्छ नहीं रहेंगे; क्योंकि विद्यानन्दाचार्यने कर्मभमिज और अन्तरद्वीप के अतिरिक्त म्लेच्छों का कोई तीसरा भेद नहीं किया है। श्रार्यखण्ड और म्लेच्छखण्ड दोनों ही कर्मभूमि होने से 'कर्मभूमिज' म्लेच्छों में दोनों खण्डोके म्लेच्छों का समावेश हो जाता है । 'यवनादयः' पदमें प्रयुक्त हुआ 'आदि' शब्द यवनों के अतिरिक्त दोनों खण्डों के शेष सब म्लेच्छों का संग्राहक है । अतः 'कर्मभूमि' का यहाँ मात्र 'श्रार्यखण्ड' अर्थ करना ठीक नहीं है । -सम्पादक वर्तमान शास्त्रीय पैमाइश के अनुसार जानी हुई दुनिया 'आर्यखण्ड' के अन्तर्गत हो जाती है, इसमें तो विवादके लिये स्थान नहीं है । अब रही शक यवनादिको विद्यानन्दके मतानुसार म्लेच्छखण्डोद्भव तच्छ बतलाने अथवा माननेकी बात, वह 'युवनादयः' पदके वाच्यको पूर्णरूप में अनुभव न करने आदिकी किसी ग़लतीका परिणाम जान पड़ता है । विद्यानन्दाचार्य ने म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छों का कोई अलग उल्लेख नहीं किया है, इसलिये 'वनादयः पदमें उन्हींका आशय समझ लिया गया है । इसी ग़लती के आधार पर तत्त्वार्थसार के उक्त लोकका अर्थ कुछ ग़लत हुआ जान पड़ता है। वैमार्थ करके ही श्रीमान् बाबू सूरजभानजीने अपने लेख में विद्यानन्दाचार्य और अमृतचन्द्राचार्य कथनका एक वाक्यता घोषित की है, जो दूसरा अर्थ करने पर और भी अच्छी तरहसे घोषित होती है । -सम्पादक
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
आगे लिखा है कि "सारी पृथिवी पर रहनेवाले अपेक्षा 'आर्य' कहा है और म्लेच्छोंको म्लेच्छ खंडमें सभी मनुष्य आर्य होनेसे उच्चगोत्री भी ज़रूर है ।" उत्पन्न होनेकी अपेक्षा तथा वहां धार्मिक प्रवृत्तियां प्रार्य होने मात्रसे कोई उच्चगोत्री नहीं हो सकता असंभव होनेकी अपेक्षा 'म्लेच्छ' कहा है।। जब सारी आर्य होने के साथ साथ शोल संयमादि धर्माचरण भी जानी हुई दुनियां आर्य खंड है तब कार्यों को स्वेच्छ हों तभी उच्चगोत्री हो सकता है जैसा कि आचार्य श्री. खंडके म्लेच्छ क्योंकर बतलाया ? महायोजनके हिसाबविद्यानन्द स्वामीने लिखा है ® । उपर्युक्त पार्यता केवल से आर्य खंड ही बहुत बड़ा है, फिर म्लेच्छ खंड कितनी आर्यभूमिमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा है।
दूर और कहां होंगे। यदि जानी हुई सारी दुनियां आगे लिखा है कि "ये कर्मार्य म्लेच्छखंडोंमें आर्य खंड है तो जर्मन जापान रूस फांस इंगलैंड आदि रहने वाले म्लेच्छही हो सकते हैं।" कर्म आर्य म्लेच्छ देशों में वर्ण व्यवस्था क्यों नहीं ? अथवा जर्मन जापान खंडके रहने वाले म्लेच्छ कैसे हो जायेंगे ? फिर उन इटली आदि ही म्लेच्छ खंड हैं, और केवल भारतवर्ष खंडोंको म्लेच्छ खंड ही क्यों कहा ? कार्योंके रहनेसे आर्य खंड ? कृपाकर बतलाइयेगा। वह भी आर्य खंड ही कहा जाना चाहिये था । अतः अन्तमें यशस्तिलक, चम्पू, पनचरित, रत्नकरण्ड, जितने भी ये भेद अभेद आर्योंके हैं वे सब आर्य खंडके धर्म-परीक्षा, धर्मरसिक आदि ग्रन्थोंके जो भी श्लोक रहने वाले पार्योंके ही हैं। म्लेच्छ खंडके रहने वाले इस लेखमें उद्धृत किये हैं उनसे तो भले प्रकार यह म्लेच्छ ही हैं वे श्रार्य नहीं हो सकते । आर्योको आर्य बात प्रमाणित हो जाती कि अपने धर्माचरणोंसे मनुष्य खंडमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा और यहां धार्मिक प्रवृत्तियां ऊँच गोत्री है और पापाचरणोंसे नीच गोत्री है अर्थात् सम्भव होने की अपेक्षा तथा धर्माचरण पालन करनेकी अपने धर्माचरणोंसे चांडाल भी ऊँच गोत्री (ब्राह्मण) है
ॐ विद्यानन्द स्वामीने ऐसा कहाँ लिखा है उसे और अपने पापाचरणोंसे ब्राह्मण भी नीच गोत्री है, स्पष्ट रूपमें बतलाना चाहिये था। उनके "उच्चैत्रिो- इस बातमें अब कोई भी सन्देह शेष नहीं रहता है। दयादेरार्याः' इस आर्यलक्षणसे तो जिसे 'आर्य' कहा इस तरह पर इस लेख में अपने अच्छे बुरे आचरणजायगा उसके उच्चगोत्रका उदय जरूर मानना पड़ेगा- के आधार पर ही जीवोंमें अथवा मनुष्यों में ऊँचता भले ही वह किसी भी प्रकारका प्रार्य क्यों न हो। अथवा ऊँच गोत्र तथा नीचता व नीच गोत्र है इस यदि क्षेत्रार्य श्रादि आर्यभेदोंम उक्त लक्षण संघटित प्रकारकी प्रश्नात्मक चर्चा करके लेखको समाप्त किया नहीं होता है तो उसे अव्याप्ति दोबसे दूषित सदोष लक्षण । यदि इन अपेक्षा प्रोसे ही आर्य और म्लेच्छका कहना चाहिये। ऐसे ही कारणोंके वशवर्ती उक्त कथन हो अथवा माना जाय तो फिर आर्य उच्चगोत्रका लक्षण के सदोष होनकी कल्पनाकी गई है। और इस- उदय और म्लेच्छ के लिये नीच गोत्रका उदय अप्रयोजलिये “उपर्युक्त आर्यता केवल आर्यभूमियोंमें उत्पन्न नीय हो जाता है अथवा लाजिमी नहीं रहता, जिसका होनेकी अपेक्षा है" ऐसा आगे लिखना कुछ अर्थ नहीं विद्यानन्द आचार्यने आर्य-मलेच्छके लक्षणोंमें प्रतिरखता-वह निरर्थक जान पड़ता है।
पादन किया है; और न आर्यखण्डोद्भव म्लेच्छोंको -सम्पादक म्लेच्छ ही कहा जा सकता है। -सम्पादक
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
अनेकान्त
जाता है। धर्माचरण, व्रताचरण, संयमाचरण, व्यवहार योग्य कुलाचरण, सद्व्यवहार सभ्य कुलाचरण आदि सब एक ही बात है। इन चरणों में अन्तर केवल इतना ही है कि कोई आचरण में तो धार्मिकता महारूप से है व कोई श्राचरण में गुरूपसे । इसी तरह पापाचरण असंयमाचरणा निंद्य कुलाचरण असभ्याचरण कुत्सित व्यवहार आदि भी सब एक ही बात है । इन श्राचरणों में भी अन्तर केवल इतना ही है कि कोई
|[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
आचरण में तो पाप महा रूपसे है व कोई श्राचरणमें अणुरूपसे ।
अब मैं लेखको समाप्त करके पूज्य बाबू सूरजभानजीसे प्रार्थना करता हूँ कि यदि लेखमें मुझसे कुछ अनुचित लिखा गया हो तो उसके लिये वे कृपाकर मुझ अल्पज्ञको क्षमा करें तथा मेरे ऊपर वात्सल्य भाव धारण करके किये गये प्रश्नोंका सम्यक् समाधान करके मुझे अनुगृहीत करें ।
अनुपम क्षमा
क्षमा अंतः शत्रुको जीतनेमें खड्ग है; पवित्र प्रचारकी रक्षा करनेमें बस्तर है । शुद्ध भावसे असह्य दुःखमें सम परिणामसे क्षमा रखने वाला मनुष्य भवसागर से पार हो जाता है ।
कृष्ण वासुदेवका गजसुकुमार नामका छोटा भाई महास्वरूपवान और सुकुमार था । वह केवल बारह वर्ष की वयमें भगवान् नेमिनाथके पास संसार त्यागी होकर स्मशानमें उम्र ध्यानमें अवस्थित था । उस समय उसने एक अद्भुत क्षमामय चारित्र से महासिद्धि प्राप्त की उसे मैं यहाँ कहता हूँ ।
सोमल नामके ब्राह्मणकी सुन्दर वर्ण संपन्न पुत्रीके साथ गजसुकुमारकी सगाई हुई थी । परन्तु विवाह होनेके पहले ही गजसुकुमार संसार त्याग कर चले गये । इस कारण अपनी पुत्रीके सुखके नाश होने के द्वेषसे सोमल ब्राह्मणको भयङ्कर क्रोध उत्पन्न हुआ । वह गजसुकुमारकी खोज करते-करते उस स्मशानमें श्र पहुँचा, जहाँ महामुनि गजसुकुमार एकाग्र विशुद्ध भावसे कायोत्सर्ग में लीन थे। सोमलने कोमल गजसुकुमारके सिरपर चिकनी मिट्टीकी बाड़ बनाकर इसके भीतर धधकते हुए अंगारे भरे और उसे ईंधनसे पर दिया । इस कारण गजसुकुमारको महाताप उत्पन्न हुआ । जब गजसुकुमारकी कोमलदेह जलने लगी, तब सोमल, वहाँ से चल दिया । उस समयके गजसुकुमारके असह्य दुःखका वर्णन कैसे हो सकता है । फिर भी गजसुकुमार सम्भाव परिणामसे रहे । उनके हृदय में कुछ भी क्रोध अथवा द्वेष उत्पन्न नहीं हुआ । उन्होंने अपनी आत्माको स्थिति स्थापक दशामें लाकर यह उपदेश दिया, कि देख यदि त ने इस ब्राह्मणकी पुत्री के साथ विवाह किया होता तो यह कन्या- दानमें तुझे पगड़ी देता । यह पगड़ी थोड़े दिनोंमें फट जाती और अन्त में दुःखदायक होती । किन्तु यह इसका बहुत बड़ा उपकार हुआ, कि इस पगड़ीके बदले इसने मोक्षकी पगड़ी बाँध दी। ऐसे विशुद्ध परिणामोंसे अडिग रहकर सम्भावसे असह्य वेदना सहकर गजसुकुमारने सर्वज्ञसर्वदर्शी होकर अनन्त जीवन सुखको पाया । कैसी अनुपम क्षमा और कैसा उसका सुन्दर परिणाम । तत्त्व ज्ञानियोंका कथन है कि आत्माओं को केवल अपने सद्भावमें आना चाहिये । और आत्मा अपने सद्भावमें आई कि मोक्ष हथेली में ही है ! गजसुकुमारकी प्रसिद्ध क्षमा कैसी शिक्षा देती है ।
- श्रीमद्रराजचन्द्र
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि
[ले०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद]
आगम-कालक विक्रमकी तीसरी-चौथी शताब्दिके पूर्वका श्वे. क्षिकी विद्या" नामसे तर्क-शास्त्रका पता चलता है किंतु
- जैन-न्याय-साहित्यका एक भी ग्रन्थ उपलब्ध भारतीय न्याय-शास्त्रकी मज़बूत नींव डालने वाले गौतमनहीं होता है; इसके पूर्वका काल अर्थात् विक्रमसे पांच- मुनि ही हैं । इन्होंने ही सर्वप्रथम "न्याय-सूत्र" नामक सौ वर्ष पहलेसे लगा कर उसके तीनसौ-चारसौ वर्ष ग्रंथकी रचना की। इनका काल ईसाकी प्रथम शताब्दि बाद तकका काल "श्रागम-काल" है। मूल-श्रागम माना जाता है । इसी कालसे भारतीय-प्रांगणमें तर्क
और आगमिक-विषयको स्पष्ट करने वाली नियुक्तियाँ युद्ध प्रारंभ होता है और आगे चल कर शनैः शनैः एवं चूर्णियाँ ही उस समय श्वे. जैन-साहित्यकी सीमा सभी मतानुयायी क्रमशः इसी मार्गका अवलम्बन लेते थीं। आगमों पर ही जनताका ज्ञान निर्भर था। भग- हैं। यहींसे भारतीय दर्शनोंकी विचार-प्रणाली तर्कवान् महावीर स्वामीके निर्वाण कालसे लगा कर निर्धा- प्रधान बन जाती है और उत्तरोत्तर इसीका विकास रित आगम-काल तकका निर्मित साहित्य वर्तमान में होता चला जाता है। इतना पाया जाता है:-११ अंग, १२ उपांग, ५ छेद, सर्वप्रथम यह सोचना आवश्यक है कि महषि ५ मूल, ३० पयन्ना, १२ नियुक्तियाँ, तत्त्वार्थसूत्र जैसे गौतमने इस प्रणालीकी नींव क्यों डाली १ बात यह थी ग्रंथ एवं कुछेक ग्रंथ और भी मिलते हैं । इनके कि ब्राह्मणोंने स्वार्थवश-सत्ताके बल पर वैदिक-धर्म पर अतिरिक्त इस कालमें निर्मित अभ्य श्वे० ग्रंथों का पता एकाधिपत्य जमा लिया था. एवं धार्मिक-क्रिया-कर्मोमें नहीं चलता है।
इस प्रकारकी विकृति पैदा कर दी थी कि जिससे जन. विक्रमकी पांचवीं शताब्दिसे जैन साहित्य पल्लवित साधारणका शोषण होता था और उनके दुःखोंमें वृद्धि होने लगा और ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों होती जाती थी । इसलिये जनताका झुकाव तेज़ीसे जैनविकसित और प्रौड़ होता रहा है।
धर्म और बौद्धधर्मकी अोर होने लग गया था। क्योंकि भारतीय-तर्कशास्त्रकी प्रतिष्ठा इन दोनोंकी कार्य प्रणाली समान-वाद और मध्यममार्ग भारतीय तर्कशास्त्र के अादि प्रणेता महर्षि गौतम हैं पर अवलम्बित थी। ये जातिवादका (वर्ण-व्यवस्थाका) इन्होंने ही इस शास्त्रको व्यवस्थितरूप दिया । यद्यपि और यज्ञ श्रादि निरुपयोगी क्रिया काण्डोंका निषेध उनके पूर्व भी उपनिषदों आदि प्राचीन ग्रंथों में "अान्वी- करते थे, एवं यह प्रतिपादन करते थे कि सभी मनुष्य
* इसका दृष्टिकोण श्वेताम्बर साहित्य धाराकी समान हैं, सब के हित एक हैं, प्रत्येक व्यक्ति (चाहे वह अपेक्षासे है। लेखक
स्त्री हो या पुरुष ) धर्मका अाराधन कर मुक्ति प्राप्त कर
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं० २४६६
सकता है। शास्त्र-श्रवणका भी प्रत्येकको समान अधि- तर्कोका प्रबल खण्डन किया । दिङ नागादि पश्चात्वर्ती कार है; आदि आदि । इन कारणोंसे जनता वैदिक- बौद्ध तार्किकोंने इस विषयको और भी आगे बढ़ाया धर्मकी छत्र-छायाका त्याग करके जैनधर्म और बौद्ध- और इस प्रकार इस तर्क शास्त्रीय युद्धकी गंभीर नींव धर्मकी छत्र छायाके नीचे तेजीसे आने लग गई थी। डाल कर अपने प्रतिपक्षियोंको. चिर-काल तक विवश श्रमण संस्कृति (जैन और बौद्ध संस्कृतिका सम्मिलित किया साथ ही भारतीय तर्क- शास्त्रकी भव्य इमारतका नाम) ने थोड़े ही समयमें जनताके बल पर राजा महा- कला-पूर्ण निर्माण किया। राजाओंके शासन-चक्र तकको भी अपना अनुयायी इस तर्क-युद्ध में जैनेतर तार्किक विद्वान् जैन-दर्शन बना लेनेकी शक्ति प्राप्त कर ली थी।
पर भी छींटे उछालने लगे और भगवान् महावीर स्वामी ___ इस प्रकार श्रमण-संस्कृतिके क्रियात्मक प्रभावको द्वारा प्रतिपादित धर्मका उपहास करने लगे; तब जैनदेखकर गौतम आदि वैदिक विद्वानोंने इस प्रभावका विद्वानोंको भी जैनधर्मकी रक्षा करनेकी चिन्ता सताने निराकरण करनेका विचार किया और इस प्रकार यह लगी। इन्होंने सोचा कि अब केवल "आगमों" पर विचार ही तर्क शास्त्रकी उत्पत्तिका मूल कारण हुअा। निर्भर रहनेसे ही कार्य नहीं चलेगा और न केवल
भारतीय तर्क-शास्त्रका अपर नाम न्याय-शास्त्र भी 'आगम-रक्षा' से 'जिन-शासन' की रक्षा हो सकेगी। है । इसका कारण यह है कि इस शास्त्रके आदि इसलिये जिस प्रकार बौद्ध-विद्वानोंने सम्पूर्ण बौद्धश्राचार्य महर्षि गौतम द्वारा रचित तर्क-शास्त्रके आदि साहित्यकी विवेचना और रक्षाका अाधार 'शून्यवाद' ग्रंथका नाम न्याय-सूत्र है और इसीलिये प्रत्येक दर्शनका निर्धारित किया; उसी प्रकार इन विद्वान् साधुअोंने भी तर्क-शास्त्र "न्याय-शास्त्र" के नामसे भी विख्यात हो जैन-साहित्यकी विवेचना और रक्षका अाधार 'स्याद्वादगया है; जैसे कि सांख्य न्याय, बौद्ध न्याय, जैन-न्याय सिद्धान्त' रक्खा । बौद्ध और जैन-न्याय साहित्य-रूप इत्यादि।
भवनकी अाधार शिलाका संस्थापन जिन कारणोंसे
हुआ है, उनका यह संक्षिप्त दिग्दर्शन समझना चाहिये। बौद्ध और जैन न्याय-शास्त्र
तर्क-शास्त्रकी उत्पत्ति और विकासके कारणोंको जब बौद्ध विद्वानोंको महर्षि गौतमकी इस रहस्यमय जान लेनेके बाद यह जानना आवश्यक है कि धर्म, नीतिका पता चला तो उन्होंने भी तार्किक प्रणालीका दर्शन और तर्ककी परिभाषा क्या है ? मुख्यतया क्रियाश्राश्रय लिया । बौद्ध-तार्किकोंमें सर्वप्रथम और प्रधान त्मक चारित्रका नाम धर्म है, द्रव्यानुयोग सम्बन्धी ज्ञानश्राचार्य नागार्जुन हुआ । इनका काल ईसाकी दूसरी को 'दर्शन' कहते हैं और दर्शनरूप ज्ञान के सम्बन्धमें शताब्दी है । ये महान् प्रतिभाशाली और प्रचण्ड ऊहापोह करना, भिन्न भिन्न रीतिसे विश्लेषण करना तार्किक थे । इन्होंने 'माध्यमिक-कारिका" नामक तर्कका 'तर्क' अथवा 'न्याय' है । प्रौढ़ और गंभीर ग्रंथ बनाया, एवं बौद्ध-साहित्यका मूल यद्यपि श्वे. जैन-न्याय-साहित्यका प्रारम्भ सिद्धसेन अाधार “शून्यवाद" निर्धारित किया। इसके अाधार दिवाकरके कालसे ही हुआ है। फिर भी जैन न्यायका पर वैदिक मान्यताअोंका और वैदिक-मान्यतानुकूल मूल बीज विक्रमकी प्रथम शताब्दिमें होने वाले, संस्कृत
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि
वर्ष ३, किरण २ ]
जैन वाङ्मयके श्रादि-लेखक आचार्य उमास्वाति वाचक द्वारा ग्रंथराज “तत्वार्थ-सूत्र" के प्रथम अध्यायके छठे सूत्र “प्रमाणनयैरधिगमः” में सन्निहित है । सम्पूर्ण जैन न्याय साहित्यका आलोचन किया जाय तो पता चलेगा कि उपर्युक्त सूत्रका ही सम्पूर्ण जैन न्याय - साहित्य भाष्य रूप है । अर्थात् प्रमाण और नयके आधार पर ही जैनेतर सभी दर्शनोंकी मान्यताओं की परीक्षा की गई है और जैनदर्शन सम्मत सिद्धान्तोंकी नैयायिक नींव डाली गई है।
स्याद्वाद
प्रमाण और नयका समन्वय ही 'स्याद्वाद' है । अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद, आदि शब्द इसके पर्याय वाची हैं। मूल श्रागमों में 'सिय अस्थि' 'सिय णत्थि ' श्रर 'सिय श्रवत्तन्वं' अर्थात् स्यादस्ति, स्याद् नास्ति और स्यादवक्तव्यं ( उर्फ़ उत्पाद, व्यय और श्रव्य ) ये तीन ही भाग मिलते है, अतः स्याद्वादका यही आगमोक्त रूप है । इन तीनोंकी सहायतासे ही व्यष्टि रूपसे और समष्टि रूपसे सात भाग बनते | न अधिक बन सकते हैं और न कम ही । कहा जाता है कि सर्व प्रथम ये सात भांगे प्रथम शताब्दि में होने वाले प्रसिद्ध दिग - म्वराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित 'पंचास्तिकाय ' 'प्रवचन-सार' में मिलते हैं, परन्तु चौथी शताब्दिके बाद से ही इस विषयक साहित्यका विशेष विस्तार और विकास होता है, और अन्तमें शनैः शनैः बारहवीं शताब्दि तक यह विषय विकासकी चरम कोटिको पहुँच जाता है । वौद्ध दर्शन एवं वैदिक दर्शनोंको पदार्थ विवेचन पद्धति में और जैनदर्शनकी पदार्थ विवेचन पद्धति में इस स्याद्वाद के कारणसे ही महदन्तर है । सम्पूर्ण जैन-न्यायका भवन इसी स्याद्वाद ( अनेकान्त
१७६
वाद) के ऊपर ही टिका हुआ है । कहना न होगा कि जैनदर्शनके पास दूसरे दर्शनों की मान्यताओंका प्रामाणिक रूपसे खंडन करनेके लिये यही — स्याद्वाद ही — एक अमोघ अस्त्र सिद्ध हुआ है जैन- न्यायका एक ही दृष्टिकोण है पद्धतिसे अनेकान्त-पद्धति से वस्तु स्थितिका विवेचन किया जाना ।
।
साराँश यही है कि और वह है स्याद्वाद
-
मूल, चूर्णि, निर्युक्ति, टीका आदि पंचांगी श्रगाम साहित्य में स्याद्वादका सूक्ष्म और आवश्यक विवेचन मिलता है और ज्यों ज्यों दार्शनिक संघर्षण चलता है,
त्यों स्याद्वादका स्वरूप और विवेचन गंगा के प्रवाहके समान शीतल, विशाल, विस्तृत और आल्हादक होता चला जाता हैं ।
विश्व, आत्मा, ईश्वर, प्रकृति आदि मूलभूत तत्वोंके आदि का वर्णन दार्शनिकोंने जिस प्रकार किया है, और जैसा उनका एकान्त एकांगी रूप माना है; एकान्तवादके कारण वह. पूर्ण सत्व नहीं कहा जा सकता । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अर्थात् लोकालोक रूप संसार का एकांगी स्वरूप मान लेने पर ही दार्शनिक मतभेद और धार्मिक कलहकी उत्पत्ति हुई है और होती है ।
क्लेशों को दूर करने के लिये ही 'स्याद्वाद' की उत्पत्ति और इस विषयक साहित्यका विकास हुआ है । प्रत्येक पदार्थ विभिन्न कारणोंसे और विभिन्न अपेक्षा से अनेक स्वरूप है । वहन एकान्त नित्य है और न एकान्त रूप से अनित्य ही । द्रव्य अपेक्षासे नित्य है और पर्याय अपेक्षासे अनित्य । इसी तरह से स्वद्रव्य क्षेत्र श्रादिके हिसाब से वह अस्तिरूप है और पर द्रव्य-क्षेत्र आदि के लिहाज से नास्तिरूप है । यह बात जड़ और चेतन दोनों ही प्रकार के तत्वोंके लिये समझना चाहिये । यही स्याद्वादका रहस्य है |
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं० २४६६
__जिन जैनेतर दार्शनिकोंने इसे संशयवाद या अनि- इनका संक्षिप्त भावार्थ इस प्रकार है:श्चयवाद कहा है, निश्चय ही, उन्होंने इसका गंभीर जिसके अभाव में लोकव्यवहारका चलना भी अध्ययन किये बिना ही ऐसा लिखा है। आश्चर्य तो असंभव है, उस त्रिभुवनके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्तइस बातका है कि प्रसिद्ध प्रसिद्ध सभी विभिन्न दार्शनिकों वाद' को असंख्यात बार नमस्कार है ॥१॥ ने इस सिद्धान्तका शब्द रूपसे खंडन करते हुए भी मिथ्यादर्शनोंके समूहका समन्वय करनेवाला, प्रकारांतरसे अपने अपने दार्शनिक-सिद्धान्तोंमें विरोधोंके अमृतको देनेवाला, मुमुक्षुओं द्वारा सरल रीतिसे समउत्पन्न होने पर उनकी विविधतानोंका समन्वय करनेके भने योग्य ऐसा जिनेन्द्र भगवानका प्रवचन-स्याद्वाद लिए इसी सिद्धान्तका आश्रय लिया है। महामति . सिद्धान्त-कल्याणकारी हो ॥२॥ मीमांसकाचार्य कुमारिलभट्ट ने अपने गंभीर ग्रन्थोंमें दीपकसे लगाकर आकाश तक अर्थात् सूक्ष्मसे
और सांख्य, न्याय, बौद्ध आदि दर्शनोंके अनेक सूक्ष्म वस्तुसे लेकर बड़ीसे बड़ी वस्तु भी 'स्याद्वाद' की अाचार्योंने अपने अपने ग्रन्थोंमें प्रकारान्तरसे इसी आज्ञानुवर्तिनी है । यदि कोई भी पदार्थ चाहे वह छोटा सिद्धान्तका आश्रय लिया है । इस सम्बन्धमें पं०हंसराज- हो या बड़ा, स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार अपना स्वरूप जी लिखित “दर्शन और अनेकन्तवाद" नामको पुस्तक प्रदर्शित नहीं करेगा तो उसकी वस्तु-स्थितिका वास्तविक पठनीय है।
ज्ञान नहीं हो सकेगा । हे भगवान् ! यह 'स्याद्वाद' से स्याद्वादके महत्त्वके विषयमें अनेक प्राचीन श्राचार्यो- अनभिज्ञ लोगोंका प्रलाप ही है, जो यह कहते हैं कि ने संख्यातीत श्लोंकों द्वारा अत्यन्त तर्क पूर्ण श्रद्धा और “कुछ वस्तु तो एकान्त नित्य हैं और कुछ एकान्त स्तुत्य भावनामय भक्ति प्रकाशितकी है। उनमें से कुछ अनित्य ।" अतः विद्वान पुरुषोंको सभी वस्तुएँ द्रव्याउदाहरण निम्न प्रकारसे है:
पेक्षया नित्य और पर्यायापेक्षया अनित्य समझना नेण विणा लोगस्स वि ववहारो सन्धहा ण निवडइ। चाहिये ॥३॥ तस्स भुवणेक्कगुरूणो णमो अणेगंतवादस्स ॥ मिस प्रकार मक्खनके लिये दहीको मथनेवाली भई मिच्छादंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स। स्त्री दोनों हाथोंमें रस्सी ( मन्थान रजु) को पकड़े रहती जिणवयणस्स भगवश्रो संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ है। एक हाथम ढील देतो है और दूसरे हाथसे उसे
-सिद्धसेन दिवाकर श्रादीपमाव्योम सम स्वभावं, स्याद्वादमुद्रानतिभेदिवस्तु ।
खींचती है, तभी मक्खन प्राप्त हो सकता है । यदि वह तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य,-दितित्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः॥
एक ही हाथसे कार्य करे अथवा दूसरे हाथकी रस्सीको -हेमचन्द्राचार्य
बिल्कुल छोड़ देवे तो सफलता नहीं मिल मकती है; एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण ।
यही स्याद्वादकी नीतिका भी रहस्य है। इस सिद्धान्तमें अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेमिव गोपी॥ भी "ढील देना और खींचना" रूप फ्रियाको वस्तु परमागमस्य बीजं, निषिद्धजात्यन्धसिन्धुर-विधानम्। विवेचन के समय क्रमसे गौणता और मुख्यता समझना सकलन यविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ चाहिये । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्ममय है। उनमंस एक
-अमृत चन्द्र सुरि धर्मको मुख्यता और शेष धर्मोको उनका निषेध नहीं
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि
वर्ष ३, किरण २ ]
करते गौणता प्रदान करने पर ही वस्तु तत्त्वका हुए निर्णय हो सकता है ॥४॥
स्याद्वाद सिद्धान्त परमागमका बीज है, इसने जन्मान्ध-गज-न्याय के समान एकान्तवाद रूप मिथ्याधारणाका सर्वथा नाश कर दिया है । यह वस्तुमें संनिहित अनन्त धर्मोंको अपेक्षा करता हुआ, विरोधोंको विविधता के रूपमें समन्वय करनेवाला है । ऐसे सिद्धान्त शिरोमणि "अनेकान्तवाद" को मैं नत बार नमस्कार करता हूँ ||५||
इसलिये स्याद्वादको संशयवाद या अनिश्चयवाद कहना निरी मूर्खता है । स्याद्वाद सर्वानुभवसिद्ध, सुव्यवस्थित, सुनिश्चित, और सर्वथा निर्दोष सिद्धान्त है । संपूर्ण धार्मिक क्लेशों को दूर करनेके लिये, सभी मनमतान्तरोंका समन्वय करके उनको एक ही प्लेट फार्म पर लाने के लिये, एवं विश्व के बिखरे हुए और विरोधी रूपसे प्रतीत होनेवाले लेखों विचारों तथा हजारों संप्रदायों को एक ही सूत्रमें अनुस्यूत करनेके लिये स्याद्वाद - जैसा कोई दूसरा श्रेष्ठ सिद्धान्त है ही नहीं । विश्वकी सभ्यत, संस्कृति और शांति के विकासके लिये जैनदर्शन और जैनतर्क शास्त्रकी यह एक महान् देन है । किन्तु खेद हैं कि आजका जैनसमाज अनेक संप्रदायोंमें विभाजित होकरके रत्न जैसे सुन्दर सिद्धान्तोंकी शीशे के टुकड़ों के रूप में परिणत करता हुआ भगवान् महावीर स्वामी के नामपर विश्वासघात कर रहा है ! अर्थात् अनेकान्तवादी स्वयं सांप्रदायिक व्यामोहसे एकान्तवादी हो गया है !!
3
प्रमाण और नय पर ऐतिहासिक दृष्टि
यह पहले लिखा जा चुका है कि प्रमाण और नय का समन्वय ही स्याद्वाद सिद्धान्त है; अतः इस विषय पर भी एक सरसरी ऐतिहासिक दृष्टि डालना आवश्यक
१८१
है । स्वपर-निश्चायक ज्ञान ही प्रमाण है । जैन वाङ्मय - में ज्ञान दर्शनकी दो पद्धतियाँ उपलब्ध । एक आागमिक और दूसरी तार्किक । श्रागमिक पद्धतिके भी दो रूप मिलते हैं । एक तो विशुद्ध - श्रागमिक और दूसरी तर्कांश मिश्रित - श्रागमिक । विशुद्ध श्रागमिक ज्ञान निरुपण पद्धति में ज्ञान के पाँच भेद किये गये हैं । मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यय और केवल । इनको आागमिक कहनेका कारण यह है कि आत्माकी मूलभूत शुद्धि और अशुद्धि के विवेचन में जो 'कर्मसिद्धान्त' का वर्णन किया जाता है, उसमें ज्ञानावरण कर्मके पाँच ज्ञान-भेद के अनुसार किये गये हैं। तर्क - संर्घषरण से उत्पन्न प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्षरूप भेदोंके श्राधारसे प्रत्यक्षावरण और परोक्षावरणरूपभेद ज्ञानावर्ण कर्मके नहीं किये गये हैं । यदि ज्ञानावर्ण के भेद प्रत्यक्षावर्ण और परोक्षावर्ण के रूपमें किये जाते तो यह तर्कप्रधान ज्ञानविवेचन प्रणाली कहलाती । किन्तु ऐसा न होने से यह श्रुतिविशुद्ध और प्राचीन ग्रागमिक ज्ञान प्रणाली है ।
तर्कमिश्रित श्रागमिक ज्ञान पद्धति में ज्ञान रूप प्रमाणके ४ विभाग किये गये हैं । १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ उपमान, और ४ श्रागम । तदनुसार विशुद्ध श्रागमिक ज्ञान पद्धतिके भेदोंका समावेश प्रत्यक्ष में समफना चाहिये और शेष भेद तर्क-संघर्ष से उत्पन्न हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये । श्री ठाणांग सूत्रमें "प्रत्यक्ष और परोक्ष" तथा " प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम” इस प्रकार दोनों भेद वाली प्रणालीका उल्लेख पाया जाता है । इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली प्रणाली तो स्पष्ट रूपसे विशुद्ध तार्किक ही है । श्री भगवती सूत्रमें केवल चार भेद वाली प्रणालीका उल्लेख पाया जाता है । श्री अनुयोग द्वारा सूत्रमें चार भेद वाली प्रणालीका उल्लेख किया जाकर प्रत्यक्ष दो
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
भागोंमें बांट दिया गया है। एक भाग में मतिज्ञानका और दूसरे में अवधि दि तीनका समावेश किया गया है श्री नन्दी सूत्रमें भी अनुयोगद्वारके समान ही प्रत्यक्ष के दो भेद किये जाकर एकमें मतिज्ञानको और दूसरे में अवधि आदि तीनको रक्खा है । किन्तु परोक्ष वर्णनमें पुनः मति श्रुति दोनोंका समावेश कर दिया है; यह अनुयोगद्वारकी अपेक्षा नंदी सूत्रकी विशेषता है । इस प्रकार श्रागमों में भी मिलनेवाली तकीशमिश्रित ज्ञान प्रणालीका यह प्रति स्थल रेखा दर्शन समझना चाहिये ।
अनेकान्त
[ मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं० २४६६
के ५ भेद किये हैं, १ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, ४ अनुमान, और ५ श्रागम । इस प्रकार सारांश रूप से यह कहा जा सकता है कि संपूर्ण प्रमाण बादको जैन न्यायाचाने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपमें सुव्यवस्थित रूपसे संघटित कर दिया है, जो कि सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में निर्विवाद रूपसे सर्वमान्य हो चुका है ।
विशुद्ध तार्किक ज्ञान प्रणालीका एक ही रूप पाया जाता है और वह है प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली प्रणाली । सम्पूर्ण जैन संस्कृत वाङमय में सर्व प्रथम यह प्रणाली आचार्य उमास्वाति कृत “तत्वार्थसूत्र" में पाई जाती है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और दिगम्बरा चार्य भट्टाकलंकदेवने इतना विश्लेषण कर पूर्णरीत्या समर्थन किया; और तलश्चात् जिनेश्वर सूरि, वादिदेव सूरि हेमचन्द्राचार्य तथा उपाध्याय यशोविजयजी आदि श्वेताम्बर आचाने और माणिक्यनन्दी तथा विद्या नन्द आदि दिगम्बर श्राचार्योंने भी अपने अपने न्याय ग्रन्थोंमें इस प्रणालीको पूरी तरहसे संगुफित कर दिया जो कि अद्यापि सर्वमान्य है ।
इस प्रणाली में प्रत्यक्ष के दो भाग किये गये हैं:१ सांव्यवहारिक और पारमार्थिक । प्रथम भागमें मति, श्रुतिको स्थान दिया गया है और दूसरे में अवधि, मन:पर्यय और केवलको इस प्रकार प्रत्यक्ष भेदमें विशुद्ध श्रागमिक पद्धतिकी समस्याको केवल हल कर दिया है और परोक्ष में तार्किक संघर्ष से उत्पन्न प्रमाणके भेदका समावेश कर दिया गया है। जैनेतर दार्शनिकों ने जितने भी प्रमाण माने हैं, उन सबका समावेश परोक्षके अन्तर्गत कर लिया गया है। जैनदृष्टिसे परोक्ष
नयवादकी विकास-प्रणाली प्रमाणवादकी विकास प्रणालिके समान विस्तृत नहीं है । मूल श्रागम - ग्रंथों में सात नयोंका उल्लेख पाया जाता है। श्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर छह नय ही मानते हैं। वे नैगमको स्वतन्त्र नयकी कोटि में नहीं गिनते है । द्रव्यार्थिक दृष्टिकी मर्यादा संग्रह नय और व्यवहार नय तक ही स्वीकार करते
हैं
। शेष चार नयों को पर्यायार्थिक दृष्टिकी मर्यादा के अन्तर्गत समझते हैं । इन आचार्य के पूर्व कोई घट्नयवादी थे या नहीं, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है । इसलिये यह कहा जाता है कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ही आदि षट्-नयवादी हैं :
प्राचीन परंपरा द्रव्यार्थिक दृष्टिकी मर्यादा ऋजुसूत्र नय तक स्वीकार करती है; किन्तु सिद्धसेन - काल के पश्चात् यह मर्यादा व्यवहारनय तक हो अनेक श्राचार्यों द्वारा स्वीकार करली गई है। समर्थ श्रागधिक विद्वान् जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण एवं प्रचंड नैयायिक श्री विद्यानन्द आदि आचार्यों द्वारा चर्चित नयवादचर्चा उपर्युक्त कथनका समर्थन करती है ।
आगम-प्रसिद्ध सप्त नयवाद और सिद्धसेनीय पट्नयवाद के अतिरिक्त जैन संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत, आचार्य प्रवर वाचक उमास्वाति की तीसरी नय-वाद-भेदप्रणालि भी देखी जाती है। ये 'नैगम' से 'शब्द' तक ५ नय स्वीकार करते हैं; और अंत में 'शब्द' के तीन भेद करके श्रागम प्रसिद्ध शेष दो नयों का भी समावेश
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष
३, किरण २ ]
श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि
कर देते हैं । देखा जाय तो इन तीनों परम्पराओं में केवल विवेचन प्रणालिकी भिन्नता है, कोई खास उल्लेखनीय भिन्नता नहीं है ।
तात्विक दृष्टिसे
विक्रमकी बारहवीं शताब्दि में होनेवाले, दार्शनिक जगतके महान् विद्वान् और प्रबल वाग्मी श्री वादिदेवसूरि श्रागम प्रसिद्ध नयवाद प्रणालिका समर्थन करते हुए नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रको 'अर्थनय' की कोटि में रखते हैं और शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूतको 'शब्दनय' की कोटिमें गिनाते हैं । किन्तु पूर्व तीनों नयोंको द्रव्यार्थिककी श्रेणी में रखकर और शेष चारको पर्यायार्थिककी श्रेणीमें रखकर सिद्धसेनीय मर्यादाका समर्थन करते हैं ।
१८३
T
साहित्य के ये ही श्राद्य श्राचार्य हैं। इनका काल विक्रमकी तीसरी-चौथी-पाँचवीं शताब्दिमें से कोई शताब्दी है । ये जैनधर्म और जैन साहित्यके महान्प्रतिष्ठापक और प्रतिभा संपन्न समर्थ श्राचार्य थे । इनके द्वारा रचित ग्रन्थोंमेंसे सम्मति तर्क, न्यायावतार, तथा २२ द्वात्रिंशिकाऐं उपलब्ध हैं । २ मल्लवादी क्षमाश्रमरण —- इनका काल विक्रमकी पाँचवीं शताब्दि है । इनका बनाया हुआा न्यायग्रन्थ "नय चक्रवाल" सुना जाता है, जो कि दुर्भाग्य से अनुपलब्ध है । कहा जाताहै कि इन्होंने शीलादित्य राजाकी सभा में बौद्धोंको हराया था और उन्हें सौराष्ट्र देश में से निकाल दिया था । ३ सिंहक्षमाश्रमण - इनका काल सातवीं शताब्दि
माना जाता है । इन्होंने "नय चक्रवाल" पर १८ हज़ार श्लोक प्रमाण एक सुन्दर संस्कृत टीका लिखी है । इसकी प्रति अस्त व्यस्त दशा में और
यहाँ तक आगम-काल, भारतीय न्याय - शास्त्रकी उत्पत्ति और उसके विकासके कारण, बौद्ध और जैन न्यायशास्त्र की आधारशिला, स्याद्वाद सिद्धान्त और उसके शाखारूप प्रमाण एवं नयका ऐतिहासिक वर्गीकरण आदि विषयों का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा चुका है । न्याय ग्रंथों में वर्णित हेतुवाद एवं अन्यवादों पर दृष्टि डालने की इच्छा रखते हुए भी विस्तार भयसे ऐसा नहीं करके; प्रसिद्ध प्रसिद्ध जैन न्यायाचार्योंका ऐतिहासिक काल-क्रम बतलाते हुए, तथा संपूर्ण न्याय साहित्य पर एक उपसंहारात्मक सरसरी दृष्टि डालते हुए यह लेख समाप्त कर दिया जायगा ।
४
शुद्ध रूपसे पाई जाती है । उच्चकोटिके दार्शनिक ग्रंथोंमें इसकी गणना की जाती है । हरिभद्रसूरि- - इनका अस्तित्व काल विक्रम ७५७ से ८२७ तकका सुनिश्चित हो चुका है । ये 'याकिनीमहत्तरानु' के नाम से प्रसिद्ध हैं और १४४४ ग्रंथोंके प्रणेता कहे जाते हैं । इन्हें भारतीय साहित्यकारोंकी सर्वोच्च पंक्तिके साहित्यकारोंमेंसे समझना चाहिये। ये अलौकिक प्रतिभासंपन्न और महान् मेधावी, गंभीर न्यायाचार्य थे । अनेकान्तजयपताI का, षड्दर्शन समुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तवादं प्रवेश धर्मसंग्रहणी, न्यायविनिश्चय ( १ ); यदि इन द्वारा रचित न्यायके उच्चकोटिके ग्रंथ हैं । अभयदेव सूरि-ये विक्रमकी १०वीं शताब्दि के उत्तरार्ध और ११वीं के पूर्वार्ध में हुए । ये तर्क -
* सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य हेमचन्द्र पर विस्तृत विचार जाननेकी इच्छा रखनेवाले पाठक मेरे द्वारा लिखित और "अनेकान्त" वर्ष २३ की किरण ४, ५, ६ और १ एवं १० में प्रकाशित इन श्राचार्य विषयक निबन्ध देखने की कृपा करें । —लेखक
५
कुछ प्रसिद्ध जैन न्यायाचार्य
१ सिद्धसेन दिवाकर - श्वेताम्बर जैन न्याय
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
अनेकान्त
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
पंचानन और न्यायवनसिंहकी उपाधिसे सुशोभित और अलौकिक प्रतिभाका अनुमान करना हमारे थे । नवाँगीवृत्तिकार अभयदेवसे इन्हें भिन्न सम- लिये कठिन है । कहा जाता है कि इन्होंने अपने झना चाहिये। इन्होंने सिद्धसेन दिवाकर रचित साधुचरित जीवनमें साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण सम्मति तर्क पर पच्चीस हज़ार श्लोक प्रमाण न्यायः साहित्यकी रचना की थी। न्याय ग्रन्थोंमें प्रमाणशैली पर एक विस्तृत टीका लिखी है । यह अनेक मीमांसा, अन्ययोग-व्यवछेद और अयोग-व्यवछेद दार्शनिक-ग्रन्थोंका मंथन किया जाकर प्राप्त हए नामक द्वात्रिंशिकाओंकी रचना श्रापके द्वारा हुई नवनीतक समान अति श्रेष्ठ दार्शनिक ग्रंथ हैं। पाई जाती है। दशवीं शताब्दि तकके विकसित भारतीय दर्शनोंके ९ रत्नप्रभसूरि-ये वादिदेवसूरिके शिष्य हैं, अतः ग्रन्थोंकी खाता बहीके रूपमें यह एक सुन्दर संग्रह वादिदेवसूरिका जो समय है वही इनका भी समझना ग्रंथ है।
चाहिये। प्रमाणनय-तत्त्वालोकपर इन्होंने पाँचहजार ६ चन्द्रप्रभ सूरि-इनका काल विक्रमकी १२वीं श्लोक प्रमाण 'रत्नाकराव-तारिका' नामक टीका- .
शताब्दि. (११४६) है। इन्होंने दर्शन-शुद्धि और ग्रन्थ लिखा है, जिसकी भाषा और शैलीको देख प्रमेयरल कोश नामक न्यायग्रन्थकी रचना की है। कर हम इसे 'न्यायकी कादम्बरी' भी कह सकते हैं । कहा जाता है कि इन्होंने सं० ११५८ में पूर्णिमा १० शांत्याचार्य-इनका काल विक्रमकी ११वीं (१) गच्छकी स्थापना की थी।
शताब्दि है । इन्होंने सिद्धसेन दिवाकर-रचित ७ वादिदेवसूरि-इनका काल विक्रम सं० ११३४ से न्यायावतारके प्रथम श्लोक के आधार पर ही एक
१२२६ तकका है। इन्होंने 'प्रमाण नयतत्त्वालोक' वार्तिक लिखा है, जो कि प्रमाण-वार्तिक भी कहा नामक सूत्रबद्ध न्याय-ग्रन्थकी रचना करके उसपर जाता है । इसी वार्तिक पर इन्होंने २८७३ श्लोक चौरासी हज़ार श्लोक प्रमाण विस्तृत और गंभीर प्रमाण प्रमाण-प्रमेय-कलिका' नामक टीकाभी लिखी 'स्याद्वाद रत्नाकर' नामक टीकाका निर्माण किया है जो प्रकाशित हो चुकी है,किन्तु अनेक अशुद्धियाँ है । यह टीका-ग्रंथ भी जैन न्याय के चोटीके ग्रंथों में से है । "प्रमेयरखकोटीभिः पूर्णो रत्नाकरो महान्” ११ मल्लिषेणसूरि-ये चौदहवीं शताब्दिमें हुए हैं। पंक्तिसे इसकी महत्ता और गुरुता अाँकी जा सकती अापने प्राचार्य हेमचन्द्र रचित 'अन्य योगव्यवहै । कहा जाता है कि सिद्धराज जयसिंहकी राज- छेद' नामक द्वात्रिंशिका पर सं० १३४६ में तीन सभामें दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्राचार्यको वाद- हज़ार श्लोक प्रमाण “स्याद्वादमंजरी” नामक विवादमें इन्होंने पराजित किया था। ये वाद- व्याख्या ग्रंथ लिखा है । इसकी भाषा प्रसाद-गुणविवाद करने में परम कुशल थे; इसीलिये “देव- सम्पन्न है और विषय-प्रवाह शरद-ऋतुकी नदीकी सूरि” से 'वादिदेव-सूरि' कहलाये।
प्रवाहके समान सुन्दर और आल्हादक है । पट ८ हेमचंद्राचार्य-इनका सत्ता-समय विक्रम ११४५ से दर्शनोंका संक्षिप्त और सुन्दर ज्ञान कराने वाली
१२२६ तक है । इनकी अगाध बुद्धि, गंभीर ज्ञान इसके जोड़की दूसरी पुस्तक मिलना कठिन है ।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि
१२ गुणरत्नसूरि-ये पन्द्रहवीं शताब्दिमें हुए हैं। एक ही दृष्टि से किया जायगा।
इन्होंने हरिभद्रसूरि रचित “घट-दर्शन-समुच्चय" न्याय-ग्रंथों में वर्णित कुछ मुख्य मुख्यवादोंके नाम पर १२५२ श्लोक प्रमाण “तर्क रहस्य-दीपिका” इस प्रकार हैं:-सामान्यविशेषवाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद नामक एक भावपूर्ण टीका लिखी है । इसमें भी आगमवाद, नित्यानित्यवाद, आत्मवाद, मुक्तिवाद, घट-दर्शनोंके सिद्धान्तों पर अच्छा विवेचन किया शून्यवाद, अद्वैतवाद, अपोहवाद, सर्वज्ञवाद, अवयवगया है । दार्शनिक-ग्रंथोंकी कोटिमें इसका भी अवयविवाद, स्त्रीमुक्तिवाद, कवलाहारवाद, शब्दवाद, अपना विशेष स्थान है।
वेदादि अपौरुषेयवाद, क्षणिकवाद, प्रकृतिपुरुषवाद, १३ उपाध्याय यशोविजय जी-जैन-न्याय साहित्य रूप जडवाद अर्थात् अनात्मवाद, नयवाद, प्रमाणवाद,
भव्य भवनके पूर्ण हो जाने पर उसके स्वर्ण-कलश- अनुमानवाद और स्याद्वाद इत्यादि इत्यादि ।। समान ये अन्तिम जैन न्यायाचार्य हैं । ये महान् ज्यों ज्यों दार्शनिक-संघर्ष बढ़ता गया त्यों त्यों मेधावी और साहित्य-सृजनमें अद्वितीय अयाहत विषयमें गंभीरता आती गई । तर्कोका जाल विस्तृत होता गति-शील थे। इनकी लोकोत्तर प्रतिभा और गया । शब्दाडम्बर भी बढ़ता गया। भाषा सौव और
अगाध पांडित्यको देखकर काशीकी विद्वत् सभा पद लालित्यकी भी वृद्धि होती गई। अर्थ गांभीर्य भी • ने इन्हें 'न्याय-विशारद' नामक उपाधिसे विभूषित विषय-स्फुटता एवं विषय-प्रौढ़ताके साथ साथ विकासको
किया था। तत्पश्चात सौ ग्रन्थोंका निर्माण करने प्राप्त होता गया। अनेक-स्थलों पर लम्बे लम्बे समासपर इन्हें न्यायाचार्य का विशिष्ट पद प्राप्त हुआ यक्त वाक्योंकी रचनासे भाषाकी दरुहता भी बढ़ती था और तभीसे ये “शत-ग्रन्थोंके निर्माता" रूपसे गई। कहीं कहीं प्रसाद-गुण-युक्त भाषाका निर्मल स्तोत्र प्रसिद्ध भी हैं । तर्क भाषा, न्यायलोक, न्यायखंड- भी कलकल नादसे प्रवाहमय हो चला। यत्रतत्र सुन्दर खाद्य, स्याद्वाद, कल्पलता आदि अनेक न्यायग्रंथ और प्रांजल भाषाबद्ध गद्य प्रवाहमें स्थान स्थान पर आप द्वारा रचित पाये जाते हैं । इनका काल भावपूर्ण पद्योंका समावेश किया जाकर विषयकी रोच१८वीं शताब्दि है।
कता दुगुनी हो चली। इस प्रकार न्याय-साहित्यको इन उल्लिखित प्राचार्यों के अतिरिक्त अन्य अनेक सर्वाङ्गीण सुन्दर और परिपूर्ण करनेके लिये प्रत्येक जैन जैन नैयायिक ग्रंथकार हो गये हैं; किन्तु भयसे इस लेख न्यायाचार्यने हार्दिक महान् परिश्रमसाध्य प्रयास किया में कुछ प्रमुख प्रमुख प्राचार्योंका ही कथन किया जा है और इसलिये वे अपने पुनीत कृत संकलपमें पूरी सका है । उपाध्याय यशोविजय नीके पश्चात् जैन- तरहसे और पूरे यशके साथ सफल मनोरथ हुए हैं । न्याय-साहित्यके विकासकी धारा रुक जाती है और इस यही कारण है कि जैन न्यायाचार्योकी दिगन्त व्यापिनी, प्रकार चौथी शताब्दि के अन्तसे और पांचवींके प्रारम्भ सौम्य और उज्जवल कीर्तिका सुमधुर प्रकाश सम्पूर्ण से जो जैन न्याय-साहित्य प्रारम्भ होता है, वह १८वीं विश्व के दार्शनिक क्षेत्रोंसे मूर्तिमान होकर पूर्ण प्रतिभाके शताब्दि तक जाकर समाप्त दो जाता है ।
साथ पूरी तरहसे प्रकाशित हो रहा है । उपसंहार
हम इन अादरणीय प्राचार्योंकी सार्वदेशिक प्रतिभा संपूर्ण जैन न्याय-ग्रंथोंमें षट्-दर्शनोंकी लगभग से समुत्पन्न, गुणगारिमासे अोत प्रोत उज्जवल कृतियोंसभी मान्यताअोंका स्याद्वादकी दृष्टि से विश्लेषण किया को देख कर यह निस्संकोचरूपसे कह सकते हैं कि इन गया है । और अन्तमें इसी बात पर बल दिया गया की असाधारण अमर और अमूल्य कृतियोंने जैनहै कि अपेक्षा विशेषसेनय-दृष्टिसे सभी सिद्धान्त सत्य साहित्यकी ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्यकी हो सकते हैं । किन्तु वे ही सिद्धान्त उस दशामें असत्य सौभाग्य श्रीको अलंकृत किया है और वे अब भी कर रूप हो जायगे; जबकि उनका निरुपण एकान्त रूपसे रही हैं। . . . .
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र - विचार
[र्सा हुआ, जब मैं 'जैन हितैषी' पत्रका सम्पादन करता था, तब मैंने 'गोत्र विचार' नामका एक लेख लिखकर उसे १५ वें वर्ष के 'जैन हितैषी' के अंक नं० २-३ में प्रकाशित किया था । आज कल जब कि गोत्र-कर्माश्रित ऊँच-नीचताकी चर्चा जोरों पर है और गोम्मटसारादिके गोत्र लक्षणोंको सदोष बतलाया जा रहा है तब उक्त लेख बहुत कुछ उपयोगी होगा और पाठकोंको अपना ठीक विचार बनाने में मदद करेगा, ऐसा समझकर, आज उसे कुछ संशोधनादिके साथ पाठकोंके सामने रक्खा जाता है। 'सम्पादक' उनका उपदेश माननेके कारण, अनेक गोत्र केवल नगर - ग्रामादिकों के नाम पर उनमें निवास करने के कारण और बहुतसे गोत्र केवल व्यापार पेशा अथवा शिल्पकर्मके नामों पर उनको कुछ समय तक करते रहने के कारण पड़े हैं। और भी अनेक कारणों से कुछ गोत्रोंका नामकरण हुआ जान पड़ता है, और इन सब गोत्रोंकी वह सब स्थिति बदल जानेपर भी अभी तक उनके वही नाम चले जाते हैं - समान आचरण होते हुए भी जैनियोंके गोत्रों में परस्पर विभिन्नता पाई जाती है। अतः जैनियोंके लिये गोत्र सम्बन्धी प्रश्न एक बड़ा ही जटिल प्रश्न है और इसलिये उसपर विचार चलने
गोत्र - विचार
सन्तान क्रमसे चले आये जीवोंके आचरण विशेषका नाम 'गोत्र' है । वह आचरण ऊँचा और नीचा ऐसा दो प्रकारका होनेसे गोत्रके भी सिर्फ दो भेद हैं- एक 'उच्च-गोत्र' और दूसरा 'नीच गोत्र' ऐसा गोम्मटसारमें श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त - चक्रवर्ति द्वारा जैन सिद्धान्त बतलाया गया है । जैन सिद्धान्त अष्टकमके अन्तर्गत 'गोत्र' नामका एक पृथक् कर्म माना गया है, उसीका यह उक्त आचार्य प्रतिपादित लक्षण अथवा स्वरूप हैं । परन्तु जैनियोंमें आजकल गोत्र विषयक जिस प्रकारका व्यवहार पाया जाता है वह इस सिद्धांत प्रतिपादित गोत्र-कथनसे बहुत कुछ विलक्षण मालूम होता है। जैनियोंके गोत्रों की संख्या भी सैंकड़ों पर पहुँची हुई है । उनकी ८४ जातियों में प्रायः सभी जातियाँ कुछ न कुछ संख्या प्रमाण गोत्रों को लिये हुये हैं । परन्तु उन सब गोत्रों में 'उच्च' और 'नीच' नामके कोई गोत्र नहीं हैं; और न किसी मोत्रके भाई ऊँच अथवा नीच समझे जाते हैं। प्रतेक गोत्र केवल ऋषियोंके नाम पर
* देखो, 'अनेकान्त' की द्वितीय वर्षकी फाइल, और उसमें भी 'गोत्र लक्षणोंकी सदोषता' नामक लेख, जो पृष्ठ ६८० पर मुद्रित हुआ है ।
की जरूरत है । अर्सा हुआ 'सत्योदय' में 'शूद्रमुक्ति' शीर्षक एक लेख निकला था, जो बाद में पुस्तकाकार में भी छपकर प्रकाशित हो चुका है । उसमें गोम्मटसार-प्रतिपादित गोत्र कर्मके स्वरूप पर कुछ विशेष विचार प्रकट किये गये हैं । उन विचारोंको - लेख के केवल उतने ही अंशकोपाठकोंके विचारार्थ यहां उद्धृत किया जाता है । आशा है विज्ञ पाठक एक विद्वान के इन विचारोंपर सविशेष रूप से विचार करने की कृपा करेंगे और यदि हो सके तो अपने विशेष वचारोंसे सूचित करने को भी उदारता दिखलायेंगे:
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २]
गोत्र विचार
ད༦
गोमट्टसारमें 'गोत्रकर्म' के कार्य दर्शनके लिये योजना भी मानवापेक्षित ही है । पाठकोंको विदित निम्न लिखिन गाथा है:
होगा कि अमीर, गरीब, दुखिया, सुखिया, नीच, संताणकमेणागय-जीवायरणस्स गोदमिदि सरणा । ऊँच, सभ्य, असभ्य, पंडित, मूर्ख इत्यादि द्वन्द हैं उच्च णीचं चरण उच्च णीचं हवे. गोदं ॥ और ये द्वन्द ऐसे दो परस्पर विरोधी गणों के
--कर्मकाण्ड १३ । द्योतक हैं जिनका अस्तित्व निरपेक्ष नहीं किन्तु सन्तानक्रमेणागत जीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा। अन्योन्याश्रित है । अतएव मनुष्य गतिको छोड़कर उच्च नीचं चरणं उच्चैनीचैर्भवेत् गोत्रम् ॥१३॥ शेष तीन गतियों जो गोत्रका एक एक प्रकार
अर्थ-सन्तान क्रम अर्थात कुलकी परिपाटी- माना गया है वह अपने प्रतिपक्षीके सत्वका सूचक के क्रमसं चला आया जो जोवका आचरण उसकी और अभिलाषी है। यदि देवोंमें नीच गोत्रका, 'गोत्र' संज्ञा है । उस कुल परम्परामें ऊँचा आच- और नारकी तथा तिर्यश्चोंमें उच्चगोत्रका सम्भव रण हो तो उसे 'उच्च गोत्र' कहते हैं, जो नीचा नहीं है तो इन गतियोंमें गोत्रका सर्वथा ही अभाव आचरण हो तो वह 'नीच गोत्र' कहा जाता है। मानना पड़ेगा; क्योंकि द्वन्द गर्भित एक प्रतिपक्षी
गोत्रके इस लक्षण पर गौर करते हैं तो यह गुणका स्वतन्त्र सद्भाव किसी तरहसे भी सिद्ध लक्षण सदोष मालूम होता है, और ऐमा प्रकट नहीं होता । उक्त गतियोंमें गोत्रके दो प्रकारों में से होता है कि कमभूमिके मनुष्योंकी विशेष व्यवस्था एक विशेषकी नियामकता कहनेका यह अर्थ होता पर लक्ष्य रखकर सामाजिक व्यवहार दृष्टिसे इस- है कि इन गतियोंके जीव अपनेर लोक समुदायमें की रचना हुई है। गोत्र कर्म अष्टमूल प्रकृतियोंमें समानाचरणी हैं, उनमें भेद भाव नहीं है और जब से है और इसका उदय चतुर्गतिके जीवोंमें कहा भेद भाव नहीं तो उनको उच्च या नीच किसकी है। नारकी और तिर्यञ्चोंके नीच गोत्रकी, देवोंके अपेक्षासे कहा जाय, वे खुद तो आपसमें उच्च गोत्रकी और मनुष्योंके उच्च और नीच दोनों न किसीको नीच समझते हैं न उच्च; उनमें नीच गोत्रोंकी सम्भावना सिद्धान्तमें कही है। देव व और उच्चका ख्याल होना ही असम्भव है। नारकीका उपपाद जन्म होता है; वे किसीकी इसी ख्यालसे भोग-भूमियोंके भी उच्च गोत्र सन्तान नहीं होते और न कोई उनका नियत ही कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि गोत्रका लक्षण आचरण है। गाथोक्त गोत्रका लक्षण इन दोनों मनुष्योंकी व्यवहार व्यवस्थाके अनुसार बनाया गतियोंमें किसी तरह भी लाग नहीं होता। इसी गया है, और जिस जिस गतिके जीवोंको मनुष्यों तरह एकेन्द्रियादि सम्मूर्छन जीवोंमें भी यह लक्षण ने जैसा समझा अथवा उनके व्यवहारकी जैसी व्यापक नहीं । इसके अलावा 'आचरण' शब्द भी कल्पना की, उमीके अनुसार उन गतियोंमें उच्च मनुष्यों ही के व्यवहारका अर्थवाची है और व नीच गोत्रकी सम्भावना मानी गई है । चतुर्गति मनुष्यों ही की अपेक्षासे उक्त लक्षणमें उपयुक्त के जीवोंमें बन्धोदयसत्वको प्राप्त होने वाले गोत्र हुआ है। आचरणके साथ उच्चत्व और नीचत्वकी, कर्म तथा उसके कार्य स्वरूप गोत्रका लक्षण और
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
अनेकान्त
[ मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं०२४६६
उदय जिस प्रकारसे प्रत्यक्ष ज्ञाता दृष्टा. सर्वज्ञने उक्त प्रकारके व्यवहारोंसे तो साफ़ प्रकट है कि कहा हो वह सब गाथासे प्रकट नहीं होता। इस उनमें नीच और उच्च दोनों ही प्रकारके आचरणलक्षणके मुताबिक गोत्रकर्मका उदय मनुष्यों ही वाले जीव होते हैं, फिर जैन-पिद्धान्तियोंने देवमें मिलेगा और अन्य गतियोंके जीवोंके आठ गतिमें नीचगोत्रका उदय क्यों नहीं कहा ? पाठक कर्मों की जगह सात ही का उदय मानना पड़ेगा। विचारें।
जैन सिद्धान्तियोंमें गत्र और गोत्र कर्मके २–इसमें कुछ विशेष कहनेकी ज़रूरत नहीं विषयोंमें जो प्रचलित मत वह मनुष्यों ही के कि असुर, राक्षस, भूत, पिशाचादि देवोंके आचव्यवहारों तथा कल्पनाओंसे बना है । इमके रण महान घृणित और नीच माने गये हैं और वे विशेष प्रमाणमें निम्न लिखित ऊहापोहकी बातें वैमानिक देवोंकी समानता नहीं कर सकते । यदि पाठकोंके स्वयं विचारार्थ उपस्थित करते हैं- गोत्रके उच्चत्व नीचत्वमें जीवका आचरण मूल का
१–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और रण है तो वैमानिकोंकी अपेक्षा व्यन्तरादिका गोत्र वैमानिक, इस प्रकारसे देवोंके चार निकाय जैन- अवश्य नीच होना चाहिये । देवमात्रको उच्चगोत्री धर्ममें कहे हैं । इन चारों प्रकारके देवोंमें इन्द्र कहना जैनसिद्धान्तियोंके लक्षणसे विरुद्ध पड़ता है। सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद,आत्मरक्ष, लोकपाल ३–पशुओं में सिंह, गज, जम्बुक, भेड़, कुक्कर अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषिक, आदिके आचरणों में प्रत्यक्ष भेद है। वीरता, साहस ऐसे दश भेद होते हैं। इनमेंसे जो देव घोड़ा, आदि गुणोंमें मिहको मनुष्योंने आदर्श माना है । रथ, हाथी, गंधर्व और नर्तकीके रूपोंको धारण किसी दूसरेकी मारी हुई शिकार और उच्छिष्टको करते हैं वे अनीक हैं जो हाथी, घोड़ा बाहन सिंह कभी नहीं खाता और न अपने वारसे पीछे बनकर इन्द्रकी सेवा करते हैं वे आभियोग्य कह रहे हुए पशु पर दुबारा आक्रमण करता है । जैनालाते हैं; और जो इन्द्रादिक देवोंके सन्मानादिकके चार्योंने १०० इन्द्र की संख्यामें सिंहको इन्द्र कहा अनधिकारी, इन्द्रपुरीसे बाहर रहने वाले तथा है, यथाअन्यदेवोंसे दूर खड़े रहनेवाले (जैसे अस्पृश्यशूद्र) "भवणालय चालीसा बितरदेवाण होंति बत्तीसा । हैं वे किल्विषक देव हैं। यहाँ अपने आप यह कप्पामर चउबीसा चन्दो सूरो णरो तिरो।" प्रश्न होता है कि किल्विषक जातिके देवोंको अन्य इसका क्या कारण है कि आचरणों में भेद होते प्रकारके देव अपनी अपेक्षा नीच समझते हैं कि हुए भी तिर्यश्चमात्रको समानरूपसे नीचगोत्री कहा नहीं ? यदि नीच नहीं समझते तो किल्विषिकोंको गया है ? अमरावतीसे बाहर दूर क्यों रहना पड़ता है और ४-नारकियोंमें ऐसे जीव भी होते हैं जिनके वे अस्पृश्य क्यों हैं ? एवं अनीक तथा आभियोग्यक तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध होता है। क्या वे जीव आचरण शेष सात प्रकारके देवोंकीदृष्टिमें उच्च हैं भी अन्य नारकियोंकी तरह नीचाचरणी ही होते वा नीच ? देवोंके दश प्रकारके भेद और उनके सर्व नारकी जीवोंका समान नीचाचरणी
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २ ]
और नीचगोत्री होना समझ में नहीं आता । ५ – कुभोग- भूमिके मनुष्य नाना प्रकारकी कुत्सित आकृतियोंके होते हैं और सुभोग- भूमिकी अपेक्षा यह भी कहा जायगा कि वे कुभोगके भोगी हैं। क्या कुभोग भूमि और सुभोग भूमिके जीवोंके
चरणों में फर्क नहीं होता ? यदि होता है तो फिर अखिलभोग-भूमि-भव उच्चगोत्री ही क्यों कहे
गये ?
गोत्र- विचार
इन सब बातोंपर विचार करने से यही मालूम होता है कि गोत्रकर्मके विषय में जैनोंका जो सिद्धा
है वह केवल मनुका, और मनुष्यों में भी 'भारतवासियोंका व्यवहार-मत है। भारतीय लोग सब प्रकारके देवी देवताओंकी उपासना करते हैं, भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, कोई भी हो सबके देवालय भारतमें मौजूद हैं, सबके स्तोत्र पाठ संस्कृत भाष हैं और उनके भक्त अपने अपने उपास्योंका कीर्तन करते हैं । इसलिये जैनोंने देवमात्रको
गोत्र कहा है; क्योंकि वे मनुष्योंसे उच्च और शक्तिशाली एवं अनेक इष्टानिष्टके करनेमें समर्थ माने गये हैं । पशु और नारकियों को कोई मनुष्य अपने से अच्छा नहीं समझता, न उनके गुणाव गुणपर विचार करता है, इसलिये मनुष्यों के साधा - रण ख्यालके मुताबिक तिर्यञ्च और नरकगति में एकान्त नीच गोत्रका उदय बताया गया । यदि चतुर्गतिके जीवोंके आचरण और व्यवहारोंको दृष्टि में रखकर गोत्रके लक्षण तथा उदय व्यवस्थाका वर्णन होता तो उसमें 'सन्तानकमेणागय' पदकी योजना कभी नहीं होती, और न देव, नारकी तथा तिर्यञ्चगतिमें एकान्तरूपसे एक ही प्रकारके गोत्रका दय कहा जाता ।
१८६
गोत्रके लक्षणकी उपर्युक्त आलोचना करके हमने यह दिखला दिया है कि यह लक्षण मनुष्योंकी व्यवहार स्थिति के अनुसार बनाया गया है । इस लक्षण से निम्नलिखित बातें और निकलती हैं:
TOT
(१) जीवका बही आचरणगोत्र कहा जायगा जो कुल परिपाटी से चला आता हो, अर्थात् जो आचरण कुलकी परिपाटीके मुआफिक न होगा उसकी गोत्रसंज्ञा नहीं है और वह गोत्रकर्मके उदयसे नहीं किन्तु किसी दूसरे ही कर्मके उदयसे माना जायगा ।
(२) हरएक आचरण के लिये कुलविशेषका नियत होना जरूरी है और हरएक कुलके लिये किसी विशेष आचरणका ।
परन्तु, जैनधर्म में मानव समाजके विकासका जो वर्णन है वह कुछ और ही बात कहता है; उसको यदि सही मानते हैं तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि भरतक्षेत्र में एक समय ऐसा था जब मनुष्यों में न तो कोई कुल थे और न उनकी परिपाटी के कोई आचरण थे, इसलिये उस समयके जीवोंके गोत्रकर्म्मका उदय भी नहीं था । बर्तमान अवसर्पिणीके प्राथमिक तीन आरोंमें भोगभूमिकी रचना थी; भोग-भूमियोंमें कुल नहीं होते, कुलकरोंका जन्म तीसरे कालके आखीर में होता है । इस प्रकार कुलोंके अभाव में भोग-भूमियोंके चरणों की गोत्रसंज्ञा नहीं कही जायगी। यदि ऐसा कहा जाय कि समस्त भोग- भूमियों का एक ही कुल था और उनके आचरण समान थे इसलिये भोगभूमियोंके गोत्रका सद्भाव था, तो आगे कुलकरों, तीसरे कालके अन्तके भोग भूमियों तथा कर्म
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
भूमिके आदिके मनुष्योंमें गोत्रका अभाव स्वयमेव सिद्ध होता है; क्योंकि इनके आचरण इनके पूर्व जोंसे सर्वथा भिन्न और विरुद्ध थे । इसको हम नीचे स्पष्ट करते हैं
भोग भूमिया मनुष्य न खेती करते थे, न मकान बनाते थे, और न भोजन-वस्तु पकाते थे; वे अपनी सब आवश्यकतायें कल्पवृत्तों से पूरी करते थे । इसलिये उनमें असि, मसि, कृषि, बाणि - जय सेवा और शिल्पके कर्म व्यापार भी नहीं थे । उनको आपस में किसीसे कुछ सरोकार नहीं था, अपने अपने युगलके साथ अपनी कल्पतरू बाटिकामें सुखभोग करते थे । अतएव न कोई उनका समाज था और न कोई सामाजिक बन्धन । उनमें विवाह-संस्कार नहीं होता था; एक ही माता के उदरसे नर-मादाका युगल उत्पन्न होता था, जब Satara होते थे तब दोनों बहिन और भाई स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध कर लेते थे । युगल पैदा होते ही उनके माता-पिता का देहान्त हो जाता था । इस प्रकार युगल मनुष्योंकी समान जीवन स्थिति उस समय तक जारी रही जब तक कि कल्पवृक्षों की कमी न हुई । तीसरे आरेके अस्त्रीर में कल्पवृक्षों की न्यूनता से लोगोंने अपने अपने वृक्षोंका ममत्व कर लिया और कई युगल वृक्षोंके लिये आपस में क्लेश करने लगे । तत्पश्चात् परस्परके झगड़े निपटाने के लिये उन युगलियोंने अपने मेंसे एक युगलको न्यायाधीश बनाया जो पहिला कुलकर हुआ और उसके वंशज आगेको न्यायाधीश तथा दण्डनीतिविधायक होते रहे। इन्हीं कुलकरोंकी सन्तान श्रीऋषभदेव तीर्थकर हुए जिन्होंने पट्कर्म्मकी शिक्षा दी; उनके उपदेशसे प्रथम पाँच कारीगर
[ मार्गशीर्ष, वीर - निर्वाण सं० २४६६
बनेः - - १ कुम्भकार, २ लोहार, ३ चित्रकार, ४ वस्त्र बुननेवाले, ५ नापित अर्थात् नाई । ऋषभदेवने ही विवाहविधि चलाई और सगे बहिन भाई में स्त्री भर्तारका सम्बन्ध होना बन्द किया ।
इस कथन मुआफिक जिस जिस भोगभूमियाने अपनी सहोदराको छोड़कर दूसरी से विवाह किया, अथवा ऋषभदेवजी की शिक्षा पाकर कुम्हार, लोहार आदिके कामको किया, उसका आचरण उसके माता पिता के चरणों से बिलकुल ही विपरीत और निराला था; अर्थात उसका आचरण अपने कुल की परिपाटीके अनुसार नहीं था, इसलिये वह गोत्रकर्मके उदयसे नहीं किन्तु किसी अन्य ही कम्र्मोदयका फल था । अतएव कर्मभूमिकी आदिमें जो मनुष्योंके आचरण थे उनकी 'गोत्र' संज्ञा नहीं कही जा सकती और उस समयके सब लोग गोत्रकम्र्मोदय रहित थे । आठ कम्मोंकी जगह उनके सात ही का उदय था । गोत्रकर्मका उदय उनकी सन्तानके माना जायगा जिन्होंने अपने आचरण माता पिता प्
उन्हीं का पालन किया। यदि उस समय किसी नाई के लड़केने खेतीका काम किया और नापितके कार्यको न सीखा तो उसका भी आचरण 'सन्तानक्रमागत' न होनेसे गोत्रसंज्ञक न होगा, उसके भी गोत्रकर्म्माभाव ही कहा जायगा । ऐसे सन्तानकर्म्मरहितं आचरणोंके लिये कर्मतत्व-ज्ञानमें कौनसा विशेष कर्म्म है सो ज्ञानी पाठक खुद विचारें; अष्टकर्मके उपरान्त तो कोई कर्म्मनहीं कहा गया और इन मूलोत्तर प्रकृतियों को इनके लक्षणानुसार उक्त सन्तान - क्रम रहित आचरणोंके कारण कह सकते नहीं ।
का
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
गोत्र विचार
'सन्तानक्रमागत' पद पर एक शंका यह और चरणी हैं और अमुक अमुक नीचाचरणी। तदुहोती है कि जिस भोग-भूमियोंकी सन्तानने ऋषभ- परान्त युगान्तरों तक उन कुलोंमें निरन्तर एक ही देवजी की शिक्षानुसार अपने पूर्वजोंके आचरणको प्रकारका आचरण रहे इसकी गांरटी क्या ? किसी छोड़कर नवीन आचरण ग्रहण कर लिये, उसके भी कुलमें एक ही तरहका आचरण निरन्तर बना पुत्रका आचरण पिताके अनकूल होने पर 'सन्तान रहेगा ऐसा मानना प्रकृति और कर्म सिद्धान्तके क्रमागत' कहा जायगा कि नहीं; अर्थात् एक ही प्रतिकूल है, प्रत्यक्षसे बाध्य है। किसी जीवके पीढ़ीके आचरणको 'सन्तानक्रमागत' कहेंगे या आचरण उसके पिता या पूर्वजोंके अनुसार अवनहीं; मूलत: प्रश्न यह है कि कितनी पीठीका आच- श्यमेव ही हों, ऐसा मानना एकान्त हठ है। रण सन्तान क्रमागत कहा जा सकता है ? इसका यदि आचार्योंका यह अभिप्राय हो कि उक्त ब्योरा किसी ग्रन्थों में देखने में नहीं आया। हिंसादि आचरणों में प्रवृत्ति और निवृत्ति जीविका
अब जरा आचरणकी उच्चता नीचता पर के षट्कर्म त था पेशोंसे नियोजित है; कई पेशे विचार कीजिये। 'आचरण' शब्दसे असलियतमें और कर्म तो ऐसे हैं जिनके करनेवाले नीचाचरणी
आचार्योंका क्या क्या अभिप्राय है सो साफ़ साफ नहीं होते और कोई ऐसे हैं जिनको करनेसे जीव कहीं नहीं खोला गया। यदि 'आचरण' शब्दसे नीचाचरणी हो ही जाता है अथवा नीचाचरणी हिंसा, झूठ, चोरी, सप्त व्यसनादिमें प्रवृत्ति ही उस पेशेको करता है उच्चाचरणी नहीं । प्रयोजन अथवा निवृत्तिसे मतलब है तब तो गोत्रके उक्त यह हुआ कि कई पेशोंके साथ उच्चाचरणका लक्षणानुसार ऐसा मानना पड़ेगा कि दो तरहके अविनाभावी सम्बन्ध है और कतिपयके साथ कुल यानी वंशक्रम होते हैं, एक वे जिनमें हिंसादि नीचाचरणका । इसमें कई अनिवार्य शंकाएँ पैदा आचरण वंश परम्परासे नियतरूपसे कभी हुए होतीहैं । चतुर्गतिके जीवोंकी अपेक्षा तो यह सर्वथा ही नहीं, अतएव उनमें उत्पन्न हुए जीव उच्च गात्री असम्भव है। मनुष्योंकी अपेक्षा लीजियेकहलाते हैं; दूसरे वे कुल जिनमें हिंसादिआचरण (क) भोग-भूमियोंके कोई पेशे वा जीविका कर्म नियत रूपसे परम्परासे होते आये हैं, इसलिये नहीं थे अतः वे सब नीचाचरणी तथा गोत्रकर्म उनमें जन्म लेने वाले जीव नीच गोत्री होते हैं। रहित कहे जायेंगे । यह प्रचलित गोत्रोदय-मतसे ___ चतुर्गतिके जीवोंका विचार न करें तो ऐसे उच्चा- विरुद्ध पड़ता है। चरणी नीचाचरणी नियत कुलका कर्मभूमिके आ- (ख) षट्कर्म और प्रेशोंका उपदेश आदि दिमें सर्वथा अभाव था । भोग-भूमियोंमेंसे तो ऐसे तीर्थकरने दिया था और उन्होंने ही कारीगरी तथा नियत कुल थे ही नहीं; अतः नियतकुलों के अभाव शिल्पके कार्य सिखाये थे, अन्नादिका अग्निमें में युगादिमें सब मनुष्य गोत्र तथा गोत्र कर्म रहित पकाना भी उन्होंने ही सिखाया। वे अवधिज्ञानी थे। जैन ग्रन्थों में इस बातका ब्योरा कहीं भी नहीं और मोक्षमार्ग के आदि विधाता थे; यदि उच्चाचरणी है कि अमुक अमुक कुल तो हमेशाके लिये उच्चा- और नीचाचरणी दोप्रकारके पेशे वास्तवमें होते तो
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
होने वाले जीवोंके आचरण नियमतः उच्च ही होने चाहियें, तभी आचरण और जीविका - कर्म में अविनाभावी सम्बन्ध माना जा सकता है । परन्तु कथा पुराणों में इसके विपरीत हजारों उदाहरण मिलते हैं । रावण क्षत्रियकुलोत्पन्न तीन खण्डका राजा था, उसने सीता परस्त्रीका हरण किया जिसके कारण लाखों जीवोंका रणमें खून हुआ । युधिष्ठिरादि पाण्डव और कौरव क्षत्रियोद्भव थे, उन्होंने जूना खेला और व्यसनको यहां तक निभाया कि द्रौपदी स्त्रीको भी दावमें लगाकर हार बैठे। पाठक,. जरा विचारिये कि क्या ये आचरण उच्च थे । हमने ये उदाहरण दिग्दर्शनमात्रको लिख दिये हैं, वरना ( अन्यथा ) पुराणों में अगणित मिसालें (उदाहरण) मौजूद हैं जिनसे विदित होगा कि क्षत्रियोंमें ही अधिकतर नीचाचरणी हुये हैं। ऐसी अवस्था में पेशोंके साथ आचरणोंका स्थिर सम्बन्ध कैसे माना जा सकता है ?
वे नीचाचरणके पेशोंको कभी नहीं सिखाते और न किसीको उनके व्यापार का आदेश करते, जान बूझकर वे जीवों को पाप में न डालते, प्रत्युत सबकी ही उच्चाचरणी पेशों की शिक्षा देते । जीविका कर्म और पेशों के साथ उच्चाचरण और नीचाचरण के सम्बन्धी योजनासे भगवान् ऋषभदेव पर बड़ा भारी दूषण आता है । इससे यही कहना पड़ेगा कि या तो उच्चाचरण और नीचाचरणका सम्बन्ध पेशों में है नहीं, और यदि है तो षट्कर्म और भिन्न भिन्न शिल्पके कार्योंकी शिक्षा ऋषभ देव जी ने नहीं दी किन्तु प्रकृतिका विकास के नियमानुसार शनैः शनैः जनताकी जरूरतों से कभी कुछ और कभी कुछ ऐसे नये नये आविष्कार होते रहे जैसे आजकल होते हैं । ऋषभदेवजी का चलाया हुआ कोई भी पेशा नीचाचरणका नहीं हो सकता, तदनुसार कुम्हार, जुलाहा, लोहार, नाई सब उच्च गोत्री हैं, पेशेकी अपेक्षा ये लोग नीचाचरणी नहीं, अथवा ये कहिये कि कुम्हार आदिके पेशे ऋषभदेवजी ने नीचाचरण या नीचाचरणीके कारण नहीं समझे और न ऐसा किसीको प्रकट किया । तदनुसार जीविका कर्म की अपेक्षा से ऋषभ देवजीकी दृष्टिमें न कोई उच्च गोत्र था, न नीच । पाठक विचार करें कि ऐसी अवस्था में उच्च और नीच आचरणोंके नियत कुलोंका सर्वथा अभाव है कि नहीं; फिर गोत्र और गोत्रकर्मकी क्या बात रही ?
(ग) जैनधर्म में प्रथमानुयोग के अनुसार जिन कुलों में क्षात्रकर्म होता है वे उच्चगोत्र कहे जांगे । इसका यह अभिप्राय होता है कि जिन कुलोंमें परिपाटी से क्षात्र कर्म होता है उनमें उत्पन्न
उपर्युक्त बातोंसे यह साफ होजाता है कि लोकमें न तो ऐसे कुल ही हैं जिनके लिये यह कहा जा सके कि उनमें उच्च या नीचाचरण हमेशा के लिये परिपाटी से चला आता है और न जीविका कर्म या पेशों के कुलोसे आचरणोंका अविनाभावी सम्बन्ध सिद्ध होता है ।
अतः गोम्मटसारमें जो गोत्रका - लक्षण है और जैन सिद्धान्तियोंने गोत्रकम्र्मोदय व्यवस्था जैसी मानी हैं, ये सब प्रकृति - विकासके विरुद्ध हैं; ये सार्वकालिक और चतुर्गतिके जीवों पर दृष्टि रखकर नहीं बनाये गये, किन्तु भारतवासियों के व्यवहार और खयालोंके अनुसार इनको कल्पना हुई हैं । अमुक प्रकारके कुल जैसे ब्राह्मणादि नियमसे
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरशासनांक पर कुछ सम्मतियां
वर्ष ३. किरण २ ]
उच्चारणी ही होते आये हैं और होते रहेंगे, इनमें उत्पन्न हुए जीवों को उच्च ही मानना एवं इनसे इतर कुल जैसे कुंभकार आदि शिल्पकार नापित प्रभृति सेवा कर्मी नीचाचरणी हैं, इनको सदा सर्वदा के लिये नीचही मानना, नीचता उच्चता जन्म से है, गुण, स्वभावसे नहीं; एक कुल जाति का कर्म दूसरे कुल- जातिवाला न करे, इत्यादि धारणायें भारत में ही हजारों वर्षोंसे अचलरूप से चली आरही हैं। इन्हीं वंश-परम्परागत धारणाओं और व्यवहारों के मुताबिक जैनाचार्योंने गोत्रकर्म्मका लक्षण रचा है ।
गोम्मटसार के अलावा सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि तत्वार्थ सूत्र की टीकाओं में जो उच्च और नीच गोत्रका लक्षण लिखा है उससे भी यही निस्सन्देह प्रतीत होता है कि गोत्र-कर्मकी योजना जैन विज्ञोंने कर्म-सिद्धांत में भारतीय मनुष्यों ही के विचार से की है; चतुर्गतिके जीवोंमें या तो गोत्र
१३३
कर्म और गोत्रका सद्भाव नहीं और है तो वह क्या है, उसका लक्षण इन प्रचलित शास्त्र मतोंकी व्यवहार-रूढ़ि से नहीं मिल सकता। टीकाकार आचार्य सब यह लिखते हैं कि “जिसके उदयसे लोक पूज्य इक्ष्वाकु आदि उच्च कुलोंमें जन्म हो, उसे 'उच्च गोत्र कर्म' कहते हैं, और जिसके उदय से निन्द्य दरिद्री अप्रसिद्ध दुःखोंसे आकुलित चाण्डाल आदिके कुलमें जन्म हो, उसे नीच गोत्र कर्म' कहते हैं । पाठक देखलें कि ये लक्षण चतुर्गतिके जीवों में कैसे व्यापक हो सकते हैं ?
परन्तु, पाठकजन, गोत्र कर्म असलियत में है। कुछ जरूर, उसके अस्तित्व से हम इन्कार नहीं कर सकते, चाहे लोक व्यवहारी जैनाचार्योंके निर्दिष्ट लक्षणमें हम उसका यथावत् स्वरूप नहीं पाते और अनेक अनिवार्य शंकाएँ होती हैं तथापि प्रकृति-विकासमें उसकी खोज करनेसे हम गोत्र और गोत्र कर्मके शुद्ध लक्षण तक पहुँच सकते हैं ।
वीरशासनांक पर कुछ सम्मतियां
(१) प्रोफेसर ए० एन० उपाध्याय, एम. ए. डी. मुझे इसमें ज़राभी सन्देह नहीं कि श्रापका 'अनेकान्त' लिट कोल्हापुरहिंदी पत्रों में प्रधान स्थान रखता है । यह सुनिश्चित् है कि जैन साहित्यका विद्यार्थी इसके पृष्ठों में बहुतसी बहुमूल्य सामग्रीको मालूम करे और इसे हमेशा अपने पास बार बार उल्लेखके लिये रक्खे ।
“I am in due receipt of the ( वीरशासन) Number of the 'Anekant'. I feel no doubt that your 'Anekant' occupies a prominent position among Hindi Journals. A student of Jaina Lite - rature is sure to find a good deal of valuable material in its pages; and he has to keep it always at his elbow for repeated reference."
(२) न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी शास्त्री, न्यायाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशी
" "विशेषाङ्क' देखा, हृदय प्रसन्न होगया । लेखोंका चयन आदि बहुत सुन्दर हुआ है। बा० सूरजभानजी तो सचमुच प्रचंड रूढ़ि विघातक युवक हैं । वे रूढ़ियों के मर्मस्थानोंको खोज २ उन पर ही प्रहार करते हैं ।
अर्थात् 'अनेकान्त' का 'वीर शासनांक' मिला । मैं पत्रकी समुन्नतिकी बराबर शुभ भावनाएँ भाता हूँ ।"
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुद्धिहत्याका कारखाना
अवतारवाद, भाग्यवाद और कलिकल्पना
[ 'गृहस्थ' नामका एक सचित्र मासिकपत्र हालमें रामघाट बनारससे निकलना प्रारम्भ हुआ है, जिसके सम्पादक हैं श्री गोविन्द शास्त्री दुगवेकर और संचालक हैं श्रीकृष्ण बलवन्त पावगी । पत्र अच्छा होनहार, पाठ्य सामग्रीसे परिपूर्ण, उदार विचारका और निर्भीक जान पड़ता है । मूल्य भी अधिक नहींकेवल १||) रु० वार्षिक है। इसमें एक लेखमाला “झब्बूशाही” शीर्षकके साथ निकल रही है, जिसका पाँच प्रकरण है 'शाहीका बुद्धिहत्याका कारखाना' । इस लेखमें विद्वान लेखकने हिन्दुओंके - तारवाद, भाग्यवाद और कलिकालवाद पर अच्छा प्रकाश डाला है । लेख बड़ा उपयोगी तथा पढ़ने और विचारनेके योग्य है । अतः उसे अनेकान्तके पाठकोंके लिये नीचे उद्धृत किया जाता है।
7
- सम्पादक ]
प
मनुष्य-जीवनमें बुद्धिका स्थान बहुत ऊँचा है। बुद्धि की बुद्धिका नाश करते हैं,
सहायतासे मनुष्य क्या नहीं कर सकता । बुद्धिके प्रभावसे वह असम्भवको भी सम्भव बना देता है । आर्य चाणक्य ने कहा है:
एका केवलमेव साधनविधौ सेनाशतेभ्योऽधिका । नन्दोन्मूलन- दृष्टवमहिमा बुद्धिस्तु मागान्मम ॥
मेरी बुद्धिकी शक्ति और महिमा नन्दवंशको जड़ से उखाड़ देनेमें प्रकट हो चुकी है। मैं अपने उद्देश्यकी सिद्धिमें बुद्धिको सैकड़ों सेनाओं से बढ़कर समझता हूँ । मेरा सर्वस्व भले ही चला जाय, किन्तु केवल मेरी बुद्धि मेरा साथ न छोड़े। महाभारत में लिखा है:
शस्त्रैर्हतास्तु रिपवो न हता भवन्ति । प्रज्ञाहतास्तु नितरां सुहता भवन्ति ॥ प्रमत्रों के द्वारा काट डालने से ही शत्रुओंका संहार नहीं होता, किन्तु जब उनकी बुद्धि मार डाली जाती है, तभी उनका पथार्थ नाश होता है। गीतानेभी बुद्धि नाशको ही मनुष्यके नाशका कारण माना है । राजनीतिज्ञ चतुर पुरुष अपने देश या राष्ट्रकी भलाई के लिये
अनाचारोंके प्रवर्तक ब्लोग अपने स्वार्थके लिये अनन्त स्त्री-पुरुषों की बुद्धिहत्या कर डालते हैं ।
यह हम कह आये हैं कि, मनुष्य जातिका ज्ञान अभी अपूर्ण है और अपूर्ण ज्ञान कदापि भ्रान्ति-रहित नहीं होता ।' मानवी बुद्धिकी इसी दुर्बलतासे लाभ उठाकर संसारमें अनेक लफंगे झब्बू निर्माण हो गये हैं । मनुष्यों की आवश्यकताएँ बहुत होती हैं और उनकी पूर्तिके लिये वे ऐसे साधन खोजा करते हैं कि परिश्रम कुछ भी न करना पड़े या बहुत कम करना पड़े और फल पूरा या आवश्यकतासे अधिक मिल जाय । जब उनकी बुद्धि चकरा जाती है और उन्हें कोई स्पष्ट मार्ग नहीं सुभम पड़ता, तब वे उन झब्बुनोंके चक्कर में फँस जाते हैं, जो सर्वज्ञ या लोकोत्तर ज्ञानी होनेका दावा करते हों। ऐसे भ्रान्त, भले और भोले मनुष्योंकी बुद्धि को वे अपने चलाये बुद्धि-हत्या के कारख़ाने में इस प्रकार पीस डालते हैं कि संसारमें उनका कहीं ठिकाना ही रह जाता ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
बुद्धि हत्याका कारखाना
सांसारिक दुःखोंसे व्याकुल भावुकोंको झलबू लोग जोड़ी कालके प्रारम्भ होते ही हिमालयकी गुहा में जाकर समझा देते हैं कि ईश्वर किसी अज्ञात जगतसे इस धरा तपस्या कर रही है । कलिके अन्ततक हमें दुःख ही-दुःख धाममें अवतीर्ण होकर मानवी शक्तिसे बाहरकी अन- भोगना है। इसलिये केवल रामनाम जपते हुए लाखों होनी बातें कर डालता है। उन्हें वे यह भी विश्वास वर्ष दुःख सहते रहो । कलिका अन्त होते ही उक्त ऋषि दिलाते हैं, कि हमें ईश्वरका दर्शन हो गया है और अवतीर्ण होंगे और हमारे सब दुःख दूर कर देंगे। जिन्हें उसका दर्शन करना हो, वे हमारे पास चले आवें बौद्धिक दायसाका इससे बढ़कर यहां प्रमाण मिल हम भी ईश्वरके ही एक अवतार हैं और यदि चाहें, तो सकता है ? इसी भावनासे हम राम, कृष्ण, व्यास, मनुष्योंका भला-बुरा सब कुछ कर सकते हैं। बाल्मीकि, शंकराचार्य, रामदास, तुलसीदास आदिकी ___वास्तवमें यदि किसीको ईश्वरका साक्षात्कार हो कौन कहे, तिलक गांधी तकको अवतार मानने लगे हैं गया होता और दूसरेको भी ईश्वरका दर्शन करानेकी और अपनी बुद्धिका दिवाला खोल बैठे हैं । हम यह किसीमें शक्ति होती, तो रेडियो यन्त्रकी तरह एक ही नहीं समझते कि, प्रत्येक जीव ईश्वरका अंश है और ईश्वर घर-घर देख पढ़ता। परन्तु ईश्वरके सत्यरूपके 'नर करनी करे, तो नारायण भी हो सकता है।" सम्बन्धमें ही अभी एकमत नहीं है, उसका दर्शन कौन आश्चर्यकी बात तो यह है कि, जिन्हें हम अवतार किसको करावे ? किसीका ईश्वर सात श्रासमानके ऊपर मानते हैं, वे क्या कहते और क्या करते हैं, उस ओर बैठा है, तो किसीका सात समुद्रोंके पार क्षीरसागरमें ध्यान भी नहीं देते; किन्तु उनके निमित्तसे जो उत्सव शेषनागपर सोया है। किसीका ईश्वर सृष्टि के अन्तकी करते हैं, उनमें तालियां पीटकर व्याख्यान झाड़ते या प्रतीक्षा करता हुआ न्यायदानके लिये उत्सुक हो रहा मेवा मिश्रीका भोग लगाकर उदरदेवको सन्तुष्ट करते हैं है, तो किसीका सप्ताह में एक दिन विश्राम करता है। जहां तक देवताओंको मानकर और उन्हींपर, जीवन किसीका ईश्वर सगुण है, तो किसीका निर्गुण । किसी- कलहका सब भार सौंपकर परावलम्बी बम जाना, कैसी का ईश्वर क्रोधी है, तो किसीका शान्त । किसीका उपासना है ? शून्य है, तो किसीका क्रियाशील । सच्ची बात तो यह सचमुच देखा जाय, तो हमारी इस कोरी उपाहै कि, अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार मनुष्योंने ईश्वरकी सनाकी अपेक्षा पाश्चात्य साधनोंकी उपासना कहां कल्पना करली है। तर्क और बुद्धिको जहांतक स्थान बढ़ी चढ़ी है । हम पृथ्वी, सूर्य, वायु अग्नि आदिको मिला, मनुष्य बराबर आगे बढ़ते गये; परन्तु जब दोनों देवता मानते और चन्दन फूलोंसे उनकी उपासना की गति कुण्ठित हो गई. तब उन्होंने किसी एक ईश्वर करते हैं, जिसका कुछ भी फल नहीं होता। पाश्चात्य को मान लिया और उसोपर निर्भर रहकर कर्म करनेसे साधकोंने इन्ही पंचदेवोंकी ऐसी उपासनाकी, जिससे हाथ पैर बटोर लिये।
वे उनके वशमें हो गये और नाना प्रकारसे मनुष्यजाति हिन्दुओंकी भोली भावना है कि, संसारमें जितने का उपकार करने लगे। पाणिनीने भाणशास्त्र निर्माण कुछ बड़े बड़े काम होते हैं, अवतारी पुरुष ही करते हैं। किया, आर्य भट्टने गणित शास्त्रके सिद्धान्त प्रस्थापित भागवसमें तो यहां तक लिखा है कि नर-नारायणको किये, ममु याज्ञवल्क्य श्रादिने प्राचारोंका वर्गीकरण
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
अनेकान्त
*
किया। कौटिल्यने अर्थशास्त्रकी रचना की, गैलीलियो ने विद्युत् शक्तिका पता लगाया, न्यूटनने गुरुत्वाकर्षणका नियम खोज निकाला, ये सब प्रकृतिक देवताओंके सच्चे उपासक थे । फिर भी मनुष्य ही थे । यदि ईश्वर को मान लिया जाय, तो वह भी स्थूल देह धारण करके ही प्राकृतिका उपभोग करता है और इस विचार से हमें भी ईश्वर होनेका पूर्ण अधिकार है । तब हम लाखों वर्षो ईश्वरके अवतार प्रतीक्षा करते हुए दुःख में क्यों पड़े रहें ?
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
agrके बुद्धिहत्या के कारखाने मेंजब कोई “श्रांख का धन्धा गाँठका पूरा" पहुँच जाता है, तब पहले ही प्रकोष्ठ ( कमरे) में उसे अवतारवादकी दीक्षा देकर दीक्षित उर्फ श्रात्मीय बना लिया जाया है। दीक्षा लेते ही वह अन्धश्रद्धाकी अन्धकारमयी एकान्त गुहा में प्रवेश करनेका अधिकारी बनता है । वह गुहा उस कारखानेका दूसरा प्रकोष्ठ है । उसमें लेजाकर उस साधकको भाग्यदेवका साक्षात् दर्शन कराया जाता है और सदा " जपने के लिये यह मन्त्र रटा दिया जाता हैः"व्हे है वही जो राम रचि राखा | को कर तर्क बढ़ावहि साखा ॥ "
इस मन्त्र जपते ही उसे 'नैष्कर्म्यसिद्धि' प्राप्त हो जाती है अर्थात् अपने अधःपात के लिये वह अकर्मण्य निकम्मा 'काठका उल्लू' बन जाता है। उसमें फिर यह सोचनेकी शक्तिही नहीं रहती कि भाग्य भी प्रयत्न (कर्म) का ही एक फल है।
1
कर्मके तीन विभाग हैं, सञ्चित, प्रारब्ध, क्रियमाण | इस जन्म या पूर्व जन्मोंमें जो कर्म हम कर चुके हों, वे सञ्चित हैं । उनमें से जिनका भोग श्रारम्भ हो गया हो, वं प्रारब्ध हैं और जो भोग रहे हैं, वे क्रियमाण हैं । परन्तु क्रियमाण प्रारब्धका ही परिणाम हैं, इसलिये लोकमान्य तिलक और वेदान्तसूत्रोंने संचित - केही प्रारब्ध और अनारख्ध ये दो भेद माने हैं । संचित में से जिनका भोग आरम्भ हो गया है, वे प्रारब्ध और जिनका भोग शेष है वे अनारब्ध हैं। निष्कामकर्म योग से अथवा ज्ञानसे प्रारब्धका प्रभाव हटाया जासकता है और थनारब्ध दुग्ध किये जा सकते हैं । क्योंकि मनुष्य प्रवाह में पड़े हुए लकड़ी के लट्ठ के समान नहीं है; किन्तु कर्म करने में स्वतन्त्र है । उसमें इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति हैं । वह पशुकी तरह पराधीन नहीं, किन्तु
पुराणों में दस अवतारोंका वर्णन है। नौ अवतार होगये हैं, दसवां बाकी है। उस दसवेंको भी हम बाकी क्यों बचने दें ? कलंकी अवतार घोड़े पर सवार है, हाथ में तलवार लिये है और म्लेच्छों का संहार कर रहा है । इसी स्वरूपमें हम शिवाजी का भी चित्र देखते हैं तब क्यों न मान लें कि, शिवाजीके साथ ही सब अवतार समाप्त हो गये हैं और अब हमें अपने उत्कर्ष के मार्ग पर आप ही अग्रसर होना है ? अवतारवाद बुने निर्माण किया है और सभी झब्बू अपने को ईश्वर के अवतार होने की घोषणा करते हैं । इस से उनकी तो बनाती है, किन्तु भोली-भाली जनता कारण ठगी जाती है । अतः जब कि, हमें संसार में सम्मानके साथ जीना है, तब मनमें दौर्बल्य उत्पन्न करनेवाले अवतारवादको भी पूर्वोक्त दो ऋषियोंके साथ हिमालयकी गहरी गुहा में बन्द कर देना नितान्त श्राव श्यक है। ईश्वर न कहीं जाता है, और न थाता है। और वह सर्वव्यापक है, प्राणिमात्रके अन्तःकरणमें स्थित है और चैतन्यरूपसे सर्वत्र व्याप्त है । उनके श्रानेकी अवतरित होनेकी -- बाट जोहना मूर्खता है। मनुष्यको अपना उद्धार आप ही कर लेना होगा । "उद्धरेदत्म नात्मानम्” यही गीताका उपदेश है ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
बुद्धि हत्याका कारखाना
१६७
अपने भाग्यका श्राप विधाता है । उसे काल्पनिक भाग्य लुड़क जाना,जान बूझकर विष पी लेना, बच्चोंको पढ़ने न पर भरोसा नहीं रखना चाहिये । ऐतरेय ब्राह्मणमें भेजकर लण्ठ रखना क्या उचित होगा? पुरुषार्थीके लिये लिखा है:
संसारमें असम्भव कुछ भी नहीं है । प्रयत्नवादी पुरुषके आस्ते भग आनीनस्योद्धस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
श्रागे भाग्य हाथ बाँधे खड़ा रहता है। प्रयत्नसे ही शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः ॥चरैवेति।।
कि देवोंको अमृतकी प्राप्ति हुई । अतः हे राम ! नपुंसकता
उत्पन्न करने वाले भाग्यवादको छोड़कर नवजीवन उत्पन्न ' अर्थात् जो मनुष्य घरमें बैठा रहता है, उसका भाग्य करनेवाले प्रयत्नवादको अपनानो; इसीमें तुम्हारा भी बैठ जाता है; जो खड़ा रहता है, उसका भाग्य खड़ा कल्याण है।" हो जाता है; जो सोया रहता है, उसका भाग्य सो समर्थ रामदासने भी कहा है:-"प्रयत्न देवता है जाता है और जो चलता फिरता है, उसका भाग्य भी और भाग्य दैत्य है। इसलिये प्रयत्नदेवकी उपासना चलने फिरने लगता है । इसलिये उद्योग करो, पुरुषार्थी करना ही श्रेयस्कर है।" सम्भव है कि, प्रयत्नरूपी देवबनो।
ताकी आराधना करते हुए भाग्यरूपी दैत्य वहाँ पहुँच- यदि ग़ज़नी, गोरी, हुमायू या अकबर भाग्य पर कर विध्न कर; इसलिये उस भाग्यरूपी दैत्यपशुको भरोसा रखकर बैठ रहते, तो मुसलमान ग्यारह सौ पकड़कर प्रयत्न देवके आगे उसकी बलि चढ़ा देनी वर्षोंतक भारतका शासन न कर सकते और यदि अंग्रेज़ चाहिये । भेड़ बकरे मारने से शक्ति-चामुण्डा प्रसन्न नहीं भाग्यदेवकी शरणमें चले जाते, तो दिल्लीपर अपना होती, किन्तु अवतारवाद, दैव -भाग्य-वाद जैसे झण्डा फहरा न सकते । उद्योगियोंके घर ऋद्धि-सिद्धियें प्रबल पशुओंको काट गिराने से ही वह सन्तुष्ट होकर पानी भरा करती हैं । योगवासिष्ठ में वसिष्ठ श्रीराचन्द्रसे मनुष्यजातिका कल्याण साधन करती है । जो बुद्धिमान् कहते हैं:-"भाग्य तो मूखों और आलसियोंकी गढ़ी मनुष्य प्रयत्नदेवको सिद्धकर लेता है, वह झब्बुत्रों के हुई एक काल्पनिक वस्तु है । उद्योगमें ही भाग्य निहित बुद्धिहत्याके कारखानेकी अन्धश्रद्धाकी अन्धी गुहातक है । उद्योग न हो, तो भाग्यका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। पहुँच ही नहीं पाता और यदि किसी कारणसे पहुँच पूर्वकर्म ही प्रारब्ध है और वह प्रबल पुरुषार्थसे नष्ट भी जाता है, तो वे रोकटोक उससे छुटकारा भी पा. किया जा सकता है। उद्योग प्रत्यक्ष है और भाग्य जाता है । अनुमान है । अनुमानकी अपेक्षा प्रत्यक्षका महत्व अ- झब्बू लोग भावुकों को अपने कारखानेमें लेजाकर, धिक है । उद्योगले स्वराज्य, साम्राज्य ही क्या, इन्द्रपद उन पे भाग्यवादकी तपस्या कराकर, जब परिक्रम करलेते भी प्राप्त हो सकता है । राह चलता भिखारी यदि राजा हैं, तब उन्हें तीसरे प्रकोष्ठकी कलिकल्पनाकी चरखी हो जाय, या किसी गरीबकी लड़की महारानी बन जाय, (मशीन ) पर चढ़ा देते हैं । पहले प्रकोष्ठमें मनुष्य तो वह उसके पूर्वकृत सत्कर्मोका फल है। यदि यह अन्धश्रद्ध बनता है, दूसरेमें निकम्मा--पुरुषार्थहीन-- कहा जाय कि, जो कुछ होता है, भाग्यसे हो होता है; हो जाता है और तीसरेमें लत्ते या लतखोरेका रूप तो भाग्यपर निर्भर रहकर भागमें कूद पड़ना, पहाड़से धारण कर लेता है। यों अच्छी तरह उसकी बुद्धिहत्या
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
हो जाने पर, अथवा यों कहें कि कच्चा माल पक्का मातृहत्याकारी ब्राह्मण परशुराम, नारीहरणकारी ब्राह्मण बन जाने पर, वह झबुओंके कुचक्र के पटारेमें भर लिया रावण, कुकुरका मांस भक्षण करनेकी इच्छा करनेवाले जाता है और फिर व्यावहारिक संसारमें उसका कोई महषि विश्वामित्र, शुक्राचार्यको ठगनेवाले जैनमत-प्रचारक अस्तित्व ही नहीं रह जाता।
देवगुरु बृहस्पति * प्रजापीडक नहुष और वेन, पत्नीकी बुद्धिहत्याके कारखानेकी कलिकल्पनाकी मशीन सदा फटकार सुननेवाले द्रोण, स्त्रीलम्पट दशरथ, बड़ी ही भयानक है और उसका प्रभाव भी असाधारण सपत्नियोंसे वैर करनेवास्त्री केकयी, चन्द्रमासे पुत्र उत्पन्न है। उसके महात्म्यका झब्बुओंने पहलेसे ही ऐसा वर्णन करनेवाली गुरुपत्री तारा, अर्थलोलुप ब्रह्मण धन्वन्तरी, कर रक्खा है कि, जिसका कोई ठिकाना नहीं । जब कन्यापर प्रासक्त होनेवाले ब्रह्मा, पतोहूपर रीझनेवाले कलिकालका यन्त्र अपने पूरे वेगसे चलने लगेगा, तब वसिष्ठ और अग्निसे गर्भ धारण करनेवाली ऋषिपत्नियों सब वर्ण शूद्र हो जायेंगे, ब्राह्मण धर्म कर्म छोड़ देंगे, तथा एकसे अधिक पति करनेवाली और कौमार्यावस्था गायें दूध और भूमि अन्न महीं देगी, मेघ यथासमय तथा वैधव्यावस्थामें सन्तानोत्पत्ति करनेवाली कितमीही नहीं बरसेंगे, पतिव्रताएँ भ्रष्ट हो जायंगी, पुरुष स्त्रियों के जीवनचरित्र लिख मारे हैं;जो उन्हींके मतानुसार स्त्री-जित,लम्पट और पर स्त्री .गामी होंगे, ब्राह्मणत्वका कलियुगके नहीं है। उल्कापात, वज्रपात और साठ २ चिन्ह जनेऊभर रह जायगा, धर्मवक्ता और साधु ढोंगी हजार वर्षों के अवर्षणोंकी बातें तो जहाँ तहाँ लिखी पाखण्डी-होंगे, राजा प्रजाको पीस डालेगा, पुत्र पिता मिलती हैं । उस समय पृथ्वी तो बात बातमें डोल की बात नहीं मानेगा, पति पत्नीमें प्रेम नहीं रहेगा, जाती और गौ बनकर ब्रह्माके पास भागती थी। यशपुत्र अपनी मातासे स्त्रीकी सेवा करावेगा, विषयसुख हो प्रसंगमें मद्य मांसके लिये देवता लड़ जाते थे और सभी प्रधान सुख माना जायगा, कामीलोग बहन बेटीका भी लोग भेड़, बकरे, सूअर, बछड़े, सांड़, गाय, घोड़े, गेंडे, विचार नहीं करेंगे, अर्थप्राप्ति ही पुरुषार्थ हो रहेगा, खच्चरतक मार मारकर खा पचा डालते थे । कलिवर्णनके भाई भाई एक दूसरेको छाती पर चढ़ेंगे । भाई-बहनों, लेखककी ही बात सही मान ली जाय, सो यही कहना देवरानी-जेठानियों और ननद-भौजाइयोंमें अनबन पड़ेगा कि अन्य युगोंकी अपेक्षा कलियुगमें ही सभ्यता रहेगी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, वज्रपात, अग्निदाह, रोग, का अधिक विकास हुआ है। भूकम्प आदि उत्पात बारबार होंगे, देवों ब्रह्मणों और वेदाङ्ग ज्योतिषने पांच वर्षका एक युग माना है; साधुओंको कोई नहीं मानेगा, सब लोग पापी और परन्तु झब्बुओंने लाखों वर्षों के युग बना डाले हैं । उनके अल्पायु होंगे, सभी मनुष्य अँगूठे के बराबर हो जायेंगे, हिसाबसे चार लाख बत्तीस हज़ार वर्षों का कलियुग है । धर्मका नामतक नहीं रहेगा मोक्षका विचार उठ जायगा जब तक वह रहेगा तबतक उनकी वर्णित परिस्थिति ही
और अधर्म बढ़कर संसार उच्छिन्न हो जायगा इत्यादि। * इस कथनमें जैनमत प्रचारक, यह विशेषण मानों ये सब बातें अन्य युगों में हुई ही नहीं। समझकी किसी ग़लती अथवा भूलका परिणाम जान
आश्चर्य तो यह है कि, कलिकालका भविष्य कथन पड़ता है; क्योंकि देवगुरु बृहस्पति जैनमत के कोई करनेवाले लेखकने ही ब्राह्मण वृत्रका वध करनेवाले इन्द्र . प्रचारक नहीं हुए हैं।
-सम्पादक
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३. किरण २ ]
बनी रहेगी और दिन दिन अधर्म, अनीति, अन्याय,. असत्य, हिंसा, अत्याचार अनाचार आदिका बाजार गरम रहेगा। बेचारोंने यह भी सोचनेके कट नहीं उठाये कि जब हमारे देखते हुए १०-१२ वर्षोंमें ही पूर्व - परिस्थिति बदल जाती है, तब लाखों वर्षोंतक वह एकसी कैसे बनी रह सकती है ? ऊनकी दृष्टिमें कलिका प्रताप अनिवार्य है, वह होकर ही रहेगा । नया राज्य, नयी संस्थाएँ, नये विचार, नये सुधार. जो रेलों मोटरोंको बन्द वे नया देखते हैं, सब कलिका प्रताप है । कोई नारी हरण करे, बलात् गोमांस खिला दे, अपमान करे, मूर्तियों को तोड़ फोड़ दे, राज पाट छीन ले, गलेमें डोरी बाँधकर बन्दरकी तरह नाच नचावे, - सब कलिकी महिमा है ।
कुछ
प्रश्न यह उठता है कि, कलि भारतवर्ष के ही पीछे क्यों पड़ा है ? विदेशों में वह अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाता ? क्या ख़ैबरघाटीके पार करने अथवा समुद्रके लाँघनेकी उसमें सामर्थ्य नहीं है या उन देशोंमें उसे कोई पूछता ही नहीं ? हमारे पडौसी जापान, रूस तथा तुर्किस्तानने अपने यहाँ सुधयुग प्रस्थापित कर दिया है और युद्धमें पराजित जर्मनी समराङ्गणमें ताल ठोककर फिर खड़ा हो गया है । इङ्गलैण्ड, अमेरिका, फ्रान्स, इटली श्रादि देशों में कलिकी दाल नहीं गलती । कदा • चित वहाँके स्वाभिमानी कर्मवीरों और उनकी जलस्थल- नभोमण्डल में मण्डित सुसज्जित युद्ध-सामग्रीको देखकर वह डर जाता हो। इसमे तो यही अर्थ निकलता है कि, दुर्बल राष्ट्रोंको ही कलि सताता है,
I
t
• सबलों के पास भी नहीं फटकता ।
विचार करने की बात है कि, आज बालक बालिको जो शिक्षा दी जाती है वह बन्द कर यदि उन्हें निरक्षर रक्खा जायगा, चायके बदले तुलसीके
बुद्धि हत्याका कारखाना
१६६
काढका प्रचार किया जायगा, पतलूनके बदले लोगलुङ्गी पहनना प्रारम्भ कर देंगे, साड़ीके बदले पाँच पाँच सौ कल्लियोंके पुरानी चालके लहँगे स्त्रियाँ पहनने लगेंगीं, पण्डित लोग कलाईमें घड़ी बांधने के बदले गलेमें जलघड़ी, धूपघड़ी या बालूकी घड़ी या घण्टा लटकावेंगे, चीनीके प्याले चम्मच के बदले लोग धर्धाश्राचमनी पञ्चपात्रका उपयोग करने लगेंगे, फ्रेन्चकटकर्जनकद- प्रालबर्टकटके बदले जटा-दाढ़ी बढ़ा लेंगे और कर बैलगाड़ियाँ - भैंसा गाड़ियाँ चलायी जाने लगेंगीं, तो क्या काल तुरन्त भाग जायेगा
4
hagra कलिके गालसे बचने के कुछ उपाय भी बताये हैं । जो कुछ मिल जाय, उससे सन्तुष्ट रहो, सत्यनारायण; ललनछट: यदि व्रतोत्सव कृपणता छोड़कर मनाया करो, दान-दक्षिणा में झब्बुनोंको हाथी-घोड़े, धन-रत्न, धान्य- वस्त्र, मिष्टान - पकवान, बहू-बेटी आदि अर्पण कर सन्तुष्ट किया करो, किसी प्रकारका प्रतीकार न कर जो कुछ होता जाय, उसे देखा करो - सहा करो और हाथ पर हाथ रखकर बैठे बैठे राम नाम जपा करो । यदि कोई हाथ पैर हिलनेका उपदेश करे । तो उसे धर्महीन, पतित, बेदनिन्दक जानकर कलिवप्रकरण और प्रायश्चित्तके कुछ संस्कृत श्लोक सुना दो । कलिवर्ज्य - प्रकरण में पुरुषार्थनाशकी कोई बात नहीं छूटी है । बस, चार लाख बत्तीस हज़ार वर्षो तक इसी तरह चुप्पी साधे बैठ रहनेसे बेड़ा पार है । फिर ब्रह्मसाक्षात्कार या मोत बहुत दूर नहीं रह जायेगा ।
↑
कलि-सन्तरणका यह कैसा अच्छा उपाय है; बुद्धिहत्याका कितना उसम यंत्र है ! इस यंत्र के श्रागे सिर झुका देनेसे ही भारतकी सब ओजस्विता मारी गयी है । बौद्धों, ईसाइयों श्रथवा मुसलमानोंने अपने धर्म या समाजमें कालिको नहीं घुसने दिया । इसीसे
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
बौद्धोंके चीन, जापान आदि पौर्वात्य राष्ट्र, ईसाइयोंके प्रारम्भ हुआ, वह उठ बैठा और उसे त्रेता युगके चिन्ह युरुप, अमेरिका आदि पाश्चात्य राष्ट्र और मुसलमानोंके दिखाई देने लगे और जहां उसने उद्योग प्रारम्भ किया सुर्कस्तान, काबुल आदि मध्य राष्ट्र उत्कर्षशाली हैं और और उसका सत्ययुग आ पहुँचा । इसलिये प्रयत्न हम कलिके मारे बेज़ार हैं ! यदि हमें फिर वर्धिष्णु और करो।" इस वेदाज्ञासे भो यहो सिद्ध होता है कि, जब जयिष्णु बनना है तो मनोदौर्बल्य उत्पन्न करने वाली हम सजग होकर अपना कर्तव्य पालन करन लगेंगे, कलिकल्पनाको हिमालय में भेज देना चाहिये । वास्तवमें तभी सत्ययुगका प्रवर्तन कर सकेंगे। यह हमें अपने किसी युगका प्रवर्तन करना राजशासको अथवा सामा- मनमें अच्छी तरह जमा लेना चाहिये और कलिका जिक नेताओं के हाथ है । ऐतरेय ब्राह्मणमें लिखा है:- काला मुँह कर देना चाहिये। यदि हम असावधान कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः। रहेंगे, तो निश्चयसे जान रखें कि, झब्बू लोग हमें उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यतेचरन्।।चरैवेति॥ अपने बुद्धिहत्याके कारखानेमें पकड़कर ले जायगे और
"जहां मनुष्यको नींद आयी और उसका कलि अवतारवाद, भाग्यवाद, कलिकल्पनाकी टिकटीपर चढ़ा पाया जहाँ उसने पालसको हटाया और उसका द्वापर कर फाँसी लटका देंगे।
साहित्य-परिचय और समालोचन
(१) षट् खंडागम ('धवला' टीका और उसके बातोंका विस्तारके साथ वर्णन पृष्ठ ७२ तक किया गया हिन्दी अनुवाद सहित ) प्रथम खंडका सत्प्ररूपणा नामक है । इसीमें मूल सूत्रके अवतारकी वह सब कथा दी है प्रथम अंश-मूल लेखक, भगवान पुष्पदन्त भूतबलि ! जिसे पाठक 'अनेकान्त' के गत विशेषांक में 'धवलादि सम्पादक, प्रोफेसर हीरालालजी जैन एम.ए.,एल.एल. श्रुत परिचय' शीर्षक के नीचे पढ़ चुके हैं। उसके बाद बी, संस्कृताध्यापक किंग-एडवर्ड-कालेज अमरावती। जीवस्थानके कुछ प्रारंभिक सूत्रोंकी व्याख्या पृष्ठ १५४ प्रकाशक, श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द शिताबराय, जैन- तक दी है, जिनमें १४ जीव समासों (गति आदि साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालय अमरावती ( बरार )। मार्गणास्थानों) का उल्लेख किया गया है और फिर बड़ा साइज पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर ५५६ । मूल्य, उनकी विशेष प्ररूपणाके लिये 'जीव स्थान' के सत्सजिल्द तथा शास्त्राकार प्रत्येकका १०) रु०। प्ररूपणादि अाठ अनुयोग द्वारोंके नाम सूत्र नं० ७ में
'धवल' नामसे प्रसिद्ध जिस ग्रंथके दर्शनोंके लिये दिये हैं । उसके बाद वे सूत्रसे सत् प्ररूपणाका श्रोद्य जनता अर्सेसे लालायित है उसके 'जीवस्थान' नामक और आदेशरूपसे विस्तारके साथ वर्णन ४१० पृष्ठ तक प्रथम खंडका यह ग्रन्थ प्रथम अंश है । इस अंशमें मूलके किया गया है। यह सब वर्णन अनेक अंशोंमें गोम्मटमंगलाचरण सहित कुल १७७ सूत्र हैं । मंगलाचरणका · सारके गुणस्थान, मार्गणा और सत्प्ररूपणाके वर्णनके सूत्र प्रसिद्ध णमोकारमंत्र है और उसकी व्याख्या तथा . साथ मिलता-जुलता है । टीकामें बहुतसी जगह 'उक्तंमंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्तारूपसे छह -च' रूपसे जो २१४ पद्य दिये हैं उनमें ११० के करीब
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २] .
..
साहित्य-परिचय और समालोचन
गाथाएँ ऐसी हैं जो गोम्मटसारमें भी प्रायः ज्यों की त्यों चित्र, चित्र-परिचय सहित देकर ७ पेजका प्राकथन, और कहीं कहीं कुछ पाठ-भेदके साथ पाई जाती हैं और ४ पेजमें अंग्रेजी प्रस्तावना और फिर ८८ पृष्ठकी हिन्दी जो किसी प्राचीन ग्रंथ–संभवतः पंचसंग्रह प्राकृत- प्रस्तावना दी है । साथ, प्राक्कथनके बाद एक पेजकी परसे उद्धृतकी गई हैं । बाकी १०४ के करीब संस्कृत- विषय-सूची भी दी है, जो कि फोटो-चित्रोंसे भी पहले दी प्राकृतके पद्य भी दूसरे ग्रंथों पर से उद्धृत किये गये जानी चाहिये थी; क्योंकि सूचीमें फोटो चित्र तथा प्राकहैं । और इस तरह ग्रंथमें प्रस्तुत विषयका अच्छा थनको भी विषयरूपसे दिया गया है । प्राक्कथनादि तीनों सप्रमाण विवेचन किया गया है।
निबन्ध प्रो० हीगलालजीके लिखे हुए हैं । उनके बाद ___मूल ग्रन्थ और उसकी 'धवला' टीकाका हिन्दी दो पेज की संकेत सूची, तीन पेजकी सत्प्ररूपणाकी अनुवाद भी प्रत्येक पृष्ट पर साथ साथ दिया गया है। विषय-सूची, एक पेजका शुद्धि पत्र, एक पेजका परन्तु अनुवादक कौन हैं यह ग्रंथ भरमें कहीं भी स्पष्ट सत्प्ररूपणाका मुखपृष्ठ, और फिर एक पेजका मंगलासूचित नहीं किया गया। जान पड़ता है जिन पं० चरण दिया है । सत्प्ररूपणाकी जो विषय-सूची दी है हीरालालजी शास्त्री और पं० फूलचन्दजी शास्त्रीके वह केवल सत्प्ररूपणाकी न होकर उसके पूर्वके १५८ सहयोगसे ग्रंथका सम्पादन हुअा हैं और जिन्हें ग्रंथके पृष्ठोंकी भी विषय-सूची है । अच्छा होता यदि उसे मुख पृष्ठ पर 'सहसम्पादकौ' लिखा है उन्हींके विशेष जीवस्थानके प्रथम अंशकी विषय-सूची लिखा जाता । सहयोगसे ग्रंथका अनुवाद कार्य हुअा है। अनुवादके और सत्-प्ररूपणाका जो मुख पृष्ठ दिया है उस पर अतिरिक्त फुटनोट्स के रूपमें टिप्पणियाँ लगानेका जो सत्प्ररूपणाकी जगह 'जीवस्थान प्रथम अंश' ऐसा लिखा महत्वपूर्ण कार्य हुअा है उसमें भी उक्त दोनों विद्वानों जाता। क्योंकि षट् खण्डागमका पहला खण्ड जीव. का प्रधान हाथ जान पड़ता है । टिप्पणियोंमें अधि- स्थान है, उसीका णमोकारमंत्र मंगलाचरण है, न कि कांश तुलना श्वेताम्बर ग्रंथों परसे की गई है। अच्छा सत्प्ररूपणा का। . होता यदि इस कार्यमें दिगम्बर ग्रंथोंका और भी ग्रन्थके अन्तमें ६ परिशिष्ट दिये हैं जिनके नाम अधिकताके साथ उपयोग किया जाता । इससे तुलना- इस प्रकार हैं:कार्य और भी अधिक प्रशस्तरूपसे सम्पन्न होता। १ संत-प्ररूपणा-सुत्ताणि, २ अवतरण-गाथा-सूची, अस्तु; अनुवादको पढ़कर जाँचनेका अभी तक मुझे ३ ऐतिहासिक नाम सूची, ४ भौगोलिक नाम सूची, कोई अवसर नहीं मिल सका, इसलिये उसके विषयमें ५ ग्रन्थनामोल्लेख, ६ वंशनामोल्लेख, ७ प्रतियोंके पाठमैं अभी विशेषरूपसे कुछ भी कहनेके लिये असमर्थ हूँ भेद, ८ प्रतियोंमें छूटे हुए पाठ, ६ विशेष टिप्पण। परन्तु सामान्यावलोकनसे वह प्रायः अच्छा ही जान प्रस्तावनामें-१ श्री धवलादि सिद्धान्तोंके प्रकाशमें पड़ता है।
. आनेका इतिहास, २ हमारी आदर्श प्रतियां, ३ पाठ___ ग्रंथके शुरूमें अमरावती, श्रारा और कारंजाकी संशोधनके नियम, ४ षड् खण्डागमके रचयिता, ५ प्रतियोंके फोटो चित्र और ग्रन्थोद्धारमें सहायक सेठ प्राचार्य-परम्परा, ६ वीर निर्वाणकाल, ७ षट् खण्डाहीराचन्द, सेठ माणिकचन्द जी आदि ७ महानुभावोंके गमकी टीका धवलाके रचयिता, ८ धवलासे पूर्वके
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
. अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं०२४१६
टीकाकार, ६ धवलाकारके सन्मुख उपस्थित साहित्य, छपाई-सफाई भी उत्तम है । मूल्य भी परिश्रमादिको १०षट् खण्डागमका परिचय, ११ सत्प्ररूपणाका विषय, देखते हुए अधिक नहीं है। और इसलिये यह ग्रंथ १२ ग्रन्थकी भाषा, इतने विषयों पर प्रकाश डाला गया विद्वानों के पढ़ने, मनन करने तथा हर तरहसे संग्रह है । प्रस्तावना बहुत अच्छी है और परिश्रमके साथ करनेके योग्य है । इसकी तय्यारीमें जो परिश्रम हुआ है लिखी गई है । हाँ, कहीं-कहीं पर कुछ बातें विचारणीय उसके लिये प्रोफेसर साहब और • उनके दोनों सहायक तथा आपत्तिके योग्य भी जान पड़ती हैं, जिन पर फिर शास्त्रीजी धन्यवादके पात्र हैं और विशेष धन्यवाद के कभी अवकाशके समय प्रकाश डाला जा सकेगा । यहां पात्र भेलसाके श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द जी हैं, जिनके पर एक बात ज़रूर प्रकट कर देनेकी है और वह यह आर्थिक सहयोग के बिना यह सब कुछ भी न हो पाता, कि प्रस्तावनामें 'धवला' को वर्गणा खण्डकी टीका भी और जिन्होंने 'जैन साहित्योद्धारक फंड' स्थापित करके बतलाया गया है । परन्तु मेरे उस लेखकी युक्तियों पर समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है । कोई विचार नहीं किया गया जो 'जैन सिद्धान्त भास्कर' अन्तमें श्री गजपति उपाध्यायको, जो मोडबद्रीके के ६ ठे मागकी पहली किरणमें 'क्या यह सचमुच- सुदृढ़ कैदखानेसे चिरकालके बन्दी धवल-जयधवल ग्रंथभ्रम निवारण है ? इस शीर्षकके साथ प्रकाशित हो राजोंको अपने बुद्धिकौशलसे छुड़ाकर बाहर लाये तथा चुका है और जिन पर विचार करना उचित एवं श्राव- सहारनपुरके रईस ला• जम्बूप्रसादजीको सुपुर्द किया, श्यक था । यदि उन युक्तियों पर विचार करके प्रकृत और श्री सीताराम जी शास्त्रीको, जिन्होंने अपनी निष्कर्ष निकाला गया होता तो वह विशेष गौरवकी दूरदृष्टिता एवं हस्तकौशलसे उक्त ग्रंथराजोंकी शीघ्रातिवस्तु होता । इस समय वह पं० पन्नालालजी सोनीके शीघ्र प्रतिलिपियाँ करके उन्हें दूसरे स्थानों पर पहुंचाया कथनका अनुसरण सा जान पड़ता है, जिनके लेखके और इस तरह हमेशा के लिये बन्दी (कैदी) होनेके भयसे उत्तरमें ही मेरा उक्त लेख लिखा गया था। इस विषय- निर्मुक्त किया *, धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता। का पुनः विशेष विचार अनेकान्तके गत विशेषांकमें ये दोनों महानुभाव सबसे अधिक धन्यवादके पात्र हैं। दिए हुए 'धवलादि श्रुत-परिचय' नामक लेखमें वर्गणा- इन लोगोंके मूल परिश्रम पर ही प्रकाशनादिकी यह सब खण्ड-विचार' नामक उपशीर्षकके नीचे किया गया है। भव्य इमारत खड़ी हो सकी है और अनेक सजनोंको उस परसे पाठक यह जान सकते हैं कि उन युक्तियोंका ग्रन्थके उद्धारकार्य में सहयोग देनेका अवसर मिल सका समाधान किये बगैर यह समुचित रूपसे नहीं कहा जा है। यदि वह न हुआ होता तो आज हमें इस रूपमें सकता कि धवला टीका षट् खण्डागमके प्रथम चार ग्रन्थराजका दर्शन भी न हो पाता । खेद है इन परोपखण्डोंकी टीका न होकर वर्गणाखण्ड सहित पांच खंडों- कारी महानुभावोंके कोई भी चित्र ग्रन्थमें नहीं दिये गये की ठीका है।
हैं । मेरी रायमें ग्रन्योद्धार में सहायकोंके जहाँ चित्र दिये . इस प्रकारकी कुछ त्रुटियोंके होते हुए भी ग्रंथका
* यदि श्री सीतारामजी शास्त्री ऐसा न करते तो यह संस्करण हिन्दी अनुवाद, टिप्पणियों, प्रस्तावना और इन ग्रन्थराजोंकी सहारनपुरमें भी प्रायः वही हालत परिशिष्टोंके कारण बहुत उपयोगी हो गया है। होती जो मूडबद्रीके कैदखानेमें हो रही थी।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष ३, किरण २]
हैं वहाँ इनके चित्र सबसे पहले तथा सर्वोपरि दिये जाने चाहियें थे । आशा है ग्रन्थका दूसरा श्रंश प्रकाशित करते समय इस बातका जरूर खयाल रक्खा जायगा ।
(२) श्रीमद्राजचन्द्र - ( संग्रहग्रन्थ) मूल गुजराती लेखक, श्रीमद राजचन्द्र जी शतावधानी सम्पादक और हिन्दी अनुवादक, पं० जगदीशचन्द्र, शास्त्री एम०ए० । प्रकाशक, सेठ मणीलाल, श्वाशंकर जगजीवन जौहरी, व्यवस्थापक श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई नं० २ बड़ा साइज पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर ६४४ मूल्य सजिल्द ६) रु० ।
यह वही महान् ग्रन्थ है जिस परसे महात्मा गाँधीके लिखें हुए 'रायचन्द भाई के कुछ संस्मरण' श्रनेकान्तकी गत ८ वीं किरण में श्री मद्राजचन्द्र जीके दो चित्रों सहित उद्धृत किये गये थे और 'महात्मा गांधी २७ प्रश्नोंका समाधान' आदि दूसरे भी कुछ लेख अनेकान्त में समयसमय पर दिये जाते रहे हैं। इसमें श्रीमद्राजचन्द्रजीके लिखे हुए आत्मसिद्धि, मोक्षमाला, भावनायोध, आदि ग्रन्थोंका और सम्पूर्ण लेखों तथा पत्रोंका तथा उनकी प्राइवेट डायरी श्रादिका संग्रह किया गया है। साथ में पं० जगदीशचन्द्र जी शास्त्री एम. ए. का लिखा हुआ 'राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय' नामका एक निबन्ध भी लगा हुआ है जो बड़ा ही महत्वपूर्ण है और जिससे कविश्रेष्ठ श्रीमद्राजचन्द्रके जीवनका बड़ा अच्छा परिचय मिलता है । ग्रंथके शुरू में एक विस्तृत विषय सूची महात्मा गांधीजीके द्वारा प्रस्तावना रूपमें लिखे हुए उक्त संस्मरणोंके पूर्व लगी हुई है और अंत में ६ उपयोगी परिशिष्ट लगाए गये हैं, जिन सबसे ग्रंथकी उपयोगिता बहुत बढ़ गई है । यह ग्रंथ बड़ा ही महत्वपूर्ण है और इसमें अध्यात्मादि विषयोंके ज्ञानकी विपुल सामग्री भरी हुई है । ग्रंथ बार-बार पढ़ने, मनन करने
1
साहित्य - परिचय और समालोचन
२०३
और संग्रह करने के योग्य है । मूल्य ६) रुपया इतने बड़े आकार और पुष्ट जिल्द सहित ग्रंथका अधिक महीं है । ग्रंथकी छनाई-सफाई सब सुन्दर और मनोमोहक है। गुजरातीमें इस ग्रंथके कई संस्करण हो चुके हैं । हिन्दीमें यह पहला ही संस्करण महात्मा गांधीजीके अनुरोध पर अनुवादित श्रादि होकर प्रकाशित हुआ है। और इसलिये हिन्दी पाठकोंको इससे श्रवश्य लाभ उठाना चाहिये। ग्रन्थ परसे श्रीमद्रराजचन्द्रजीको भले प्रकार समझा और जाना जा सकता है। महात्मा गाँधीजी के जीवन पर सबसे अधिक छाप श्रापकी ही लगी है, जिसे महात्माजी स्वयं स्वीकार करते हैं । आप ३४ वर्षकी अवस्था में ही स्वर्ग सिधार गये और इतनी थोड़ी अवस्था में ही इस सब साहित्यका निर्माण कर गये हैं, जिससे आपकी बुद्धिके प्रकर्ष का अनुभव किया जा सकता है । .
(३) त्रिभंगीसार - (हिन्दी टीका सहित ) मूल लेखक, श्रीतारणतरण स्वामी, टीकाकार ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद । प्रकाशक सेठ मन्नूलाल जैन, मु० आगा सोद (सागर) सी० पी० ॥ बड़ा साइज पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर १४४ मूल्य १) रु० ।
मूल ग्रंथकी भाषा न संस्कृत है न प्राकृत और न हिन्दी । व्याकरणादिके नियमोंसे शून्य एक विचित्र प्रकार की खिचड़ी भाषा है। मालूम होता है इसके लेखक किसी भी भाषा के पंडित नहीं थे । उन्हें अपने सम्प्रदाय वालों के लिये कुछ-न-कुछ लिखनेकी जरूरत थी, इसलिये उन्होंने अपने मनके समझौते के अनुसार उसे उक्त खिचड़ी भाषा में ही लिखा है । पद्योंके छन्द भी जगह जगह पर लिखित हैं । ब्र० शीतलप्रसादजीने मूलग्रंथको ७१ गाथाओं में बतलाया है | परन्तु मूल के सब पद्य गाथा छन्द में नहीं हैं । ब्रह्मचारी
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेकान्त...
[मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं०२४६६
जी ने बहुधा रबड़की तरह खींच खांचकर पद्योंका कुछ तलप्रसाद । प्रकाशक, मूलचन्द किसनदास कापड़िया, अर्थ बिठलाया है । उसका अन्वयार्थ, भावार्थ और मालिक दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत । पृष्ठ संख्या, विशेषार्थ तक लिखा है और इस तरह पुस्तक कुछ सब मिलाकर १७६ । मूल्य, १) रु.। .. पढ़ने योग्य हो गई है, जिसका श्रेय ब्रह्मचारीजीको है। इस पुस्तका विषय उसके नामसे ही प्रकट है । अन्यथा पुस्तक कोई खास महत्वकी मालूम नहीं होती इसमें अनेक जैन ग्रन्थोंपरसे कुछ वाक्योंको लेकर उन्हें और न विद्वानोंकी उसके पढ़नेमें रुचि ही हो सकती भावार्थ सहित दिया है । और यह बतलानेकी चेष्टा की है । अस्तु; यह पुस्तक जैन मित्रके ग्राहकोंको उपहारमें गई है कि "जैन धर्मको पालनेवाले सर्वगृहस्थी भले दी गई है और अलग मूल्यसे भी मिलती है । ब्रह्मचारी प्रकार राज्यशासन, व्यवहार, परदेशयात्रा, कारीगरीके जी तारणतरण स्वामीके साहित्यका उद्धार करनेमें लगे काम व खेती आदि कर सकते हैं व श्रावकके व्रतोंको हुए हैं। इससे पहले तारणतरण श्रावकाचार आदि भी पाल सकते हैं। साथ ही, इसमें अजैन ग्रन्थोंके
और भी पांच ग्रंथ अनुवादित होकर प्रकाशित हो चुके कुछ प्रमाण भी अहिंसाकी पुष्टि में दिये गये हैं। पुस्तक हैं। खेद है ब्रह्मचारी जी इस साहित्यकी भाषा पर कोई ११ अध्यायोंमें बटी हुई होनेपर भी किसी अच्छे व्यवप्रकाश नहीं डाल रहे हैं, जिसका डालना अनुवादके स्थित विषयक्रमको लिये हुए नहीं हैं । विषय-विवेचन समय साहित्यकी ऐसी विचित्र स्थिति होते हुए श्राव- और कथनका ढंग भी बहुत कुछ साधारण है। छपाईश्यक था।
... सफ़ाई तो और भी मामूली है । इतनेपर भी यह पुस्तक ___ ग्रन्थका नाम 'त्रिभंगीदल प्रोक्त' इस प्रतिज्ञा-वाक्य महात्मागाँधीजीको समर्पित की गई है। मूल्य १) रु० परसे 'त्रिभंगीदल' तो उपलब्ध होता है परन्तु 'त्रिभंगी- अधिक है। ऐसी पुस्तकका मूल्य चार-छह आने होना नामकी उपलब्धि नहीं होती। सम्भव है ब्रह्मचारी जी चाहिये था । जैन मित्रके ग्राहकोंको यह पुस्तक ला. के द्वारा ही नामका यह संस्कार अथवा सुधार किया रोशनलालजी जैन बी. ए. फीरोजपुरकी अोरसे अपने गया है।
पूज्य पिता ला• लालमनजीकी स्मृतिमें जिनका सचित्र (४) जैनधर्ममें अहिंसा-लेखक, ब्रह्मचारी शी- जीवन चरित भी साथमें लगा है, भेंटमें दी गई है।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रातः स्मरणीय जगत्पूज्य परम योगिराज जैनाचार्य श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी विरचित - अखिल जैन
ग्रन्थोंका सार सर्वस्व, अद्वितीय, अनुपमेय, विद्वज्जन प्रशंसित - मागधी ( प्राकृत )
एकमात्र विश्वसनीय विराट् बृहद्विश्वकोश
रचना काल
सं० १६४६ - १६६० )
अभिधान राजेन्द्र मुद्रणाल
( सं० १६६४ - १६८०
(भाग १ से ७ )
पृष्ठ संख्या १०,००० ]
कुछ विद्वानोंके अभिप्राय पढ़िये
:—
[ शब्द संख्या ६०,०००
"मुझे मेरे जैन प्राकृतके
सर जॉर्ज ए० ग्रियर्सन, के० सी० आई० ई० (इंग्लैण्ड):अध्ययनमें इस ग्रन्थका बहुत साह्य हुवा है ..... " यह विश्वकोश संदर्भ तथा आधार दिग्दर्शन के लिये श्रति मूल्यवान तथा उपयोगी है।"
प्रो० सिल्वेन लेवी ( यूनिवर्सिटी ऑफ पेरिस, फ्रांस ) यह ग्रन्थ पीटर्सवर्ग डिक्शनरीसे भी बढ़कर उपयोगी है, इसमें श्राधार और अवतरणोंसे सज पूर्ण शब्द संग्रह ही केवल नहीं मिलता है, किन्तु उन शब्दोंके साथ संबद्ध मतमतान्तर, इतिहास तथा विचारोंका पूरा-पूरा विवेचन भी प्राप्त होता है...।"
प्रो० सिद्धेश्वर वर्मा, एम० ए० ( जम्मू-काश्मीर ):
थैव ज्ञात ऐसा अमूल्य अवतरण ग्रन्थाधारका बहुत बड़ा भण्डार भरा पड़ा है ।"
..... इसमें आज तक संसारको सर्व
हरेक यूनिवर्सिटी, कॉलेज, विद्यालय, लायब्ररी, जैन भण्डार, विद्वान् धनी लोग, राजा, महाराजाके संग्रह में अवश्य रखने योग्य है ।
मूल्य सम्पूर्ण सातों भाग के ग्रन्थका केवल रु० १७५), अधिक ग्रन्थोंके लिये तथा व्यापारियोंके लिये कमीशन के लिये पत्र व्यवहार कीजिये ।
पता:- अभिधान राजेन्द्र प्रचारक संस्था, रतलाम ( मध्य भारत )
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________ Regd. No. L. 4328 अनुकरणीय ___ गत वर्ष कई धर्म-प्रेमी दातारोंकी अोरसे 121 जैनेतर संस्थानोंको अनेकान्त एक वर्ष तक भेंट स्वरूप भिनावया गया था / हमें हर्ष है कि इस वर्ष भी भेंट स्वरूप भिजवाते रहनेका शुभ प्रयास हो गया है / निम्न 3 मउजनोंकी अोरसे जैनेतर संस्थानोंको भेंट स्वरूप अनेकान्त भिजवाया गया है / अनेकान्त पर श्राए हुए लोकमतसे ज्ञात हो सकेगा कि अनेकान्तके प्रचारकी कितनी अावश्यकता है / जितना अधिक अनेकान्तका प्रचार होगा उतना ही अधिक सत्य शान्ति और लोक हितैषी भावनाओंका प्रचार ॐ होगा / अनेकान्तको हम बहुत अधिक सुन्दर और उन्नतिशील देखना चाहते हैं / किन्तु हमारी शक्ति बुद्धि हिम्मत है। से सब कुछ परिमित हैं / हमें समाज हितैषी धर्म बन्धुत्रों के सहयोगकी अत्यन्त आवश्यकता हैं / हम चाहते हैं समाज से हर के उदार हृदय बन्धु जैनेतर संस्थानों और विद्वानोंको प्रचारकी दृष्टि से अनेकान्त अपनी ओरसे भेंट स्वरूप भिजST वाएँ और जैन बन्धुओंको अनेकान्तका ग्राहक बनने के लिए उत्साहित करें / ताकि अनेकान्त कितनी ही उपयोगी में पाठ्य सामग्री और पृष्ट संख्या बढ़ानेमें समर्थ हो सके / लड़ाईकी तेजीके कारण जबकि पत्रोंका जीवन मंकटमय हर हो गया है, पत्रोंका मूल्य बढ़ाया जा रहा है। तब इस मंहगीके जमानेमें भी प्रचारकी दृष्टिसे केल 3) 80 S वार्षिक मूल्य लिया जा रहा है / इस पर भी जैनेतर विद्वानों शिक्षण संस्थात्रों और पुस्तकालयोंमें भेंट स्वरूप ॐ भिजवाने वाले दानी महानुभावोंसे ढाई रुपया वार्षिक ही मूल्य लिया जायगा। किन्तु यह रियायत केवल जैनेतर में संस्थानोंके लिये अमूल्य भिजवाने पर ही दी जायेगी। समाजमें ऐसे 100 दानी महानुभाव भी अपनी अोरसे एक सौ-सौ, पचास-प वास अथवा यथाशक्ति भेंट स्वरूप भिजवानेको प्रस्तुत हो जाएँ तो 'अनेकान्त' अाशातीत सफ लता प्राप्त कर सकता है / जैनेतरोमं अनेकान्त जैसे साहित्यका प्रचार करना जैनधर्मके प्रचारका महत्वपूर्ण, और सुलभ साधन है। * सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या, इन्दौरकी ओरसे- 10. ,, अोरिएटल कालेज , लाहौर 1. मंत्री शान्ति निकेतन पुस्तकालय बोलपुर (बंगाल) रोडमल मेघराज जैन सुमारीकी ओरसे२. ,, हिन्दू यूनिवर्सिटी , बनारस 11. मंत्री पब्लिक लायब्रेरी अंजड़ (बड़वानी) 3. ,, दी हिन्दुस्तान एकेडेमी , इलाहबाद 12. ,, श्रीकृष्ण पब्लिक वाचनालय बड़वानी ,, श्री नागरी प्रचारिणी सभा,, 13. ,, पब्लिक लायब्रेरी धार ,, विक्टोरिया कालेज ग्वालियर 14. ,, श्री महावीर वाचनालय सुमारी (इन्दौर) गुजरात कालेज अहमदाबाद 15. ,, जीवाजी वाचनालय मनावर (ग्वालियर स्टेट) 17. ,, मद्रास यूनिवर्सिटी ला० ज्योति प्रसादजी जैन, मेरठ की ओरसे --- 8. ,, मोरिस कालेज नागपुर 16. मंत्री श्रीवीर पुस्तकालय, मेरठ 25E. , कलकत्ता यूनिवर्सिटी , कलकत्ता -व्यवस्थापक READRASASRHASASAIRSASASAISAISASAHESASASAISAKASAVASAISEASESXVDRAMAVASTURARIES ЯЯЯ&&&&&&&&&&%AA%A4%AX&&&&&&&&&&&&&&&&& बनारस मद्रास वीर प्रेस अॉफ इण्डिया, कनॉट सर्कस, न्यू देहली