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________________ वर्ष ३, किरण २] बुद्धि हत्याका कारखाना १६७ अपने भाग्यका श्राप विधाता है । उसे काल्पनिक भाग्य लुड़क जाना,जान बूझकर विष पी लेना, बच्चोंको पढ़ने न पर भरोसा नहीं रखना चाहिये । ऐतरेय ब्राह्मणमें भेजकर लण्ठ रखना क्या उचित होगा? पुरुषार्थीके लिये लिखा है: संसारमें असम्भव कुछ भी नहीं है । प्रयत्नवादी पुरुषके आस्ते भग आनीनस्योद्धस्तिष्ठति तिष्ठतः । श्रागे भाग्य हाथ बाँधे खड़ा रहता है। प्रयत्नसे ही शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः ॥चरैवेति।। कि देवोंको अमृतकी प्राप्ति हुई । अतः हे राम ! नपुंसकता उत्पन्न करने वाले भाग्यवादको छोड़कर नवजीवन उत्पन्न ' अर्थात् जो मनुष्य घरमें बैठा रहता है, उसका भाग्य करनेवाले प्रयत्नवादको अपनानो; इसीमें तुम्हारा भी बैठ जाता है; जो खड़ा रहता है, उसका भाग्य खड़ा कल्याण है।" हो जाता है; जो सोया रहता है, उसका भाग्य सो समर्थ रामदासने भी कहा है:-"प्रयत्न देवता है जाता है और जो चलता फिरता है, उसका भाग्य भी और भाग्य दैत्य है। इसलिये प्रयत्नदेवकी उपासना चलने फिरने लगता है । इसलिये उद्योग करो, पुरुषार्थी करना ही श्रेयस्कर है।" सम्भव है कि, प्रयत्नरूपी देवबनो। ताकी आराधना करते हुए भाग्यरूपी दैत्य वहाँ पहुँच- यदि ग़ज़नी, गोरी, हुमायू या अकबर भाग्य पर कर विध्न कर; इसलिये उस भाग्यरूपी दैत्यपशुको भरोसा रखकर बैठ रहते, तो मुसलमान ग्यारह सौ पकड़कर प्रयत्न देवके आगे उसकी बलि चढ़ा देनी वर्षोंतक भारतका शासन न कर सकते और यदि अंग्रेज़ चाहिये । भेड़ बकरे मारने से शक्ति-चामुण्डा प्रसन्न नहीं भाग्यदेवकी शरणमें चले जाते, तो दिल्लीपर अपना होती, किन्तु अवतारवाद, दैव -भाग्य-वाद जैसे झण्डा फहरा न सकते । उद्योगियोंके घर ऋद्धि-सिद्धियें प्रबल पशुओंको काट गिराने से ही वह सन्तुष्ट होकर पानी भरा करती हैं । योगवासिष्ठ में वसिष्ठ श्रीराचन्द्रसे मनुष्यजातिका कल्याण साधन करती है । जो बुद्धिमान् कहते हैं:-"भाग्य तो मूखों और आलसियोंकी गढ़ी मनुष्य प्रयत्नदेवको सिद्धकर लेता है, वह झब्बुत्रों के हुई एक काल्पनिक वस्तु है । उद्योगमें ही भाग्य निहित बुद्धिहत्याके कारखानेकी अन्धश्रद्धाकी अन्धी गुहातक है । उद्योग न हो, तो भाग्यका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। पहुँच ही नहीं पाता और यदि किसी कारणसे पहुँच पूर्वकर्म ही प्रारब्ध है और वह प्रबल पुरुषार्थसे नष्ट भी जाता है, तो वे रोकटोक उससे छुटकारा भी पा. किया जा सकता है। उद्योग प्रत्यक्ष है और भाग्य जाता है । अनुमान है । अनुमानकी अपेक्षा प्रत्यक्षका महत्व अ- झब्बू लोग भावुकों को अपने कारखानेमें लेजाकर, धिक है । उद्योगले स्वराज्य, साम्राज्य ही क्या, इन्द्रपद उन पे भाग्यवादकी तपस्या कराकर, जब परिक्रम करलेते भी प्राप्त हो सकता है । राह चलता भिखारी यदि राजा हैं, तब उन्हें तीसरे प्रकोष्ठकी कलिकल्पनाकी चरखी हो जाय, या किसी गरीबकी लड़की महारानी बन जाय, (मशीन ) पर चढ़ा देते हैं । पहले प्रकोष्ठमें मनुष्य तो वह उसके पूर्वकृत सत्कर्मोका फल है। यदि यह अन्धश्रद्ध बनता है, दूसरेमें निकम्मा--पुरुषार्थहीन-- कहा जाय कि, जो कुछ होता है, भाग्यसे हो होता है; हो जाता है और तीसरेमें लत्ते या लतखोरेका रूप तो भाग्यपर निर्भर रहकर भागमें कूद पड़ना, पहाड़से धारण कर लेता है। यों अच्छी तरह उसकी बुद्धिहत्या
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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