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________________ १६२ अनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६ होने वाले जीवोंके आचरण नियमतः उच्च ही होने चाहियें, तभी आचरण और जीविका - कर्म में अविनाभावी सम्बन्ध माना जा सकता है । परन्तु कथा पुराणों में इसके विपरीत हजारों उदाहरण मिलते हैं । रावण क्षत्रियकुलोत्पन्न तीन खण्डका राजा था, उसने सीता परस्त्रीका हरण किया जिसके कारण लाखों जीवोंका रणमें खून हुआ । युधिष्ठिरादि पाण्डव और कौरव क्षत्रियोद्भव थे, उन्होंने जूना खेला और व्यसनको यहां तक निभाया कि द्रौपदी स्त्रीको भी दावमें लगाकर हार बैठे। पाठक,. जरा विचारिये कि क्या ये आचरण उच्च थे । हमने ये उदाहरण दिग्दर्शनमात्रको लिख दिये हैं, वरना ( अन्यथा ) पुराणों में अगणित मिसालें (उदाहरण) मौजूद हैं जिनसे विदित होगा कि क्षत्रियोंमें ही अधिकतर नीचाचरणी हुये हैं। ऐसी अवस्था में पेशोंके साथ आचरणोंका स्थिर सम्बन्ध कैसे माना जा सकता है ? वे नीचाचरणके पेशोंको कभी नहीं सिखाते और न किसीको उनके व्यापार का आदेश करते, जान बूझकर वे जीवों को पाप में न डालते, प्रत्युत सबकी ही उच्चाचरणी पेशों की शिक्षा देते । जीविका कर्म और पेशों के साथ उच्चाचरण और नीचाचरण के सम्बन्धी योजनासे भगवान् ऋषभदेव पर बड़ा भारी दूषण आता है । इससे यही कहना पड़ेगा कि या तो उच्चाचरण और नीचाचरणका सम्बन्ध पेशों में है नहीं, और यदि है तो षट्कर्म और भिन्न भिन्न शिल्पके कार्योंकी शिक्षा ऋषभ देव जी ने नहीं दी किन्तु प्रकृतिका विकास के नियमानुसार शनैः शनैः जनताकी जरूरतों से कभी कुछ और कभी कुछ ऐसे नये नये आविष्कार होते रहे जैसे आजकल होते हैं । ऋषभदेवजी का चलाया हुआ कोई भी पेशा नीचाचरणका नहीं हो सकता, तदनुसार कुम्हार, जुलाहा, लोहार, नाई सब उच्च गोत्री हैं, पेशेकी अपेक्षा ये लोग नीचाचरणी नहीं, अथवा ये कहिये कि कुम्हार आदिके पेशे ऋषभदेवजी ने नीचाचरण या नीचाचरणीके कारण नहीं समझे और न ऐसा किसीको प्रकट किया । तदनुसार जीविका कर्म की अपेक्षा से ऋषभ देवजीकी दृष्टिमें न कोई उच्च गोत्र था, न नीच । पाठक विचार करें कि ऐसी अवस्था में उच्च और नीच आचरणोंके नियत कुलोंका सर्वथा अभाव है कि नहीं; फिर गोत्र और गोत्रकर्मकी क्या बात रही ? (ग) जैनधर्म में प्रथमानुयोग के अनुसार जिन कुलों में क्षात्रकर्म होता है वे उच्चगोत्र कहे जांगे । इसका यह अभिप्राय होता है कि जिन कुलोंमें परिपाटी से क्षात्र कर्म होता है उनमें उत्पन्न उपर्युक्त बातोंसे यह साफ होजाता है कि लोकमें न तो ऐसे कुल ही हैं जिनके लिये यह कहा जा सके कि उनमें उच्च या नीचाचरण हमेशा के लिये परिपाटी से चला आता है और न जीविका कर्म या पेशों के कुलोसे आचरणोंका अविनाभावी सम्बन्ध सिद्ध होता है । अतः गोम्मटसारमें जो गोत्रका - लक्षण है और जैन सिद्धान्तियोंने गोत्रकम्र्मोदय व्यवस्था जैसी मानी हैं, ये सब प्रकृति - विकासके विरुद्ध हैं; ये सार्वकालिक और चतुर्गतिके जीवों पर दृष्टि रखकर नहीं बनाये गये, किन्तु भारतवासियों के व्यवहार और खयालोंके अनुसार इनको कल्पना हुई हैं । अमुक प्रकारके कुल जैसे ब्राह्मणादि नियमसे
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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