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________________ वर्ष ३, किरण २] गोत्र विचार 'सन्तानक्रमागत' पद पर एक शंका यह और चरणी हैं और अमुक अमुक नीचाचरणी। तदुहोती है कि जिस भोग-भूमियोंकी सन्तानने ऋषभ- परान्त युगान्तरों तक उन कुलोंमें निरन्तर एक ही देवजी की शिक्षानुसार अपने पूर्वजोंके आचरणको प्रकारका आचरण रहे इसकी गांरटी क्या ? किसी छोड़कर नवीन आचरण ग्रहण कर लिये, उसके भी कुलमें एक ही तरहका आचरण निरन्तर बना पुत्रका आचरण पिताके अनकूल होने पर 'सन्तान रहेगा ऐसा मानना प्रकृति और कर्म सिद्धान्तके क्रमागत' कहा जायगा कि नहीं; अर्थात् एक ही प्रतिकूल है, प्रत्यक्षसे बाध्य है। किसी जीवके पीढ़ीके आचरणको 'सन्तानक्रमागत' कहेंगे या आचरण उसके पिता या पूर्वजोंके अनुसार अवनहीं; मूलत: प्रश्न यह है कि कितनी पीठीका आच- श्यमेव ही हों, ऐसा मानना एकान्त हठ है। रण सन्तान क्रमागत कहा जा सकता है ? इसका यदि आचार्योंका यह अभिप्राय हो कि उक्त ब्योरा किसी ग्रन्थों में देखने में नहीं आया। हिंसादि आचरणों में प्रवृत्ति और निवृत्ति जीविका अब जरा आचरणकी उच्चता नीचता पर के षट्कर्म त था पेशोंसे नियोजित है; कई पेशे विचार कीजिये। 'आचरण' शब्दसे असलियतमें और कर्म तो ऐसे हैं जिनके करनेवाले नीचाचरणी आचार्योंका क्या क्या अभिप्राय है सो साफ़ साफ नहीं होते और कोई ऐसे हैं जिनको करनेसे जीव कहीं नहीं खोला गया। यदि 'आचरण' शब्दसे नीचाचरणी हो ही जाता है अथवा नीचाचरणी हिंसा, झूठ, चोरी, सप्त व्यसनादिमें प्रवृत्ति ही उस पेशेको करता है उच्चाचरणी नहीं । प्रयोजन अथवा निवृत्तिसे मतलब है तब तो गोत्रके उक्त यह हुआ कि कई पेशोंके साथ उच्चाचरणका लक्षणानुसार ऐसा मानना पड़ेगा कि दो तरहके अविनाभावी सम्बन्ध है और कतिपयके साथ कुल यानी वंशक्रम होते हैं, एक वे जिनमें हिंसादि नीचाचरणका । इसमें कई अनिवार्य शंकाएँ पैदा आचरण वंश परम्परासे नियतरूपसे कभी हुए होतीहैं । चतुर्गतिके जीवोंकी अपेक्षा तो यह सर्वथा ही नहीं, अतएव उनमें उत्पन्न हुए जीव उच्च गात्री असम्भव है। मनुष्योंकी अपेक्षा लीजियेकहलाते हैं; दूसरे वे कुल जिनमें हिंसादिआचरण (क) भोग-भूमियोंके कोई पेशे वा जीविका कर्म नियत रूपसे परम्परासे होते आये हैं, इसलिये नहीं थे अतः वे सब नीचाचरणी तथा गोत्रकर्म उनमें जन्म लेने वाले जीव नीच गोत्री होते हैं। रहित कहे जायेंगे । यह प्रचलित गोत्रोदय-मतसे ___ चतुर्गतिके जीवोंका विचार न करें तो ऐसे उच्चा- विरुद्ध पड़ता है। चरणी नीचाचरणी नियत कुलका कर्मभूमिके आ- (ख) षट्कर्म और प्रेशोंका उपदेश आदि दिमें सर्वथा अभाव था । भोग-भूमियोंमेंसे तो ऐसे तीर्थकरने दिया था और उन्होंने ही कारीगरी तथा नियत कुल थे ही नहीं; अतः नियतकुलों के अभाव शिल्पके कार्य सिखाये थे, अन्नादिका अग्निमें में युगादिमें सब मनुष्य गोत्र तथा गोत्र कर्म रहित पकाना भी उन्होंने ही सिखाया। वे अवधिज्ञानी थे। जैन ग्रन्थों में इस बातका ब्योरा कहीं भी नहीं और मोक्षमार्ग के आदि विधाता थे; यदि उच्चाचरणी है कि अमुक अमुक कुल तो हमेशाके लिये उच्चा- और नीचाचरणी दोप्रकारके पेशे वास्तवमें होते तो
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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