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________________ १६० भूमिके आदिके मनुष्योंमें गोत्रका अभाव स्वयमेव सिद्ध होता है; क्योंकि इनके आचरण इनके पूर्व जोंसे सर्वथा भिन्न और विरुद्ध थे । इसको हम नीचे स्पष्ट करते हैं भोग भूमिया मनुष्य न खेती करते थे, न मकान बनाते थे, और न भोजन-वस्तु पकाते थे; वे अपनी सब आवश्यकतायें कल्पवृत्तों से पूरी करते थे । इसलिये उनमें असि, मसि, कृषि, बाणि - जय सेवा और शिल्पके कर्म व्यापार भी नहीं थे । उनको आपस में किसीसे कुछ सरोकार नहीं था, अपने अपने युगलके साथ अपनी कल्पतरू बाटिकामें सुखभोग करते थे । अतएव न कोई उनका समाज था और न कोई सामाजिक बन्धन । उनमें विवाह-संस्कार नहीं होता था; एक ही माता के उदरसे नर-मादाका युगल उत्पन्न होता था, जब Satara होते थे तब दोनों बहिन और भाई स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध कर लेते थे । युगल पैदा होते ही उनके माता-पिता का देहान्त हो जाता था । इस प्रकार युगल मनुष्योंकी समान जीवन स्थिति उस समय तक जारी रही जब तक कि कल्पवृक्षों की कमी न हुई । तीसरे आरेके अस्त्रीर में कल्पवृक्षों की न्यूनता से लोगोंने अपने अपने वृक्षोंका ममत्व कर लिया और कई युगल वृक्षोंके लिये आपस में क्लेश करने लगे । तत्पश्चात् परस्परके झगड़े निपटाने के लिये उन युगलियोंने अपने मेंसे एक युगलको न्यायाधीश बनाया जो पहिला कुलकर हुआ और उसके वंशज आगेको न्यायाधीश तथा दण्डनीतिविधायक होते रहे। इन्हीं कुलकरोंकी सन्तान श्रीऋषभदेव तीर्थकर हुए जिन्होंने पट्कर्म्मकी शिक्षा दी; उनके उपदेशसे प्रथम पाँच कारीगर [ मार्गशीर्ष, वीर - निर्वाण सं० २४६६ बनेः - - १ कुम्भकार, २ लोहार, ३ चित्रकार, ४ वस्त्र बुननेवाले, ५ नापित अर्थात् नाई । ऋषभदेवने ही विवाहविधि चलाई और सगे बहिन भाई में स्त्री भर्तारका सम्बन्ध होना बन्द किया । इस कथन मुआफिक जिस जिस भोगभूमियाने अपनी सहोदराको छोड़कर दूसरी से विवाह किया, अथवा ऋषभदेवजी की शिक्षा पाकर कुम्हार, लोहार आदिके कामको किया, उसका आचरण उसके माता पिता के चरणों से बिलकुल ही विपरीत और निराला था; अर्थात उसका आचरण अपने कुल की परिपाटीके अनुसार नहीं था, इसलिये वह गोत्रकर्मके उदयसे नहीं किन्तु किसी अन्य ही कम्र्मोदयका फल था । अतएव कर्मभूमिकी आदिमें जो मनुष्योंके आचरण थे उनकी 'गोत्र' संज्ञा नहीं कही जा सकती और उस समयके सब लोग गोत्रकम्र्मोदय रहित थे । आठ कम्मोंकी जगह उनके सात ही का उदय था । गोत्रकर्मका उदय उनकी सन्तानके माना जायगा जिन्होंने अपने आचरण माता पिता प् उन्हीं का पालन किया। यदि उस समय किसी नाई के लड़केने खेतीका काम किया और नापितके कार्यको न सीखा तो उसका भी आचरण 'सन्तानक्रमागत' न होनेसे गोत्रसंज्ञक न होगा, उसके भी गोत्रकर्म्माभाव ही कहा जायगा । ऐसे सन्तानकर्म्मरहितं आचरणोंके लिये कर्मतत्व-ज्ञानमें कौनसा विशेष कर्म्म है सो ज्ञानी पाठक खुद विचारें; अष्टकर्मके उपरान्त तो कोई कर्म्मनहीं कहा गया और इन मूलोत्तर प्रकृतियों को इनके लक्षणानुसार उक्त सन्तान - क्रम रहित आचरणोंके कारण कह सकते नहीं । का
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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