SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि वर्ष ३, किरण २ ] जैन वाङ्मयके श्रादि-लेखक आचार्य उमास्वाति वाचक द्वारा ग्रंथराज “तत्वार्थ-सूत्र" के प्रथम अध्यायके छठे सूत्र “प्रमाणनयैरधिगमः” में सन्निहित है । सम्पूर्ण जैन न्याय साहित्यका आलोचन किया जाय तो पता चलेगा कि उपर्युक्त सूत्रका ही सम्पूर्ण जैन न्याय - साहित्य भाष्य रूप है । अर्थात् प्रमाण और नयके आधार पर ही जैनेतर सभी दर्शनोंकी मान्यताओं की परीक्षा की गई है और जैनदर्शन सम्मत सिद्धान्तोंकी नैयायिक नींव डाली गई है। स्याद्वाद प्रमाण और नयका समन्वय ही 'स्याद्वाद' है । अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद, आदि शब्द इसके पर्याय वाची हैं। मूल श्रागमों में 'सिय अस्थि' 'सिय णत्थि ' श्रर 'सिय श्रवत्तन्वं' अर्थात् स्यादस्ति, स्याद् नास्ति और स्यादवक्तव्यं ( उर्फ़ उत्पाद, व्यय और श्रव्य ) ये तीन ही भाग मिलते है, अतः स्याद्वादका यही आगमोक्त रूप है । इन तीनोंकी सहायतासे ही व्यष्टि रूपसे और समष्टि रूपसे सात भाग बनते | न अधिक बन सकते हैं और न कम ही । कहा जाता है कि सर्व प्रथम ये सात भांगे प्रथम शताब्दि में होने वाले प्रसिद्ध दिग - म्वराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित 'पंचास्तिकाय ' 'प्रवचन-सार' में मिलते हैं, परन्तु चौथी शताब्दिके बाद से ही इस विषयक साहित्यका विशेष विस्तार और विकास होता है, और अन्तमें शनैः शनैः बारहवीं शताब्दि तक यह विषय विकासकी चरम कोटिको पहुँच जाता है । वौद्ध दर्शन एवं वैदिक दर्शनोंको पदार्थ विवेचन पद्धति में और जैनदर्शनकी पदार्थ विवेचन पद्धति में इस स्याद्वाद के कारणसे ही महदन्तर है । सम्पूर्ण जैन-न्यायका भवन इसी स्याद्वाद ( अनेकान्त १७६ वाद) के ऊपर ही टिका हुआ है । कहना न होगा कि जैनदर्शनके पास दूसरे दर्शनों की मान्यताओंका प्रामाणिक रूपसे खंडन करनेके लिये यही — स्याद्वाद ही — एक अमोघ अस्त्र सिद्ध हुआ है जैन- न्यायका एक ही दृष्टिकोण है पद्धतिसे अनेकान्त-पद्धति से वस्तु स्थितिका विवेचन किया जाना । । साराँश यही है कि और वह है स्याद्वाद - मूल, चूर्णि, निर्युक्ति, टीका आदि पंचांगी श्रगाम साहित्य में स्याद्वादका सूक्ष्म और आवश्यक विवेचन मिलता है और ज्यों ज्यों दार्शनिक संघर्षण चलता है, त्यों स्याद्वादका स्वरूप और विवेचन गंगा के प्रवाहके समान शीतल, विशाल, विस्तृत और आल्हादक होता चला जाता हैं । विश्व, आत्मा, ईश्वर, प्रकृति आदि मूलभूत तत्वोंके आदि का वर्णन दार्शनिकोंने जिस प्रकार किया है, और जैसा उनका एकान्त एकांगी रूप माना है; एकान्तवादके कारण वह. पूर्ण सत्व नहीं कहा जा सकता । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अर्थात् लोकालोक रूप संसार का एकांगी स्वरूप मान लेने पर ही दार्शनिक मतभेद और धार्मिक कलहकी उत्पत्ति हुई है और होती है । क्लेशों को दूर करने के लिये ही 'स्याद्वाद' की उत्पत्ति और इस विषयक साहित्यका विकास हुआ है । प्रत्येक पदार्थ विभिन्न कारणोंसे और विभिन्न अपेक्षा से अनेक स्वरूप है । वहन एकान्त नित्य है और न एकान्त रूप से अनित्य ही । द्रव्य अपेक्षासे नित्य है और पर्याय अपेक्षासे अनित्य । इसी तरह से स्वद्रव्य क्षेत्र श्रादिके हिसाब से वह अस्तिरूप है और पर द्रव्य-क्षेत्र आदि के लिहाज से नास्तिरूप है । यह बात जड़ और चेतन दोनों ही प्रकार के तत्वोंके लिये समझना चाहिये । यही स्याद्वादका रहस्य है |
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy