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________________ १८० अनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीरनिर्वाण सं० २४६६ __जिन जैनेतर दार्शनिकोंने इसे संशयवाद या अनि- इनका संक्षिप्त भावार्थ इस प्रकार है:श्चयवाद कहा है, निश्चय ही, उन्होंने इसका गंभीर जिसके अभाव में लोकव्यवहारका चलना भी अध्ययन किये बिना ही ऐसा लिखा है। आश्चर्य तो असंभव है, उस त्रिभुवनके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्तइस बातका है कि प्रसिद्ध प्रसिद्ध सभी विभिन्न दार्शनिकों वाद' को असंख्यात बार नमस्कार है ॥१॥ ने इस सिद्धान्तका शब्द रूपसे खंडन करते हुए भी मिथ्यादर्शनोंके समूहका समन्वय करनेवाला, प्रकारांतरसे अपने अपने दार्शनिक-सिद्धान्तोंमें विरोधोंके अमृतको देनेवाला, मुमुक्षुओं द्वारा सरल रीतिसे समउत्पन्न होने पर उनकी विविधतानोंका समन्वय करनेके भने योग्य ऐसा जिनेन्द्र भगवानका प्रवचन-स्याद्वाद लिए इसी सिद्धान्तका आश्रय लिया है। महामति . सिद्धान्त-कल्याणकारी हो ॥२॥ मीमांसकाचार्य कुमारिलभट्ट ने अपने गंभीर ग्रन्थोंमें दीपकसे लगाकर आकाश तक अर्थात् सूक्ष्मसे और सांख्य, न्याय, बौद्ध आदि दर्शनोंके अनेक सूक्ष्म वस्तुसे लेकर बड़ीसे बड़ी वस्तु भी 'स्याद्वाद' की अाचार्योंने अपने अपने ग्रन्थोंमें प्रकारान्तरसे इसी आज्ञानुवर्तिनी है । यदि कोई भी पदार्थ चाहे वह छोटा सिद्धान्तका आश्रय लिया है । इस सम्बन्धमें पं०हंसराज- हो या बड़ा, स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार अपना स्वरूप जी लिखित “दर्शन और अनेकन्तवाद" नामको पुस्तक प्रदर्शित नहीं करेगा तो उसकी वस्तु-स्थितिका वास्तविक पठनीय है। ज्ञान नहीं हो सकेगा । हे भगवान् ! यह 'स्याद्वाद' से स्याद्वादके महत्त्वके विषयमें अनेक प्राचीन श्राचार्यो- अनभिज्ञ लोगोंका प्रलाप ही है, जो यह कहते हैं कि ने संख्यातीत श्लोंकों द्वारा अत्यन्त तर्क पूर्ण श्रद्धा और “कुछ वस्तु तो एकान्त नित्य हैं और कुछ एकान्त स्तुत्य भावनामय भक्ति प्रकाशितकी है। उनमें से कुछ अनित्य ।" अतः विद्वान पुरुषोंको सभी वस्तुएँ द्रव्याउदाहरण निम्न प्रकारसे है: पेक्षया नित्य और पर्यायापेक्षया अनित्य समझना नेण विणा लोगस्स वि ववहारो सन्धहा ण निवडइ। चाहिये ॥३॥ तस्स भुवणेक्कगुरूणो णमो अणेगंतवादस्स ॥ मिस प्रकार मक्खनके लिये दहीको मथनेवाली भई मिच्छादंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स। स्त्री दोनों हाथोंमें रस्सी ( मन्थान रजु) को पकड़े रहती जिणवयणस्स भगवश्रो संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ है। एक हाथम ढील देतो है और दूसरे हाथसे उसे -सिद्धसेन दिवाकर श्रादीपमाव्योम सम स्वभावं, स्याद्वादमुद्रानतिभेदिवस्तु । खींचती है, तभी मक्खन प्राप्त हो सकता है । यदि वह तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य,-दितित्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः॥ एक ही हाथसे कार्य करे अथवा दूसरे हाथकी रस्सीको -हेमचन्द्राचार्य बिल्कुल छोड़ देवे तो सफलता नहीं मिल मकती है; एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । यही स्याद्वादकी नीतिका भी रहस्य है। इस सिद्धान्तमें अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेमिव गोपी॥ भी "ढील देना और खींचना" रूप फ्रियाको वस्तु परमागमस्य बीजं, निषिद्धजात्यन्धसिन्धुर-विधानम्। विवेचन के समय क्रमसे गौणता और मुख्यता समझना सकलन यविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ चाहिये । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्ममय है। उनमंस एक -अमृत चन्द्र सुरि धर्मको मुख्यता और शेष धर्मोको उनका निषेध नहीं
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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