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________________ १८८ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ उदय जिस प्रकारसे प्रत्यक्ष ज्ञाता दृष्टा. सर्वज्ञने उक्त प्रकारके व्यवहारोंसे तो साफ़ प्रकट है कि कहा हो वह सब गाथासे प्रकट नहीं होता। इस उनमें नीच और उच्च दोनों ही प्रकारके आचरणलक्षणके मुताबिक गोत्रकर्मका उदय मनुष्यों ही वाले जीव होते हैं, फिर जैन-पिद्धान्तियोंने देवमें मिलेगा और अन्य गतियोंके जीवोंके आठ गतिमें नीचगोत्रका उदय क्यों नहीं कहा ? पाठक कर्मों की जगह सात ही का उदय मानना पड़ेगा। विचारें। जैन सिद्धान्तियोंमें गत्र और गोत्र कर्मके २–इसमें कुछ विशेष कहनेकी ज़रूरत नहीं विषयोंमें जो प्रचलित मत वह मनुष्यों ही के कि असुर, राक्षस, भूत, पिशाचादि देवोंके आचव्यवहारों तथा कल्पनाओंसे बना है । इमके रण महान घृणित और नीच माने गये हैं और वे विशेष प्रमाणमें निम्न लिखित ऊहापोहकी बातें वैमानिक देवोंकी समानता नहीं कर सकते । यदि पाठकोंके स्वयं विचारार्थ उपस्थित करते हैं- गोत्रके उच्चत्व नीचत्वमें जीवका आचरण मूल का १–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और रण है तो वैमानिकोंकी अपेक्षा व्यन्तरादिका गोत्र वैमानिक, इस प्रकारसे देवोंके चार निकाय जैन- अवश्य नीच होना चाहिये । देवमात्रको उच्चगोत्री धर्ममें कहे हैं । इन चारों प्रकारके देवोंमें इन्द्र कहना जैनसिद्धान्तियोंके लक्षणसे विरुद्ध पड़ता है। सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद,आत्मरक्ष, लोकपाल ३–पशुओं में सिंह, गज, जम्बुक, भेड़, कुक्कर अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषिक, आदिके आचरणों में प्रत्यक्ष भेद है। वीरता, साहस ऐसे दश भेद होते हैं। इनमेंसे जो देव घोड़ा, आदि गुणोंमें मिहको मनुष्योंने आदर्श माना है । रथ, हाथी, गंधर्व और नर्तकीके रूपोंको धारण किसी दूसरेकी मारी हुई शिकार और उच्छिष्टको करते हैं वे अनीक हैं जो हाथी, घोड़ा बाहन सिंह कभी नहीं खाता और न अपने वारसे पीछे बनकर इन्द्रकी सेवा करते हैं वे आभियोग्य कह रहे हुए पशु पर दुबारा आक्रमण करता है । जैनालाते हैं; और जो इन्द्रादिक देवोंके सन्मानादिकके चार्योंने १०० इन्द्र की संख्यामें सिंहको इन्द्र कहा अनधिकारी, इन्द्रपुरीसे बाहर रहने वाले तथा है, यथाअन्यदेवोंसे दूर खड़े रहनेवाले (जैसे अस्पृश्यशूद्र) "भवणालय चालीसा बितरदेवाण होंति बत्तीसा । हैं वे किल्विषक देव हैं। यहाँ अपने आप यह कप्पामर चउबीसा चन्दो सूरो णरो तिरो।" प्रश्न होता है कि किल्विषक जातिके देवोंको अन्य इसका क्या कारण है कि आचरणों में भेद होते प्रकारके देव अपनी अपेक्षा नीच समझते हैं कि हुए भी तिर्यश्चमात्रको समानरूपसे नीचगोत्री कहा नहीं ? यदि नीच नहीं समझते तो किल्विषिकोंको गया है ? अमरावतीसे बाहर दूर क्यों रहना पड़ता है और ४-नारकियोंमें ऐसे जीव भी होते हैं जिनके वे अस्पृश्य क्यों हैं ? एवं अनीक तथा आभियोग्यक तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध होता है। क्या वे जीव आचरण शेष सात प्रकारके देवोंकीदृष्टिमें उच्च हैं भी अन्य नारकियोंकी तरह नीचाचरणी ही होते वा नीच ? देवोंके दश प्रकारके भेद और उनके सर्व नारकी जीवोंका समान नीचाचरणी
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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