SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ श्रनेकान्त व भोग सामग्री के पदार्थ वे हरण नहीं करते । उनमें कोई दुराचार नहीं, मंदकषाय रूप सदाचार है। फिर उन्हें नीच गोत्री कैसे समझा जावे ? आगे लिखा है कि अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ मनुष्यों में शामिल करने से ही मनुष्यों में ऊँच नीच गोत्रकी कल्पना हुई है । अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ मनुष्यों में शामिल करनेसे ही मनुष्यों में ऊँच नीचगोत्रकी सृष्टि नहीं हुई, बल्कि ऊँच नीचताके भाव अनादिकालीन हैं और वे मनुष्यों में ही नहीं प्राणीमात्रमें पाये जाते हैं और उन्हींके कारण अर्थात् जीवोंके सद्व्यवहार ( धर्मा - चरण) व कुत्सित व्यवहार ( पापाचरण) के कारणही मनुष्यों में क्या सारे नीवोंमें ऊँच नीच गोत्रता भाई है, वह बलात्कार किसीकी लाई हुई नहीं है। और न अन्तरद्वीपजों म्लेच्छ मनुष्य नीचगोत्री ही हैं बल्कि वे तो कर्मभूमि भी नहीं है । (क) भोग भूमिज है। शास्त्रोंमें उनके ऊँच गोत्रका उदय बतलाया है । उनको समस्त अन्तरद्वीपजोंके उच्चगोत्रका उदय कौनसे दि० जैनशास्त्रों में बतलाया है उनके नामादिकको यहाँ प्रकट करना चाहिये था। मुझे तो जहाँतक मालूम है किसी भी दिगम्बर शास्त्रमें इस विषयका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । प्रत्युत इसके श्रीविद्यानन्दाचार्यने श्रन्तरद्वीपजोंके दो भेद किये है — एक भोगभूमि समप्रराधि और दूसरा कर्मभूमि समप्रणधि । भोगभूमि समप्रणधि अन्तरद्वीप भोगभूमियां के समान होनेसे किसी तरह पर उच्चगोत्री हो सकते हैं; परन्तु कर्मभूमि समप्रराधि ग्रन्तद्वी भोगभूमिया नहीं हो सकते – उनकी ग्रायु, शरीरकी ऊँचाई और वृत्ति (प्रवृत्ति अथवा श्रा जीविका ) भोग भूमियों के समान न होकर कर्मभूमियोंके समान होती है; और इसलिये उनके लिये उच्चगोत्रका नियम किसी तरह भी नहीं बन सकता । वे प्रायः नीच गोत्री होते हैं; [ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६ म्लेच्छ केवल उनकी पशु-मुखाकृति की अपेक्षा कह दिया गया है, श्राचरणकी अपेक्षा वे उच्च गोत्री व सदाचारी हैं । श्रन्तरद्वीपजोंको नीच गोत्री व सर्वथा पशु मानना केवल पूज्य बाबू सूरजभानजी साहबही की मान्यता हो सकती है, बहुमत तो जहाँ तक मैं समझता हूँ ऐसी मान्यता वाला नहीं होगा । आगे लिखा है कि अफरीका के पतित मनुष्य अपने असभ्य व कुत्सिन व्यवहारोंको छोड़कर सभ्य बनने लग गये हैं। जब पूज्य बाबू साहबने अपने लेख में अफरीका के मनुष्यों को पतित अर्थात् नीचगोत्री मान लिया और यह भी मान लिया कि वे अपने कुत्सित व्यवहारों एवं पापाचरणोंको छोड़कर सभ्य बन गये हैं। र्थात् अपने नीचगोत्र जभ्य कुत्सित व्यवहारों-दुराचरणों को छोड़कर नीचगोत्री से सभ्य एवं उच्चगोत्री बन गये हैं, तब कोई मनुष्य नीचगोत्री नहीं है ऐसा मानने व लिखनेका क्या अर्थ है वह मेरी कुछ समझ में नहीं आया। बड़ी ही कृपा हो यदि वे उसे समुचित रूपसे समझानेका यत्र करें । इसके बाद श्रीविद्यानन्दस्वामीके मतका उल्लेख करते हुए पूज्य बाबू साहब ने लिखा है कि 'आर्यके उच्चगोत्रका उदय ज़रूर है और म्लेच्छके नीचगोत्रका उदय श्रवश्य । परन्तु श्रार्य होनेके लिये उच्चगोत्रके साथ 'आदि' शब्दमे दूसरे कारण भी श्रीविद्यानन्दने ज़रूरी बतलाये हैं. और वे दूसरे कारण हैं श्रहिंसा सत्य - शील-संयमादि व्रताचरण अर्थात् उनके इसका विवेचन मैंने 'अन्तर द्वीपज मनुष्य' नामके उस लेखमें किया है, जो गत वर्ष के 'अनेकान्त' की ६ ठी किरण में प्रकाशित हुआ है । मालूम होता है लेखक महोदयका ध्यान उस पर नहीं गया है, उसे देखना चाहिये ।
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy