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________________ १४ अनेकान्त अकलंकगुरुर्जीयादकलंकपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धि-वैधव्य-दीक्षागुरुरुदाहृतः ॥ [ मार्गशीर्ष, वीर- निर्वाण सं० २४६६ - हनुमच्चरिते, ब्रह्मश्रजितः जो बौद्धोंकी बुद्धिको वैधव्य-दीक्षा देनेवाले गुरु कहे जाते हैं - जिनके सामने बौद्धविद्वानोंकी बुद्धि विधवाजैसी दशा को प्राप्त होगई थी, उसका कोई ऐसा स्वामी नहीं रहा था जो बौद्ध-सिद्धान्तोंकी प्रतिष्ठाको कायम रख सके—वे अकलंकपदके अधिपति श्री कलंकगुरु जयवन्त हो— चिरकाल तक हमारे हृदयमन्दिर में विराजमान रहें । तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः । जगद्द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यद्स्यवः ॥ - पार्श्वनाथ चरिते, वादिराजसूरिः जिन्होंने जगत् के द्रव्योंको चुरानेवाले – शून्यवाद - नैरात्म्यवादादि सिद्धांतोंके द्वारा जगतके द्रव्योंका अपहरणकरनेवाले, उनका अभाव प्रतिपादन करनेवाले — बौद्ध दस्युत्रोंको दण्डित किया, वे अकलंकबुद्धिके धारक तर्काधिराज श्रीकलंकदेव जयवन्त हैं—सदा ही अपनी कृतियोंसे पाठकोंके हृदयोंपर अपना सिक्का जमानेवाले हैं। भट्टाकलंकोऽकृत सौगतादि- दुर्वाक्यपंकैस्स कलंकभूतम् । जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ समन्तादकलंकमेव ॥ - श्रवणबेलगोल - शिलालेख नं० १०५ बौद्धादि - दार्शनिकों के मिथ्यैकान्तवादरूप दुर्वचन-पंकसे सकलंक हुए जगत को भट्टाकलंक देवने, अपने नामको मानों पूरी तौर से सार्थक करनेके लिये ही, अकलंक बना डाला है - अर्थात् उसकी बुद्धिमें प्रविष्ट हुए 'एकान्त मलको, अपने अनेकान्तमय वचनप्रभाव से धो डाला है । इत्थं समस्तमतवादि-करीन्द्र-दर्पमुन्मूलयन्न मलमानदृढप्रहारैः । स्याद्वाद-केसरसटाशततीत्रमूर्तिः, पंचाननो भुवि जयत्यकलंकदेवः ॥ - न्याय कुमुदचन्द्रे, प्रभाचन्द्राचार्यः इस प्रकार जिन्होंने निर्दोष प्रमाण के दृढ प्रहारोंसे समस्त श्रन्यमतवादिरूपी राजेन्द्रोंके गर्वको निर्मूल कर दिया है वे स्याद्वादमय सैंकड़ों केसरिक जटाओं से प्रचण्ड एवं प्रभावशालिनी मूर्तिके धारक श्रीकलंकदेव भूमं डल पर केहरिसिंह के समान जयशील हैं - अपनी प्रवचन- गर्जनासे सदा ही लोक- हृदयों को विजित करनेवाले हैं । जीयाश्चिरमकलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपति-वरतनयः । अनवरत - निखिलजन - नुतविद्यः प्रशस्तजन-हृद्यः ॥ - तस्वा०रा०, प्रथमाध्याय - प्रशस्तिः जिनकी विद्या - ज्ञानमाहात्म्य — के सामने सदा ही सब जन नतमस्तक रहते थे और जो सज्जनोंके हृदयों को हरनेवाले थे — उनके प्रेमपात्र एवं आराध्य बने हुए थे — वे लघुहव्वराजाके श्रेष्ठपुत्र श्रीअकलंकब्रह्मा–कलंक नामके उच्चात्मा महर्षि - - चिरकाल तक जयवन्त हों - अपने प्रवचनतीर्थ-द्वारा लोकहृदयों में सदा सादर विराजमान रहें ।
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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