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स्वार्थ-साधु नहिं दया करेंगे, दुर्लभ मनुज-जन्मको पाकर,
उनसे इस अभिलाषाको । निज कर्त्तव्य समझ लेना । छोड़, स्वावलम्बिनी बनो तुम, उस ही के पालनमें तत्पर रह,
पूर्ण करो निज आशा को ॥ प्रमादको तज देना ॥११ सावधान हो स्वबल बढ़ाओ, दीन-दुखी जीवोंकी सेवा,
.. निज समाच उत्थान कगे। करनी सीखो हितकारी । 'दैव दुर्बलोंका घातक', दीनावस्था दूर तुम्हारी, ___इस नीति वाक्य पर ध्यान धरो॥८ हो जाए जिससे सारी ॥ बिना भावके बाह्यक्रियासे, न दे करके अवलम्ब उठाओ,
धर्म नहीं बन पाता है। निर्बल जीवोंको प्यारी। रक्खो सदा ध्यानमें इसको, इससे वृद्धि तुम्हारे बलकी,
यह आगम बतलाता है ॥ निःसंशय होगी भारी ॥१२ भाव बिना जो व्रत-नियमादिक, हो विवेक जागृत भारतमें,
करके ढोंग बनाता है । इसका यत्न महान करो। आत्म पतित होकर वह मानव, अज्ञ जगतको उसके दुख
ठग-दम्भी कहलाता है ॥६ दारिद्रय आदिका ज्ञान करो॥ इससे लोकदिखावा करके, फैलाओ सत्कर्म जगतमें,
धर्मस्वाँग तुम मत धरना । सबको दिलसे प्यार करो। सरल चित्तसे जो बन आए, बने जहाँतक इस जीवनमें,
भाव-सहित सो ही करना ॥ औरोंका उपकार करो ॥ १३ प्रबल न होने पाएँ कषायें, 'युग-चीरा' बनकर स्वदेशका,
लक्ष्य सदा इस पर रखना। फिरसे तुम उत्थान करो। स्वार्थ त्यागके पुण्य-पन्थ पर मैत्रीभाव सभीसे रखकर,
प्रेम सहित निशदिन चलना ॥१० गुणियोंका सम्मान करो ॥ क्षण-भंगुर सब ठाठ जगतके, उन्नत होगा आत्म तुम्हारा,
इन पर मत मोहित होना। इन ही सकल उपायोंसे । काया-मायाके धोखेमें पड, शान्ति मिलेगी, दुःख टलेगा, अचेत हो नहिं सोना ॥ छूटोगी विपदाओंसे ॥१४॥
–'युगवीर'
मममममें