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________________ वर्ष ३, किरण २ ] बंगीय विद्वानोंकी जैन साहित्य में प्रगति जैनेतर विशिष्ट पत्रोंमें प्रकाशित किये जानेका प्रबन्ध रहनेसे प्रचारकार्य बहुत शीघ्र आगे बढ़ेगा । निबंधों के प्रकाशनके पूर्व अच्छी तरह परीक्षा करलेनी चाहिये ताकि किसी लेखकने कोई भूलभ्रान्ति की हो तो वह पहले सुधारी जा सके, इससे लेखकको अपनी भूलें विदित हो जायँगी और प्रकाशन भी भ्रान्तिरहित होगा । इसी प्रकार बंगीय विद्वानोंके लिखित ग्रंथोंको भी सिन्धी जैन ग्रंथमाला आदि द्वारा प्रकाशित करनेका प्रबन्ध होना चाहिये, ताकि लेखकको प्रकाशकौंके ढूंढनेकी चिन्ता न हो । (४) एक सामयिक मासिक पत्र भी पूर्व प्रकाशित "जिनवाणी" की भांति प्रकाशित किया जाय, जिसमें हिन्दी, बंगला और अँग्रेजी लेखोंको प्रकाशित किया जासके । सामयिकपत्रसे प्रगति बहुत फलवती होती है और प्रचारका प्रशस्तमार्ग सरल हो जाता है । (५) कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक जैन चेयरकी बड़ी श्रावश्यकता है, जिसमें जैनदर्शन, साहित्य, कलाश्रादिकी समुचित शिक्षा जैनविद्वान द्वारा बंगीय जैन, जैनेतर छात्रोंको दी जाय । योग्य छात्रोंको छात्रवृत्ति भी अवश्य दी जाय । (६) धर्मप्रचारका कार्य जैसा त्यागी विद्वान मुनियोंसे हो सकता है वैसा अन्य से नहीं, उनके ज्ञान एवं चारित्रका प्रभाव भी बहुत अच्छा पड़ता है । जैन दर्शन सम्बन्धी शंकाओंका बंगीय विद्वान उनसे निराकरण कर सकते हैं और भी उनके उपदेशसे कई विद्वान प्रचार एवं साहित्य सेवा में जुट सकते हैं साथ ही, आदर्श सिद्धान्तों का शिक्षितसमाज में सहज प्रचार हो सकता है, पर खेद है कि हज़ारों जैनी आसाम-बंगाल में रहते हैं पर उनकी प्रगति इतनी सीमित है कि उसका दूसरोंको पता नहीं चलता । श्वे० जैन मुनि एवं दिगम्बर विद्वान बंगला और अँग्रेजी भाषाका आवश्यक ज्ञान प्राप्त करके ग्राम ग्राममें घूमें तो पुनः जिस बंगाल-बिहारमें एक समय १६१ जैनधर्म ऊँचे शिखर पर चढ़ा हुआ था वह फिरसे नज़र जाय, कमसे कम हज़ारों मनुष्य मांसमत्स्य भक्षणका त्याग कर सकते हैं । जिससे लाखों I करोड़ों जीवोंको अभयदान मिले। श्राशा है वे अब अपना कर्तव्य सँभालेंगे । ( ७ ) कई स्थानों में मुनिमहाराजोंके जाने में नाना सुविधायें हैं, उन स्थानों में कतिपय प्रचारक विद्वानों कार्य होसकता है । अतः २-४ प्रचारकोंकी भी नियुक्ति परमावश्यक है, जिससे प्रचारकार्य व्यापक एवं विशिष्ट हो । 1 इसी प्रकार अल्पमूल्य में या अमूल्यरूपसे जैन दर्शन के सारभूत कई ग्रंथोंका प्रचार इंगलिश एवं बंगला भाषा में करने द्वारा तथा अन्य विविध योजनाओं द्वारा पुनः पूर्ण प्रयत्न कर जैनधर्मका संदेश सर्वत्र प्रसारित करना परमावश्यक है । मैंने इस लघुलेख में दिशा सूचक . रूपसे महत्वकी कतिपय योजनात्रों को ही जैन समाजके समक्ष रखा है, अन्य विद्वान एवं जैनधर्मके प्रचार-प्रेमी सज्जन अपने अपने विचार शीघ्र ही अभिव्यक्त करें, एवं समाज उन्हें कार्य रूपमें परिणत करनेमें तन मन धनसे सहयोग दे, यही पुनः पुनः सादर विज्ञप्ति है । स्थानीय बंगीय जैन समाजका इस दिशा में प्रयत्न करनेका सर्वप्रथम कर्त्तव्य । मुर्शिदाबाद एवं कलकत्तेके जैन भाइयोंको मैं पुनः उनके श्रावश्यक कर्त्तव्यकी याद दिलाता हूँ, आशा है वे इसपर अवश्य विचार करेंगे एवं अन्य प्रान्तोंके भाइयोंके सन्मुख भी आदर्श उपस्थित करेंगे । लेख समाप्त करनेके पश्चात् नं० ५ योजनाके संबंध में कलकत्तेकी गत महावीर जयन्ती पर श्रीयुक्त बहादुरसिंहजी सिंधीने जो विचार व्यक्त किये उनको कार्यरूप में परिणत देखने को मैं उत्कंठित हूँ । एवं नाहरजीके कलाभवनकी ४० हजारकी बहूमूल्य वस्तुएँ कलकत्ते के विश्वविद्यायय के आशुतोष म्युजियमको दानके संवाद मिले हैं। क्या ही अच्छा हो उनका पुस्तकालय भी नं० १ योजनानुसार कर दिया जाय ।
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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