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________________ वर्ष ३. किरण २] बंगीय विद्वानोंकी जैन-साहित्यमें प्रगति ur & co. London 1934 at 15. तब जैनधर्म दिनोदिन अवनतिकी अोर अग्रसर है इसका 2. Indian Realism-Published एक मात्र कारण व्यवस्थित प्रचार-कार्यका अभाव है। ___1938 at 10s. 6d. बंगाल जैसे शिक्षित प्रान्तमें इसका प्रचार बहुत कम ३३ अमृतलाल शील-- (पता-न्युलेन हैदराबाद ) समयमें अच्छे रूप में हो सकता है। जैनोंको अब कुम्भ अापका लेख है 'जैनदिगेर तीर्थकर' -प्र"मानसी की निद्रा त्याग कर कर्त्तव्य-पालनमें कटिबद्ध होजाना श्रो मर्मवानी" पृ० १० चाहिये । ३४ अमूल्यचन्द्रमेन, (पता–विद्याभवन विश्वभारती प्रिय पाठक गण ! इस लेखको पढ़कर आपको शांतिनिकेतन )-आपके . लेखका नाम है विदित ही हुअा होगा कि समुचित साधन, प्रोल्साहन Schools and Sects in jain Lite- नहीं मिलने पर भी इन विद्वानोंने कहां तक कार्य किये rature-प्र० विश्वभारती । हैं और साधनादि मिलने पर वे कितने प्रेम और उत्साह इनके अतिरिक्त अन्य कई विद्वानोंने भी जैनधर्म के साथ जैन साहित्यकी प्रशस्त सेवा कर सकते हैं। . सम्बन्धी लेखादि लिखे हैं ऐसा कई व्यक्तियोंसे अब किन किन उपायों द्वारा बंगीय विद्वानोंको मौखिक पता चला था पर उन्हें कई पत्र देने पर समुचित साधन व प्रोत्साहन मिल कर उनके द्वारा भी प्रत्युत्तर नहीं मिलनेसे इस लेखमें वह उल्लेख बङ्ग-प्रदेशमें जैनधर्मका प्रचार हो सकता है, इस विषयन कर सका। में कुछ शब्द लिखे जाते हैं । प्रो० बिधुशेखर भट्टाचार्य, डा० काजी मोहन नाग १ जैनग्रन्थोंका एक विशाल संग्रहालय हो और हीरेन्द्रनाथदत्त अटी आदि बंगीय विद्वानोंस मैं मिला था ___ उसमें यह सुव्यवस्था रहे कि प्रत्येक पाठकको यद्यपि इन महानुभावोंने अभी तक जैनदर्शनके सम्बंध सुगमतापूर्वक पुस्तकें मिल सकें। यदि भ्रमणशील में स्वतन्त्र कोई निबन्धादि नहीं लिखा है फिर भी इनकी पुस्तकालय हों तो फिर कहना ही क्या ? कलकत्तेजैनधर्म के प्रति असीम श्रद्धा है। कई कई विद्वान् तो के जैन पुस्तकालयोंमें सुप्रसिद्ध नाहरजीकासंग्रहालय जैनधर्मके प्रचार के सम्बन्धमें विचार विनिमय करने पर सर्वोत्कृष्ट है। यदि ऐसा पुस्तकालय सर्वोपयोगी और हार्दिक दुःख प्रगट करते हुए कहते है कि “बौद्ध धर्मके सार्वजनिक हो सके तो निस्सन्देह एक बड़े भारी सम्बन्धमें लो नित नये २ विचार पत्र पत्रिकायोंमें अभावकी पूर्ति हो सकती है । प्रत्येक सुप्रसिद्ध उप आये दिन पढ़नेको मिलते हैं पर जैनी लोग योगीग्रन्थकी दो दो तीन तीन प्रतियाँ पुस्तकालयमें कर्तव्य विमुख हो बैठे हैं, अन्यथा कभी संभव रहना आवश्यक हैं क्योंकि जो विद्वान उसकी एक नहीं कि ऐसे आदर्श धर्मके अनुयायी : १४ लाखमेंही प्रति मनन कर कुछ लिखने के लिये ले गये अतः सीमित रहें।" उनके यहांसे उसका देवेसे वापिस प्राप्त होना पादरियों तथा आर्य समात्रियोंने प्रचार कार्यके बल स्वभाविक है, इसी बीच अन्य विद्वानोंको उसकी फर.माज क्या कर दिखाया है । बौद्धधर्म जो शताब्दियों विशेष अावश्यकता हुई तो अन्य प्रति हो तो उन्हें से भारतसे दूर हो गया था पुनः प्रचारित हो रहा है भी मिल सके । अच्छे अच्छे ग्रन्थोंको समय पर
SR No.527157
Book TitleAnekant 1939 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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