Book Title: Agam 45 Anuyogdwar Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नम: पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः आगम-४५ अनुयोगद्वार आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद अनुवादक एवं सम्पादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-४५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' क्रम १ २ ३ आगमसूत्र-४५- ‘अनुयोगद्वार' चूलिकासूत्र-२- हिन्दी अनुवाद विषय ज्ञान एवं आवश्यक आनुपूर्वी | नाम एक से दश भेद एवं प्रमाण कहां क्या देखे ? पृष्ठ क्रम ०५ ४ ११ ५ २४ ६ विषय सामासिक भाव प्रमाण प्रमाण का स्वरूप | वक्तव्यता एवं अर्थाधिकार दीपरत्नसागर कृत् ” (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद* Page 2 पृष्ठ ३५ ३६ ६१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ०१ ०२ ०३ ०४ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' आगम का नाम आचार सूत्रकृत् स्थान समवाय ०५ भगवती ०६ ज्ञाताधर्मकथा ०७ उपासकदशा ०८ अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा १० प्रश्नव्याकरणदशा ११ विपाकश्रुत १२ औपपातिक १३ राजप्रश्निय १४ जीवाजीवाभिगम १५ प्रज्ञापना १६ सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति १८ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ निरयावलिका कल्पवतंसिका २० २१ पुष्पिका १२२ पुष्पचूलिका २३ वृष्णिदशा २४ चतुःशरण ४५ आगम वर्गीकरण सूत्र क्रम अंगसूत्र - १ अंगसूत्र - २ अंगसूत्र- ३ अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५ अंगसूत्र-६ अंगसूत्र-७ अंगसूत्र अंगसूत्र- ९ अंगसूत्र- १० अंगसूत्र - ११ उपांगसूत्र-१ उपांगसूत्र- २ उपांगसूत्र-३ उपांगसूत्र- ४ उपांगसूत्र- ५ उपांगसूत्र-६ उपांगसूत्र- ७ उपांगसूत्र- ८ उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र- १० उपांगसूत्र- ११ उपांगसूत्र- १२ पयन्नासूत्र - १ २५ २६ आतुरप्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान २७ भक्तपरिज्ञा २८ तंदुलवैचारिक २९ संस्तारक ३०.१ गच्छाचार ३०.२ चन्द्रवेध्यक ३१ गणिविद्या ३२ देवेन्द्रस्तव ३३ वीरस्तव निशीथ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ आगम का नाम बृहत्कल्प व्यवहार --- दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प महानिशीथ ४० आवश्यक ४१.१ ओघनिर्युक्ति ४१.२ पिंडनिर्युक्ति ४२ दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४ नन्दी ४५ अनुयोगद्वार दीपरत्नसागर कृत् ” (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद* सूत्र पयन्नासूत्र - २ पयन्नासूत्र - ३ पयन्नासूत्र- ४ पयन्नासूत्र -५ पयन्नासूत्र - ६ पयन्नासूत्र ७ पयन्नासूत्र - ७ पयन्नासूत्र- ८ पयन्नासूत्र- ९ पयन्नासूत्र - १० छेदसूत्र - १ छेदसूत्र-२ छेदसूत्र - ३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र -५ छेदसूत्र - ६ मूलसूत्र - १ मूलसूत्र - २ मूलसूत्र - २ मूलसूत्र - ३ मूलसूत्र - ४ चूलिकासूत्र - १ चूलिकासूत्र - २ Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' 10 06 01 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य आगम साहित्य क्र साहित्य नाम बूक्स क्रम साहित्य नाम बूक्स मूल आगम साहित्य: 1476 आगम अन्य साहित्य:-1- आगमसुत्ताणि-मूलं prin [49] -1- साराम थानुयोग -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net [45] -2- आगम संबंधी साहित्य 02 -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] -3-ऋषिभाषित सूत्राणि आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली 01 -1- सामसूत्र गुराती अनुवाह [47] आगम साहित्य- कुल पुस्तक 516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net [47] -3- AagamSootra English Trans. [11] -4- सामसूत्र सटी ४राती अनुवाद [48] -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद prin | [12] अन्य साहित्य:3 आगम विवेचन साहित्य: | 171 1तत्वाल्यास साहित्य-1- आगमसूत्र सटीक । [46] 2 સૂત્રાભ્યાસ સાહિત્ય-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-1 [51]| 3 વ્યાકરણ સાહિત્ય 05 -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-2 [09] | વ્યાખ્યાન સાહિત્ય-4- आगम चूर्णि साहित्य [09] 5लिनमत साहित्य-5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 व साहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08]| 7 આરાધના સાહિત્ય 03 -7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि परियय साहित्य 04 आगम कोष साहित्य:149५४न साहित्य 02 1-1- आगम सद्दकोसो [04] 10 तीर्थ६२ सहित र्शन 1-2- आगम कहाकोसो [01] 11 डी साहित्य-3- आगम-सागर-कोष: [05] | 12ीपरत्नसागरनासधुशोधनिबंध -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य: 09 -1- सागम विषयानुभ- (1) 02 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) 516 -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 04 2-आगमेतर साहित्य (कुल 085 1-3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन | 601 ASमुनिहारत्नसागरनुसाहित्य भुनिटीपरत्नसागरनु मागम साहित्य इस पुस्त8516] तेनाल पाना [98,300] भुनिटीपरत्नसागरनु अन्य साहित्य [इस पुस्त585] तैनात पाना [09,270] 3 भुमिहीपरत्नसागर संलित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD_नाल पाना [27,930] | सभारा प्राशनोहा 50१ + विशिष्ट DVD Sस पाना 1,35,500 09 05 05 85 57 03 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' [४५] अनुयोगद्वार चूलिका सूत्र- २- हिन्दी अनुवाद सूत्र - १ ज्ञान के पाँच प्रकार हैं । आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान | सूत्र - २ इन ज्ञानों में से चार ज्ञान स्थाप्य हैं, एक स्थापनीय हैं। क्योंकि ये चारों ज्ञान ( गुरु द्वारा) उपदिष्ट नहीं होते हैं, समुपदिष्ट नहीं होते हैं और न इनकी आज्ञा दी जाती है । किन्तु श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होता है। सूत्र - ३ यदि श्रुतज्ञान में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो वह उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति अंगप्रविष्ट श्रुत में होती है । अथवा अंगबाह्य में होती है ? अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य दोनों आगम में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवर्तित होते हैं । सूत्र - ४ भगवन् ! यदि अंगबाह्य श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो क्या वह कालिकाश्रुत में होती है अथवा उत्कालिक श्रुत में ? कालिकश्रुत और उत्कालिक श्रुत दोनों में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होते हैं, किन्तु यहाँ उत्कालिक श्रुत का उद्देश यावत् अनुयोग प्रारम्भ किया जायेगा । सूत्र - ५ यदि उत्कालिक श्रुत के उद्देश आदि होते हैं तो क्या वे आवश्यक के होते हैं अथवा आवश्यकव्यतिरिक्त के होते हैं ? आयुष्यमन् ! यद्यपि आवश्यक और आवश्यक से भिन्न दोनों के उद्देश आदि होते हैं परन्तु यहाँ आवश्यक का अनुयोग प्रारम्भ किया जा रहा है । सूत्र - ६ यदि यह अनुयोग आवश्यक का है तो क्या वह एक अंग रूप है या अनेक अंग रूप ? एक श्रुतस्कन्ध रूप है या अनेक श्रुतस्कन्ध रूप ? एक अध्ययन रूप है या अनेक अध्ययन रूप ? एक उद्देशक रूप है या अनेक उद्देशक रूप ? आवश्यकसूत्र एक या अनेक अंग रूप नहीं है । एक श्रुतस्कन्ध रूप है । अनेक अध्ययन रूप है । या अनेक उद्देशक रूप नहीं है। सूत्र - ७ आवश्यक का निक्षेप करूँगा । इसी तरह श्रुत, स्कन्ध एवं अध्ययन शब्दों का निक्षेप करूँगा । सूत्र - ८ यदि निक्षेप्ता जिस वस्तु के समस्त निक्षेपों को जानता हो तो उसे उन सबका निरूपण करना चाहिए और यदि न जानता हो तो चार निक्षेप तो करना ही चाहिए । सूत्र - ९ आवश्यक का स्वरूप क्या है ? आवश्यक चार प्रकार का है। नाम आवश्यक, स्थापना - आवश्यक, द्रव्यआवश्यक, भाव-आवश्यक । दीपरत्नसागर कृत् ” (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद* Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र-१० नाम-आवश्यक का स्वरूप क्या है ? जिस किसी जीव या अजीव का अथवा जीवों या अजीवों का, तदुभय का अथवा तदुभयों का, 'आवश्यक' ऐसा नाम रख लिया जाता है, उसे नाम-आवश्यक कहते हैं । सूत्र-११ स्थापना-आवश्यक क्या है ? काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, ग्रंथिम, वेष्टिम, पूरिम, संघातिम, अक्ष अथवा वराटक में एक अथवा अनेक आवश्यक रूप से जो सद्भाव अथवा असद्भाव रूप स्थापना की जाती है, वह स्थापना-आवश्यक है। सूत्र-१२ नाम और स्थापना में क्या भिन्नता है ? नाम यावत्कथित होता है, किन्तु स्थापना इत्वरिक और यावत्कथित, दोनों प्रकार की होती है। सूत्र-१३ द्रव्य-आवश्यक क्या है ? द्रव्यावश्यक दो प्रकार का है। आगमद्रव्यावश्यक, नोआगमद्रव्यावश्यक । सूत्र-१४ आगमद्रव्य-आवश्यक क्या है ? जिस ने आवश्यक' पद को सीख लिया है, स्थित कर लिया है, जित कर लिया है, मित कर लिया है, परिजित कर लिया है, नामसम कर लिया है, घोषसम किया है, अहीनाक्षर किया है, अनत्यक्षर किया है, व्यतिक्रमरहित उच्चारण किया है, अस्खलित किया है, पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, एक शास्त्र के भिन्न-भिन्न स्थानगत एकार्थक सूत्रों को एकत्रित करके पाठ नहीं किया है, प्रतिपूर्ण किया है, प्रतिपूर्णघोष किया है, कंठादि से स्पष्ट उच्चारण किया है, गुरु के पास वाचना ली है, जिससे वह उस शास्त्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा से भी युक्त है। किन्तु अनुप्रेक्षा से रहित होने से वह आगमद्रव्य-आवश्यक है। क्योंकि आवश्यक के उपयोगरहित होने आगमद्रव्य-आवश्यक कहा जाता है। सूत्र-१५ नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्य-आवश्यक है । दो अनुपयुक्त आत्माएँ दो आगमद्रव्य-आवश्यक हैं । इसी प्रकार जितनी भी अनुपयुक्त आत्माएँ हैं, वे सभी उतनी ही नैगमनय की अपेक्षा आगमद्रव्य-आवश्यक हैं । इसी प्रकार व्यवहारनय भी जानना। संग्रहनय एक अनुपयुक्त आत्मा एक द्रव्य-आवश्यक और अनेक अनुपयुक्त आत्माएँ अनेक द्रव्यआवश्यक हैं, ऐसा स्वीकार नहीं करता है । वही सभी आत्माओं को एक द्रव्य-आवश्यक ही मानता है। ऋजुसूत्रनय भी भेदों को स्वीकार नहीं करता। तीनों शब्दनय ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो उसे अवस्तु मानते हैं । क्योंकि जो ज्ञायक है वह उपयोगशून्य नहीं होता है और जो उपयोगरहित है उसे ज्ञायक नहीं कहा जा सकता। सूत्र-१६ नोआगमद्रव्य-आवश्यक क्या है ? वह तीन प्रकार का है । ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक, ज्ञायक-शरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक । सूत्र-१७ ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक क्या है ? आवश्यक इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले के चैतन्य से रहित, आयुकर्म के क्षय होने से प्राणों से रहित, आहार-परिणतिजनित वृद्धि से रहित, ऐसे जीवविप्रमुक्त शरीर को शैयागत, संस्तारकगत अथवा सिद्धशिलागत देखकर कोई कहे- अहो ! इस शरीररूप पुद्गलसंघात ने जिनोपदिष्ट भाव से आवश्यक पद का अध्ययन किया था, प्रज्ञापित किया था, समझाया था, दिखाया था, निदर्शित किया था, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' उपदर्शित कराया था ।' ऐसा शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्य-आवश्यक है। इसका समर्थक कोई दृष्टान्त है ? यह मधु का घड़ा था, यह घी का घड़ा था। यह ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप है। सूत्र- १८ भव्यशरीरद्रव्यावश्यक क्या है ? समय पूर्ण होने पर जो जीव जन्मकाल में योनिस्थान से बाहर निकला और उसी प्राप्त शरीर द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार भविष्य में आवश्यक पद को सीखेगा, किन्तु अभी सीख नहीं रहा है, ऐसे उस जीव का वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यावश्यक है । इसका कोई दृष्टान्त है ? यह मधुकुंभ होगा, यह घृतकुंभ होगा। यह भव्यशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप है। सूत्र-१९ ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावश्यक क्या है ? वह तीन प्रकार का है । लौकिक, कुप्रावचनिक, लोकोत्तरिक। सूत्र - २० भगवन् ! लौकिक द्रव्यावश्यक क्या है ? जो ये राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि रात्रि के व्यतीत होने से प्रभातकालीन किंचिन्मात्र प्रकाश होने पर, पहले की अपेक्षा अधिक स्फुट प्रकाश होने, विकसित कमलपत्रों एवं मृगों के नयनों के ईषद् उन्मीलन से युक्त, प्रभात के होने तथा रक्त अशोकवृक्ष, पलाशपुष्प, तोते के मुख और गुंजा के अर्ध भाग के समान रक्त, सरोवरवर्ती कमलवनों को विकसित करने वाले और अपनी सहस्र रश्मियों से दिवस-विधायक तेज से देदीप्यमान सूर्य के उदय होने पर मुख को धोना, दंतप्रक्षालन, तेलमालिश करना, स्नान, कंधी आदि से केशों को संवारना, मंगल के लिए सरसों, पुष्प, दूर्वा आदि का प्रक्षेपण, दर्पण में मुख देखना, धूप जलाना, पुष्पों और पुष्पमालाओं को लेना, पान खाना, स्वच्छ वस्त्र पहनना आदि करते हैं और उसके बाद राजसभा, देवालय, आरामगृह, उद्यान, सभा अथवा प्रपा की ओर जाते हैं, वह लौकिक द्रव्यावश्यक हैं। सूत्र - २१ कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक क्या है ? जो ये चरक, चीरिक, चर्मखंडिक, भिक्षोण्डक, पांडुरंग, गौतम, गोव्रतिक, गृहीधर्मा, धर्मचिन्तक, अविरुद्ध, विरुद्ध, वृद्धश्रावक आदि पाषंडस्थ रात्रि के व्यतीत होने के अनन्तर प्रभात काल में यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान तेज से दीप्त होने पर इन्द्र, स्कन्ध, रुद्र, शिव, वैश्रामण अथवा देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्यादेवी, कोट्टक्रियादेवी, आदि की उपलेपन, समार्जन, स्नपन, धूप, पुष्प, गंध, माला आदि द्वारा पूजा करने रूप द्रव्यावश्यक करते हैं, वह कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक हैं। सूत्र-२२ लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक क्या है ? जो श्रमण के गुणों से रहित हों, छह काय के जीवों के प्रति अनुकम्पा न होने के कारण अश्व की तरह उद्दाम हों, हस्तिवत् निरंकुश हों, स्निग्ध पदार्थों के लेप से अंग-प्रत्यंगों को कोमल, सलौना बनाते हों, शरीर को धोते हों, अथवा केशों का संस्कार करते हों, ओठों को मुलायम रखने के लिए मक्खन लगाते हों, पहनने के वस्त्रों को धोने में आसक्त हों, और जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा की उपेक्षा कर स्वच्छंद विचरण करते हों, किन्तु उभयकाल आवश्यक करने के लिए तत्पर हों तो उनकी वह क्रिया लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक है। इस प्रकार यह ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्या-वश्यक का स्वरूप जानना चाहिए। सूत्र - २३ भावावश्यक क्या है ? दो प्रकार का है-आगमभावावश्यक और नोआगमभावावश्यक । सूत्र-२४ आगमभावावश्यक क्या है ? जो आवश्यक पद का ज्ञाता हो और साथ ही उपयोग युक्त हो, वह मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' आगमभावावश्यक है। सूत्र-२५ नोआगमभावावश्यक किसे कहते हैं ? तीन प्रकार का है । लौकिक, कुप्रावचनिक और लोकोत्तरिक । सूत्र-२६ लौकिक भावावश्यक क्या है ? दिन के पूर्वार्ध में महाभारत का और उत्तरार्ध में रामायण का वाचन करने, श्रवण करने को लौकिक नोआगमभावावश्यक कहते हैं। सूत्र- २७ कुप्रावचनिक भावावश्यक क्या है ? जो ये चरक, चीरिक यावत् पाषण्डस्थ यज्ञ, अंजलि, हवन, जाप, धूपप्रक्षेप या बैल जैसी ध्वनि, वंदना आदि भावावश्यक करते हैं, वह कुप्रावचनिक भावावश्यक है। सूत्र - २८ लोकोत्तरिक भावावश्यक क्या है ? दत्तचित्त और मन की एकाग्रता के साथ, शुभ लेश्या एवं अध्यवसाय से सम्पन्न, यथाविध क्रिया को करने के लिए तत्पर अध्यवसायों से सम्पन्न होकर, तीव्र आत्मोत्साहपूर्वक उसके अर्थ में उपयोगयुक्त होकर एवं उपयोगी करणों को नियोजित कर, उसकी भावना से भावित होकर जो ये श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविकायें अन्यत्र मन को संयोजित किये बिना उभयकाल आवश्यक करते हैं, वह लोकोत्तरिक भावावश्यक है। सूत्र- २९-३२ उस आवश्यक के नाना घोष और अनेक व्यंजन वाले एकार्थक अनेक नाम इस प्रकार हैं-आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रवनिग्रह, विशोधि, अध्ययन-षट्कवर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग | श्रमणों और श्रावकों द्वारा दिन एवं रात्रि के अन्त में अवश्य करने योग्य होने के कारण इसका नाम आवश्यक है । यह आवश्यक का स्वरूप सूत्र- ३३ श्रुत क्या है ? श्रुत चार प्रकार का है-नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, द्रव्यश्रुत, भावश्रुत । सूत्र-३४ नामश्रुत क्या है ? जिस किसी जीव या अजीव का, जीवों या अजीवों का, उभय का अथवा उभयों का 'श्रुत' ऐसा नाम रख लिया जाता है, वह नामश्रुत हैं । सूत्र - ३५ स्थापनाश्रुत क्या है ? काष्ठ यावत् कौड़ी आदि में यह श्रुत है, ऐसी जो स्थापना की जाती है, वह स्थापनाश्रुत है । नाम और स्थापना में क्या विशेषता है ? नाम यावत्कथित होता है, जबकि स्थापना इत्वरिक और यावत्कथित दोनों प्रकार की होती है। सूत्र-३६ द्रव्यश्रुत क्या है ? दो प्रकार का है । जैसे-आगमद्रव्यश्रुत, नोआगमद्रव्यश्रुत । सूत्र-३७ आगम की अपेक्षा द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ? जिस साधु आदि ने श्रुत यह पद सीखा है, स्थिर, जित, मित, परिजित किया है यावत् जो ज्ञायक हैं वह अनुपयुक्त नहीं होता है आदि । यह आगम द्रव्यश्रुत का स्वरूप है सूत्र - ३८ __नोआगमद्रव्यश्रुत क्या है ? तीन प्रकार का है । ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुत, भव्यशरीरद्रव्यश्रुत, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्य-तिरिक्तद्रव्यश्रुत । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' सूत्र - ३९ ज्ञायकशरीर-द्रव्यश्रुत क्या है ? श्रुतपद के अर्थाधिकार के ज्ञाता के व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त, जीवरहित शरीर को शय्यागत, संस्तारकगत अथवा सिद्धाशिला देखकर कोई कहे-अहो ! इस शरीररूप परिणत पुद्गलसंघात द्वारा जिनोपदेशित भाव से 'श्रुत' इस पद की गुरु से वाचना ली थी, प्रज्ञापित, प्ररूपित, दर्शित, निदर्शित, उपदर्शित किया था, उसका वह शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक है । इसका दृष्टान्त ? यह मधु का घड़ा है, यह घी का घड़ा है । इसी प्रकार निर्जीव शरीर भूतकालीन श्रुतपर्याय का आधाररूप होने से ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुत कहलाता है । सूत्र - ४० भव्यशरीरद्रव्यश्रुत क्या है ? समय पूर्ण होने पर जो जीव योनि में से निकला और प्राप्त शरीरसंघात द्वारा भविष्य में जिनोपदिष्ट भावानुसार श्रुतपद को सीखेगा, किन्तु वर्तमान में सीख नहीं रहा है, ऐसे उस जीव का वह शरीर भव्यशरीर-द्रव्यश्रुत है । इसका दृष्टान्त ? 'यह मधुपट है, यह घृतघट है' ऐसा कहा जाता है । सूत्र - ४१ ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत क्या है ? ताड़पत्रों अथवा पत्रों के समूहरूप पुस्तक में लिखित श्रुत ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुत हैं । अथवा वह पाँच प्रकार का है- अंडज, बोंडज, कीटज, वालज, बल्कज । अंडज किसे कहते हैं ? हंसगर्भादि से बने सूत्र को अंडज कहते हैं । बोंडज किसे कहते हैं ? कपास या रुई से बनाये गये सूत्र को कहते हैं । कीटजसूत्र किसे कहते हैं ? वह पाँच प्रकार का है- पट्ट, मलय, अशुक, चीनांशुक, कृमिराग । वालज सूत्र के पाँच प्रकार हैं-और्णिक, औष्ट्रिक, मृगलोमिक, कौतव, किट्टिस । वल्कज किसे कहते हैं ? सन आदि से निर्मित सूत्र को कहते हैं । सूत्र - ४२ भावश्रुत क्या है ? दो प्रकार का है । यथा-आगमभावश्रुत और नोआगमभावश्रुत। सूत्र - ४३ आगमभावश्रुत क्या है ? जो श्रुत का ज्ञाता होने के साथ उसके उपयोग से भी सहित हो, वह आगमभावश्रुत है । सूत्र - ४४ आगम की अपेक्षा भावश्रुत क्या है ? दो प्रकार का है। लौकिक, लोकोत्तरिक । सूत्र ४५ लौकिक (नोआगम) भावश्रुत क्या है ? अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचित महाभारत, रामायण, भीमासुरोक्त, अर्थशास्त्र, घोटकमुख, शटकभद्रिका, कार्पासिक, नागसूत्र, कनकसप्तति, वैशेकिशास्त्र, बौद्धशास्त्र, कामशास्त्र, कपिलशास्त्र, लोकायतशास्त्र, षष्ठितंत्र, माठरशास्त्र, पुराण, व्याकरण, नाटक आदि अथवा बहत्तर कलायें और सांगोपांग चार वेद लौकिक नोआगमभावश्रुत हैं । सूत्र - ४६ लोकोत्तरिक (नोआगम) भावश्रुत क्या है ? उत्पन्न केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करनेवाले, भूतभविष्यत् और वर्तमान कालिक पदार्थों को जानने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा अवलोकित, पूजित, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन के धारक अरिहंत भगवंतो द्वारा प्रणीत आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदश, अन्तकृद्दश, अनुत्तरोपपातिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत, दृष्टिवाद रूप द्वादशांग, गणिपिटक लोकोत्तरिक नोआगम भावश्रुत हैं । दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र - ४७-४९ उदात्तादि विविध स्वरों तथा ककारादि अनेक व्यंजनों से युक्त उस श्रुत के एकार्थवाचक नाम इस प्रकार हैं-श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना, आगम, ये सभी श्रुत के एकार्थक पर्याय हैं। इस प्रकार से श्रुत की वक्तव्यता समाप्त हुई। सूत्र-५० स्कन्ध क्या है ? स्कन्ध के चार प्रकार हैं । नामस्कन्ध, स्थापनास्कन्ध, द्रव्यस्कन्ध, भावस्कन्ध । सूत्र-५१ नामस्कन्ध क्या है ? जिस किसी जीव या अजीव का यावत् स्कन्ध यह नाम रखा जाता है, वह नामस्कन्ध हैं । स्थापनास्कन्ध क्या है ? काष्ठादि में यह स्कन्ध है। इस प्रकार का जो आरोप किया जाता है, वह स्थापनास्कन्ध है । नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नाम यावत्कथित होता है परन्तु स्थापना इत्वरिक और यावत्कथित दोनों होती हैं। सूत्र-५२ द्रव्यस्कन्ध क्या है ? दो प्रकार का है। आगमद्रव्यस्कन्ध और नोआगमद्रव्यस्कन्ध । आगमद्रव्यस्कन्ध क्या है ? जिसने स्कन्धपद को गुरु से सीखा है, स्थित किया है, जित, मित किया है यावत् नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आत्मा आगम से एक द्रव्यस्कन्ध है, दो अनुपयुक्त आत्माएँ दो, इस प्रकार जितनी भी अनुपयुक्त आत्माएँ हैं, उतने ही आगमद्रव्यस्कन्ध जानना । इसी तरह व्यवहारनय को भी जानना । संग्रहनय एक अनुपयुक्त आत्मा एक द्रव्यस्कन्ध और अनेक अनुपयुक्त आत्माएँ अनेक आगमद्रव्यस्कन्ध ऐसा स्वीकार नहीं करता, किन्तु सभी को एक ही आगमद्रव्यस्कन्ध मानता है । ऋजुसूत्रनय से एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्यस्कन्ध है । वह भेदों को स्वीकार नहीं करता है। तीनों शब्दनय ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हों तो उसे अवस्तु मानते हैं । क्योंकि जो ज्ञायक है वह अनुपयुक्त नहीं होता है। नोआगमद्रव्यस्कन्ध क्या है ? तीन प्रकार का है । ज्ञायकशरीरद्रव्यस्कन्ध, भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध और ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध । ज्ञायकशरीरद्रव्यस्कन्ध क्या है ? स्कन्धपद के अर्थाधिकार को जाननेवाले यावत् जिसने स्कन्ध पद का अध्ययन किया था, प्रतिपादन किया था आदि पूर्ववत् । भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध क्या है ? समय पूर्ण होने पर यथाकाल कोई योनिस्थान से बाहर निकला ओर वह यावत् भविष्य में स्कन्ध' इस पद के अर्थ को सीखेगा, उस जीव का शरीर भव्यशरीरद्रव्यस्कन्ध है । इसका दृष्टान्त ? भविष्य में यह मधुकुंभ है, यह घृतकुंभ है । ज्ञायकशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध क्या है ? उसके तीन प्रकार हैं। सचित्त, अचित्त और मिश्र । सूत्र - ५३ सचित्तद्रव्यस्कन्ध क्या है ? उसके अनेक प्रकार हैं । हयस्कन्ध, गजस्कन्ध, किन्नरस्कन्ध, किंपुरुषस्कन्ध, महोरग-स्कन्ध, वृषभस्कन्ध । यह सचित्तद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है। सूत्र-५४ अचित्तद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप क्या है ? अनेक प्रकार का है । द्विप्रदेशिक स्कन्ध, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध यावत् दसप्रदेशिक स्कन्ध, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध । यह अचित्तद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है। सूत्र-५५ __ मिश्रद्रव्यस्कन्ध क्या है ? अनेक प्रकार का है । सेना का अग्रिम स्कन्ध, सेना का मध्यस्कन्ध, सेना का अंतिम स्कन्ध। यह मिश्रद्रव्यस्कन्ध का स्वरूप है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र-५६ अथवा ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध के तीन प्रकार हैं। कृत्स्नस्कन्ध, अकृत्स्नस्कन्ध और अनेकद्रव्यस्कन्ध। सूत्र-५७ कृत्स्नस्कन्ध क्या है ? हयस्कन्ध, गजस्कन्ध यावत् वृषभस्कन्ध जो पूर्व में कहे, वही कृत्स्नस्कन्ध हैं । यही कृत्स्न-स्कन्ध का स्वरूप है। सूत्र-५८ अकृत्स्नस्कन्ध क्या है ? पूर्व में कहे गये द्विप्रदेशिक स्कन्ध आदि यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं। सूत्र-५९ अनेकद्रव्यस्कन्ध क्या है ? एकदेश अपचित्त और एकदेश उपचित्त भाग मिलकर उनका जो समुदाय बनता है, वह अनेकद्रव्यस्कन्ध हैं। सूत्र-६० भावस्कन्ध क्या है ? दो प्रकार का है। आगमभावस्कन्ध, नोआगमभावस्कन्ध । सूत्र-६१ आगमभावस्कन्ध क्या है ? स्कन्ध पद के अर्थ का उपयोगयुक्त ज्ञाता आगमभावस्कन्ध है। सूत्र - ६२ नोआगमभावस्कन्ध क्या है ? परस्पर-सम्बन्धित सामायिक आदि छह अध्ययनों के समुदाय के मिलने से निष्पन्न आवश्यकश्रुतस्कन्ध नोआगमभावस्कन्ध है। सूत्र-६३-६५ उस भावस्कन्ध के विविध घोषों एवं व्यंजनों वाले एकार्थक नाम इस प्रकार हैं-गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुंज, पिंड, निकर, संघात, आकुल और समूह ये सभी भावस्कन्ध के पर्याय हैं। सूत्र-६६-६९ आवश्यक के अर्थाधिकारों के नाम इस प्रकार हैं-सावद्ययोगविरति, उत्कीर्तन, गुणवत् प्रतिपत्ति, स्खलितनिन्दा, व्रण-चिकित्सा और गुणधारणा । इस प्रकार से आवश्यकशास्त्र के समुदायार्थ का संक्षेप में कथन करके अब एक-एक अध्ययन का वर्णन करूँगा। उनके नाम यह हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । इन में से प्रथम सामयिक अध्ययन के चार अनुयोगद्वार हैं-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय। सूत्र-७० उपक्रम क्या है ? उपक्रम के छह भेद हैं | नाम-उपक्रम, स्थापना-उपक्रम, द्रव्य-उपक्रम, क्षेत्र-उपक्रम, काल-उपक्रम, भाव-उपक्रम । नाम और स्थापना-उपक्रम का स्वरूप नाम एवं स्थापना आवश्यक के समान जानना द्रव्य-उपक्रम क्या है ? दो प्रकार का है-आगमद्रव्य-उपक्रम, नोआगमद्रव्य-उपक्रम इत्यादि पूर्ववत् जानना यावत् ज्ञायकशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्य-उपक्रम के तीन प्रकार हैं । सचित्तद्रव्य-उपक्रम, अचित्तद्रव्य-उपक्रम, मिश्रशरीरद्रव्य-उपक्रम। सूत्र - ७१ सचित्तद्रव्योपक्रम क्या है ? तीन प्रकार का है । द्विपद, चतुष्पद और अपद । ये प्रत्येक उपक्रम भी दो-दो प्रकार के हैं-परिकर्मद्रव्योपक्रम, वस्तुविनाशद्रव्योपक्रम । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र - ७२ द्विपद-उपक्रम क्या है ? नटों, नर्तकों, जल्लों, मल्लों, मौष्टिकों, वेलंबकों, कथकों, प्लवकों, तैरने वालों, लासकों, आख्यायकों, लंखों, मंखों, तूणिकों, तुंबवीणकों, कावडियाओं तथा मागधों आदि दो पैर वालों का परिकर्म और विनाश करने रूप उपक्रम द्विपदद्रव्योपक्रम है। सूत्र - ७३ चतुष्पदोपक्रम क्या है ? चार पैर वाले अश्व, हाथी आदि पशुओं के उपक्रम चतुष्पदोपक्रम हैं। सूत्र -७४ अपद-द्रव्योपक्रम क्या है ? आम, आम्रातक आदि बिना पैर वालों से सम्बन्धित उपक्रम अपद-उपक्रम हैं। सूत्र - ७५ अचित्तद्रव्योपक्रम क्या है ? खांड, गुड़, मिश्री अथवा राब आदि पदार्थों में उपायविशेष से मधुरता की वृद्धि करने और इनके विनाश करने रूप उपक्रम अचित्तद्रव्योपक्रम हैं। सूत्र - ७६ मिश्रद्रव्योपक्रम क्या है ? स्थासक, दर्पण आदि से विभूषित एवं मंडित अश्वाद सम्बन्धी उपक्रम मिश्रद्रव्योपक्रम हैं। सूत्र-७७ क्षेत्रोपक्रम क्या है ? हल, कुलिक आदि के द्वारा जो क्षेत्र को उपक्रान्त किया जाता है, वह क्षेत्रोपक्रम है। सूत्र-७८ कालोपक्रम क्या है ? नालिका आदि द्वारा जो काल का यथावत् ज्ञान होता है, वह कालोपक्रम है। सूत्र - ७९ भावोपक्रम क्या है ? दो प्रकार हैं । आगमभावोपक्रम, नोआगमभावोपक्रम । भगवन् ! आगमभावोपक्रम क्या है ? उपक्रम के अर्त को जानने के साथ जो उसके उपयोग से भी युक्त हो, वह आगमभावोपक्रम हैं । नोआगमभावोपक्रम दो प्रकार का है । प्रशस्त और अप्रशस्त । अप्रशस्त भावोपक्रम क्या है ? डोडणी ब्राह्मणी, गणिका और अमात्यादि का अन्य के भावों को जानने रूप उपक्रम अप्रशस्त नोआगमभावोपक्रम है। प्रशस्त भावोपक्रम क्या है ? गुरु आदि के अभिप्राय को यथावत् जानना प्रशस्त नोआगमभावोपक्रम है। सूत्र-८० अथवा उपक्रम के छह प्रकार हैं । आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार । सूत्र-८१ आनुपूर्वी क्या है ? दस प्रकार की है। नामानुपूर्वी, स्थापनानुपूर्वी, द्रव्यानुपूर्वी, क्षेत्रानुपूर्वी, कालानुपूर्वी, उत्कीर्तनानुपूर्वी, गणनानुपूर्वी, संस्थानानुपूर्वी, सामाचार्यनुपूर्वी, भावानुपूर्वी । सूत्र - ८२ नाम (स्थापना) आनुपूर्वी क्या है ? नाम और स्थापना आनुपूर्वी का स्वरूप नाम और स्थापना आवश्यक जैसा जानना। द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप भी ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी के पहले तक सभेद द्रव्यावश्यक के समान जानना चाहिए । ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी क्या है ? दो प्रकार की है। औपनिधिकी और अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । इनमें से औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी स्थाप्य है । तथा-अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के दो प्रकार हैं-नैगम-व्यवहारनय-संमत, संग्रहनयसंमत । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र-८३ नैगमनय और व्यवहारनय द्वारा मान्य अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी क्या है ? उसके पाँच प्रकार हैं । अर्थपदप्ररूपणा, भंगसमुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता, समवतार और अनुगम । सूत्र-८४ भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपद की प्ररूपणा क्या है ? त्र्यणुकस्कन्ध आनुपूर्वी है । इसी प्रकार चतुष्प्रदेशिक आनुपूर्वी यावत् दसप्रदेशिक, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी है। किन्तु परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वी रूप है । द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्य है। अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनेक अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वियाँ-अनेक आनुपूर्वी रूप हैं । अनेक पृथक्-पृथक् पुद्गल परमाणु अनेक अनानुपूर्वी रूप हैं । अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनेक अवक्तव्य हैं। सूत्र-८५ नैगम-व्यवहारनयसंमत इस अर्थपदप्ररूपणा रूप आनुपूर्वी से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? इनसे भंगसमुत्कीर्तना की जाती है। सूत्र - ८६ नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तन क्या है ? वह ईस प्रकार हैं-आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है, अवक्तव्य है, आनुपूर्वियाँ हैं, (अनेक) अवक्तव्य हैं । अथवा-आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी है, आनुपूर्वी और अनानुपूर्वियाँ हैं, आनुपूर्वियाँ और अनानुपूर्वी है, आनुपूर्वियाँ और अनानुपूर्वियाँ हैं । अथवा-आनुपूर्वि और अवक्तव्यक है, आनुपूर्वी और (अनेक) अवक्तव्य हैं, आनुपूर्वियाँ और अवक्तव्य है, आनुपूर्वियाँ और (अनेक) अवक्तव्य हैं। अथवा-अनानुपूर्वी और अवक्तव्य है, अनानुपूर्वी और (अनेक) अवक्तव्य हैं, अनानुपूर्वियाँ और (एक) अवक्तव्य है, अनानुपूर्वियाँ और अनेक अवक्तव्य हैं । अथवा-आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य है, आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अनेक अवक्तव्य हैं, आनुपूर्वी, अनानुपूर्वियाँ और अवक्तव्य है, आनुपूर्वी, अनानुपूर्वियाँ और अनेक अवक्तव्य हैं, आनुपूर्वियाँ, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य है, आनुपूर्वियाँ, अनानुपूर्वी और अनेक अवक्तव्य हैं, आनुपूर्वियाँ, अनानुपूर्वियाँ और अवक्तव्य हैं, आनुपूर्वियाँ, अनानुपूर्वियाँ और अनेक अवक्तव्य हैं । इस प्रकार यह आठ भंग हैं। सब मिलकर छब्बीस भंग होते हैं। सूत्र -८७ इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? उसके द्वारा भंगोपदर्शन किया जाता है। सूत्र-८८ नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता क्या है ? वह इस प्रकार है-त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी है, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी है, द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्य है, त्रिप्रदेशिक अनेक स्कन्ध आनुपूर्वियाँ हैं, अनेक परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वियाँ हैं, अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्यक हैं । त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और परमाणुपुद्गल आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी रूप है, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक परमाणुपुद्गल आनुपूर्वी और अनानुपूर्वियों का वाच्यार्थ है, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और परमाणुपुद्गल आनुपूर्वियाँ और अनानुपूर्वी है, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक परमाणुपुद्गल आनुपूर्वियों और अनानुपूर्वियों का रूप है। अथवा-त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी-अवक्तव्य रूप है, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी अवक्तव्यक रूप हैं, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वियाँ और अवक्तव्य रूप हैं, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वियों और अवक्तव्यकों रूप हैं । अथवा परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूर्वी अवक्तव्यक रूप है, परमाणुपुद्गल और अनेक मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूर्वी अवक्तव्यकों रूप हैं, अनेक परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूर्वियों और अवक्तव्य रूप है, अनेक परमाणु पुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनानुपूर्वियों और अवक्तव्यकों रूप हैं । अथवा-त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी-अवक्तव्यक रूप है, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकों रूप है, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, अनेक परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी, अनानुपूर्वियों और अवक्तव्यक रूप है, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, अनेक परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी, अनानुपूर्वियों और अवक्तव्यकों रूप है, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिकस्कन्ध आनुपूर्वियों, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक रूप है, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वियों, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकों रूप है, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अनेक परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वियों, अनानुपूर्वियों और अवक्तव्यक रूप है, अनेक त्रिप्रदेशिकस्कन्ध, अनेक परमाणुपुद्गल और अनेक द्विप्रदेशिकस्कन्ध अनुपूर्वियों-अनानुपूर्वियों-अवक्तव्यकों रूप हैं। सूत्र-८९ समवतार क्या है ? नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य कहाँ समवतरित होते हैं ? क्या आनुपूर्वीद्रव्यों में समव-तरित होते हैं, अनानुपूर्वीद्रव्यों में अथवा अवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं ? आयुष्मन् ! नैगमव्यवहारनयसम्मत् आनु-पूर्वीद्रव्य केवल आनुपूर्वीद्रव्यों में समवतरित होते हैं । नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वीद्रव्य कहाँ समवतरित होते हैं ? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वीद्रव्य केवल अनानुपूर्वीद्रव्यों में ही समवतरित होते हैं । नैगमव्यवहारनयमान्य अवक्तव्यद्रव्य कहाँ समवतरित होते हैं ? क्या आनुपूर्वीद्रव्यों में अथवा अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अवक्तव्यकद्रव्य केवल अवक्तव्यकद्रव्यों में ही समवतरित होते हैं। सूत्र-९०-९१ अनुगम क्या है ? नौ प्रकार का है, सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व । सूत्र - ९२ नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य हैं अथवा नहीं हैं ? अवश्य हैं । ईसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक-द्रव्य को भी जानना । सूत्र - ९३ नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? वे अनन्त ही हैं । इसी प्रकार शेष दोनों भी अनन्त हैं। सूत्र - ९४ नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य (क्षेत्र के) कितने भाग में अवगाढ हैं ? क्या लोक के संख्यातवें भाग में अवगाढ हैं ? असंख्यातवें भाग में अवगाढ हैं ? क्या संख्यात भागों में अवगाढ हैं ? असंख्यात भागों में अवगाढ हैं ? अथवा समस्त लोक में अवगाढ हैं ? किसी एक आनुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा कोई लोक के संख्यातवें भाग में, कोई लोक के असंख्यातवें भाग में तथा कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भागों में रहता है और कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात भागों में रहता है और कोई एक द्रव्य समस्त लोक में अवगाढ होकर रहता है । किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा तो वे नियमतः समस्त लोक में अवगाढ हैं। नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में अवगाढ हैं ? असंख्यात भाग में अवगाढ हैं ? संख्यात भागों में है या असंख्यात भागों में हैं अथवा समस्त लोक में अवगाढ हैं ? एक अनानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा वह लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवगाढ है, किन्तु अनेक अनानुपूर्वीद्रव्यों की मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' अपेक्षा नियमतः सर्वलोक में अवगाढ है । इसी प्रकार अवक्तव्यद्रव्य में भी जानना। सूत्र-९५ नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का अथवा असंख्यातवें भाग का या संख्यात भागों का अथवा असंख्यात भागों का अथवा समस्त लोक का स्पर्श करते हैं ? नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग का यावत् अथवा सर्वलोक का स्पर्श करता है, किन्तु अनेक (आनुपूर्वी) द्रव्य तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? इत्यादि प्रश्न । एक एक अनानुपूर्वी की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग का ही स्पर्श करते हैं, किन्तु अनेक अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। अवक्तव्य द्रव्यों की स्पर्शना भी इसी प्रकार समझना। सूत्र-९६ नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य काल की अपेक्षा कितने काल तक रहते हैं ? एक आनुपूर्वीद्रव्य जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट असंख्यात काल तक उसी स्वरूप में रहता है और विविध आनुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा नियमतः स्थिति सार्वकालिक है । इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों की स्थिति भी जानना । सूत्र-९७ __ नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्यों का कालापेक्षया अंतर कितना होता है ? एक आनुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल का, किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा विरहकाल नहीं है । नैगमव्यवहारनयसंमत अनानु-पूर्वीद्रव्यों का काल की अपेक्षा अंतर कितना होता है ? एक अनानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा अन्तरकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल प्रमाण तथा अनेक अनानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं है । नैगम-व्यवहारनयसंमत अवक्तव्यद्रव्यों का कालोपेक्षया अन्तर कितना है ? एक अवक्तव्यद्रव्य की अपेक्षा अंतर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है, किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। सूत्र - ९८ भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत समस्त आनुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग हैं ? क्या संख्यात भाग हैं ? असंख्यात भाग हैं अथवा संख्यात भागों या असंख्यात भागों रूप हैं ? आनुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के नियमतः असंख्यात भागों रूप हैं । नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग होते हैं ? क्या संख्यात भाग होते हैं ? असंख्यात भाग होते हैं ? संख्यात भागों रूप होते हैं ? अथवा असंख्यात भागों रूप होते हैं? अनानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के असंख्यात भाग ही होते हैं । अवक्तव्य द्रव्यों सम्बन्धी कथन भी असंख्यात भाग जानना। सूत्र - ९९ नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य किस भाव में वर्तते हैं ? क्या औदयिक भाव में, औपशमिक भाव से, क्षायिक भाव में, क्षयोपशमिक भाव में, पारिणामिक भाव में अथवा सान्निपातिक भाव में वर्तते हैं ? समस्त आनुपूर्वीद्रव्य सादि पारिणामिक भाव में होते हैं । अनानुपूर्वीद्रव्यों और अवक्तव्यद्रव्यों में भी सादिपारिणामिक भाव में हैं। सूत्र - १०० नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्यों, अनानुपूर्वीद्रव्यों और अवक्तव्यद्रव्यों में से द्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश की अपेक्षा कौन द्रव्य किन द्रव्यों की अपेक्षा अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा नैगम-व्यवहार नयसम्मत अवक्तव्यद्रव्य सबसे स्तोक हैं, अवक्तव्यद्रव्यों की अपेक्षा अनानुपूर्वीद्रव्य, द्रव्य की अपेक्षा विशेषाधिक हैं और द्रव्यापेक्षा आनुपूर्वीद्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्यातगुणे होते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' प्रदेश की अपेक्षा नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य अप्रदेशी होने से सर्वस्तोक हैं, प्रदेशों की अपेक्षा अवक्तव्यद्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक और आनुपूर्वीद्रव्य अवक्तव्य द्रव्यों में अनन्तगुणे हैं । द्रव्य और प्रदेश से अल्पबहुत्व नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यद्रव्य-द्रव्य की अपेक्षा सबसे अल्प हैं | द्रव्य और अप्रदेशार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वीद्रव्य विशेषाधिक हैं, प्रदेश की अपेक्षा अवक्तव्यद्रव्य विशेषाधिक है, आनुपूर्वीद्रव्य द्रव्य की अपेक्षा असंख्यातगुण और वही प्रदेश की अपेक्षा अनन्तगुण हैं। सूत्र - १०१ संग्रहनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी क्या है ? वह पाँच प्रकार की है | -अर्थपदप्ररूपणता, भंगसमुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता, समवतार, अनुगम । सूत्र - १०२ संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता क्या है ? वह ईस प्रकार है-त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, यावत् दस-प्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी है, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी है, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी है, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी है । परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी हैं और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्यक है। सूत्र - १०३ संग्रहनयसम्मत इस अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ? ईसके द्वारा संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता क्या है ? उसका स्वरूप इस प्रकार है-आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी है, अवक्तव्यक है । अथवा आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी है, आनुपूर्वी और अवक्तव्यक है, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक है। अथवा आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी-अवक्तव्यक है । इस प्रकार ये सात भंग होते हैं । इस संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? इस के द्वारा भंगोपदर्शन किया जाता है। सूत्र - १०४ संग्रहनयसम्मत भंगोपदर्शनता क्या है ? उसका स्वरूप इस प्रकार है-त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में और द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं। __ अथवा-त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और परमाणुपुद्गल, आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ रूप में, त्रिप्रदेशिक और द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी-अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में तथा परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक स्कन्ध, अनानुपूर्वी-अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं । अथवा-त्रिप्रदेशिक स्कन्ध-परमाणुपुद् गल-द्विप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी-अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ रूप में विवक्षित होते हैं। सूत्र-१०५ भगवन् ! समवतार क्या है ? क्या संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? अथवा अनानु-पूर्वीद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? या अवक्तव्यकद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य, आनुपूर्वीद्रव्यों में ही समवतरित होते हैं । इसी प्रकार अनानुपूर्वीद्रव्य और अवक्तव्यकद्रव्य भीस्वस्थान में ही समवतरित होते हैं। सूत्र - १०६-१०७ संग्रहनयसम्मत अनुगम क्या है ? वह आठ प्रकार का है । सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग और भाव । इसमें अल्पबहुत्व नहीं होता है। सूत्र-१०८ संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य हैं अथवा नहीं हैं ? नियमतः हैं। इसी प्रकार दोनों द्रव्यों के लिये भी समझना। संग्रह-नयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? वह नियमतः एक राशि रूप हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' इसी प्रकार दोनों द्रव्यों के लिये भी जानना । संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य लोक के कितने भाग में है ? क्या संख्यात भाग में हैं ? असंख्यात भाग में है ? संख्यात भागों में हैं ? असंख्यात भागों में हैं ? अथवा सर्वलोक में हैं ? वह नियमतः सर्वलोक में हैं । इसी प्रकार का कथन दोनों द्रव्यों के लिए भी समझना । संग्रहनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग का, असंख्यात भाग का, संख्यात भागों या असंख्यात भागों या सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? आनुपूर्वीद्रव्य नियम से सर्वलोक का स्पर्श करते हैं । इसी प्रकार का कथन दोनों द्रव्यों के लिए भी समझना । संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य काल की अपेक्षा कितने काल तक रहते हैं ? वह सर्वकाल रहते हैं । इसी प्रकार का कथन शेष दोनों द्रव्यों के लिए भी समझना । संग्रहनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्यों का कालापेक्षया कितना विरहकाल होता है ? कालापेक्षया आनुपूर्वीद्रव्यों में अंतर नहीं होता है । इसी प्रकार शेष दोनों द्रव्यों के लिए समझना । संग्रहनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग प्रमाण होते हैं ? क्या संख्यात भाग प्रमाण होते हैं या असंख्यात भाग प्रमाण होते हैं ? संख्यात भागों प्रमाण अथवा असंख्यात भागों प्रमाण होते हैं ? वह शेष द्रव्यों के नियमतः तीसरे भाग प्रमाण होते हैं । इसी प्रकार दोनों द्रव्यों में भी समझना | संग्रहनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य किस भाव में होते हैं ? आनुपूर्वीद्रव्य नियम से सादिपारिणामिक भाव में होते हैं । यही कथन शेष दोनों द्रव्यों के लिए भी समझना | राशिगत द्रव्यों में अल्पबहुत्व नहीं है । यह अनुगम का वर्णन है। सूत्र - १०९ औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी क्या है ? उसके तीन प्रकार कहे हैं, पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । सूत्र-११० __ भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी क्या है ? वह इस प्रकार है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धाकाल । इस प्रकार अनुक्रम से निक्षेप करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । पश्चानुपूर्वी क्या है ? वह इस प्रकार है-अद्धासमय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय । इस प्रकार के विलोमक्रम से निक्षेपण करना पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है? एक से प्रारंभ कर एक-एक की वृद्धि करने पर छह पर्यन्त स्थापित श्रेणी के अंको में परस्पर गुणाकार करने से जो राशि आये, उसमें से आदि और अंत के दो रूपों को कम करने पर अनानुपूर्वी बनती है। सूत्र - १११ अथवा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी तीन प्रकार की है । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? वह इस प्रकार है-परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध रूप क्रमात्मक आनुपूर्वी को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । पश्चानुपूर्वी क्या है ? अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध यावत् त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, द्विप्रदेशिक स्कन्ध, परमाणुपुद्गल । इस प्रकार का विपरीत क्रम से किया जाने वाला न्यास पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है ? एक से प्रारंभ करके एक-एक की वृद्धि करने के द्वारा निर्मित अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध पर्यन्त की श्रेणी की संख्या को परस्पर गुणित करने से निष्पन्न अन्योन्याभ्यस्त राशि में से आदि और अंत रूप दो भंगों को कम करने पर अनानुपूर्वी बनती है। सूत्र-११२ क्षेत्रानुपूर्वी क्या है ? दो प्रकार की है। औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी और अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी । सूत्र-११३ इन दो भेदों में से औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी स्थाप्य है । अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की है। नैगमव्यवहारनय-संमत और संग्रहनयसंमत । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र-११४ नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी क्या है ? इस के पाँच प्रकार हैं । -अर्थपदप्ररूपणता, भंगसमुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता, समवतार, अनुगम । नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता क्या है ? तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् दस प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् संख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है । आकाश के एक प्रदेश में अवगाढ द्रव्य से लेकर यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक क्षेत्रापेक्षया अनानुपूर्वी है । दो आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्य क्षेत्रापेक्षया अवक्तव्यक है । तीन आकाशप्रदेशावगाही अनेक-बहुत द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियाँ हैं यावत् दसप्रदेशावगाही द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियाँ हैं यावत् संख्यात-प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियाँ हैं, असंख्यात प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियाँ है । एक प्रदेशावगाही पुद्गलपरमाणु आदि द्रव्य अनानुपूर्वियाँ हैं । दो आकाशप्रदेशावगाही व्यणुकादि द्रव्यस्कन्ध अवक्तव्यक है। इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ? ईनके द्वारा नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमु-त्कीर्तनता की जाती है । नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता क्या है ? वह इस प्रकार हैआनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, अवक्तव्यक है इत्यादि द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह क्षेत्रानुपूर्वी के भी वही छब्बीस भंग हैं। नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्की-तनता का क्या प्रयोजन है ? इस के द्वारा नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता की जाती है। नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता क्या है ? तीन आकाशप्रदेशावगाढ त्र्यणुकादि स्कन्ध आनुपूर्वी पद का वाच्य हैं हैं । एक आकाशप्रदेशावगाही परमाणुसंघात अनानुपूर्वी तथा दो आकाशप्रदेशावगाही व्यणुकादि स्कन्ध क्षेत्रापेक्षा अवक्तव्यक है । तीन आकाशप्रदेशावगाही अनेक स्कन्ध 'आनुपूर्वियाँ' इस बहुवचनान्त पद के वाच्य हैं, एक एक आकाशप्रदेशावगाही अनेक परमाणुसंघात ‘अनानुपूर्वियाँ' पद के तथा द्वि आकाशप्रदेशावगाही व्यणुक आदि अनेक द्रव्यस्कन्ध 'अवक्तव्यक' पद के वाच्य हैं । अथवा त्रिप्रदेशावगाढस्कन्ध और एक प्रदेशावगाढस्कन्ध एक आनुपूर्वी और एक अनानुपूर्वी है । इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह छब्बीस भंग यहाँ भी जानना । समवतार क्या है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्यों का समावेश कहाँ होता है ? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में, अनानुपूर्वी द्रव्यो में अथवा अवक्तव्यक द्रव्यों में समावेश होता है ? आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं । इस प्रकार तीनों स्व-स्व स्थान में ही समाविष्ट होते हैं। अनुगम क्या है ? नौ प्रकार का है। यथासूत्र-११५ सत्पदप्ररूपणता, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अंतर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व । सूत्र-११६ सत्पदप्ररूपणता क्या है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वीद्रव्य है या नहीं? नियमतः हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिए भी समझना । नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? वह नियमतः असंख्यात हैं । इसी प्रकार दोनों द्रव्यों के लिए भी समझना । नैगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में रहते हैं ? क्या संख्यातवें भाग में, असंख्यातवें भागमें यावत् सर्वलोक में रहते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में, असंख्यातवें भाग में, संख्यातभागों में, असंख्यातभागों में अथवा देशोन लोक में रहते हैं, किन्तु विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोकव्यापी हैं । नैगम-व्यवहार-नयसंमत अनानुपूर्वी द्रव्य के विषय में भी यह प्रश्न है । एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग में, संख्यात भागों में, असंख्यात भागों में अथवा सर्वलोक में अवगाढ नहीं है किन्तु असंख्यातवें भाग में है तथा अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वलोक में व्याप्त हैं । अवक्तव्यक द्रव्यों के लिए भी इसी प्रकार जानना। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य क्या (लोक के) संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? या असंख्यातवें भाग का, संख्यातवें भागों का अथवा असंख्यातवें भागों का अथवा सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग का, यावत् देशोन सर्व लोक का स्पर्श करते हैं किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं । अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की स्पर्शना का कथन पूर्वोक्त क्षेत्र द्वार के अनुरूप समझना, विशेषता इतनी है कि क्षेत्र के बदले यहाँ स्पर्शना कहना। नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य काल की अपेक्षा कितने समय तक रहते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहते हैं । विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सार्वकालिक हैं । इसी प्रकार दोनों द्रव्यों की भी स्थिति जानना । नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों का काल की अपेक्षा अन्तर कितने समय का है ? तीनों का अन्तर एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । नैगम -व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग प्रमाण होते हैं ? द्रव्यानुपूर्वी जैसा ही कथन यहाँ भी समझना । नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य किस भाव में वर्तते हैं ? तीनों ही द्रव्य नियमतः सादि पारिणामिक भाव में वर्तते हैं । इन नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्यों, अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्यक द्रव्यों में कौन द्रव्य कि द्रव्यों से द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थता की अपेक्षा अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! नैगम-व्यवहारनय-संमत अवक्तव्यक द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा सब से अल्प हैं। द्रव्यार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य अवक्तव्यक द्रव्यों से विशेषाधिक हैं और आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्यातगुण हैं। प्रदेशार्थता की अपेक्षा नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य अप्रदेशी होने के कारण सर्वस्तोक हैं । प्रदेशार्थता की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक हैं और आनुपूर्वी द्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्यों से असंख्यातगुण हैं। द्रव्यार्थ प्रदेशार्थता की अपेक्षा में नैगम-व्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्य द्रव्यार्थ से सबसे अल्प है, द्रव्यार्थता और अप्रदेशार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य अवक्तव्यक द्रव्यों से विशेषाधिक हैं । अवक्तव्यक द्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षा विशेषाधिक हैं । आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा असंख्यातगुण है और उसी प्रकार प्रदेशार्थता की अपेक्षा भी असंख्यातगुण हैं। सूत्र-११७-११९ संग्रहनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी क्या है ? संग्रहनयसंमत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी की तरह ही यहाँ द्रव्यानुपूर्वी अंतर्गत तीनों सूत्रों का अर्थ समझ लेना । सूत्र - १२० औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी क्या है ? ईसके तीन भेद हैं । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक, इस क्रम से निर्देश करना पूर्वानुपूर्वी हैं । पश्चानुपूर्वी क्या है ? पूर्वानुपूर्वी के क्रम के विपरीत-ऊर्ध्वलोक, तिर्यक्लोक, अधोलोक का क्रम पश्चानुपूर्वी है। अनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? एक से प्रारम्भ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा निर्मित तीन पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर निष्पन्न अन्योन्याभ्यस्त राशि में से आद्य और अंतिम दो भंगों को छोड़कर जो राशि उत्पन्न हो वह अनानुपूर्वी है। अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की है । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अधोलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी क्या है ? रत्न-प्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, तमस्तमःप्रभा, इस क्रम से उपन्यास करना अधोलोकक्षेत्रपूर्वा-नुपूर्वी हैं । अधोलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी क्या है ? तमस्तमःप्रभा से लेकर यावत् रत्नप्रभा ताहा मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' पर्यन्त व्युत्क्रम से उपन्यास करना अधोलोकपश्चानुपूर्वी है । अधोलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी क्या है ? आदि में एक स्थापित कर सात पर्यन्त एकोत्तर वृद्धि द्वारा निर्मित श्रेणी में परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से प्रथम और अन्तिम दो भंगों को कम करने पर यह अनानुपूर्वी बनती है। तिर्यग् लोकक्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद हैं । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । मध्यलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी क्या है ? वह इस प्रकार हैसूत्र - १२१-१२४ जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखंडद्वीप, कालोदधिसमुद्र, पुष्करद्वीप, (पुष्करोद) समुद्र, वरुणद्वीप, वरुणोदसमुद्र, क्षीरद्वीप, क्षीरोदसमुद्र, घृतद्वीप, घृतोदसमुद्र, इक्षुवरद्वीप, इक्षुवरसमुद्र, नन्दीद्वीप, नन्दीसमुद्र, अरुणवरद्वीप, अरुणवरसमुद्र, कुण्डलद्वीप, कुण्डलसमुद्र, रुचकद्वीप, रुचकसमुद्र। जम्बूद्वीप से लेकर ये सभी द्वीप-समुद्र बिना किसी अन्तर के एक दूसरे को घेरे हुए स्थित हैं । इनके आगे असंख्यात-असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अनन्तर भुजगवर तथा इसके अनन्तर असंख्यात द्वीप-समुद्रों के पश्चात् कुशवरद्वीप समुद्र है और इसके बाद भी असंख्यात द्वीप-समुद्रों के पश्चात् क्रौंचवर द्वीप है। पुनः असंख्यात द्वीपसमुद्रों के पश्चात् आभरणों आदि के सदृश शुभ नामवाले द्वीपसमुद्र हैं । यथाआभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल, तिलक, पद्म, निधि, रत्न, वर्षधर, ह्रद, नदी, विजय, वक्षस्कार, कल्पेन्द्र । कुरु, मंदर, आवास, कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्यदेव, नाग, यक्ष, भूत आदि के पर्यायवाचक नामों वाले द्वीप-समुद्र असंख्यात हैं और अन्त में स्वयंभूरमणद्वीप एवं स्वयंभूरमणसमुद्र है । यह तीर्थोलोक क्षेत्रानुपूर्वी हुई। सूत्र - १२५ मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी क्या है ? स्वयंभूरमणसमुद्र, भूतद्वीप आदि से लेकर जम्बूद्वीप पर्यन्त व्युत्क्रम से द्वीप-समुद्रों के उपन्यास करना मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी हैं । मध्यलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी क्या है ? वह इस प्रकार हैएक से प्रारम्भ कर असंख्यात पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर उनका परस्पर गुणाकार करने पर निष्पन्न राशि में से आद्य और अन्तिम इन दो भंगों को छोड़कर मध्य के समस्त भंग मध्यलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी हैं। ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की है । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । ऊर्ध्वलोकक्षेत्रविषयक पूर्वानुपूर्वी क्या है? सौधर्म, ईशान, सनतकुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयकविमान, अनुत्तरविमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, इस क्रम से ऊर्ध्वलोक के क्षेत्रों का उपन्यास करना ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी हैं । ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रपश्चानुपूर्वी क्या है ? ईषत्प्राग्भाराभूमि से सौधर्म कल्प तक के क्षेत्रों का व्युत्क्रम से उपन्यास करना ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी हैं । ऊर्ध्वलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? आदि में एक रखकर एकोत्तरवृद्धि द्वारा निर्मित पन्द्रह पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर प्राप्त राशि में से आदि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष भंगों को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी कहते हैं। अथवा औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की है । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्व सम्बन्धी पूर्वानुपूर्वी क्या है ? एकप्रदेशावगाढ, द्विप्रदेशावगाढ यावत् दसप्रदेशावगाढ यावत् असंख्यातप्रदेशावगाढ के क्रम से क्षेत्र के उपन्यास को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं | पश्चानुपूर्वी क्या है ? असंख्यात प्रदेशावगाढ यावत् एकप्रदेशावगाढ रूप में व्युत्क्रम से क्षेत्र का उपन्यास पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है ? एक से प्रारम्भ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा असंख्यात प्रदेश पर्यन्त की स्थापित श्रेणी का परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से आद्य और अंतिम इन दो रूपों को कम करने पर क्षेत्रविषयक अनानुपूर्वी बनती है। सूत्र-१२६-१२७ कालानुपूर्वी क्या है ? दो प्रकार हैं, औपनिधिकी और अनौपनिधिकी । इनमें से औपनिधिकी कालानुपूर्वी स्थाप्य है । तथा-अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी दो प्रकार की है-नैगम-व्यवहारनयसंमत और संग्रहनयसम्मत । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र - १२८ नैगम-व्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? उसके पाँच प्रकार हैं । -अर्थपदप्ररूपणता, भंगसमुत्की-तनता, भंगोपदर्शनता, समवतार, अनुगम । सूत्र-१२९ नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता क्या है ? वह इस प्रकार है-तीन समय की स्थिति वाला द्रव्य आनुपूर्वी है यावत् दस समय, संख्यात समय, असंख्यात समय की स्थितिवाला द्रव्य आनुपूर्वी है । एक समय की स्थिति वाला द्रव्य अनानुपूर्वी है । दो समय की स्थिति वाला द्रव्य अवक्तव्यक है । तीन समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य आनुपूर्वियाँ हैं यावत् संख्यातसमयस्थितिक, असंख्यातसमयस्थितिक द्रव्य आनुपूर्वियाँ हैं । एक समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य अनेक अनानु-पूर्वियाँ हैं । दो समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य अनेक अवक्तव्यक रूप हैं । इस नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता के द्वारा यावत् भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। सूत्र-१३० नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तनता क्या है ? आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है, अवक्तव्यक है, इस प्रकार द्रव्यानु-पूर्ववत् कालानुपूर्वी के भी २६ भंग जानना । इस नैगम-व्यवहारनयसंमत यावत् (भंगसमुत्कीर्तनता का) क्या प्रयोजन है ? ईनसे भंगोपदर्शनता की जाती है। सूत्र-१३१ नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता क्या है ? वह इस प्रकार है-त्रिसमयस्थितिक एक-एक परमाणु आदि द्रव्य आनुपूर्वी है, एक समय की स्थितिवाला एक-एक परमाणु आदि द्रव्य अनानुपूर्वी है और दो समय की स्थितिवाला परमाणु आदि द्रव्य अवक्तव्यक है । तीन समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य ‘आनुपूर्वियाँ इस पद के वाच्य हैं । एक समय की स्थिति वाले अनेक द्रव्य 'अनानुपूर्वियाँ' तथा दो समय की स्थिति वाले द्रव्य अवक्तव्य' पद के वाच्य हैं । इस प्रकार यहाँ भी द्रव्यानुपूर्वी के पाठानुरूप छब्बीस भंगों के नाम जानना, यावत् यह भंगोपदर्शनता का आशय है। सूत्र-१३२ समवतार क्या है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों का कहाँ समवतार होता है ? यावत्तीनों ही स्व-स्व स्थान में समवतरित होते हैं। सूत्र - १३३-१३४ अनुगम क्या है ? अनुगम नौ प्रकार का है । सत्पदप्ररूपणा यावत् अल्पबहुत्व । सूत्र-१३५ नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य है या नहीं है ? नियमतः ये तीनों द्रव्य हैं । नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी आदि द्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात है या अनन्त हैं ? तीनों द्रव्य असंख्यात ही हैं । नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनेक आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में रहते हैं ? इत्यादि प्रश्न है । एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यात भाग में रहते हैं यावत् देशोन लोक में रहते हैं । किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक में रहते हैं। समस्त अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्य द्रव्यों की वक्तव्यता भी नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी के समान है। इस कालानुपूर्वी में स्पर्शनाद्वार का कथन तथैव क्षेत्रानुपूर्वी जैसा ही जानना । नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य कालापेक्षया कितने काल तक रहते हैं ? एक आनुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा जघन्य स्थिति तीन समय की और उत्कृष्ट असंख्यात काल की है। अनेक आनुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा स्थिति सर्वकालिक है । नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य कालापेक्षा कितने काल तक रहते हैं ? एक द्रव्यापेक्षया तो अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय की तथा अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वकालिक है । नैगम-व्यवहारनयसम्मत मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' अवक्तव्यकद्रव्य कालापेक्षया कितने काल रहते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा अजघन्य- अनुत्कृष्ट स्थिति दो समय की है और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वकालिक है । नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों का कालापेक्षया अन्तर कितने समय का होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । कालापेक्षया नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वी द्रव्यों का अन्तर कितने समय का होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । अनानुपूर्वीद्रव्यों की तरह नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यकद्रव्यों के विषय में भी प्रश्न है । एक द्रव्य की अपेक्षा अवक्तव्यकद्रव्यों का अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल प्रमाण है। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । नैगमव्यवहार नय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितने वें भाग प्रमाण है ? तीनों द्रव्यों के लिए क्षेत्रानुपूर्वी जैसा ही समझना । सूत्र - १३६ संग्रहनय सम्मत अनौपधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? वह पाँच प्रकार की है । अर्थपदप्ररूपणता, भंग समुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता, समवतार और अनुगम । सूत्र - १३७ संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता क्या है ? इन पाँचों द्वारों संग्रहनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी समान जानना । विशेष यह कि प्रदेशावगाढ' के बदले स्थिति' कहना । सूत्र - १३८ औपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? उसके तीन प्रकार हैं- पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? वह इस प्रकार है- एक समय की स्थिति वाले, दो समय की स्थिति वाले, तीन समय की स्थिति वाले यावत् दस समय की स्थिति वाले यावत् संख्यात समय की स्थिति वाले, असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों का अनुक्रम से उपन्यास करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । पश्चानुपूर्वी क्या है ? असंख्यात समय की स्थिति वाले से लेकर एक समय पर्यन्त की स्थिति वाले द्रव्यों का व्युत्क्रम से उपन्यास करना पश्चानुपूर्वी है। अनानुपूर्वी क्या है ? वह इस प्रकार जानना कि एक से लेकर असंख्यात पर्यन्त एक-एक की वृद्धि द्वारा निष्पन्न श्रेणी में परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त महाराशि में से आदि और अंत के दो भंगों से न्यून भंग अनानुपूर्वी हैं । अथवा औपनिधिकी कालानुपूर्वी तीन प्रकार की है। पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? समय, आवलिका, आनप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हुहुकांग, हुहुक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपुरांग, अर्थनिपुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलि-कांग, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पुद् गलपरावर्त, अतीताद्धा, अनागताद्धा, सर्वाद्धा रूप क्रम से पदों का उपन्यास करना काल सम्बन्धी पूर्वानुपूर्वी है । पश्चानुपूर्वी क्या है ? सर्वाद्धा, अनागताद्धा यावत् समय पर्यन्त व्युत्क्रम से पदों की स्थापना करना पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है ? इन्हीं की एक से प्रारंभ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा सर्वाद्धा पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर परस्पर गुणाकार से निष्पन्न राशि में से आद्य और अंतिम दो भंगों को कम करने के बाद बचे शेष भंग अनानुपूर्वी हैं। सूत्र - १३९ उत्कीर्तनानुपूर्वी क्या है ? उसके तीन प्रकार हैं । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? इस प्रकार है-ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व, वर्धमान । इस क्रम मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' से नामोच्चारण करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । पश्चानुपूर्वी क्या है ? वर्धमान, पार्श्व से प्रारंभ करके प्रथम ऋषभ पर्यन्त नामोच्चारण करना पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है? इन्हीं की एक से लेकर एक-एक की वृद्धि करके चौबीस संख्या की श्रेणी स्थापित कर परस्पर गुणाकार करने से जो राशि बनती है उसमें से प्रथम और अंतिम भंग को कम करने पर शेष भंग अनानुपूर्वी हैं। सूत्र - १४० गणनानुपूर्वी क्या है ? उसके तीन प्रकार हैं । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? एक, दस, सौ, सहस्र, दस सहस्र, लाख, दस लाख, करोड़, दस कोटि, कोटिशत, दस कोटिशत, इस प्रकार से गिनती करना पूर्वानुपूर्वी है । पश्चानुपूर्वी क्या है ? दस अरब से लेकर व्युत्क्रम से एक पर्यन्त की गिनती करना पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है ? इन्हीं को एक से लेकर दस अरब पर्यन्त की एक-एक वृद्धि वाली श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणा करने पर जो भंग हों, उनमें से आदि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं। सूत्र - १४१ संस्थानापूर्वी क्या है ? उनके तीन प्रकार हैं-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी किसे कहते हैं? समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामनसंस्थान, हुंडसंस्थान के क्रम से संस्थानों के विन्यास करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । पश्चानुपूर्वी क्या है ? हुंडसंस्थान से लेकर समचतुरस्रसंस्थान तक संस्थानों का उपन्यास करना पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है ? एक से लेकर छह तक की एकोत्तर वृद्धि वाली श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने पर निष्पन्न राशि में से आदि और अन्त रूप दो भंगों को कम करने पर शेष भंग अनानुपूर्वी हैं। सूत्र - १४२ समाचारी-आनुपूर्वी क्या है ? वह तीन प्रकार की है-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है। वह इस प्रकार हैसूत्र- १४३-१४४ इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यकी, नैषेधिकी, आप्रच्छना, प्रतिप्रच्छना, छंदना, निमंत्रणा और उपसंपद् । यह इस प्रकार की सामाचारी है । पश्चानुपूर्वी क्या है ? उपसंपद् से लेकर इच्छाकार पर्यन्त स्थापना करना पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है ? एक से लेकर दस पर्यन्त एक-एक की वृद्धि द्वारा श्रेणी रूप में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त राशि में से प्रथम और अन्तिम भंग को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं। सूत्र - १४५ भावानुपूर्वी क्या है ? तीन प्रकार की है । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? औदयिकभाव, औपशमिकभाव, क्षायिकभाव, क्षायोपशमिकभाव, पारिणामिकभाव, सान्निपातिकभाव, इस क्रम से भावों का उपन्यास पूर्वानुपूर्वी है । पश्चानुपूर्वी क्या है ? सान्निपातिकभाव से लेकर औदयिकभाव पर्यन्त भावों की स्थापना करना पश्चानुपूर्वी है । अनानुपूर्वी क्या है ? एक से लेकर एकोत्तर वृद्धि द्वारा छह पर्यन्त की श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने पर प्राप्त राशि में से प्रथम और अंतिम भंग को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं। सूत्र - १४६ नाम क्या है ? नाम के दस प्रकार हैं । एक नाम, दो नाम, तीन नाम, चार नाम, पाँच नाम, छह नाम, सात नाम, आठ नाम, नौ नाम, दस नाम । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 23 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' सूत्र - १४७-१४९ एकनाम क्या है ? द्रव्यों, गुणों एवं पर्यायों के जो नाम लोक में रूढ़ हैं, उन सबकी 'नाम' ऐसी एक संज्ञा आगम रूप निकष में कही गई है। यह एकनाम है । सूत्र - १५० द्विनाम क्या है ? द्विनाम के दो प्रकार हैं- एकाक्षरिक और अनेकाक्षरिक । एकाक्षरिक द्विनाम क्या है ? उसके अनेक प्रकार हैं । जैसे कि ह्री, श्री, धी, स्त्री आदि एकाक्षरिक नाम हैं । अनेकाक्षरिक द्विनाम का क्या स्वरूप है ? उसके अनेक प्रकार हैं। यथा- कन्या, वीणा, लता, माला आदि अनेकाक्षरिक द्विनाम हैं । अथवा द्विनाम के दो प्रकार हैं । जीवनाम और अजीवनाम । जीवनाम क्या है ? उसके अनेक प्रकार हैं । देवदत्त, यज्ञदत्त, विष्णुदत्त, सोमदत्त इत्यादि । अजीवनाम क्या है ? उसके अनेक प्रकार हैं। घट, पट, कट, रथ इत्यादि । अथवा अपेक्षादृष्टि से द्विनाम के और भी दो प्रकार हैं । यथा - विशेषित और अविशेषित । द्रव्य यह अविशेषित नाम है और जीवद्रव्य एवं अजीवद्रव्य ये विशेषित नाम हैं । जीवद्रव्य को अविशेषित नाम माने जाने पर नारक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव ये विशेषित नाम हैं । नारक अविशेषित नाम है और रत्नप्रभा का नारक, शर्कराप्रभा का नारक यावत् तमस्तमः प्रभा का नारक यह विशेषित द्विनाम हैं । रत्नप्रभा का नारक इस नाम को अविशेषित माना जाए तो रत्नप्रभा का पर्याप्त नारक और अपर्याप्त नारक विशेषित नाम होंगे यावत् तमस्तमः प्रभापृथ्वी के नारक को अविशेषित मानने पर उसके पर्याप्त और अपर्याप्त ये विशेषित नाम कहलाएँगे । तिर्यंचयोनिक इस नाम को अविशेषित माना जाए तो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये पाँच विशेषित नाम हैं । एकेन्द्रिय को अविशेषित नाम माना जाए तो पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय ये विशेषित नाम हैं । यदि पृथ्वीकाय नाम को अविशेषित माना जाए तो सूक्ष्मपृथ्वीकाय और बादरपृथ्वीकाय यह विशेषित नाम हैं । सूक्ष्मपृथ्वी काय नाम को अविशेषित मानने पर पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकाय यह विशेषित नाम है । बादरपृथ्वीकाय नाम अविशेषित है तो पर्याप्त और अपर्याप्त बादरपृथ्वीकाय यह विशेषित नाम है । इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय इन नामों को अविशेषित नाम माने जाने पर अनुक्रम से उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ये विशेषित नाम हैं । यदि द्वीन्द्रिय को अविशेषित नाम माना जाए तो पर्याप्त न्द्रिय और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय विशेषित नाम हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के लिए भी जानना । पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक को अविशेषित नाम मानने पर जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशेषित नाम हैं । जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक अविशेषित नाम है तो सम्मूर्छिम० और गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक यह विशेषित नाम है । संमूर्च्छि जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक अविशेषित नाम है तो उसके पर्याप्त० और अपर्याप्त संमूर्च्छिम जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक ये दो भेद विशेषित नाम हैं । गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक यह नाम अविशेषित है और पर्याप्त तथा अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक नाम विशेषित है । थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक को अविशेषित नाम माने जाने पर चतुष्पद० और परिसर्प थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशेषित नाम है । यदि चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक को अविशेषित माना जाए तो सम्मूर्छिम० और गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक ये भेद विशेषित नाम हैं । सम्मूर्छिम चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक यह अविशेषित नाम हो तो पर्याप्त० और अपर्याप्त सम्मूर्छिम चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशेषित नाम हैं । यदि गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक दीपरत्नसागर कृत्" (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद* Page 24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' नाम को अविशेषित माना जाए तो पर्याप्त० और अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक ये विशेषित नाम हैं । यदि परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक यह अविशेषित नाम है तो उरपरिसर्प० और भुजपरिसर्प थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक नाम विशेषित नाम है। इसी प्रकार संमूर्छिम पर्याप्त और अपर्याप्त तथा गर्भव्युत्क्रान्तिक पर्याप्त, अपर्याप्त का कथन कर लेना । खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक अविशेषित नाम है तो संमूर्छिम?० और गर्भव्युत्क्रान्तिक खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक विशेषित नाम रूप हैं । यदि संमूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नाम को अविशेषित नाम माना जाए तो पर्याप्त और अपर्याप्त संमूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक रूप उसके भेद विशेषित नाम हैं। इसी प्रकार गर्भव्युत्क्रान्तिक खेचर में भी समझ लेना। मनुष्य इस नाम को अविशेषित माना जाए तो संमूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य यह नाम विशेषित कहलायेंगे । संमूर्छिम मनुष्य को अविशेषित नाम मानने पर पर्याप्त० और अपर्याप्त संमूर्छिम मनुष्य यह दो नाम विशेषित नाम हैं। गर्भव्युत्क्रान्तिक में भी ईसी तरह समझ लेना । देव नाम को अविशेषित मानने पर उसके भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक यह देवनाम विशेषित कहलायेंगे । यदि भवनवासी नाम को अविशेषित माना जाए तो असुरकुमार, नागकुमार, यावत् स्तनितकुमार ये नाम विशेषित हैं। इन सब नामों में से भी प्रत्येक को यदि अविशेषित माना जाए तो उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद विशेषित नाम कहलायेंगे । वाणव्यंतर इस नाम को अविशेषित मानने पर पिशाच, भूत, यावत् गंधर्व, ये नाम विशेषित नाम हैं । इन सबमें से भी प्रत्येक को अविशेषित नाम माना जाए तो उनके पर्याप्त अपर्याप्त भेद विशेषित नाम कहलायेंगे । यदि ज्योतिष्क नाम को अविशेषित माना जाए तो चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप नाम विशेषित कहे जायेंगे । इनमें से भी प्रत्येक को अविशेषित नाम माना जाए तो उनके पर्याप्त, अपर्याप्त भेद विशेषित नाम हैं। यदि वैमानिक देवपद को अविशेषित नाम माना जाए तो उसके कल्पोपपन्न और कल्पातीत यह दो प्रकार विशेषित नाम हैं । कल्पोपपन्न को अविशेषित नाम मानने पर सौधर्म, ईशान यावत् अच्युत विमानवासी देव नाम विशेषित नाम रूप हैं । यदि इनमें से प्रत्येक को अविशेषित नाम माना जाए तो उनके पर्याप्त, अपर्याप्त रूप भेद विशेषित नाम कहलायेंगे । यदि कल्पातीत को अविशेषित नाम माना जाए तो ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरोपपातिक देव विशेषित नाम हो जाएँगे । ग्रैवेयकवासी को अविशेषित नाम मानने पर अधस्तन०, मध्यम०, उपरितनग्रैवेयक ये नाम विशेषित नाम रूप होंगे । जब अधस्तनौवेयक को अविशेषित नाम माना जाएगा तब अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक, यावत् अधस्तन-उपरितन ग्रैवेयक नाम विशेषित नाम कहलायेंगे | अविशेषित नाम के रूप में मध्यमग्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयक को भी ईसी तरह जानना । इन सबको भी अविशेषित नाम माना जाए तो उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ये विशेषित नाम कहलायेंगे ।यदि अनुत्तरोपपातिक देव नाम को अविशेषित नाम कहा जाए तो विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, सर्वार्थसिद्ध-विमानदेव विशेषित नाम कहलायेंगे । इन सबको भी अविशेषित नाम की कोटि में ग्रहण किया जाए तो प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद विशेषित नाम रूप हैं। यदि अजीवद्रव्य को अविशेषित नाम माना जाए तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद् गलास्तिकाय और अद्धासमय, ये विशेषित नाम होंगे। यदि पुद्गलस्तिकाय को भी अविशेषित नाम माना जाए तो परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध, यह नाम विशेषित कहलायेंगे। सूत्र-१५१ त्रिनाम क्या है ? त्रिनाम के तीन भेद हैं । वे इस प्रकार-द्रव्यनाम, गुणनाम और पर्यायनाम । द्रव्यनाम क्या है ? द्रव्यनाम छह प्रकार का है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद् गलास्तिकाय, अद्धासमय । गुणनाम क्या है ? पाँच प्रकार से हैं | वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, संस्थाननाम। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' वर्णनाम क्या है ? पांच भेद हैं । कृष्णवर्णनाम, नीलवर्णनाम, लोहित वर्णनाम, हारिद्र वर्णनाम, शुक्लवर्णनाम । गंधनाम क्या है ? दो प्रकार हैं । सुरभिगंधनाम, दुरभिगंधनाम । रसनाम क्या है ? पांच भेद हैं । तिक्तरसनाम, कटुकरसनाम, कषाय-रसनाम, आम्लरसनाम, मधुररसनाम स्पर्शनाम क्या है ? आठ प्रकार हैं । कर्कशस्पर्शनाम, मृदुस्पर्शनाम, गुरुस्पर्शनाम, लघुस्पर्शनाम, शीतस्पर्शनाम, उष्णस्पर्शनाम, स्निग्धस्पर्शनाम, रूक्षस्पर्शनाम । संस्थाननाम क्या है ? पाँच प्रकार हैं । परिमण्डलसंस्थाननाम, वृत्तसंस्थाननाम, यस्रसंस्थाननाम, चतुरस्रसंस्थाननाम, आयतसंस्थाननाम । पर्यायनाम क्या है ? अनेक प्रकार हैं । एकगुण काला, द्विगुणकाला यावत् अनन्तगुणकाला, एकगुणनीला, द्विगुणनीला यावत् अनन्तगुणनीला तथा इसी प्रकार लोहित, हारिद्र और शुक्लवर्ण की पर्यायों के नाम भी समझना, एकगुणसुरभिगंध, द्विगुणसुरभिगंध यावत् अनन्तगुणसुरभिगंध, इसी प्रकार दुरभिगंध के विषय में भी कहना । एकगुणतिक्त, द्विगुणतिक्त यावत् अनन्तगुणतिक्त, इसी प्रकार कटुक, कषाय, एवं मधुर रस की पर्यायों के लिये भी कहना । एकगुणकर्कश, द्विगुणकर्कश यावत् अनन्तगुणकर्कश, इसी प्रकार मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष स्पर्श की पर्यायों की वक्तव्यता है। सूत्र- १५२-१५८ उस त्रिनाम के पुनः तीन प्रकार हैं । स्त्रीनाम, पुरुषनाम और नपुंसकनाम । इन तीनों प्रकार के नामों का बोध उनके अंत्याक्षरो द्वारा होता है । पुरुषनामों के अंत में आ, ई, ऊ, ओ' इन चार में से कोई एक वर्ण होता है तथा स्त्रीनामों के अंत में 'ओ' को छोड़कर शेष तीन वर्ण होते हैं । जिन शब्दों के अन्त में अं, इं या उं वर्ण हो, उनको नपुंसकलिंग वाला समझना । अब इन तीनों के उदाहरण कहते हैं । आकारान्त पुरुष नाम का उदाहरण राया है । ईकारान्त का गिरी तथा सिहरी हैं । ऊकारान्त का विण्हू और ओकारान्त का दुमो है । स्त्रीनाम में माला' यह पद अकारान्त का, सिरी पद ईकारान्त, जम्बू, ऊकारान्त नारी जाति के उदाहरण हैं । धन्न यह प्राकृतपद अकारान्त नपुंसक नाम का उदाहरण है । अच्छिं यह इंकारान्त नपुंसकनाम का तथा पीलुं ये उंकारान्त नपुंसकनाम के पद हैं । इस प्रकार यह त्रिनाम का स्वरूप है। सूत्र - १५९ चतुर्नाम क्या है ? चार प्रकार हैं । आगमनिष्पन्ननाम, लोपनिष्पन्ननाम, प्रकृतिनिष्पन्ननाम, विकारनिष्पन्ननाम । आगम-निष्पन्ननाम क्या है ? पद्मानि, पयांसि, कुण्डानि आदि ये सब आगमनिष्पन्ननाम हैं। लोपनिष्पन्ननाम क्या है ? ते + अत्र-तेऽत्र, पटो + अत्र-पटोऽत्र, घटो + अत्र-घटोऽत्र, रथो + अत्र रथोऽत्र, ये लोपनिष्पन्ननाम हैं । प्रकृतिनिष्पन्ननाम क्या है ? अग्नी एतौ, पटू इमौ, शाले एते, माले इमे इत्यादि प्रयोग प्रकृतिनिष्पन्ननाम हैं । विकारनिष्पन्ननाम क्या है ? दण्ड + अग्रं-दण्डाग्रम्, सा + आगता-साऽऽगता, दधि + इदंदधीदं, नदी + ईहते-नदीहते, महु + उदक-मधूदकं, बहु + ऊहते-बहूहते, ये सब विकारनिष्पन्ननाम हैं । सूत्र - १६० पंचनाम क्या है ? पाँच प्रकार का है । नामिक, नैपातिक, आख्यातिक, औपसर्गिक और मिश्र । जैसे 'अश्व' यह नामिकनाम का, 'खलु' नैपातिकनाम का, 'धावति' आख्यातिकनाम का, ‘परि' औपसर्गिक और 'संयत' यह मिश्रनाम का उदाहरण है। सूत्र-१६१ छहनाम क्या है ? छह प्रकार हैं । औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक । औदयिकभाव क्या है ? दो प्रकार का है । औदयिक और उदयनिष्पन्न । औदयिक क्या है ? ज्ञानावरणादिक आठ कर्मप्रकृतियों के उदय से होने वाला औदयिकभाव है । उदयनिष्पन्न औदयिकभाव क्या है ? दो प्रकार हैं-जीवोदयनिष्पन्न, अजीवोदयनिष्पन्न। __जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव क्या है ? अनेक प्रकार का है । यथा-नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, देव, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' पृथ्वी-कायिक, यावत् वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, कृष्णलेश्यी, नील-कापोत-तेज-पद्म-शुक्ललेश्यी, मिथ्यादृष्टि, अविरत, अज्ञानी, आहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारस्थ, असिद्ध | अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव क्या है ? चौदह प्रकार का है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीर के व्यापार से परिणामित गृहीत द्रव्य, वैक्रियशरीर, वैक्रियशरीर के प्रयोग से परिणामित द्रव्य, इसी प्रकार, आहारकशरीर और आहारकशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य, तैजसशरीर और तैजसशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य, कार्मणशरीर और कार्मणशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य तथा पाँचों शरीरों के व्यापार से परिणामित वर्ण, गंध, रस, स्पर्श द्रव्य । औपशमिकभाव क्या है ? दो प्रकार का है। उपशम और उपशमनिष्पन्न । उपशम क्या है ? मोहनीयकर्म के उपशम से होने वाले भाव उपशम भाव हैं । उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव क्या है ? अनेक प्रकार हैं । उपशांतक्रोध यावत् उपशांतलोभ, उपशांतराग, उपशांतद्वेष, उपशांतदर्शनमोहनीय, उपशांतचारित्रमोहनीय, उपशांतमोहनीय, औपशमिक सम्यक्त्वलब्धि, औपशमिक चारित्रलब्धि, उपशांतकषायछद्मस्थवीतराग आदि उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव हैं। क्षायिकभाव क्या है ? दो प्रकार का कहा गया है । क्षय और क्षयनिष्पन्न । क्षय-क्षायिकभाव किसे कहते हैं? आठ कर्मप्रकृतियों के क्षय से होने वाला भाव क्षायिक है । क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव क्या है ? अनेक प्रकार का है। यथा-उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारी, अर्हत्, जिन, केवली, क्षीणआभिनिबोधिकज्ञानावरणवाला, क्षीणश्रुतज्ञानावरणवाला, क्षीणअवधिज्ञानावरणवाला, क्षीणनःपर्यवज्ञानावरण वाला, क्षीणकेवलज्ञानावरण वाला, अविद्यमान आवरण वाला, निरावरण वाला, क्षीणवरण वाला, ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्त केवलदर्शी, सर्वदर्शी, क्षीणनिद्र, क्षीणनिद्रानिद्र, क्षीणप्रचल, क्षीणप्रचलाप्रचल, क्षीणस्त्यानगृद्धि, क्षीणचक्षुदर्शनावरणवाला, क्षीणअचक्षुदर्शनावरणवाला, क्षीणअवधिदर्शनावरणवाला, क्षीणकेवलदर्शनावरणवाला, अनावरण, निरावरण, क्षीणावरण, दर्शनावरणीय कर्मविप्रमुक्त, क्षीणसातावेदनीय, क्षीणअसातावेदनीय, अवेदन, निर्वेदन, क्षीणवेदन, शुभाशुभ वेदनीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणक्रोध यावत् क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणद्वेष क्षीणदर्शनमोहनीय, क्षीणचारित्रमोहनीय, अमोह, निर्मोह, क्षीणमोह, मोहनीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणनरकायुष्क, क्षीणतिर्यंचायुष्क, क्षीणमनुष्यायुष्क, क्षीणदेवायुष्क, अनायुष्क, निरायुष्क, क्षीणायुष्क, आयुकर्मविप्रमुक्त, गति-जाति-शरीर-अंगोपांग-बंधन-संघातक-संहनन-अनेकशरीरवृन्दसंघातविप्रमुक्त, क्षीण-शुभनाम, क्षीण-सुभगनाम, अनाम, निर्नाम, क्षीणनाम, शुभाशुभ नामकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-उच्चगोत्र, क्षीण-नीचगोत्र, अगोत्र, निर्गोत्र, क्षीणगोत्र, शुभाशुभगोत्रकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-दानान्तराय, क्षीणलाभान्तराय, क्षीण-भोगान्तराय, क्षीण-उपभोगान्तराय, क्षीण-वीर्यान्तराय, अनन्तराय, निरंतराय, क्षीणान्तराय, अंतरायकर्मविप्रमुक्त, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त, अंतकृत, सर्वदुःख प्रहीण । यह क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव का स्वरूप है। इस प्रकार से क्षायिकभाव की वक्तव्यता जानना । क्षायोपशमिकभाव क्या है ? दो प्रकार का है। क्षयोपशम और क्षयोपशमनिष्पन्न । क्षयोपशम क्या है ? ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिकर्मों के क्षयोपशम को क्षयोपशमभाव कहते हैं। क्षयोपशमनिष्पन्न क्षायोप-शमिकभाव क्या है ? अनेक प्रकार का है । क्षायोपशमिकी आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि यावत् क्षायोपशमिकी मनःपर्यायज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिकी मति-अज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिकी श्रुत-अज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिकी विभंगज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिकी चक्षुदर्शनलब्धि, इसी प्रकार अचक्षुदर्शनलब्धि, अवधिदर्शनलब्धि, सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि, सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि, क्षायोपशमिकी सामायिकचारित्रलब्धि, छेदोपस्थापनालब्धि, परिहारविशुद्धिलब्धि, सूक्ष्मसंपरायिकलब्धि, चारित्राचारित्रलब्धि, क्षायोपशमिकी दान-लाभभोग-उपभोग-लब्धि, क्षायोपशमिकी वीर्यलब्धि, पंडितवीर्यलब्धि, बालवीर्यलब्धि, बालपंडितवीर्य-लब्धि, क्षायोपशमिकी श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् क्षायोपशमिकी स्पर्शनेन्द्रियलब्धि, क्षायोपशमिक आचारांगधारी, सूत्रकृतांगधारी, स्थानांगधारी, समवायांगधारी, व्याख्याप्रज्ञप्तिधारी, ज्ञाताधर्मकथांगधारी, उपासकदशांगधारी, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' अन्तकृद्दशांगधारी, अनुत्तरोपपा-तिकदशांगधारी, प्रश्नव्याकरणधारी, क्षायोपशमिक विपाकश्रुतधारी, क्षायोपशमिक दृष्टिवादधारी, क्षायोपशमिक नवपूर्वधारी यावत् चौदहपूर्वधारी, क्षायोपशमिक गणी, क्षायोपशमिक वाचक । ये सब क्षयोपशमनिष्पन्नभाव हैं। पारिणामिक भाव किसे कहते हैं ? दो प्रकार हैं । सादिपारिणामिक, अनादिपारिणामिक । सादिपारिणामिकभाव क्या है? अनेक प्रकार हैं। सूत्र-१६२ जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण घी, जीर्ण तंदुल, अभ्र, अभ्रवृक्ष, संध्या, गंधर्वनगर । सूत्र - १६३ उल्कापात, दिग्दाह, मेघगर्जना, विद्युत, निर्घात्, यूपक, यक्षादिप्त, धूमिका, महिका, रजोद्घात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य, कपिहसित, अमोघ वर्ष, वर्षधर पर्वत, ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पातालकलश, भवन, नरक, रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमःप्रभा, सौधर्म, ईशान, यावत् आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक, अनुत्तरोपपातिक देवविमान, ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध आसादिपारिणामिकभाव रूप हैं । अनादिपारिणामिकभाव क्या है ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय, लोक, अलोक, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, ये अनादि पारिणामिक हैं। सान्निपातिकभाव क्या है ? औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक, इन पाँचों भावों के द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुःसंयोग और पंचसंयोग से जो भाव निष्पन्न होते हैं वे सब सान्निपातिकभाव नाम हैं । उनमें से द्विकसंयोगज दस, त्रिकसंयोगज दस, चतुःसंयोगज पाँच और पंचसंयोगज एक भाव हैं । इस प्रकार सब मिलाकर ये छब्बीस सान्निपातिकभाव हैं । दो-दो के संयोग से निष्पन्न दस भंगों के नाम इस प्रकार हैंऔदयिक-औपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव, औदयिक-क्षायिक के संयोग से निष्पन्न भाव, औदयिकक्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव, औदयिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव, औपशमिक-क्षायिक के संयोग से निष्पन्न भाव, औपशमिक-क्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव, औपशमिक-पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव तथा क्षायोपशमिकपारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव । भगवन् ! औदायिक-औपशमिकभाव के संयोग से निष्पन्न भंग क्या है ? औदयिकभाव में मनुष्यगति और औपशमिक-भाव में उपशांतकषाय को ग्रहण करने रूप औदयिक-औपशमिकभाव हैं । औदयिकभाव में मनुष्यगति और क्षायिकभाव में क्षायिक सम्यक्त्व का ग्रहण औदयिकक्षायिकभाव हैं । औदयिकभाव में मनुष्यगति और क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियाँ जानना । यह औदयिक-क्षायोपशमिकभाव का स्वरूप है। औदयिक-पारिणामिकभाव के संयोग से निष्पन्न भंग क्या है ? औदयिकभाव में मनुष्यगति और पारिणामिकभाव में जीवत्व को ग्रहण करना औदयिक-पारिणामिकभाव का स्वरूप है । उपशांतकषाय और क्षायिक सम्यक्त्व यह औपशमिक-क्षायिकसंयोगज भाव का स्वरूप है । औपशमिकभाव में उपशांतकषाय और क्षयोपशमनिष्पन्न में इन्द्रियाँ यह औपशमिक-क्षयोपशमनिष्पन्नभाव का स्वरूप है । औपशमिकभाव में उपशांतकषाय और पारिणामिकभाव में जीवत्व यह औपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप है । क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक इन्द्रियाँ यह क्षायिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप जानना । क्षायिकभाव में क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिकभाव में जीवत्व का ग्रहण क्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप है । क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियाँ और पारिणामिकभाव में जीवत्व को ग्रहण किया जाए तो यह क्षायोपशमिकपारिणामिकभाव का स्वरूप है। सान्निपातिकभाव में त्रिकसंयोगज दस भंग हैं- औदयिकऔपशमिक-क्षायिकनिष्पन्नभाव, औदयिकऔपशमिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव, औदयिकऔपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, औदयिक-क्षायिक-क्षायोप मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 28 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' शमिकनिष्पन्न भाव, औदयिकक्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्न भाव, औदयिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्न भाव, औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक निष्पन्न भाव, औपशमिकक्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्न भाव, औपशमिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्न भाव, क्षायिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव | औदयिक-औपशमिक-क्षायिकनिष्पन्नभाव क्या है ? मनुष्यगति औदयिकभाव, उपशांतकषाय औपशमिकभाव और क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव यह औदयिक औपशमिक क्षायिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप है । मनुष्यगति औदयिकभाव, उपशांत कषाय औपशमिक और इन्द्रियाँ क्षायोपशमिकभाव, इस प्रकार औदयिक - औपशमिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप जानना चाहिए । मनुष्यगति औदयिक, उपशांतकषाय औपशमिक और जीवत्व पारिणामिक भाव, इस प्रकार से औदयिक-औपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का स्वरूप है । मनुष्यगति औदयिक, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव और इन्द्रियाँ क्षायोपशमिकभाव यह औदयिकक्षायिक क्षायोपशमिकनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है । मनुष्यगति औदयिकभाव, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव इस प्रकार का औदयिक-क्षायिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है । मनुष्यगति औदयिक, इन्द्रियाँ क्षायोपशमिक और जीवत्व पारिणामिक, यह औदयिक क्षायोपशमिकपारिणा-मिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना । उपशांतकषाय औपशमिकभाव, क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, इन्द्रियाँ क्षायोपशमिकभाव, यह औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकनिष्पन्न सान्निपातिकभाव हैं । उपशांतकषाय औपशमिकभाव, क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, जीवत्व पारिणामिकभाव, यह औपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना चाहिए । उपशांतकषाय औपशमिकभाव, इन्द्रियाँ क्षायोपशमिक और जीवत्व पारिणामिक, इस प्रकार से यह औपशमिक क्षायोपशमिकपारिणामिकभावनिष्पन्नसान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना । क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, इन्द्रियाँ क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव, इस प्रकार का क्षायिक क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिक भाव का स्वरूप है । चार भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिकभाव के पाँच भंगों के नाम इस प्रकार हैं- औदयिक - औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव, औदयिक-औपशमिक क्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नभाव, औदयिक-औपशमिक क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, औदयिक क्षायिक क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नभाव, औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्न भाव । औदयिक-औपशमिकक्षायिक-क्षायोपशमिक निष्पन्न सान्निपातिकभाव क्या है ? औदयिकभाव में मनुष्य, औपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायोपसमिकभाव में इन्द्रियाँ, यह औदयिक-औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है । औदयिकभाव में मनुष्यगति, औपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह औदयिक औपशमिक क्षायिकपारिणा-मिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है । औदयिकभाव में मनुष्यगति, औपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायोपशमिक भाव में इन्द्रियाँ और पारिणामिकभाव में जीवत्व, इस प्रकार से औदयिक - औपशमिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव के तृतीय भंग का स्वरूप जानना । औदयिकभाव में मनुष्यगति, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमि - कभाव में इन्द्रियाँ और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह औदयिक क्षायिक- क्षायोपशमिकपारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिक-भाव का स्वरूप है । औपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियाँ और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह औपशमिक क्षायिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है । दीपरत्नसागर कृत् ” (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद* Page 29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' पंचसंयोगज सान्निपातिकभाव का एक भंग इस प्रकार है-औदयिक-औपशमिकक्षायिक-क्षायोपशमिकपारिणामिक-निष्पन्नभाव | औदयिक-औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिक भाव क्या है ? औदयिकभाव में मनुष्यगति, औपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियाँ और पारिणामि-कभाव में जीवत्व, यह औदयिक-औपशमिक-क्षायिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है । इस प्रकार से सान्निपातिकभाव और हाथ ही षड्नाम का वर्ण समाप्त हुआ। सूत्र-१६४-१६५ सप्तनाम क्या है ? सात प्रकार के स्वर रूप है । -षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद, ये सात स्वर जानना। सूत्र-१६६-१६८ इन सात स्वरों के सात स्वर स्थान हैं । जिह्वा के अग्रभाग से षड्जस्वर का, वक्षस्थल से ऋषभस्वर, कंठ से गांधार-स्वर, जिह्वा के मध्यभाग से मध्यमस्वर, नासिका से पंचमस्वर का, दंतोष्ठ-संयोग से धैवतस्वर का और मूर्धा से निषाद स्वर का उच्चारण करना चाहिए। सूत्र-१६९-१७१ जीवनिश्रित-सप्तस्वरों का स्वरूप इस प्रकार है-मयूर षड्जस्वर में, कुक्कुट ऋषभस्वर, हंस गांधारस्वर में, गवेलक मध्यमस्वर में, कोयल पुष्पोत्पत्तिकाल में पंचमस्वर में, सारस और क्रौंच पक्षी धैवतस्वर में तथा-हाथी निषाद स्वर में बोलता है। सूत्र - १७२-१७४ अजीवनिश्रित-मृदंग से षड्जस्वर, गोमुखी से ऋषभस्वर, शंख से गांधारस्वर, झालर से मध्यमस्वर, चार चरणों पर स्थित गोधिका से पंचमस्वर, आडंबर से धैवतस्वर तथा महाभेरी से निषादस्वर निकलता है। सूत्र - १७५-१८२ इन सात स्वरों के सात स्वरलक्षण हैं । षड्जस्वर वाला मनुष्य वृत्ति-आजीविका प्राप्त करता है । उसका प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता है । उसे गोधन, पुत्र-पौत्रादि और सन्मित्रों का संयोग मिलता है । वह स्त्रियों का प्रिय होता है । ऋषभस्वरवाला मनुष्य ऐश्वर्यशाली होता है । सेनापतित्व, धन-धान्य, वस्त्र, गंध-सुगंधित पदार्थ, आभूषणअलंकार, स्त्री, शयनासन आदि भोगसाधनों को प्राप्त करता है । गांधारस्वर वाला श्रेष्ठ आजीविका प्राप्त करता है। वादित्रवृत्ति वाला होता है, कलाविदों में श्रेष्ठ है। कवि होता है । प्राज्ञ-चतुर तथा अनेक शास्त्रों में पारंगत होता है । मध्यमस्वरभाषी सुखजीवी होते हैं । रुचि के अनुरूप खाते-पीते और जीते हैं तथा दूसरों को भी खिलाते-पिलाते तथा दान देते हैं । पंचमस्वरवाला व्यक्ति भूपति, शूरवीर, संग्राहक और अनेक गुणों का नायक होता है । धैवतस्वरवाला पुरुष कलहप्रिय, शाकुनिक, वागुरिक, शौकरिक और मत्स्यबंधक होता है। निषादस्वर वाला पुरुष चांडाल, वधिक, मुक्केबाज, चोर और इसी प्रकार के दूसरे-दूसरे पाप करनेवाला होता है। सूत्र-१८३-१८९ इन सात स्वरों के तीन ग्राम हैं । षड्जग्राम, मध्यमग्राम, गांधारग्राम । षड्जग्राम की सात मूर्च्छनाएँ हैं । मंगी, कौरवीया, हरित, रजनी, सारकान्ता, सारसी और शुद्धषड्ज । मध्यमग्राम की सात मूर्च्छनाएँ हैं । उतरमंदा, रजनी, उत्तरा, उत्तरायता, अश्वक्रान्ता, सौवीरा, अभिरुद्गता । गांधारग्राम की सात मूर्च्छनाएँ हैं । नन्दी, क्षुद्रिका, पूरिमा, शुद्धगांधारा, उत्तरगांधारा, सुष्ठुतर-आयामा और उत्तरायतासूत्र - १९०-१९२ -सप्तस्वर कहाँ से-उत्पन्न होते हैं ? गीत की योनि क्या है ? इसके उच्छ्वासकाल का समयप्रमाण कितना मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' है ? गीत के कितने आकार होते हैं ? सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं । रुदन गीत की योनि है । पादसम-उतना उसका उच्छ्वास-काल होता है । गीत के तीन आकार होते हैं-आदि में मृदु, मध्य में तीव्र और अंत मे मंद । इस प्रकार से गीत के तीन आकार जानना । सूत्र-१९३ संगीत के छह दोषों, आठ गुणों, तीन वृत्तों और दो भणितियों को यथावत् जाननेवाला सुशिक्षित-व्यक्ति रंगमंच पर गायेगा। सूत्र - १९४ गीत के छह दोष हैं-भीतदोष, द्रुतदोष, उत्पिच्छदोष, उत्तालदोष, काकस्वरदोष और अनुनासदोष । सूत्र - १९५ गीत के आठ गुण हैं-पूर्णगुण, रक्तगुण, अलंकृतगुण, व्यक्तगुण, अविघुष्टगुण, मधुरगुण, समगुण, सुललितगुण । सूत्र - १९६ गीत के आठ गुण और भी हैं, उरोविशुद्ध, कंठविशुद्ध, शिरोविशुद्ध, मृदुक, रिभित, पदबद्ध, समतालप्रत्युत्क्षेप और सप्तस्वरसीभरसूत्र-१९७ (प्रकारान्तर से) सप्तस्वरसीभर की व्याख्या इस प्रकार है-अक्षरसम, पदसम, तालसम, लयसम, ग्रहसम, निश्वसितो-च्छ्वसितसम और संचारसम- इस प्रकार गीत स्वर, तंत्री आदि के साथ सम्बन्धित होकर सात प्रकार का हो जाता है। सूत्र-१९८ गेय पदों के आठ गुण हैं-निर्दोष, सारवंत, हेतुयुक्त, अलंकृत, उपनीत, सोपचार, मित और मधुर । सूत्र - १९९ गीत के वृत्त-छन्द तीन प्रकार के हैं-सम, अर्धसम और सर्वविषम । इनके अतिरिक्त चौथा प्रकार नहीं है। सूत्र - २०० भणतियाँ दो प्रकार की हैं-संस्कृत और प्राकृत । ये दोनों प्रशस्त एवं ऋषिभाषित हैं और स्वरमंडल में पाई जाती है। सूत्र - २०१-२०२ कौन स्त्री मधुर स्वर में गीत गाती है ? पुरुष और रूक्ष स्वर में कौन गाती है ? चतुराई से कौन गाती है ? विलंबित स्वर में कौन गाती है ? द्रत स्वर में कौन गाती है ? तथा विकत स्वर में कौन गाती है ? श्यामा स्त्री मधुर स्वर में गीत गाती है, कृष्णवर्णा स्त्री खर और रूक्ष स्वर में, गौरवर्णा स्त्री चतुराई से, कानी स्त्री विलंबित स्वर में, अंधी स्त्री शीघ्रता से और पिंगला विकृत स्वर में गीत गाती हैं। सूत्र-२०३-२०४ ___ इस प्रकार सात स्वर, तीन ग्राम और इक्कीस मूर्च्छनायें होती हैं । प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है, इसलिये उनके उनपचास भेद हो जाते हैं । इस प्रकार स्वरमंडल का वर्णन समाप्त हुआ। सूत्र- २०५-२०७ अष्टनाम क्या है ? आठ प्रकार की वचनविभक्तियों अष्टनाम हैं । वचनविभक्ति के वे आठ प्रकार यह हैंनिर्देश अर्थ में प्रथमा, उपदेशक्रिया के प्रतिपादन में द्वितीया, क्रिया के प्रति साधकतम कारण में तृतीया, संप्रदान में चतुर्थी, अपादान में पंचमी, स्व-स्वामित्वप्रतिपादन में षष्ठी, सन्निधान में सप्तमी और संबोधित अर्थ में अष्टमी मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' विभक्ति होती है। सूत्र - २०८-२१२ निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-वह, यह अथवा मैं । उपदेश में द्वितीया विभक्ति होती है। -जैसे इसको कहो, उसको करो आदि । करण में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-उसके और मेरे द्वारा कहा गया अथवा उसके ओर मेरे द्वारा किया गया । संप्रदान, नमः तथा स्वाहा अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है । अपादान में पंचमी होती है । जैसे-यहाँ से दूर करो अथवा इससे ले लो । स्वस्वामीसम्बन्ध बतलाने में षष्ठी विभक्ति होती है । जैसेउसकी अथवा इसकी यह वस्तु है । आधार, काल और भाव में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे (वह) इसमें है। आमंत्रण अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है । जैसे-हे युवन् ! सूत्र-२१३-२१४ नवनाम क्या है ? काव्य के नौ रस नवनाम कहलाते हैं । जिनके नाम हैं-वीररस, शृंगाररस, अद्भुतरस, रौद्ररस, वीडनकरस, बीभत्सरस, हास्यरस, कारुण्यरस और प्रशांतरस । सूत्र - २१५-२१६ इन नव रसों में १. परित्याग करने में गर्व या पश्चात्ताप न होने, २. तपश्चरण में धैर्य और ३. शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रम होने रूप लक्षण वाला वीररस है । राज्य-वैभव का परित्याग करके जो दीक्षित हुआ और दीक्षित होकर काम-क्रोध आदि रूप महाशत्रुपक्ष का जिसने विघात किया, वही निश्चय से महावीर है। सूत्र- २१७-२१८ शंगाररस रति के कारणभूत साधनों के संयोग की अभिलाषा का जनक है तथा मंडन, विलास, विब्बोक, हास्य-लीला और रमण ये सब शृंगाररस के लक्षण हैं । कामचेष्टाओं से मनोहर कोई श्यामा क्षुद्र घंटिकाओं से मुखरित होने से मधुर तथा युवकों के हृदय को उन्मत्त करने वाले अपने कोटिसूत्र का प्रदर्शन करती है। सूत्र - २१९-२२० पूर्व में कभी अनुभव में नहीं आये अथवा अनुभव में आये किसी विस्मयकारी-आश्चर्यकारक पदार्थ को देखकर जो आश्चर्य होता है, वह अद्भुतरस है । हर्ष और विषाद की उत्पत्ति अद्भुतरस का लक्षण है । इस जीवलोकमें इससे अधिक अद्भुत और क्या हो सकता है कि जिनवचन द्वारा त्रिकाल सम्बन्धी समस्त पदार्थ जान लिये जाते हैं। सूत्र - २२१-२२२ भयोत्पादक रूप, शब्द अथवा अंधकार के चिन्तन, कथा, दर्शन आदि से रौद्ररस उत्पन्न होता है और संमोह, संभ्रम, विषाद एवं मरण उसके लक्षण हैं । भृकुटियों से तेरा मुख विकराल बन गया है, तेरे दाँत होठों को चबा रहे हैं, तेरा शरीर खून से लथपथ हो रहा है, तेरे मुख से भयानक शब्द निकल रहे हैं, जिससे तू राक्षस जैसा हो गया है और पशुओं की हत्या कर रहा है। इसलिए अतिशय रौद्ररूपधारी तू साक्षात रौद्ररस है। सूत्र- २२३-२२४ विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनयन करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपत्नी आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से वीडनकरस उत्पन्न होता है । लज्जा और शंका उत्पन्न होना, इस रस के लक्षण हैं । इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद अन्य बात क्या हो सकती है-मैं तो इससे बहुत लजाती हूँ कि वर-वधू का प्रथम समागम होने पर सास आदि वधू द्वारा पहने वस्त्र की प्रशंसा करते हैं। सूत्र - २२५-२२६ अशुचि, शव, मृत शरीर, दुर्दर्शन को बारंबार देखने रूप अभ्यास से या उसकी गंध से बीभत्सरस उत्पन्न होता है । निर्वेद और अविहिंसा बीभत्सरस के लक्षण हैं । अपवित्र मल से भरे हुए झरनों से व्याप्त और सदा मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' सर्वकाल स्वभावतः दुर्गन्ध-युक्त यह शरीर सर्व कलहों का मूल है। ऐसा जानकर जो व्यक्ति उसकी मूर्च्छा का त्या करते हैं, वे धन्य हैं । सूत्र - २२७-२२८ रूप, वय, वेष और भाषा की विपरीतता से हास्यरस उत्पन्न होता है । हास्यरस मन को हर्षित करनेवाला है और प्रकाश-मुख, नेत्र आदि का विकसित होना, अट्टहास आदि उनके लक्षण हैं। प्रातः सोकर उठे, कालिमा से काजल की रेखाओं से मंडित देवर के मुख को देखकर स्तनयुगल के भार से नमित मध्यभाग वाली कोई युवती हीही करती हँसती है। सूत्र - २२९-२३० प्रिय के वियोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपात, पुत्रादि-मरण एवं संभ्रम- परचक्रादि के भय आदि से करुणरस उत्पन्न होता है । शोक, विलाप, अतिशय म्लानता, रुदन आदि करुणरस के लक्षण हैं । हे पुत्रिके ! प्रियतम के वियोग में उसकी वारंवार अतिशय चिन्ता से क्लान्त-मुर्झाया हुआ और आंसुओं से व्याप्त नेत्रोंवाला तेरा मुख दुर्बल हो गया है। सूत्र - २३१-२३२ निर्दोष, मन की समाधि से और प्रशान्त भाव से जो उत्पन्न होता है तथा अविकार जिसका लक्षण है, उसे प्रशान्तरस जानना चाहिए। सद्भाव के कारण निर्विकार, रूपादि विषयों के अवलोकन की उत्सुकता के परित्याग से उपशान्त एवं क्रोधादि दोषों के परिहार से प्रशान्त, सौम्य दृष्टि से युक्त मुनि का मुखकमल वास्तव में अतीव श्रीसम्पन्न होकर सुशोभित हो रहा है । सूत्र - २३३ गाथाओं द्वारा कहे गये नव काव्यरस अलीकता आदि सूत्र के बत्तीस दोषों से उत्पन्न होते हैं और ये रस कहीं शुद्ध भी होते हैं और कहीं मिश्रित भी होते हैं । सूत्र - २३४ नवनाम का निरूपण पूर्ण हुआ । सूत्र - २३५ दसनाम क्या है ? दस प्रकार के नाम दस नाम हैं । गौणनाम, नोगौणनाम, आदानपदनिष्पन्ननाम, प्रतिपक्षपदनिष्पन्न-नाम, प्रधानपदनिष्पन्ननाम, अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम, नामनिष्पन्ननाम, अवयवनिष्पन्ननाम, संयोगनिष्पन्ननाम, प्रमाणनिष्पन्न-नाम । गौण- क्या है ? जो क्षमागुण से युक्त हो उसका 'क्षमण' नाम होना, जो तपे उसे तपन (सूर्य), प्रज्वलित हो उसे ज्वलन (अग्नि), जो बहे उसे पवन कहना । नोगौणनाम क्या है ? वह इस प्रकार जानना - कुन्त से रहित होने पर भी पक्षी को 'सकुन्त' कहना । मूंग धान्य से रहित होने पर भी डिविया को 'समुद्ग' कहना । इसी तरह समुद्र, पलाल, सकुलि, पलाश, मातृवाहक 'बीजवापक' 'इन्द्रगोप' आदि समझना । आदानपदनिष्पन्ननाम क्या है ? आवंती, चातुरंगिज्जे, असंखयं, अहातत्थिज्जे अद्दइज्जे, जण्णइज्जे, पुरिसइज्जे (उसुकारिज्ज), एलइज्जं वीरियं, धम्म, मग्ग, समोसरणं, जमईये आदि आदानपदनिष्यन्ननाम हैं। प्रतिपक्षपद से निष्पन्ननाम क्या है ? इस प्रकार है-नवीन ग्राम, आकर नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम, संबाह और सन्निवेश आदि में निवास करने पर अशिवा को 'शिवा' शब्द से उच्चारित करना। अग्नि को शीतल और विष को मधुर, कलाल के घर में आम्ल के स्थान पर स्वादु शब्द का व्यवहार होना इसी प्रकार रक्त वर्ण का हो उसे अलक्तक, लाबु को अलाबु, सुंभक को कुसुंभक और विपरीत भाषक को उभाषक' कहना । यह सब प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम जानना । 1 प्रधानपदनिष्पन्ननाम क्या है ? इस प्रकार है, अशोकवन, सप्तपर्णवन, चंपकवन, आम्रवन, नागवन, दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' पुन्नागवन, इक्षुवन, द्राक्षावन, शालवन, ये सब प्रधानपदनिष्पन्ननाम हैं । अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम क्या है ? इस प्रकार है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय । नामनिष्पन्ननाम क्या है ? इस प्रकार है-पिता या पितामह अथवा पिता के पितामह के नाम से निष्पन्न नाम नामनिष्पन्ननाम है । अवयवनिष्पन्ननाम क्या है ? इस प्रकार जाननासूत्र-२३६-२३८ शृंगी, शिखी, विषाणी, दंष्ट्री, पक्षी, खुरी, नखी, वाली, द्विपद, चतुष्पद, बहुपद, लांगूली, केशरी, ककुदी आदि । परिकरबंधन-विशिष्ट रचना युक्त वस्त्रों के पहनने से-कमर कसने से योद्धा पहिचाना जाता है, विशिष्ट प्रकार के वस्त्रों को पहनने से महिला पहिचानी जाती है, एक कण पकने से द्रोणपरिमित अन्न का पकना और एक ही गाथा के सुनने से कवि को पहिचाना जाता है । यह सब अवयवनिष्पन्ननाम हैं। संयोगनिष्पन्ननाम क्या है ? संयोग चार प्रकार का है-द्रव्यसंयोग, क्षेत्रसंयोग, कालसंयोग, भावसंयोग । द्रव्यसंयोग तीन प्रकार का है, सचित्तद्रव्यसंयोग, अचित्तद्रव्यसंयोग, मिश्रद्रव्यसंयोग । सचित्तद्रव्य के संयोग से निष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार है-गाय के संयोग से गोमन्, महिषी के संयोग से महिषीमान्, मेषियों के संयोग से मेषीमान् ओर ऊंटनियों के संयोग से उष्ट्रीपाल नाम होना आदि सचित्तद्रव्यसंयोग से निष्पन्न नाम हैं । अचित्त द्रव्य के संयोग से निष्पन्न नाम का यह स्वरूप है-छत्र के संयोग से छत्री, दंड के संयोग से दंडी, पट के संयोग से पटी, घट के संयोग से घटी, कट के संयोग से कटी आदि नाम अचित्तद्रव्यसंयोगनिष्पन्ननाम हैं । मिश्रद्रव्यसंयोगनिष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार जानना-हल के संयोग से हालिक, शकट के संयोग से शाकटिक, रथ के संयोग से रथिक, नाव के संयोग से नाविक आदि नाम मिश्रद्रव्यसंयोगनिष्पन्ननाम हैं। क्षेत्रसंयोग से निष्पन्न नाम क्या है ? इस प्रकार है-यह भरतक्षेत्रीय है, ऐरावतक्षेत्रीय है, हेमवतक्षेत्रीय है, ऐरण्यवतक्षेत्रीय है, यावत् यह उत्तरकुरुक्षेत्रीय है । अथवा यह मागधीय है, मालवीय है, सौराष्ट्रीय है, महाराष्ट्रीय है, आदि नाम क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम हैं । कालसंयोग से निष्पन्न नाम क्या है ? इस प्रकार है-सुषमसुषम काल में उत्पन्न होने से यह ‘सुषम-सुषमज' है, सुषमकाल में उत्पन्न होने से 'सुषमज' है । इसी प्रकार से सुषमदुषमज, दुषमसुषमज, दुषमज, दुषमदुषमज नाम भी जानना । अथवा यह प्रावृषिक है, यह वर्षारात्रिक है, यह शारद है, हेमन्तक है, वासन्तक है, ग्रीष्मक है आदि सभी नाम कालसंयोग से निष्पन्न नाम हैं। भावसंयोगनिष्पन्ननाम क्या है ? दो प्रकार हैं । प्रशस्तभावसंयोगज, अप्रशस्तभावसंयोगज । प्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम क्या है ? ज्ञान के संयोग से ज्ञानी, दर्शन के संयोग से दर्शनी, चारित्र के संयोग से चारित्री नाम होना प्रशस्तभावसंयोग-निष्पन्न नाम है । अप्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम क्या है ? क्रोध के संयोग से क्रोधी, मान के संयोग से मानी, माया के संयोग से मायी और लोभ के संयोग से लोभी नाम होना अप्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम हैं । इसी प्रकार से भावसंयोगजनाम का स्वरूप और साथ ही संयोगनिष्पन्न नाम की वक्तव्यता जानना । प्रमाण से निष्पन्न नाम क्या है ? चार प्रकार है । नामप्रमाण से निष्पन्न नाम, स्थापनाप्रमाण से निष्पन्न नाम, द्रव्यप्रमाण से निष्पन्न नाम, भावप्रमाण से निष्पन्न नाम । नामप्रमाणनिष्पन्न नाम क्या है ? इस प्रकार है-किसी जीव या अजीव का अथवा जीवों या अजीवों का, तदुभव का अथवा तदुभयों का प्रमाण' ऐसा जो नाम रख लिया जाता है, वह नामप्रमाण और उससे निष्पन्न नाम नामप्रमाण निष्पन्ननाम हैं। स्थापनाप्रमाणनिष्पन्न नाम क्या है ? सात प्रकार का है। सूत्र - २३९ नक्षत्रनाम, देवनाम, कुलनाम, पाषंडनाम, गणनाम, जीवितनाम और आभिप्रायिकनाम । सूत्र-२४० नक्षत्रनाम-क्या है ? वह इस प्रकार है-कृतिका नक्षत्र में जन्मे का कृत्तिक, कृत्तिकादत्त, कृत्तिकाधर्म, कृत्तिकाशर्म, कृत्तिकादेव, कृत्तिकादास, कृत्तिकासेन, कृत्तिकारक्षित आदि नाम रखना । रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' हुए का रौहिणेय, रोहिणीदत्त, रोहिणीधर्म, रोहिणीशर्म, रोहिणीदेव, रोहिणीदास, रोहिणीसेन, रोहिणीरक्षित नाम रखना । इसी प्रकार अन्य सब नक्षत्रों में जन्में हुओं के उन-उन नक्षत्रों के आधार से रक्खे नामों के विषय में जानना चाहिए । नक्षत्रनामों की संग्राहक गाथाएँ इस प्रकार हैंसूत्र-२४१-२४४ कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मधा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुरादा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभि, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरिणी, य नक्षत्रों के नामों की परिपाटी है । इस प्रकार नक्षत्रनाम का स्वरूप है। देवनाम क्या है ? यथा-अग्नि देवता से अधिष्ठित नक्षत्र में उत्पन्न हुए का आग्निक, अग्निदत्त, अग्निधर्म, अग्निशर्म, अग्निदास, अग्नसेन, अग्निरक्षित आदि नाम रखना । इसी प्रकार से अन्य सभी नक्षत्र-देवताओं के नाम पर स्थापित नामों के लिए भी जानना चाहिए । देवताओं के नामों की भी संग्राहक गाथाएँ हैं, यथासूत्र - २४५-२४७ अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, अदिति, बृहस्पति, सर्प, पिता, भग, अर्यमा, सविता, त्वष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, मित्र, इन्द्र, निर्ऋति, अम्भ, विश्व, ब्रह्मा, विष्णु, वसु, वरुण, अज, विवर्द्धि, पूषा, अश्व और यम, यह अट्ठाईस देवताओं के नाम जानना चाहिए । यह देवनाम का स्वरूप है। कुलनाम किसे कहते हैं ? जैसे उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, ज्ञात, कौख्य इत्यादि । यह कुलनाम का स्वरूप है । भगवन् ! पाषण्डनाम क्या है ? श्रमण, पाण्डुरांग, भिक्षु, कापालिक, तापस, परिव्राजक यह पाषण्डनाम जानना । भगवन् ! गणनाम क्या है ? गण के आधार से स्थापित नाम गणनाम हैं । -मल्ल, मल्लदत्त, मल्लधर्म, मल्लशर्म, मल्लदेव, मल्लदास, मल्लसेन, मल्लरक्षित आदि गणस्थानानिष्पन्ननाम हैं। जीवितहेतुनाम क्या है ? जीवित रखने के निमित्त नाम रखने जीवितहेतुनाम हैं । उत्कुरुटक, उज्झितक, कचवरक, सूर्पक आदि । आभिप्रायिकनाम क्या है ? जैसे-अंबक, निम्बक, बकुलक, पलाशक, स्नेहक, पीलुक, करीरक आदि आभिप्रायिक नाम जानना चाहिए । द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम क्या है ? छह प्रकार का है । धर्मास्तिकाय यावत् अद्धासमय | भावप्रमाण किसे कहते हैं ? सामासिकभावप्रमाण किसे कहते हैं ? सामासिकनामनिष्पन्नता के हेतुभूत समास सात हैं । सूत्र-२४८ द्वन्द्व, बहुव्रीहि, कर्मधारय, द्विगु, तत्पुरुष, अव्ययीभाव और एकशेष । सूत्र- २४९ द्वन्द्वसमास क्या है ? ‘दंताश्च ओष्ठौ च इति दंतोष्ठम्', 'स्तनौ च उदरं च इति स्तनोदरम्', 'वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्' ये सभी शब्द द्वन्द्वसमास रूप हैं । बहुव्रीहिसमास का लक्षण यह है-इस पर्वत पर पुष्पित कुटज और कदंब वृक्ष होने से यह पर्वत फुल्लकुटजकदंब है । यहाँ 'फुल्लकुटजकदंब' पर बहुव्रीहिसमास है । 'धवलो वृषभः धवलवृषभः', 'कृष्णो मृगः कृष्णमृगः', 'श्वेतः पटः श्वेतपटः' यह कर्मधारयसमास है। द्विगुसमास का रूप इस प्रकार का है-तीन कटुक वस्तुओं का समूह-त्रिकटुक, तीन मधुरों का समूहत्रिमधुर, तीन गुणों का समूह-त्रिगुण, तीन स्वरों का समूह-त्रिस्वर, दस ग्रामों का समूह-दसग्राम, दस पुरों का समूह-दसपुर, यह द्विगुसमास है । तत्पुरुषसमास का स्वरूप इस प्रकार जानना-तीर्थ में काक तीर्थकाक, वन में हस्ती वनहस्ती, यह तत्पुरुषसमास है । अव्ययीभावसमास इस प्रकार जानना-ग्राम के समीप- अनुग्राम', नदी के समीप- अनुनदिकम्', इसी प्रकार अनुस्पर्शम्, अनुचरितम् आदि अव्ययीभावसमास के उदाहरण हैं । जिसमें एक शेष रहे, वह एकशेषसमास है । वह इस प्रकार-जैसा एक पुरुष वैसे अनेक पुरुष और जैसे अनेक पुरुष वैसा एक पुरुष जैसा एक कार्षापण वैसे एक कार्षापण और जैसे अनेक कार्षापण वैसा एक कार्षापण, इत्यादि मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' एकशेषसमास के उदाहरण हैं। तद्धित से निष्पन्न नाम क्या है ? सूत्र - २५० कर्म, शिल्प, श्लोक, संयोग, समीप, संयूथ, ऐश्वर्य, अपत्य, इस प्रकार तद्धितनिष्पन्ननाम आठ प्रकार का है सूत्र - २५१ कर्मनाम क्या है ? दौष्यिक, सौत्रिक, कार्पासिक, सूत्रवैचारिक, भांडवैचारि, कौलालिक, ये सब कर्मनिमित्तज नाम हैं । तौन्निक तान्तुवायिक, पाट्टकारिक, औद्वृत्तिक, वारुंटिक मौञ्जकारिक, काष्ठकारिक छात्रकारिक बाह्यकारिक, पौस्तकारिक चैत्रकारिक दान्तकारिक लैप्यकारिक शैलकारिक कोटिटमकारिक । यह शिल्पनाम हैं। सभी के अतिथि श्रमण, ब्राह्मण श्लोकनाम के उदाहरण हैं। संयोगनाम का रूप इस प्रकार समझना - राजा का ससुर-राजकीय ससुर, राजा का साला राजकीय साला, राजा का साढू-राजकीय साढू इत्यादि संयोगनाम हैं । समीपनाम किसे कहते हैं ? समीप अर्थक तद्धित प्रत्यय-निष्पन्ननाम-गिरि के समीप का नगर गिरिनगर, विदिशा के समीप का नगर वैदिश, आदि रूप जानना तरंगवतीकार, मलयवतीकार, आत्मानुषष्ठिकार, बिन्दुकार आदि नाम संयूथ नामके उदाहरण हैं । ऐश्वर्य द्योतक शब्दों से तद्धित प्रत्यय करने पर निष्पन्न ऐश्वर्यनाम राजेश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सार्थवाह, सेनापति आदि रूप हैं । यह ऐश्वर्यनाम का स्वरूप है । अपत्य-पुत्र से विशेषित होने अर्थ में तद्धित प्रत्यय लगाने से निष्पन्ननाम इस प्रकार हैं- तीर्थंकरमाता, चक्रवर्तीमाता, बलदेवनमाता, वासुदेवमाता, राजमाता, गणिमाता, वाचक - माता आदि ये सब अपत्यनाम हैं । धातुजनाम क्या है ? परस्मैपदी सत्तार्थक भू धातु, वृद्ध्यर्थक एध् धातु, संघर्षार्थक स्पर्द्ध धातु, प्रतिष्ठा, लिप्सा या संचय अर्थक गाधू और विलोडनार्थक बाधू धातु आदि से निष्पन्न भव, एधमान आदि नाम धातुजनाम हैं। निरुक्ति से निष्पन्ननाम निरुक्तिजनाम हैं जैसे मह्यांशेते, महिषः पृथ्वी पर जो शयन करे वह महिष, भ्रमति रौति इति भ्रमर :- भ्रमण करते हुए जो शब्द करे वह भ्रमर, मुहुर्मुहर्लसति इति मुसल जो बारंबार ऊंचा नीचा हो वह मूसल, इत्यादि निरुक्तिजतद्धितनाम हैं । I सूत्र - २५२ भगवन् ! प्रमाण क्या है ? प्रमाण चार प्रकार का है । द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण सूत्र - २५३ द्रव्यप्रमाण क्या है ? दो प्रकार का है, यथा- प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण क्या है ? परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशों यावत् दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों, असंख्यात प्रदेशों और अनन्त प्रदेशों से जो निष्पन्न- सिद्ध होता है। विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण पाँच प्रकार है। मानप्रमाण उन्मानप्रमाण, अवमानप्रमाण, गणिमप्रमाण और प्रतिमानप्रमाण । मानप्रमाण क्या है ? दो प्रकार का है- धान्यमानप्रमाण और रसमानप्रमाण । धान्यमानप्रमाण क्या है ? दो असति की एक प्रसृति होती है, दो प्रसृति की एक सेतिका, चार सेतिका का एक कुडब, चार कुडब का एक प्रस्थ, चार प्रस्थों का एक आढक, चार आढक का एक द्रोण, साठ आढक का एक जघन्य कुंभ, अस्सी आढक का एक मध्यम कुंभ, सौ आढक का एक उत्कृष्ट कुंभ और आठ सौ आढकों का एक बाह होता है । धन्यमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? ईसके द्वारा मुख, इड्डर, अलिंद और अपचारि में रखे धान्य के प्रमाण का परिज्ञान होता है । इसे ही धान्यमानप्रमाण कहते हैं । रसमानप्रमाण क्या है ? रसमानप्रमाण धान्यमानप्रमाण से चतुर्भाग अधिक और अभ्यन्तर शिखायुक्त होता है । चार फल की एक चतुःषष्ठिका होती है। इसी प्रकार आठ पलप्रमाण द्वात्रिंशिका, सोलह पलप्रमाण षोडशिका, बत्तीस पलप्रमाण अष्टभागिका, चौसठ पलप्रमाण चतुर्भागिका १२८ पलप्रमाण अर्धमानी और २५६ पलप्रमाण दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' मानी होती है । इस रसमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इस से वारक, घट, करक, किक्किरी, दृति, करोडिका, चौड़ा होता है, कुंडिका आदि में भरे हुए रसों के परिमाण का ज्ञान होता है। उन्मानप्रमाण क्या है ? जिसका उत्मान किया जाए अथवा जिसके द्वारा उन्मान किया जाता है, उन्हें उन्मानप्रमाण कहते हैं । उसका प्रमाण निम्न प्रकार है-अर्धकर्ष, कर्ष, अर्धपल, पल, अर्धतुला, तुला, अर्धभार और भार । इन प्रमाणों की निष्पत्ति इस प्रकार होती है-दो अर्धकर्षों का एक कर्ष, दो कर्षों का एक अर्धपल, दो अर्धपलों का एक पल, एक सौ पाँच अथवा पाँच सौ पलों की एक तुला, दस तुला का एक अर्धभार और बीस तुला-दो अर्धभारों का एक भार होता है । उन्मानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इस से पत्र, अगर, तगर, चोयक, कुंकुम, खांड, गुड़, मिश्री आदि द्रव्यों के परिमाण का परिज्ञान होता है। अवमान (प्रमाण) क्या है ? जिसके द्वारा अवमान किया जाये अथवा जिसका अवमान किया जाये, उसे अवमानप्रमाण कहते हैं । वह इस प्रकार-हाथ से, दंड से, धनुष से, युग से, नालिका से, अक्ष से अथवा मूसल से नापा जाता है। सूत्र-२५४ दंड, धनुष युग, नालिका, अक्ष और मूसल चार हाथ प्रमाण होते हैं । दस नालिका की एक रज्जू होती है। ये सभी अवमान कहलाते हैं। सूत्र - २५५ वास्तु को हाथ द्वारा, क्षेत्र दंड द्वारा, मार्ग को धनुष द्वारा और खाई को नालिका द्वारा नापा जाता है। इन सबको अवमान' इस नाम से जानना । सूत्र-२५६ अवमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इस से खात, कुआ आदि, ईंट, पत्थर आदि से निर्मित प्रासाद, पीठ, क्रकचित, आदि, कट, पट, भीत, परिक्षेप, अथवा नगर की परिखा आदि में संश्रित द्रव्यों की लंबाई-चौड़ाई, गहराई और ऊंचाई के प्रमाण का परिज्ञान होता है। गणिमप्रमाण क्या है ? जो गिना जाए अथवा जिसके द्वारा गणना की जाए, उसे गणिमप्रमाण कहते हैं । - एक, दस, सौ, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, करोड़ इत्यादि । गणिमप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इस से भृत्य, कर्मचारी आदि की वृत्ति, भोजन, वेतन के आय-व्यय से सम्बन्धित द्रव्यों के प्रमाण की निष्पत्ति होती है। प्रतिमान (प्रमाण) क्या है ? जिसके द्वारा अथवा जिसका प्रतिमान किया जाता है, उसे प्रतिमान कहते हैं। गुंजा, काकणी, निष्पाव, कर्ममाषक, मंडलक, सुवर्ण । पाँच गुंजाओं का, काकणी की अपेक्षा चार काकणियों का अथवा तीन निष्पाव का एक कर्ममाषक होता है । इस प्रकार कर्ममाषक चार प्रकार से निष्पन्न होता है । बारह कर्ममाषकों का एक मंडलक होता है । इसी प्रकार अड़तालीस काकणियों के बराबर एक मंडलक होता है । सोलह कर्ममाषक अथवा चौसठ काकणियों का एक स्वर्ण (मोहर) होता है। प्रतिमानप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इस से सुवर्ण, रजत, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल आदि द्रव्यों का परिमाण जाना जाता है । इसे ही प्रतिमानप्रमाण कहते हैं। सूत्र - २५७ क्षेत्रप्रमाण क्या है ? दो प्रकार का है। प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण क्या है ? एक प्रदेशावगाढ, दो प्रदेशावगाढ यावत् संख्यात प्रदेशावगाढ, असंख्यात प्रदेशावगाढ क्षेत्ररूप प्रमाण को प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहते हैं । विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण क्या है ? सूत्र- २५८ अंगुल, वितस्ति, रत्नि, कुक्षि, धनुष गाऊ, योजन, श्रेणि, प्रतर, लोक और अलोक को विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण जानना । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र-२५९ अंगुल क्या है ? अंगुल तीन प्रकार का है-आत्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल । आत्मांगुल किसे कहते हैं ? जिस काल में जो मनुष्य होते हैं उनके अंगुल आत्मांगुल हैं । उनके अपने-अपने अंगुल से बारह अंगुल का एक मुख होता है । नौ मुख प्रमाण वाला पुरुष प्रमाणयुक्त माना जाता है, द्रोणिक पुरुष मानयुक्त माना जाता है और अर्धभारप्रमाण तौल वाला पुरुष उन्मान युक्त होता है। सूत्र - २६०-२६२ जो पुरुष मान-उन्मान और प्रमाण से संपन्न होते हैं तथा लक्षणों एवं व्यंजनो से और मानवीय गुणों से युक्त होते हैं एवं उत्तम कुलों में उत्पन्न होते हैं, ऐसे पुरुषों को उत्तम पुरुष समझना । ये उत्तम पुरुष अपने अंगुल से १०८ अंगुल प्रमाण ऊंचे होते हैं । अधम पुरुष ९६ अंगुल और मध्यम पुरुष १०४ अंगुल ऊंचे होते हैं । ये हीन ऊंचाई वाले अथवा अधिक ऊंचाई वाले (मध्यम पुरुष) जनोपादेय एवं प्रशंसनीय स्वर से, सत्त्व से तथा सार से हीन और उत्तम पुरुषों के दास होते हैं। सूत्र - २६३ ___ इस आत्मांगुल से छह अंगुल का एक पाद होता है । दो पाद की एक वितस्ति, दो वितस्ति की एक रत्नि और दो रत्नि की एक कुक्षि होती है । दो कुक्षि का एक दंड, धनुष, युग, नालिका अक्ष और मूसल जानना । दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है। आत्मांगुलप्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इस से कुआ, तडाग, द्रह, वापी, पुष्करिणी, दीर्घिका, गुंजालिका, सर, सरपंक्ति, सर-सरपंक्ति, विलपंक्ति, आराम, उद्यान, कानन, वन, वनखंड, वनराजि, देवकुल, सभा, प्रपा, स्तूप, खातिका, परिखा, प्राकार, अट्टालक, द्वार, गोपुर, तोरण, प्रासाद, घर, शरण, लयन, आपण, शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ, पथ, शकट, रथ, यान, युग्य, गिल्लि, थिल्लि, शिबिका, स्यंदमानिका, लोही, लोहकटाह, कुडछी, आसन, शायन, स्तम्भ, भांड, मिट्टी, कांसे आदि से बने भाजन गृहोपयोगी बर्तन, उपकरण आदि वस्तुओं एवं योजन आदि का माप किया जाता है। आत्मांगुल सामान्य से तीन प्रकार का है-सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, एक अंगुल लम्बी और एक प्रदेश चौडी आकाश-प्रदेशों की श्रेणि-पंक्ति का नाम सूच्यंगुल है । सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर प्रतरांगुल बनता है । प्रतरांगुल को सूच्यंगुल से गुणित करने पर घनांगुल होता है । भगवन् ! इन सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में से कौन किससे अल्प, कौन किससे अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? इनमें सूच्यंगुल सबसे अल्प है, उससे प्रतरांगुल असंख्यातगुणा है, उसे घनांगुल असंख्यातगुणा है । उत्सेधांगुल क्या है ? अनेक प्रकार का है। सूत्र-२६४ परमाणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका और यव, ये सभी क्रमशः उत्तरोत्तर आठ गुणे जानना । सूत्र-२६५-२६६ भगवन् ! परमाणु क्या है ? दो प्रकार का सूक्ष्म परमाणु और व्यवहार परमाणु । इनमें से सूक्ष्म परमाणु स्थापनीय है। अनन्तानंत सूक्ष्म परमाणुओं के समुदाय एक व्यावहारिक परमाणु निष्पन्न होता है। व्यावहारिक परमाणु तलवार की धार या छुरे की धार को अवगाहित कर सकता है ? हाँ, कर सकता है । तो क्या वह उस से छिन्न-भिन्न हो सकता है ? यह अर्थ समर्थ नहीं । शस्त्र इसका छेदन-भेदन नहीं कर सकता। क्या वह व्यावहारिक परमाणु अग्निकाय के मध्य भाग से होकर निकल जाता है ? हाँ, निकल जाता है । तब क्या वह उससे जल जाता है ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्या व्यावहारिक परमाणु पुष्करसंवर्तक नामक महामेघ के मध्य में से होकर निकल सकता है ? हाँ, निकल सकता है। तो क्या वह वहाँ पानी से गीला हो जाता है ? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्या वह व्यावहारिक परमाणु गंगा महानदी के प्रतिस्रोत में शीघ्रता से गति कर सकता है ? हाँ, कर सकता मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 38 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' है । तो क्या वह उसमें प्रतिस्खलना प्राप्त करता है ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्या वह व्यावहारिक परमाणु उदकावर्त और जलबिन्दु में अवगाहन कर सकता है ? हाँ, कर सकता है । तो क्या वह सड़ जाता है ? यह यथार्थ नहीं है। सूत्र-२६७ अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र से भी कोई जिसका छेदन-भेदन करने में समर्थ नहीं है, उसको ज्ञानसिद्ध केवली भगवान् परमाणु कहते हैं । वह सर्व प्रमाणों का आदि प्रमाण है।। उस अनन्तान्त व्यावहारिक परमाणुओं के समुदयसमितिसमागम से एक उत्श्र्लक्ष्णलक्षिणका, लक्ष्णलक्ष्णिका, ऊर्ध्व-रेणु, त्रसरेणु और रथरेणु उत्पन्न होता है | आठ उत्श्र्लक्ष्णलक्ष्णिका की एक लक्ष्णलक्ष्णिका होती है । आठ लक्ष्णलक्ष्णिका का एक ऊर्ध्वरेणु । आठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु, आठ रथरेणुओं का एक देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का बालाग्र, आठ देवकुरुउत्तरकुरु के मनुष्यों के बालारों का एक हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष के मनुष्यों का बालाग्र होता है । आठ हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष के मनुष्यों के बालानों के बराबर हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालानों के बराबर पूर्व महाविदेह और अपर महाविदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । आठ पूर्वविदेह-अपरविदेह के मनुष्यों के बालानों के बराबर भरत-एरावत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । भरत और एरावत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालानों की एक लिक्षा होती है । आठ लिक्षाओं की एक नँ, आठ जुओं का एक यवमध्य और आठ यवमध्यों का एक उत्सेधांगुल होता है । इस अंगुलप्रमाण से छह अंगुल का एक पाद होता है । बारह अंगुल की एक वितस्ति, चौबीस अंगुल की एक रत्लि, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षि और छियानवै अंगुल का एक दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है । इस धनुषप्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है । इस उत्सेधांगुल से क्या प्रयोजन है ? इस से नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। नारकों के शरीर की कितनी अवगाहना है ? गौतम ! दो प्रकार से है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से भवधारणीय की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुषप्रमाण है । उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट १००० धनुषप्रमाण है । रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना दो प्रकार की है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन रत्नि तथा छह अंगुलप्रमाण है । उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष, अढ़ाई रत्नि है। शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना कितनी है ? गौतम ! उनकी अवगाहना दो प्रकार से है। भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय अवगाहना तो जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष दो रत्नि और बारह अंगुल प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट इकतीस धनुष और एक रत्नि है । बालुकाप्रभा पृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना दो प्रकार से हैं । भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट इकतीस धनुष तथा एक रत्नि प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ठ बासठ धनुष और दो रत्नि प्रमाण है। पंकप्रभा पृथ्वी में भवधारणीय जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट बासठ धनुष और दो रत्नि प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक सौ पच्चीस धनुष प्रमाण है । धूमप्रभा-पृथ्वी में भवधारणीय जघन्य (शरीरावगाहना) अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट एक सौ पच्चीस धनुष प्रमाण है । उत्तर-वैक्रिया शरीरावगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट ढाई सौ धनुष प्रमाण है । तमःप्रभा पृथ्वी में भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' उत्कृष्ट ढाई सौ धनुष प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष है । तमस्तमःपृथ्वी के नैरयिकों की शरीरावगाहना दो प्रकार की है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय रूप । उनमें से भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की है तथा उत्तरवैक्रिय शरीर की जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट १००० धनुष प्रमाण है। भगवन् ! असुरकुमार देवों की कितनी शरीरावगाहना है ? दो प्रकार की है, भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय | भव-धारणीय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सात रत्नि प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन प्रमाण है । उत्तरवैक्रिय जघन्य अवगाहना के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन प्रमाण है । असुरकुमारों की अवगाहना के अनुरूप ही स्तनितकुमारों पर्यन्त दोनों प्रकार की अवगाहना का प्रमाण जानना । पृथ्वीकायिक जीवों की शरीरावगाहना कितनी कही है ? गौतम् ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार सामान्य रूप से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की और (विशेष रूप से) सूक्ष्म अपर्याप्त और पर्याप्त पृथ्वी-कायिक जीवों की तथा सामान्यतः बादर पृथ्वीकायिकों एवं विशेषतः अपर्याप्त और पर्याप्त पृथ्वीकायिकों की यावत् पर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों की शरीरावगाहना जानना । वनस्पतिकायिक जीवों की शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक १००० योजन है । सामान्य रूप में सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और (विशेष रूप में) अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अधिक रूप से बादर वनस्पति-कायिक जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट साधिक १००० योजन प्रमाण है । विशेषअपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। पर्याप्त की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट साधिक १००० योजन प्रमाण होती द्वीन्द्रिय जीवों की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण है । अपर्याप्त की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । पर्याप्त (द्वीन्द्रिय जीवों) की जघन्य शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण है। त्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना का मान कितना है ? गौतम ! सामान्यत: त्रीन्द्रिय जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस की है । अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना तीन गव्यूत प्रमाण है। चतुरिन्द्रिय जीवों की अवगाहना औधिक रूप से चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार गव्यूत प्रमाण है । अपर्याप्त की जघन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र है। पर्याप्तकों की जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग एवं उत्कृष्टतः चार गव्यूत प्रमाण है तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण है। जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना इसी प्रकार है । संमूर्छिम जलचरतिर्यंचयोनिकों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना १००० योजन की जानना । अपर्याप्त संमूर्छिम जलचर-तिर्यंचयोनिकों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना भी अंगुल के असंख्यातवें भाग है । पर्याप्त संमूर्छिम जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच-योनिकों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट १००० योजन प्रमाण है । गर्भव्युत्क्रांतजलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों की अवगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग और मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' उत्कृष्टतः योजनसहस्र की है । अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रांत-जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । पर्याप्तक गर्भजजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट १००० योजनप्रमाण है । चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना ? गौतम ! सामान्य रूप में जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट छह गव्यूति की है । संमूर्च्छिम चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना ? जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण है । अपर्याप्त संमूर्च्छिम चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचों की अवगाहना जघन्य एवं उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की है । पर्याप्त संमूर्च्छिम चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना है । जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट गव्यूतिपृथक्त्व है । गभूव्यूत्क्रान्तिक चतुष्पदस्थलचरपंचे-न्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना । जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट छह गव्यूति प्रमाण है । अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्त चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । पर्याप्तक गर्भज चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट छह गव्यूति प्रमाण है । खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व प्रमाण है तथा सामान्य संमूर्च्छिम खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना संमूर्च्छिम जन्मवाले भुजपरिसर्प पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के तीन अवगाहना स्थानों के बराबर समझ लेना । गर्भव्युत्क्रान्त खेचरपंचेन्द्रियतिर्यच-योनिक की शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व प्रमाण है। अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्त खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । पर्याप्त गर्भज खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व है। उक्त समग्र कथन की संग्राहक गाथाएँ इस प्रकार हैं सूत्र - २६८-२६९ संमूर्च्छिम जलचरतिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना १००० योजन, चतुष्पदस्थलचर की गव्यूतिपृथक्त्व, उरपरिसर्पस्थलचर की योजनपृथक्त्व, भुजपरिसर्पस्थलचर की एवं खेचरतिर्यंचपंचेन्द्रिय की धनुषपृथक्त्व प्रमाण है । गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में से जलचरों की १००० योजन, चतुष्पदस्थलचरों की छह गव्यूति उरपरिसर्पस्थलचरों की १००० योजन, भुजपरिसर्पस्थलचरों की गव्यूतिपृथक्त्व और पक्षियों की धनुषपृथक्त्व प्रमाण उत्कृष्ट शरीरावगाहना जानना । सूत्र - २७० मनुष्यों की शरीरावगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट तीन गव्यूति है । संमूर्च्छिम मनुष्यों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । गर्भ मनुष्यों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट तीन गव्यूति प्रमाण है । अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्त मनुष्यों की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट तीन गव्यूति प्रमाण है । वाणव्यंतरों की भावधारणीय एवं उत्तर वैक्रियशरीर की अवगाहना असुरकुमारों के समान जानना । इसी प्रकार ज्योतिष्क भी समझ लेना । सौधर्मकल्प के देवों की शरीरावगाहना कितनी है ? गौतम ! दो प्रकार की - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । इनमें से भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात रत्नि है । उत्तरवैक्रिय शरीर की जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन प्रमाण है । इसी तरह इशान दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद " Page 41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' कल्प में भी जानना । सनत्कुमार-कल्प में भवधारणीय जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट छह रत्नि प्रमाण है, उत्तरवैक्रिय सौधर्मकल्प के बराबर है । सनत्कुमारकल्प जितनी अवगाहना माहेन्द्रकल्प में जानना । ब्रह्मलोक और लांतक में भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पाँच रत्नि प्रमाण है तथा उत्तरवैक्रिय का प्रमाण सौधर्मकल्पवत् है । महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार रत्नि प्रमाण है तथा उत्तर-वैक्रिय सौधर्मकल्प के समान है । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत-में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट तीन रनि की है। उत्तरवैक्रिय सौधर्मकल्प के समान है। ग्रैवेयकदेवों की शरीरावगाहना कितनी है ? गौतम ! ग्रैवेयकदेवों का एकमात्र भवधारणीय शरीर ही होता है। उस की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट दो हाथ है । अनुत्तरविमानवासी देवों का एकमात्र भवधारणीय शरीर ही है। उसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हाथ है वह उत्सेधांगुल संक्षेप से तीन प्रकार का है । सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल । एक अंगुल लम्बी तथा एक प्रदेश चौड़ी आकाशप्रदेशों की श्रेणी को सूच्यंगुल कहते हैं । सूची से सूची को गुणित करने पर प्रतरांगुल निष्पन्न होता है, सूच्यंगुल से गुणित प्रतरांगुल घनांगुल कहलाता है । भगवन् ! इन सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में कौन किससे अल्प, बहुल, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? इनमें सर्वस्तोक सूच्यंगुल है, उससे प्रतरांगुल असंख्यातगुणा और प्रतरांगुल से घनांगुल असंख्यातगुणा है। प्रमाणांगुल क्या है ? भरतक्षेत्र पर शासन करनेवाले चक्रवर्ती के अष्ट स्वर्णप्रमाण, छह तल वाले, बारह कोटियों और आठ कर्णिकाओं से युक्त अधिकरण संस्थान काकणीरत्न की एक-एक कोटि उत्सेधांगुल प्रमाण विष्कंभ वाली है, उसकी वह एक कोटि श्रमण भगवान् महावीर के अर्धांगुल प्रमाण है । उस अर्धांगुल से हजार गुणा एक प्रमाणांगुल है । इस अंगुल से छह अंगुल का एक पाद, दो पाद अथवा बारह अंगुल की एक वितस्ति, दो वितस्तियों की रत्नि, दो रत्नि की एक कुक्षि, दो कुक्षियों का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है। प्रमाणांगुल से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? इस से पृथ्वीयों की, कांडों की, पातालकलशों की, भवनों की, भवनों के प्रस्तरों की, नरकवासों की, नरकपंक्तियों की, नरक के प्रस्तरों की, कल्पों की, विमानों की, विमानपंक्तियों की, विमानप्रस्तरों की, टंकों की, कूटों की, पर्वतों की, शिखर वाले पर्वतों की, प्राग्भारों की, विजयों की, वक्षारों की, क्षेत्रों की, वर्षधर पर्वतों की, समुद्रों की, वेलाओं की, वेदिकाओं की, द्वारों की, तोरणों की, द्वीपों की तथा समुद्रों की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई और परिधि नापी जाती है। वह (प्रमाणांगुल) संक्षेप में तीन प्रकार का कहा गया है-श्रेण्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल । (प्रमाणांगुल से निष्पन्न) असंख्यात कोडाकोडी योजनों की एक श्रेणी होती है । श्रेणी को श्रेणी से गुणित करने पर प्रतरांगुल और प्रतरांगुल को श्रेणी के साथ गुणा करने से (एक) लोक होता है । संख्यात राशि से गुणित लोक संख्यातलोक', असंख्यात राशि से गुणित लोक असंख्यातलोक' और अनन्त राशि से गुणित लोक 'अनन्तलोक' कहलाता है । इन श्रेण्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? श्रेण्यंगुल सर्वस्तोक है, उससे प्रतरांगुल असंख्यात गुणा है और प्रतरांगुल से घनांगुल असंख्यात गुणा है। सूत्र - २७१ कालप्रमाण क्या है ? दो प्रकार का है-प्रदेशनिष्पन्न, विभागनिष्पन्न । सूत्र-२७२ प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण क्या है ? एक समय की स्थितिवाला, दो समय की स्थितिवाला, तीन समय की स्थितिवाला, यावत् दस समय की स्थितिवाला, संख्यात समय की स्थितिवाला, असंख्यात समय की स्थितिवाला (परमाणु या स्कन्ध) प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण है । इस प्रकार से प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण का स्वरूप जानना । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र - २७३-२७४ विभागनिष्पन्न कालप्रमाण क्या है ? समय, आवलिका, मुहूर्त्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागर, अवसर्पिणी ( उत्सर्पिणी) और (पुद्गल) परावर्तन रूप काल को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहते हैं सूत्र - २७५ समय किसे कहते हैं ? समय की प्ररूपणा करूँगा । जैसे कोई एक तरुण, बलवान्, युगोत्पन्न, नीरोग, स्थिरहस्ताग्र, सुद्रढ़-विशाल हाथ-पैर, पृष्ठभाग, पृष्ठान्त और उरु वाला, दीर्घता, सरलता एवं पीनत्व की दृष्टि से समान, समश्रेणी में स्थित तालवृक्षयुगल अथवा कपाट अर्गला तुल्य दो भुजाओं का धारक, चर्मेष्टक, मुद्गर मुष्टिक के व्यायामों के अभ्यास, आघात-प्रतिघातों से सुद्रढ़, सहज बलसम्पन्न, कूदना, तैरना, दौड़ना आदि व्यायामों से अर्जित सामर्थ्य से सम्पन्न, छेक, दक्ष, प्रतिष्ठ प्रवीण, कुशल, मेधावी, निपुण, अपनी शिल्पकला में निष्णात, तुन्नवायदारक एक बड़ी सूती अथवा रेशमी शाटिका को लेकर अतिशीघ्रता से एक हाथ प्रमाण फाड़ देता है। भगवन् ! तो जितने काल में उस दर्जी के पुत्र ने शीघ्रता से उस सूती अथवा रेशमी शाटिका को एक हाथ प्रमाण फाड़ दिया है, क्या उतने काल को 'समय' कहते हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि संख्यात तंतुओं के समुदाय रूप समिति के संयोग से एक शाटिका निष्पन्न होती है। अतएव जब तक ऊपर का तन्तु छिन्न न हो तब तक नीचे का तन्तु छिन्न नहीं हो सकता । अतः ऊपर के तन्तु के छिदने का काल दूसरा है और नीचे के तन्तु के छिदने का काल दूसरा है । I भदन्त ! जितने काल में दर्जी के पुत्र ने उस सूती शाटिका के ऊपर के तन्तु का छेदन किया, क्या उतना काल समय है ? नहीं है क्योंकि संख्यात पक्ष्मों के समुदाय रूप समिति के सम्यक् समागम से एक तन्तु निष्पन्न होता है । इसलिये ऊपर के पक्ष्म के छिन्न न होने तक नीचे का पक्ष्म छिन्न नहीं हो सकता है । अन्य काल में ऊपर का पक्ष्म और अन्य काल में नीचे का पक्ष्म छिन्न होता है । जिस काल में उस दर्जी के पुत्र ने उस तन्तु के उपरिवर्ती पक्ष्म का छेदन किया तो क्या उतने काल को समय कहा जाए ? नहीं क्योंकि अनन्त संघातों के समुदाय रूप समिति के संयोग से पक्ष्म निर्मित होता है, अतः जब तक उपरिवर्ती संघात पृथक् न हो, तब तक अधोवर्ती संघात पृथक् नहीं होता है। उपरिवर्ती संघात के पृथक् होने का काल अन्य है और अधोवर्ती संघात के पृथक् होने का काल अन्य है । आयुष्मन् ! समय इससे भी अतीव सूक्ष्मतर है। | | असंख्यात समयों के समुदाय समिति के संयोग से एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास और संख्यात आवलिकाओं का एक निःश्वास होता है। सूत्र - २७६-२७९ हृष्ट, वृद्धावस्था से रहित, व्याधि से रहित मनुष्य आदि के एक उच्छ्वास और निःश्वास के 'काल' को प्राण कहते हैं । ऐसे सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और लवों का एक मुहूर्त्त जानना । अथवासर्वज्ञ ३७७३ उच्छ्वास-निश्वासों का एक मुहूर्त्त कहा है । इस मुहूर्त्त प्रमाण से तीस मुहूर्त्तो का एक अहोरात्र होता है, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दों अयनों का एक संवत्सर, पांच संवत्सर का एक युग और बीस युग का वर्षशत होता है । दस सौ वर्षों का एक सहस्र वर्ष, सौ सहस्र वर्षों का एक लक्ष वर्ष, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग, चौरसी लाख पूर्वांगों का पूर्व, चौरासी लाख पूर्वो का त्रुटितांग, चौरासी लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित, चौरासी लाख त्रुटितों का एक अडडांग, चौरासी लाख अडडांगों का एक अडड, चौरासी लाख अड्डों का एक अववांग, चौरासी लाख अववांगों का एक अवय, चौरासी लाख अववों का एक हुहुअंग, चौरासी लाख हुहुअंगों का एक हुहु, इसी प्रकार उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अच्छनिकुरांग, अच्छनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, चौरासी लाख चूलिकाओं की एक शीर्षप्रहेलिकांग होता है एवं चौरासी लाख शीर्षप्रहेलिकांगों दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' की एक शीर्षप्रहेलिका होती है । एतावन्मात्र ही गणित है । इतना ही गणित का विषय है, इसके आगे उपमा काल की प्रवृत्ति होती है। सूत्र- २८० औपमिक (काल) प्रमाण क्या है ? वह दो प्रकार का है । पल्योपम और सागरोपम | पल्योपम के तीन प्रकार हैं-उद्धारपल्योपम, अद्धापल्योपम और क्षेत्रपल्योपम | उद्धारपल्योपम दो प्रकार से है, सूक्ष्म और व्यावहारिक उद्धारपल्योपम । इन दोनों में सूक्ष्म उद्धारपल्योपम अभी स्थापनीय है। व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का स्वरूप -उत्सेधांगुल से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊंचा एवं कुछ अधिक तिगुनी परिधिवाला एक पल्य हो । उस पल्य को एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक सात दिन के उगे हुए बालागों से इस प्रकार ठसाठस भरा जाए कि फिर उन बालारों की अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके, न वे सड़-गल सकें, न उनका विध्वंस हो, न उनमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो । तत्पश्चात् एक-एक समय में एक-एक बालाग्र का अपहरण किया जाए-तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज, निर्लेप और निष्ठित हो जाए, उतने काल को व्यावहारिक उद्धारपल्योपम कहते हैं। सूत्र- २८१ ऐसे दस कोडाकोडी पल्योपमों का एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम होता है। सूत्र-२८२ व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? इनसे किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है। ये दोनों केवल प्ररूपणामात्र के लिए हैं। सूक्ष्म उद्धार पल्योपम क्या है ? इस प्रकार है-धान्य के पल्य के समान कोई एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा एवं कुछ अधिक तीन योजन की परिधिवाला पल्य हो । इस पल्य को एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्ट सात दिन तक के उगे हुए बालाग्रों से खूब ठसाठस भरा जाए और उन एक-एक बालाग्र के ऐसे असंख्यात-असंख्यात खंड किये जाए जो निर्मल चक्षु से देखने योग्य पदार्थ की अपेक्षा भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हों और सूक्ष्म पनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यातगुणें हों, जिन्हें अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके, जो सड़-गल न सके, नष्ट न हो सके और न दुर्गंधित हो सके । फिर समय-समय में उन बालाग्रखंडों को निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य बालारों की रज से रहित, बालानों के संश्लेष से रहित और पूरी तरह खाली हो जाए, उतने काल को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहते हैं। सूत्र-२८३ इस पल्योपम की दस गुणित कोटाकोटि का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम का परिमाण होता है । (अर्थात् दस कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धारपल्योपमों का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम होता है।) सूत्र- २८४ सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम से किस प्रयोजन को सिद्धि होती है ? इससे द्वीप-समुद्रों का प्रमाण जाना जाता है । अढ़ाई उद्धार सूक्ष्म सागरोपम के उद्धार समयों के बराबर द्वीप समुद्र हैं । अद्धापल्योपम के दो भेद हैं-सूक्ष्म अद्धापल्योपम और व्यावहारिक अद्धापल्योपम । उनमें से सूक्ष्म अद्धापल्योपम अभी स्थापनीय है । व्यावहारिक का वर्णन निम्न प्रकार है-धान्य के पल्य के समान एक योजन प्रमाण दीर्घ, एक योजन प्रमाण विस्तार और एक योजन प्रमाण ऊर्ध्वता से युक्त तथा साधिक तीन योजन की परिधि वाला कोई पल्य हो । उस पल्य को एक, दो, तीन दिवस यावत् सात दिवस के उगे हुए बालानों से इस प्रकार से पूरित कर दिया जाए कि वे बालाग्र अग्नि से जल न सकें, वायु उन्हें उड़ा न सके, वे सड़-गल न सके, उनका विध्वंस भी न हो सके और उनमें दुर्गन्ध भी उत्पन्न न हो सके । तदनन्तर उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष के पश्चात् एक-एक बालाग्र निकालने पर जितने काल में वह पल्य उन बालानों से रहित, रजरहित और निर्लेप एवं निष्ठित-पूर्ण रूप से खाली मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' हो जाए, उतने काल को व्यावहारिक उद्धारपल्योपम कहते हैं। सूत्र - २८५ दस कोटाकोटि व्यावहारिक अद्धापल्योपमों का एक व्यावहारिक सागरोपम होता है। सूत्र- २८६ व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। ये केवल प्ररूपणा के लिये हैं । सूक्ष्म अद्धापल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है-एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा, एक योजन ऊंचा एवं साधिक तीन योजन की परिधिवाला एक पल्य हो । उस पल्य को एक-दोतीन दिन के यावत् बालाग्र कोटियों से पूरी तरह भर दिया जाए | फिर उनमें से एक-एक बालाग्र के ऐसे असंख्यात-असंख्यात खण्ड किये जाएँ कि वे खण्ड दृष्टि के विषयभूत होने वाले पदार्थों की अपेक्षा असंख्यात भाग हों और सूक्ष्म पनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यात गुणे अधिक हों। उन खण्डों में से सौ-सौ वर्ष के पश्चात् एक-एक खण्ड को अपहृत करने-निकालने पर जितने समय में वह पल्य बालाग्र-खण्डों से विहीन, नीरज, संश्लेषरहित और संपूर्ण रूप से निष्ठित-खाली हो जाए, उतने काल को सूक्ष्म अद्धापल्योपम कहते हैं। सूत्र-२८७ इस अद्धापल्योपम को दस कोटाकोटि से गुणा करने से अर्थात् दस कोटाकोटि सूक्ष्म अद्धापल्योपमों का एक सूक्ष्म अद्धासागरोपम होता है। सूत्र - २८८ सूक्ष्म अद्धापल्योपम और सूक्ष्म अद्धासागरोपम से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? इस से नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के आयुष्य का प्रमाण जाना जाता है। सूत्र - २८९ नैरयिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गोतम ! सामान्य रूप में जघन्य १०००० वर्ष की और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की है । रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम की होती है । रत्नप्रभा पृथ्वी के अपर्याप्तक नारकों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहुर्त की होती है । रत्नप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक नारकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त न्यून १०००० वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून एक सागरोपम की होती है । शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकों की स्थिति जघन्य एक सागरोपम और उत्कृष्ट तीन सागरोपम हैं । बालुकाप्रभा के नैरयिकों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की और उत्कृष्ट सात सागरोपम, पंकप्रभा के नारकों की जघन्य सात सागरोपम और उत्कृष्ट दस सागरोपम, धूमप्रभा के नारकों की जघन्य दस सागरोपम और उत्कृष्ट सत्रह सागरोपम, तमःप्रभा के नारकों की जघन्य सत्रह सागरोपम और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम और तमस्तमःप्रभा के नैरयिकों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागरोपम हैं। असुरकुमार देवों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य १०००० वर्ष और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम प्रमाण है । असुरकुमार देवियों की स्थिति जघन्य १०००० वर्ष और उत्कृष्ट साढ़े चार पल्योपम की है । नागकुमार देवों की स्थिति जघन्य १०००० वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम है । नागकुमारदेवियों की स्थिति जघन्य १०००० वर्ष और उत्कृष्ट देशोन एक पल्योपम की है एवं जितनी नागकुमार देव, देवियों की स्थिति है, उतनी ही शेष देवों और देवियों की स्थिति जानना ।। पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट २२००० वर्ष है । सामान्य सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की तथा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त और पर्याप्तों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट २२००० वर्ष अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त की होती है तथा पर्याप्त बादर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' पृथ्वीकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की होती है तथा पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून २२००० वर्ष है । अप्कायिक जीवों की औधिक जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट ७००० वर्ष की है। सामान्य रूप में सूक्ष्म अप्कायिक तथा अपर्याप्त और पर्याप्त अप्कायिक जीवों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण है । बादर अप्कायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति सामान्य अप्कायिक जीवों के तुल्य अपर्याप्त बादर अप्कायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त है । पर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून ७००० वर्ष की है । तेजस्कायिक जीवों की कितनी स्थिति है ? जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन रात-दिन है । औघिक सूक्ष्म तेजस्कायिक और पर्याप्त, अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक की जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त्त की है । बादर तेजस्कायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन रात्रि-दिन की होती है । अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त है । पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून तीन रात्रि-दिन है । वायुकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट ३००० वर्ष की है । किन्तु सामान्य रूप में सूक्ष्म वायुकायिक जीवों की तथा उसके अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण होती है । बादर वायुकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट ३००० वर्ष है । अपर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त्त है । और पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून ३००० वर्ष है । वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट १०००० वर्ष की है । सामान्य सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा उनके अपर्याप्तक और पर्याप्तक भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है । बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट १०००० वर्ष है यावत् गौतम ! अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की होती है । किन्तु पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त न्यून १०००० वर्ष की जानना । द्वन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की है ? जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की है । अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण है । पर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त न्यून बारह वर्ष की है । त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट ४९ दिन-रात्रि की है । अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त्त की है । पर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून ४९ दिन - रात्रि है । चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट छह मास की है। अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की होती है । पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून छह मास है । भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है । जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है तथा संमूर्च्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष है । अपर्याप्तक संमूर्च्छिमजलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण जानना । सामान्य से गर्भव्युत्क्रान्तिक- जलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष है। अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त्त की है । पर्याप्तक दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद* Page 46 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्त्त कम पूर्वकोटिवर्ष की है । चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? सामान्य रूप में जघन्य स्थिति अन्त-र्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम हैं । संमूर्च्छिमचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट स्थिति ८४००० वर्ष की है । अपर्याप्तक संमूर्च्छिम चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण जानना | पर्याप्तक संमूर्च्छिमचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त हीन ८४००० वर्ष जानना । गर्भव्युत्क्रान्तिक-चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रि यतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की होती है । पर्याप्तक गर्भजचतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच-योनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट हीन तीन पल्योपम की जानना । उरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है । संमूर्च्छिमउरपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट स्थिति ५३००० वर्ष है । अपर्याप्तक संमूर्च्छिमउरपरिसर्प-स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है। पर्याप्तक संमूर्च्छिमउरपरिसर्पस्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून ५३००० वर्ष है । तथा गर्भज-उरपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट कोटि पूर्व वर्ष की है । अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिकउरपरिसर्पस्थलचर० की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है । पर्याप्तक गर्भजउरपरिसर्प स्थलचर० की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून पूर्वकोटि वर्ष की है । भुजपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है । संमूर्च्छिम भुजपरिसर्पस्थलचर० की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट ४२००० वर्ष है । अपर्याप्तक संमूर्च्छिमभुज परिसर्पस्थलचर० की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त्त की जानना | पर्याप्त संमूर्च्छिमभुजपरिसर्प स्थलचर० की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून ४२००० वर्ष की है । गर्भव्युत्क्रान्तिकभुजपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की औधिक जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है । अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिकभूजपरिसर्पस्थलचर० की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है । पर्याप्तक गर्भजभुजपरिसर्पस्थलचर० की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त न्यून करोड़ पूर्व वर्ष प्रमाण है । खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! सामान्य से खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । संमूर्च्छिम खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक की औधिक स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट ७२००० वर्ष की है । अपर्याप्तक संमूर्च्छिम खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त्त है । पर्याप्तक संमूर्च्छिम खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त न्यून ७२००० वर्ष की जानना । सामान्य रूप में गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अपर्याप्तक गर्भज खेचर० जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त्त की है । पर्याप्तक गर्भजखेचर० जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त न्यून पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। पूर्वोक्त कथन की संग्रहणी गाथायें इस प्रकार हैं दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र-२९०-२९१ संमूर्छिम तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों में अनुक्रम से जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष, स्थलचरचतुष्पद संमूर्छिमों की ८४००० वर्ष, उरपरिसॉं की ५३००० वर्ष, भुजपरिसॉं की ४२००० वर्ष और पक्षी की ७२००० वर्ष की है । गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंचों में अनुक्रम से जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष, स्थलचरों की तीन पल्योपम, उरपरिसॉं और भुज-परिसॉं की पूर्वकोटि वर्ष और खेचरों की पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है। सूत्र - २९२ मनुष्यों की स्थिति कितने काल की है ? जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। संमूर्छिम मनुष्यों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है । गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है । अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहुर्त ही जानना । पर्याप्तक गर्भव्यु-त्क्रान्तिक मनुष्यों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त्त न्यून तीन पल्योपम प्रमाण है। वाणव्यंतर देवों की स्थिति कितने काल की है ? जघन्य स्थिति १०००० वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम है । वाणव्यंतरों की देवियों की स्थिति जघन्य १०००० वर्ष की और उत्कृष्ट अर्धपल्योपम है। ज्योतिष्क देवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य कुछ अधिक पल्योपम के आठवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम है । ज्योतिष्क देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का आठवाँ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट ५०००० वर्ष अधिक अर्धपल्योपम की होती है। चंद्रविमानों के देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम है । चंद्रविमानों की देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट ५०००० वर्ष अधिक अर्धपल्योपम है । सूर्यविमानों के देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थांश और उत्कृष्ट स्थिति १००० वर्ष अधिक एक पल्योपम है । सूर्यविमानों की देवियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट पाँचसौ वर्ष अधिक अर्धपल्योपम है। ग्रहविमानों के देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है । ग्रहविमानों की देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट अर्धपल्योपम है । नक्षत्रविमानों के देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट अर्धपल्योपम है । नक्षत्रविमानों की देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट साधिक पल्योपम का चतुर्थ भाग है । ताराविमानों के देवों की स्थिति कुछ अधिक पल्योपम का अष्टमांश भाग जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम का चतुर्थ भाग है । ताराविमानों की देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट साधिक पल्योपम का आठवाँ भाग है। वैमानिक देवों की स्थिति कितने काल की कही है ? गोतम ! वैमानिक देवों की स्थिति जघन्य एक पल्य की और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की है । वैमानिक देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्य की और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम है। सौधर्मकल्प के देवों की स्थिति जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट दो सागरोपम है । सौधर्मकल्प में (परिगृहीता) देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की है। अपरिगृहीता देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम की और उत्कृष्ट पचास पल्योपम की है। ईशानकल्प के देवों की जघन्य स्थिति साधिक पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति साधिक दो सागरोपम की है । ईशानकल्प की (परिगृहीता) देवियों की स्थिति जघन्य साधिक पल्योपम और उत्कृष्ट नौ पल्योपम है । अपरिगृहीता देवियों की स्थिति ? जघन्य कुछ अधिक पल्योपम और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम है। सनत्कुमारकल्प के देवों की स्थिति कितनी होती है ? गौतम ! जघन्य दो सागरोपम की और उत्कृष्टतः सात सागरोपम की है । माहेन्द्रकल्प में देवों की स्थिति जघन्य साधिक दो सागरोपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक सात मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 48 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सागरोपम है । ब्रह्मलोक-कल्प के देवों की स्थिति जघन्य सात सागरोपम और उत्कृष्ट दस सागरोपम है । लांतककल्प में देवों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम, उत्कृष्ट चौदह सागरोपम की है। महाशुक्रकल्प के देवों की जघन्य स्थिति चौदह और उत्कृष्ट सत्रह सागरोपम, सहस्रारकल्प के देवों की जघन्य स्थिति सत्रह और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम, आनतकल्प में जघन्य स्थिति अठारह और उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम, प्राणतकल्प में जघन्य स्थिति उन्नीस और उत्कृष्ट बीस सागरोपम, आरणकल्प के देवों की जघन्य स्थिति बीस और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम की तथा अच्युतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम की और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की है। अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक विमान में देवों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेईस सागरोपम की है । अधस्तन मध्यम ग्रैवेयक विमान के देवों की स्थिति जघन्य तेईस और उत्कृष्ट चौबीस सागरोपम अधस्तन-उपरिम ग्रैवेयक के देवों की जघन्य स्थिति चौबीस की और उत्कृष्ट पच्चीस सागरोपम, मध्यम-अधस्तन ग्रैवेयक के देवों की जघन्य स्थिति पच्चीस की और उत्कृष्ट छब्बीस सागरोपम की, मध्यम-मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस की, उत्कृष्ट सत्ताईस सागरोपम की, मध्यम-उपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस की और उत्कृष्ट अट्ठाईस सागरोपम की, उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक विमानों के देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस की और उत्कृष्ट उनतीस सागरोपम, उपरिम-मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस की और उत्कृष्ट तीस सागरोपम तथा उपरिम-उपरिम ग्रैवेयक विमानों के देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति इकतीस सागरोपम की है। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों के देवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य इकतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम है । सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देवों की स्थिति अजघन्यअनुत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम है। सूत्र - २९३ भगवन् ! क्षेत्रपल्योपम क्या है ? गौतम ! दो प्रकार-सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम । उनमें से सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम स्थापनीय है । व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार-जैसे कोई एक योजन आयाम-विष्कम्भ और एक योजन ऊंचा तथा कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला धान्य मापने के पल्य के समान पल्य हो । उस पल्य को दो, तीन यावत् सात दिन के उगे बालानों को कोटियों से इस प्रकार से भरा जाए कि उन बालागों को अग्नि जला न सके, वायु उड़ा न सके आदि यावत् उनमें दुर्गन्ध भी पैदा न हो । तत्पश्चात् उस पल्य के जो आकाशप्रदेश बालागों से व्याप्त हैं, उन प्रदेशों में से समय-समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए-तो जितने काल में वह पल्य खाली यावत् विशुद्ध हो जाए, वह एक व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम है। सूत्र- २९४ इस (व्यावहारिक क्षेत्र-) पल्योपम की दस गुणित कोटाकोटि का एक व्यावहारिक क्षेत्रसागरोपम का परिमाण होता है । अर्थात् दस कोटाकोटि व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपमों का एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है सूत्र-२९५ भगवन् ! इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? गौतम ! इन से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । मात्र इनके स्वरूप की प्ररूपणा ही की गई है। भगवन् ! सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम क्या है ? वह इस प्रकार जानना-जैसे धान्य के पल्य के समान एक पल्य हो जो एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला हो । फिर उस पल्य को एक दिन, तीन दिन यावत् सात दिन के उगे हुए बालानों से भरा जाए और उन बालाग्रों के असंख्यात-असंख्यात ऐसे खण्ड किये जाएँ, जो दृष्टि के विषयभूत पदार्थ की अपेक्षा असंख्यात भाग-प्रमाण हों एवं सूक्ष्मपनक जीव की मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 49 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' शरीरावगाहना से असंख्यात गुणे हों । उन बालाग्रखण्डों को न तो अग्नि जला सके और न वायु उड़ा सके, वे न तो सड़-गल सके और न जल से भीग सके, उनमें दुर्गन्ध भी उत्पन्न न हो सके । उस पल्य के बालागों से जो आकाशप्रदेश स्पृष्ट हुए हों और स्पृष्ट न हुए हों उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज, निर्लेप एवं सर्वात्मना विशुद्ध हो जाए, उसे सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम हैं। भगवन् ! क्या उस पल्य के ऐसे भी आकाशप्रदेश हैं जो उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट हों ? आयुष्मन् ! हाँ, हैं । इस विषय में कोई दृष्टांत है ? हाँ है । जैसे कोई एक कोष्ठ कूष्मांड के फलों से भरा हुआ हो और उसमें बिजौराफल डाले गए तो वे भी उसमें समा गए । फिर उसमें बिल्वफल डाले तो वे भी समा जाते हैं । इसी प्रकार उसमें आँवला डालें जाएँ तो वे भी समा जाते हैं । फिर वहाँ बेर डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं । फिर चने डालें तो वे भी उसमें समा जाते हैं । फिर मूंग के दाने डाले जाएँ तो वे भी उसमें समा जाते हैं । फिर सरसों डाले जाएँ तो वे भी समा जाते हैं । इसके बाद गंगा महानदी की बालू डाली जाए तो वह भी उसमें समा जाती है । इस दृष्टान्त से उस पल्य के ऐसे भी आकाशप्रदेश होते हैं जो उन बालाग्रखण्डों से अस्पृष्ट रह जाते हैं। सूत्र-२९६ इन पल्यों को दस कोटाकोटि से गुणा करने पर एक सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम का परिमाण होता है। सूत्र - २९७ इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? इनसे दृष्टिवाद में वर्णित द्रव्यों का मान किया जाता है। सूत्र-२९८ द्रव्य कितने प्रकार के हैं ? दो प्रकार के-जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य । अजीवद्रव्य दो प्रकार के हैं-अरूपी अजीवद्रव्य और रूपी अजीवद्रव्य । अरूपी अजीवद्रव्य दस प्रकार के हैं-धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय के देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायदेश, अधर्मास्तिकायप्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्ति-कायदेश, आकाशास्तिकायप्रदेश और अद्धासमय । भगवन् ! रूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के, स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु। भगवन् ! ये स्कन्ध आदि संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? गौतम ! ये स्कन्ध आदि अनन्त ही हैं । क्योंकि गौतम ! परमाणु पुद्गल अनन्त हैं, द्विप्रदेशिकस्कन्ध अनन्त हैं यावत् अनन्तप्रदेशिकस्कन्ध अनन्त हैं। भगवन् ! क्या जीवद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? गौतम ! जीवद्रव्य अनन्त ही हैं। क्योंकि-असंख्यात नारक हैं, असंख्यात असुरकुमार यावत् असंख्यात स्तनितकुमार देव हैं, असंख्यात पृथ्वीकायिक यावत् असंख्यात वायुकायिक जीव हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक जीव हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय यावत् असंख्यात चतुरिन्द्रिय, असंख्यात पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यंतर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं और अनन्त सिद्ध जीव हैं। सूत्र - २९९ भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार -औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण । नैरयिकों के तीन शरीर हैं। -वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर । असुरकुमारों के तीन शरीर हैं । वैक्रिय, तैजस और कार्मण । इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना । पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन, -औदारिक, तैजस और कार्मण । इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों को भी जानना । वायुकायिक जीवों के चार शरीर हैंऔदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर । पृथ्वीकायिक जीवों के समान द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी जानना। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? गौतम ! वायुकायिक के समान जानना । गौतम ! मनुष्यों के पाँच शरीर हैं । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर । वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के नारकों के समान वैक्रिय, तेजस और कार्मण ये तीन-तीन शरीर हैं। I औदारिकशरीर कितने प्रकार के हैं ? दो प्रकार के, बद्ध औदारिकशरीर, मुक्त औदारिकशरीर जो बद्ध I । औदारिक शरीर हैं वे असंख्यात हैं। वे कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः असंख्यात लोकप्रमाण हैं । जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं । कालतः वे अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण हैं। द्रव्यतः वे मुक्त औदारिकशरीर अभवसिद्धिक जीवों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण हैं। वैक्रिय शरीर दो प्रकार के हैं । -बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं और कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणीप्रमाण हैं तथा वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातवें भाग हैं तथा मुक्त वैक्रियशरीर अनन्त हैं । कालतः वे अनन्त उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं। शेष कथन मुक्त औदारिकशरीरों के समान जानना । आहारकशरीर कितने हैं ? दो प्रकार के हैं। -बद्ध और मुक्त | बद्ध कदाचित् होते हैं कदाचित् नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं। मुक्त अनन्त हैं, जिनकी प्ररूपणा औदारिकशरीर के समान जानना । तैजसशरीर दो प्रकार के हैं- बद्ध और मुक्त | उनमें से बद्ध अनन्त हैं, जो कालतः अनन्त उत्सर्पिणियोंअवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः वे अनन्त लोकप्रमाण हैं । द्रव्यतः सिद्धों से अनन्तगुणे और सर्व जीवों से अनन्तभाग न्यून हैं। मुक्त तैजसशरीर अनन्त हैं, जो कालतः अनन्त उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों में अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण हैं, द्रव्यतः समस्त जीवों से अनन्तगुणे तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं । कार्मणशरीर दो प्रकार के हैं, -बद्ध और मुक्त । तैजसशरीर के समान कार्मणशरीर में भी कहना । नैरयिक जीवों के कितने औदारिकशरीर हैं ? गौतम दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त बद्ध औदारिकशरीर उनके नहीं होते हैं और मुक्त औदारिकशरीर पूर्वोक्त सामान्यतः मुक्त औदारिकशरीर के बराबर जानना । नारक जीवों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं- बद्ध और मुक्त बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं जो कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समय-प्रमाण हैं । क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणीप्रमाण हैं । वे श्रेणियाँ प्रतर का असंख्यात भाग हैं । उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणित करने पर निष्पन्न राशि जितनी होती है। अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियों जितनी है। मुक्त वैक्रियशरीर सामान्य से मुक्त औदारिकशरीरों के बराबर जानना। नारक जीवों के आहारक- शरीर दो प्रकार के हैं- बद्ध और मुक्त बद्ध आहारकशरीर तो उनके नहीं होते हैं तथा मुक्त जितने सामान्य औदारिकशरीर समान जानना । तैजस और कार्मण शरीरों के लिए वैक्रियशरीरों के समान समझना । असुरकुमारों के कितने औदारिकशरीर हैं ? गौतम ! नारकों औदारिकशरीरों के समान जानना । असुरकुमारों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं- बद्ध और मुक्त बद्ध असंख्यात हैं जो कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों में अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा वे असंख्यात श्रेणियों जितने हैं और वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा मुक्त वैक्रियशरीरों के लिए सामान्य से मुक्त औदारिकशरीरों के समान कहना । असुरकुमारों के आहारकशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । ये दोनों प्रकार के आहारक-शरीर इन असुरकुमार देवों में औदारिकशरीर के जैसे जानना तथा तैजस और कार्मण शरीर जैसे इनके वैक्रियशरीर के समान जानना । असुरकुमारों में शरीरों के समान स्तनितकुमार पर्यन्त देवों में जानना । पृथ्वीकायिकों के कितने औदारिकशरीर हैं ? दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त इनके दोनों शरीरों की मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' संख्या सामान्य बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों जितनी जानना । पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैंबद्ध और मुक्त । इनमें से बद्ध तो इनके नहीं होते हैं और मुक्त के लिए औदारिकशरीरों के समान जानना । आहारकशरीरों को भी इस प्रकार जानना । इनके तैजसकार्मण शरीरों की प्ररूपणा औदारिकशरीरों के समान समझना । पृथ्वीकायिकों के शरीरों के समान अप्कायिक और तेजस् कायिक जीवों के शरीरों को जानना । वायुकायिक जीवों के औदारिकशरीर कितने हैं ? गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के समान जानना । वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । उनमें से बद्ध असंख्यात है । यदि समय-समय में एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो (क्षेत्र) पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश हैं, उतने काल में पूर्णतः अपहृत हों । किन्तु उनका किसी ने कभी अपहरण किया नहीं है और मुक्त औघित औदारिक के बराबर हैं और आहारकशरीर पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर के समान कहना । तैजस, कार्मण, शरीरों की प्ररूपणा पृथ्वीकायिक जीवों के तैजस और कार्मण शरीरों जैसे समझना । वनस्पतिकायिक जीवों के औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों को पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिकादि शरीरो समान समझना । वनस्पतिकायिक जीवों के तैजस-कार्मण शरीर औधिक तैजस-कार्मण शरीरों के समान है द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर कितने ? गौतम ! वे दो प्रकार के हैं । बद्ध और मुक्त । बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं । कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों के समय जितने हैं । क्षेत्रतः प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशिप्रमाण हैं । उन श्रेणियों की विष्कम्भभसूचि असंख्यात कोटाकोटि योजनप्रमाण है । इतने प्रमाणवाली विष्कम्भसूचि असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप है । द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिकशरीरों द्वारा प्रतर अपहृत किया जाए तो काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणि-अवसर्पिणि कालों में अपहृत होता है तथा क्षेत्रतः अंगुल मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रतिभाग (प्रमाणांश) से अपहृत होता है। औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान मुक्त औदारिकशरीरों को भी जानना । द्वीन्द्रियों के बद्धवैक्रिय-आहारकशरीर नहीं होते हैं और मुक्त के विषय में औधिक के समान जानना । द्वीन्द्रियों के शरीरों के समान त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में भी कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के भी औदारिकशरीर इसी प्रकार जानना। पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के वैक्रियशरीर कितने हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं जिनका कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों से अपहरण होता है और क्षेत्रतः यावत् विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में वर्तमान श्रेणियों जितनी है । मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य औदारिकशरीरों के प्रमाण तथा इनके आहारकशरीरों का प्रमाण द्वीन्द्रियों के आहारकशरीरों के बराबर है । तैजस-कार्मण शरीरों का परिमाण औदारिकशरीरों के प्रमाणवत् है। भदन्त ! मनुष्यों के औदारिकशरीर कितने हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । बद्ध तो स्यात् असंख्यात और स्यात् संख्यात और स्यात् असंख्यात होत हैं । जघन्य पद में संख्यात कोटाकोटि होते हैं अर्थात् उनतीस अंकप्रमाण होते हैं । ये उनतीस अंक यमल पद के ऊपर तथा चार यमल पद से नीचे हैं, अथवा पंचमवर्ग से गुणित छठे वर्गप्रमाण होते हैं, अथवा छियानवे छेदनकदायी राशि जितनी संख्या प्रमाण हैं । उत्कृष्ट पद में वे शरीर असंख्यात हैं । जो कालतः असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों द्वारा अपहृत होते हैं और क्षेत्र की अपेक्षा एक रूप प्रक्षिप्त किये जाने पर मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है । कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों से अपहार होता है और क्षेत्रतः तीसरे मूलवर्ग से गुणित अंगुल के प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं । उनके मुक्तऔदारिकशरीर औधिक मुक्तऔदारिकशरीरों के समान जानना । मनुष्यों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । बद्ध संख्यात हैं जो समय-समय में अपहृत किये जाने पर संख्यात काल में अपहृत होते हैं किन्तु अपहृत नहीं किये गये हैं । मुक्तवैक्रियशरीर मुक्त औधिक मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' औदारिकशरीरों के बराबर जानना । मनुष्यों के आहारकशरीर दो प्रकार के हैं, यथा-बद्ध और मुक्त । बद्ध तो कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । जब होते हैं तब जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं । मुक्तआहारकशरीर औधिक मुक्तऔदारिकशरीरों के बराबर जानना । मनुष्यों के तेजसकार्मण शरीर का प्रमाण इन्हीं के औदारिक शरीरों के समान जानना । वाणव्यंतर देवों के औदारिकशरीरों का प्रमाण नारकों के औदारिकशरीरों जैसा जानना । वाणव्यंतर देवों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त से बद्धवैक्रिय शरीर सामान्य रूप से असंख्यात हैं जो काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों जितने हैं । उन श्रेणियों की विष्कंभसूची प्रतर के संख्येययोजनशतवर्ग प्रतिभाग रूप हैं । मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण औधिक औदारिकशरीरों की तरह जानना । आहारकशरीरों का परिमाण असुरकुमारों के आहारकशरीरों के प्रमाण जितना जानना । वाणव्यंतरों के तैजस-कार्मण शरीर इनके वैक्रियशरीर समान जानना ज्योतिष्क देवों के कितने औदारिकशरीर हैं ? नारकों के औदारिकशरीरों के समान जानना । ज्योतिष्क देवों के वैक्रिय शरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं यावत् उनकी श्रेणी की विष्कंभसूची दो सौ छप्पन प्रतरांगुल के वर्गमूल रूप अंश प्रमाण समझना चाहिए । मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्तऔदारिकशरीरों जिनता जानना । ज्योतिष्क देवों के आहारकशरीरों का प्रमाण नारकों के आहारकशरीरों के बराबर है । ज्योतिष्क देवों के तैजस और कार्मण शरीरों का प्रमाण इनके वैक्रियशरीरों के बराबर है। भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने औदारिकशरीर हैं ? नैरयिकों के औदारिकशरीरों के समान जानना । वैमानिक देवों के वैक्रिय शरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात है। उनका काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहरण होता है और क्षेत्रतः प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों जितने हैं। उन श्रेणियों की विष्कंभसूची अंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियाँ हैं । मुक्तवैक्रियशरीर औधिक औदारिकशरीर के तुल्य जानना । वैमानिक देवों के आहारकशरीरों का प्रमाण नारकों के आहारकशरीरों के बराबर जानना । इनके तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण इन्हीं के वैक्रियशरीरों जितना जानना । सूत्र- ३०० भावप्रमाण क्या है ? तीन प्रकार का है । गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण । सूत्र-३०१ गुणप्रमाण क्या है ? दो प्रकार का है-जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण । अजीवगुणप्रमाण पाँच प्रकार का है-वर्ग-गुणप्रमाण, गंधगुणप्रमाण, रसगुणप्रमाण, स्पर्शगुणप्रमाण और संस्थानगुणप्रमाण । भगवन् ! वर्णगुणप्रमाण क्या है ? पाँच प्रकार का है । कृष्णवर्णगुणप्रमाण यावत् शुक्लवर्णगुणप्रमाण । गंधगुणप्रमाण दो प्रकार का है । सुरभिगंधगुणप्रमाण, दुरभिगंधगुणप्रमाण । रसगुणप्रमाण पाँच प्रकार का है । यथा-तिक्तरसगुणप्रमाण यावत् मधुर-रसगुणप्रमाण । स्पर्शगुणप्रमाण आठ प्रकार का हे । कर्कशस्पर्शगुणप्रमाण यावत् रूक्षस्पर्शगुणप्रमाण । संस्थानगुणप्रमाण पाँच प्रकार का है । परिमंडलसंस्थानगुणप्रमाण यावत् आयतसंस्थानगुणप्रमाण। - जीवगुणप्रमाण क्या है ? तीन प्रकार का है । ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण और चारित्रगुणप्रमाण । ज्ञानगुणप्रमाण चार प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं । इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष । इन्द्रियप्रत्यक्ष पाँच प्रकार का है । श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष, जिह्वेन्द्रियप्रत्यक्ष, स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-अवधिज्ञानप्रत्यक्ष, मनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्ष, केवलज्ञानप्रत्यक्ष । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' अनुमान क्या है? तीन प्रकार का है-पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् । पूर्ववत्-अनुमान किसे कहते हैं? पूर्व में देखे गये लक्षण से जो निश्चय किया जाए उसे पूर्ववत् कहते हैं । यथासूत्र-३०२-३०५ माता बाल्यकाल से गुम हुए और युवा होकर वापस आये हुए पुत्र को किसी पूर्वनिश्चित चिह्न से पहचानती है कि यह मेरा ही पुत्र है । जैसे-देह में हुए क्षत, व्रण, लांछन, डाम आदि से बने चिह्नविशेष, मष, तिल आदि से जो अनुमान किया जाता है, वह पूर्ववत्-अनुमान है। शेषवत्-अनुमान किसे कहते हैं ? पाँच प्रकार का है । कार्येण, कारणेन, गुणेण, अवयवेन और आश्रयेण । कार्य से उत्पन्न होनेवाले शेषवत्-अनुमान क्या है ? शंख के शब्द को सुनकर शंख का अनुमान करना, भेरी के शब्द से भेरी का, बैल के रंभाने से बैल का, केकारव सुनकर मोर का, हिनहिनाना सुनकर घोड़े का, गुलगुलाहट सुनकर हाथी का और घनघनाहट सुनकर रथ का अनुमान करना । यह कार्यलिंग से उत्पन्न शेषवत्-अनुमान है । कारणरूप लिंग से उत्पन्न शेषवत्-अनुमान इस प्रकार है-तंतु पट के कारण हैं, किन्तु पट तंतु का कारण नहीं है, वीरणा-तृण कट के कारण हैं, लेकिन कट वीरणा का कारण नहीं है, मिट्टी का पिंड घड़े का कारण है किन्तु घड़ा मिट्टी का कारण नहीं है । निकष-कसौटी से स्वर्ण का, गंध से पुष्प का, रस से नमक का, आस्वाद से मदिरा का, स्पर्श से वस्त्र का अनुमान करना गुणनिष्पन्न शेषवत्-अनुमान है । सींग से महिष का, शिखा से कुक्कुट का, दाँत से हाथी का, दाढ़ से वराह का, पिच्छ से मयूर का, खुर से घोड़े का, नखों से व्याघ्र का, बालों के गुच्छे से चमरी गाय का, द्विपद से मनुष्य का, चतुष्पद से गाय आदि का, बहुपदों से गोमिका आदि का, केसरसटा से सिंह का, ककुद से वृषभ का, चूड़ी सहित बाहु से महिला का अनुमान करना । बद्धपरिकरता से योद्धा का, वेष से महिला का, एक दाने के पकने से द्रोण-पाक का और एक गाथा से कवि का ज्ञान होना । यह अवयवलिंगजन्य शेषवत्अनुमान है । धूम से अग्नि का, बकपंक्ति से पानी का, अभ्रविकार से वृष्टि का और शील सदाचार से कुलपुत्र का तथा-शरीर की चेष्टाओं से, भाषण करने से और नेत्र तथा मुख के विकार से अन्तर्गत मन का ज्ञान होना । यह आश्रयजन्य शेषवत्-अनुमान है। दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान क्या है ? दो प्रकार का है । सामान्यदृष्ट, विशेषदृष्ट । सामान्यदृष्ट अनुमान का स्वरूप इस प्रकार जानना-जैसा एक पुरुष होता है, वैसे ही अनेक पुरुष होते हैं । जैसे अनेक पुरुष होते हैं, वैसा ही एक पुरुष होता है । जैसा एक कार्षापण होता है वैसे ही अनेक कार्षापण होते हैं, जैसे अनेक कार्षापण होते हैं, वैसा ही एक कार्षापण होता है । विशेषदृष्ट अनुमान का स्वरूप यह है-जैसे कोई एक पुरुष अनेक पुरुषों के बीच में किसी पूर्वदृष्ट पुरुष को पहचान लेता है कि यह वह पुरुष है । इसी प्रकार अनेक कार्षापणों के बीचमें से पूर्व में देखे हुए कार्षापण को पहिचान लेता है कि यह वही कार्षापण है। उसका विषय संक्षेप से तीन प्रकार का है। अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत कालग्रहण । अतीतकालग्रहण अनुमान क्या है ? वनों में ऊगी हुई घास, धान्यों से परिपूर्ण पृथ्वी, कुंड, सरोवर, नदी और बड़े-बड़े तालाबों को जल से संपूरित देखकर यह अनुमान करना कि यहाँ अच्छी वृष्टि हुई है । यह अतीतकालग्रहणसाधर्म्यवत्-अनुमान है । गोचरी गये हुए साधु को गृहस्थों से विशेष प्रचुर आहार-पानी प्राप्त करते हुए देखकर अनुमान किया जाता है कि यहाँ सुभिक्ष हैं । यह प्रत्युत्पन्नकालग्रहण अनुमान है। अनागतकालग्रहण का क्या स्वरूप है ? सूत्र - ३०६ आकाश की निर्मलता, पर्वतों का काला दिखाई देना, बिजली सहित मेघों की गर्जना, अनुकूल पवन और संध्या की गाढ़ लालिमा । तथासूत्र - ३०७ वारुण, महेन्द्र अथवा किसी अन्य प्रशस्त उत्पात को देखकर अनुमान करना कि अच्छी वृष्टि होगी । इसे मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 54 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' अनागत-कालग्रहणविशेषदृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान कहते हैं। . इनकी विपरीतता में भी तीन प्रकार से ग्रहण होता है अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागतकालग्रहण तृणरहित वन, अनिष्पन्न धान्ययुक्त भूमि और सूखे कुंड, सरोवर, नदी, द्रह और तालाबों को देखकर अनुमान किया जाता है कि यहाँ कुवृष्टि हुई है - यह अतीतकालग्रहण है । गोचरी गये हुए साधु को भिक्षा नहीं मिलते देखकर अनुमान किया जाना कि यहाँ दुर्भिक्ष है। यह प्रत्युत्पन्नकालग्रहण अनुमान है। अनागतकालग्रहण का क्या स्वरूप है ? सूत्र - ३०८ सभी दिशाओं में धुंआ हो रहा है, आकाश में भी अशुभ उत्पात हो रहे हैं, इत्यादि से यह अनुमान कर लिया जाता है कि यहाँ कुवृष्टि होगी, क्योंकि वृष्टि के अभाव के सूचक चिह्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं । सूत्र - ३०९ आग्नेय मंडल के नक्षत्र, वायव्य मंडल के नक्षत्र या अन्य कोई उत्पात देखकर अनुमान किया जाना कि कुदृष्टि होगी, ठीक वर्षा नहीं होगी। यह अनागतकालग्रहण अनुमान है। उपमान प्रमाण क्या है ? दो प्रकार का है, जैसे- साधर्म्यापनीत और वैधर्म्यापनीत । जिन पदार्थों की सदृशत उपमा द्वारा सिद्ध की जाए उसे साधर्म्यापनीत कहते हैं उसके तीन प्रकार हैं- किंचित् साधर्म्यापनीत, प्रायः साधर्म्यापनीत और सर्व-साधर्म्यापनीत । जैसा मंदर पर्वत है वैसा ही सर्षप है और जैसा सर्षप है वैसा ही मन्दर है। जैसा समुद्र है, उसी प्रकार गोष्पद है और जैसा गोष्पद है, वैसा ही समुद्र है तथा जैसा आदित्य है, वैसा खद्योत है । जैसा खद्योत है, वैसा आदित्य है । जैसा चन्द्रमा है, वैसा कुंद पुष्प है, और जैसा कुंद है, वैसा चन्द्रमा है । यह किंचित् साधर्म्यापनीत है । जैसी गाय है वैसा गवय होता है और जैसा गवय है, वैसी गाय है । यह प्रायः साधर्म्यापनीत है । सर्वसाधर्म्य में उपमा नहीं होती, तथापि उसी से उसको उपमित किया जाता है । वह इस प्रकार-अरिहंत ने अरिहंत के सदृश, चक्रवर्ती ने चक्रवर्ती के जैसा, बलदेव ने बलदेव के सदृश, वासुदेव ने वासुदेव के समान, साधु ने साधु सदृश किया । यही सर्वसाधर्म्यापनीत है । I I वैधर्म्यापनीत का तात्पर्य क्या है ? वैधयोंपनीत के तीन प्रकार हैं, यथा- किंचित् वैधम्योंपनीत, प्रायः वैधयोंपनीत और सर्वधर्म्यापनीत किसी धर्मविशेष की विलक्षणता प्रकट करने को किंचित् वैधर्म्यापनीत कहते हैं। जैसा शबला गाय का बछड़ा होता है वैसा बहुला गाय का बछड़ा नहीं ओर जैसा बहुला गाय का बछड़ा वैसा शबला गाय का नहीं होता है । यह किंचित् वैधर्म्यापनीत का स्वरूप जानना । अधिकांश रूप में अनेक अवयवगत विसदृशता प्रकट करना । प्रायः वैधम्योंपनीत हैं। यथा- जैसा वायस है वैया पायस नहीं होता और जैसा पायस होता है वैसा वायस नहीं । यही प्रायः वैधर्म्यापनीत है । जिसमें किसी भी प्रकार की सजातीयता न हो उसे सर्ववैधर्म्यापनीत कहते हैं । यद्यपि सर्ववैधर्म्य में उपमा नहीं होती है, तथापि उसीकी उपमा उसीको दी जाती है, जैसे-नीच ने नीच के समान, दास ने दास के सदृश, कौए ने कौए जैसा, श्वान ने श्वान जैसा और चांडाल ने चांडाल के सदृश किया। यही सर्ववैधयोंपनीत है। I आगमप्रमाण क्या है ? दो प्रकार का है यथा-लौकिक, लोकोत्तर जिसे अज्ञानी मिध्यादृष्टिजनों ने अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचा हो, उसे लौकिक आगम कहते हैं। यथा महाभारत, रामायण यावत् सांगोपांग चार वेद । उत्पन्नज्ञान - दर्शन के धारक, अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत के ज्ञाता त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा सहर्ष वंदित, पूजित सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहंत भगवंतों द्वारा प्रणीत आचारांग यावत् दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग रूप गणिपिटक लोकोत्तरिक आगम हैं । अथवा तीन प्रकार का है। जैसे- सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम । अथवा (लोकोत्तरिक) आगम तीन प्रकार का है। आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । अर्थागम तीर्थंकरो के लिए आत्मागम है । सूत्र का ज्ञान गणधरों के लिए आत्मागम और अर्थ का ज्ञान अनन्तरागम रूप है । गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रज्ञान I दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' अनन्तरागम और अर्थ का ज्ञान परम्परागम है । तत्पश्चात् सूत्र और अर्थ रूप आगम आत्मागम भी नहीं है, अनन्तरागम भी नहीं है, किन्तु परम्परागम है । इस प्रकार से लोकोत्तर आगम का स्वरूप जानना । दर्शनप्रमाणगुण क्या है ? चार प्रकार का है । चक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अवधिदर्शनगुणप्रमाण और केवलदर्शनगुणप्रमाण । चक्षुदर्शनी का चक्षुदर्शन घट, पट, कट, रथ आदि द्रव्यों में होता है । अचक्षुदर्शनी का अचक्षुदर्शन आत्मभाव में होता है । अवधिदर्शनी का अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों में होता है, किन्तु सभी पर्यायों में नहीं होता है । केवल-दर्शनी का केवलदर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों में होता है । भगवन् ! चारित्रगुणप्रमाण किसे कहते हैं ? पाँच भेद हैं । सामायिकचारित्रगुणप्रमाण, छेदोपस्थापनीय चारित्रगुणप्रमाण, परिहारविशुद्धिचारित्रगुणप्रमाण, सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण, यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण इनमें से-सामायिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है-इत्वरिक और यावत्कथिक । छेदोपस्थापनीयचारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं, सातिचार और निरतिचार। परिहारविशुद्धिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का है - निर्विश्यमानक, निर्विष्टकायिक । सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का हैसंक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक । यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं। प्रतिपाती और अप्रतिपाती । अथवा छाद्मस्थिक और कैवलिक । सूत्र - ३१० प्रमाण क्या है ? वह तीन दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे कि प्रस्थक के, वसति के और प्रदेश के दृष्टान्त द्वारा । भगवन् ! प्रस्थक का दृष्टान्त क्या है ? जैसे कोई पुरुष परशु लेकर वन की ओर जाता है । उसे देखकर किसीने पूछा- आप कहाँ जा रहे हैं ? तब अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उसने कहा- प्रस्थक लेने के लिए जा रहा हूँ । फिर उसे वृक्ष को छेदन करते देखकर कोई कहे - आप क्या काट रहे हैं ? तब उसने विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया-मैं प्रस्थक काट रहा हूँ। कोई उस लकड़ी को छीलते देखकर पूछे- आप यह क्या छील रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की अपेक्षा उसने कहा- प्रस्थक छील रहा हूँ । कोई काष्ठ के मध्यभाग को उत्कीर्ण करते देखकर पूछे- आप यह क्या उत्कीर्ण कर रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार उसने उत्तर दिया- मैं प्रस्थक उत्कीर्ण कर रहा हूँ । उस उत्कीर्ण काष्ठ पर प्रस्थक का आकार लेखन करते देखकर कहे-आप यह क्या लेखन कर रहे हैं ? तो विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया- प्रस्थक अंकित कर रहा हूँ । इसी प्रकार से जब तक संपूर्ण प्रस्थक निष्पन्न न हो जाए, तब तक प्रस्थक संबंधी प्रश्नोत्तर करना चाहिए । इसी प्रकार व्यवहारनय से भी जानना । संग्रहनय के मत से धान्यपरिपूरित प्रस्थक को ही प्रस्थक कहते हैं ऋजुसूत्रनय के मतसे प्रस्थक भी प्रस्थक है और मेय वस्तु भी प्रस्थक है । तीनों शब्द नयों के मतानुसार प्रस्थक के अर्थाधिकार का ज्ञाता अथवा प्रस्थककर्ता का वह उपयोग जिससे प्रस्थक, निष्पन्न होता है उसमें वर्तमान कर्ता प्रस्थक है । वह वसति-दृष्टान्त क्या है ? वसति के दृष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप इस प्रकार जानना जैसे किसी पुरुष किसी अन्य पुरुष से पूछा- आप कहाँ रहते हो ? तब उसने अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया- मैं लोक में रहता । प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा- लोक के तो तीन भेद हैं। तो क्या आप इन सब में रहते हैं ? तब - विशुद्ध नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा- मैं तिर्यग्लोक में रहता हूँ । इस पर पुनः प्रश्न तिर्यग्लोक में जम्बूद्वीप आदि स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप - समुद्र हैं, तो क्या आप उन सभी में रहते हैं ? प्रत्युत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा- मैं जम्बूद्वीप में रहता हूँ । तब प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया - जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं । तो क्या आप इन दसों क्षेत्रों में रहते हैं ? उत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहाभरतक्षेत्र में रहता हूँ । प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा- भरतक्षेत्र के दो विभाग हैं तो क्या आप उन दोनों विभागों में रहते हैं ? विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया- दक्षिणार्धभरत में रहता हूँ । दक्षिणार्धभरत में तो अनेक ग्राम, दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद " Page 56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' नगर, खेड, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आकर, संबाह, सन्निवेश हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? इसका विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया- मैं पाटलिपुत्र में रहता हूँ । पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, तो क्या आप उन सभी में निवास करते हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया- देवदत्त के घर में बसता हूँ । देवदत्त के घर में अनेक प्रकोष्ठ हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? उत्तर में उसने विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार कहा- गर्भगृह मे रहता हूँ । इस प्रकार विशुद्ध नैगमनय के मत से बसते हुए को बसता हुआ माना जाता है । व्यवहारनय का मंतव्य भी इसी प्रकार का है । संग्रहनय के मतानुसार शैया पर आरूढ़ हो तभी वह बसता हुआ कहा जा सकता है। ऋजुसूत्रनय के मत से जिन आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ - अवगाहनयुक्त - विद्यमान हैं, उनमें ही बसता हुआ माना जाता है। तीनों शब्दनयों के अभिप्राय से आत्मभाव में ही निवास होता है । प्रदेशदृष्टान्त द्वारा नयों के स्वरूप का प्रतिपादन किस प्रकार है ? नैगमनय के मत से छह द्रव्यों के प्रदेश होते हैं । धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश, स्कन्ध का प्रदेश और देश का प्रदेश । ऐसा कथन करने वाले नैगमनय से संग्रहनय ने कहा- जो तुम कहते हो कि छहों के प्रदेश हैं, वह उचित नहीं है । क्योंकि जो देश का प्रदेश है, वह उसी द्रव्य का है । इसके लिए कोई दृष्टान्त है? हाँ दृष्टान्त है । जैसे मेरे दास ने गधा खरीदा और दास मेरा है तो गधा भी मेरा है । इसलिए ऐसा मत कहो कि छहों के प्रदेश हैं, यह कहो कि पाँच के प्रदेश हैं । यथा-धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश | इस प्रकार कहनेवाले संग्रहनय से व्यवहारनय ने कहा- तुम कहते हो कि पाँचों के प्रदेश हैं, वह सिद्ध नहीं होता है । क्यों ? प्रत्युत्तर में व्यवहारनयवादी ने कहा- जैसे पाँच गोष्ठिक पुरुषों का कोई द्रव्य सामान्य होता है । यथा-हिरण्य, स्वर्ण आदि तो तुम्हारा कहना युक्त था कि पाँचों के प्रदेश हैं। इसलिए ऐसा मत कहो कि पाँचों के प्रदेश हैं, किन्तु कहो - प्रदेश पाँच प्रकार का है, जैसे- धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश । व्यवहारनय के ऐसा कहने पर ऋजुसूत्रनय ने कहा- तुम भी जो कहते हो कि पाँच प्रकार के प्रदेश हैं, वह नहीं बनता है । क्योंकि यदि पाँच प्रकार के प्रदेश हैं यह कहो तो एक-एक प्रदेश पाँच-पाँच प्रकार का हो जाने से तुम्हारे मत से पच्चीस प्रकार का प्रदेश होगा । यह कहो कि प्रदेश भजनीय है- स्यात् धर्मास्तिकाय का प्रदेश, स्यात् अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, स्यात् आकाशास्तिकाय का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश है । इस प्रकार कहनेवाले ऋजुसूत्रनय से संप्रति शब्दनय ने कहा- तुम कहते हो कि प्रदेश भजनीय है, यह कहना योग्य नहीं है । क्योंकि प्रदेश भजनीय है, ऐसा मानने से तो धर्मास्तिकाय का प्रदेश अधर्मास्तिकाय का भी, आकाशास्तिकाय का भी, जीवास्तिकाय का भी और स्कन्ध का भी प्रदेश हो सकता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश एवं स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है । यावत् स्कन्ध का प्रदेश भी धर्मास्ति काय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश अथवा जीवास्तिकाय का प्रदेश हो सकता है। इस प्रकार तुम्हारे मत से अनवस्था हो जाएगी । ऐसा कहो-धर्मरूप जो प्रदेश है, वही प्रदेश धर्म है- है, जो अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है, वही प्रदेश आकाशात्मक है, एक जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोजीव है, इसी प्रकार जो स्कन्ध का प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है । इस प्रकार कहते हुए शब्दनय से समभिरूढनय ने कहा- तुम कहते हो कि धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश धर्मास्तिकायरूप है, यावत् स्कन्ध का जो प्रदेश, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है, किन्तु तुम्हारा यह कथन युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि यहाँ तत्पुरुष और कर्मधारय यह दो समास होत हैं । इसलिए संदेह होता है कि उक्त दोनों समासों में से तुम किस समास की दृष्टि से 'धर्मप्रदेश' आदि कह रहे हो ? यदि तत्पुरुषसमासदृष्टि से कहते हो तो ऐसा मत कहो और यदि कर्मधारय समास की अपेक्षा कहते हो तब विशेषतया कहना चाहिए - धर्म और दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद " Page 57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' उसका जो प्रदेश वही प्रदेश धर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार अधर्म और उसका जो प्रदेश वही प्रदेश अधर्मास्तिकाय रूप है, यावत् स्कन्ध और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है। ऐसा कथन करने पर समभिरूढनय से एवंभूतनय ने कहा- जो कुछ भी तुम कहते हो वह समीचीन नहीं, मेरे मत से वे सब कृत्स्न हैं, प्रतिपूर्ण और निरवशेष हैं, एक ग्रहणगृहीत हैं- अतः देश भी अवस्तु रूप है एवं प्रदेश भी अवस्तु रूप हैं। सूत्र - ३११ संख्याप्रमाण क्या है ? आठ प्रकार का है । यथा-नामसंख्या, स्थापनासंख्या, द्रव्यसंख्या, औपम्यसंख्या, परिमाण संख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या, भावसंख्या नामसंख्या क्या है ? जिस जीव का अथवा अजीव का अथवा जीवों का अथवा अजीवों का अथवा तदुभव का अथवा तदुभयों का संख्या ऐसा नामकरण कर लिया जाता है, उसे नामसंख्या कहते हैं । जिस काष्ठकर्म में, पुस्तकर्म में या चित्रकर्म में या लेप्यकर्म में अथवा ग्रन्थिकर्म में अथवा वेढित में अथवा पूरित में अथवा संघातिम में अथवा अक्ष में अथवा वराटक में अथवा एक या अनेक में सद्भूतस्थापना या असद्द्भूतस्थापना द्वारा संख्या इस प्रकार का स्थापन कर लिया जाता है, वह स्थापनासंख्या है। नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नाम यावत्कथित होता है लेकिन स्थापना इत्वरिक भी होती है और यावत्कथिक भी होती है। द्रव्यशंख का क्या तात्पर्य है ? दो प्रकार का आगमद्रव्यशंख, नोआगमद्रव्यशंख । आगमद्रव्यशंख (संख्या) का स्वरूप इस प्रकार है- जिसने शंख (संख्या) यह पद सीखा लिया, हृदय में स्थिर किया, जित किया, मित किया, अधिकृत कर लिया यावत् निर्दोष स्पष्ट स्वर से शुद्ध उच्चारण किया तथा गुरु से वाचना ली, जिससे वाचना, पृच्छना, परावर्तना एवं धर्मकथा से युक्त भी हो गया परन्तु जो अर्थ का अनुचिन्तन करने रूप अनुप्रेक्षा से रहित हो, उपयोग न होने से वह आगम से द्रव्यशंख (संख्या) कहलाता है। क्योंकि सिद्धान्त में ' अनुपयोगो द्रव्यम् - उपयोग से 'शून्य को द्रव्य कहा है । ( नैगमनय की अपेक्षा) एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्यशंख, दो अनुपयुक्त आत्मा दो आगमद्रव्यशंख, तीन अनुपयुक्त आत्मा तीन आगमद्रव्यशंख हैं। इस प्रकार जितनी अनुपयुक्त आत्माएँ हैं उतने ही द्रव्यशंख हैं । व्यवहारनय नैगमनय के समान ही मानता है । संग्रहनय एक अनुपयुक्त आत्मा एक द्रव्यशंख और अनेक अनुपयुक्त आत्माएँ अनेक आगमद्रव्यशंख, ऐसा स्वीकार नहीं करता किन्तु सभी को एक ही आगमद्रव्यशंख मानता है । ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक आगमद्रव्यशंख है । तीनों शब्द नय अनुपयुक्त ज्ञायक को अवस्तु मानते हैं । क्योंकि यदि ज्ञायक है तो अनुपयुक्त नहीं होता है और यदि अनुपयुक्त हो तो वह ज्ञायक नहीं होता है । इसलिए आगमद्रव्यशंख संभव नहीं है । नोआगमद्रव्यसंख्या क्या है ? तीन भेद हैं-ज्ञायकशरीरद्रव्यसंख्या, भव्यशरीरद्रव्यसंख्या, ज्ञायकशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्यसंख्या । संख्या इस पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का वह शरीर, जो व्यपगत हो गया हो, त्यक्त देह यावत् जीवरहित शरीर को देखकर कहना अहो! इस शरीर रूप पुद्गलसंघात ने संख्या पद को ग्रहण किया था, पढ़ा था यावत् उपदर्शित किया था-समझाया था, उसका वह ज्ञायकशरीर द्रव्यसंख्या है।) इसका कोई दृष्टान्त है ? हाँ, है । यह घी का घड़ा है । यह ज्ञायकशरीरद्रव्यसंख्या का स्वरूप है। जन्म समय प्राप्त होने पर जो जीव योनि से बाहर निकला और भविष्य में उसी शरीरपिंड द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार संख्या पद को सीखेगा ऐसे उस जीव का वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यसंख्या है । इसका कोई दृष्टान्त है ? यह घृतकुंभ होगा । यह भव्यशरीरद्रव्यसंख्या का स्वरूप है ज्ञायकशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यशंख के तीन प्रकार हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । एकभविक जीव एकभविक ऐसा नाम वाला कितने समय तक रहता है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक पूर्व कोटि पर्यन्त रहता है । बद्धायुष्क जीव बद्धायुष्क रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट एक पूर्वकोटि वर्ष के तीसरे भाग तक रहता है। अभिमुखनामगोत्र (शंख) का अभिमुखनामगोत्र नाम कितने काल तक रहता है ? दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 58 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्त-मुहूर्त काल रहता है । नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र तीनों प्रकार के शंखों को शंख मानते हैं । ऋजुसूत्रनय १. बद्धायुष्क और २. अभिमुखनामगोत्र, ये दो प्रकार के शंख स्वीकार करता है । तीनों शब्दनय मात्र अभिमुखनामगोत्र शंख को ही शंख मानते हैं। औपम्यसंख्या क्या है ? उपमा देकर किसी वस्तु के निर्णय करने को औपम्यसंख्या कहते हैं । उसके चार प्रकार हैं । सद् वस्तु को सद् वस्तु की उपमा देना । सद् वस्तु को असद् वस्तु से उपमित करना । असद् वस्तु को सद् वस्तु की उपमा देना । असद् वस्तु को असद् वस्तु की उपमा देना । इनमें से जो सद् वस्तु को सद् वस्तु से उपमित किया जाता है, वह इस प्रकार है-सद्रूप अरिहंत भगवंतों के प्रशस्त वक्षःस्थल को सद्रूप श्रेष्ठ नगरों के सत् कपाटों की उपमा देना, जैसेसूत्र-३१२ सभी चौबीस जिन-तीर्थंकर प्रधान-उत्तम नगर के कपाटों के समान वक्षःस्थल, अर्गला के समान भुजाओं, देवदुन्दुभि या स्तनित के समान स्वर और श्रीवत्स से अंकित वक्षःस्थल वाले होते हैं। सूत्र-३१३ विद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ से उपमित करना । जैसे नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की विद्यमान आयु के प्रमाण को अविद्यमान पल्योपम और सागरोपम द्वारा बतलाना । सूत्र-३१४-३१६ ___ अविद्यमान को विद्यमान सद्वस्तु से उपमित करने को असत्-सत् औपम्यसंख्या कहते हैं । सर्व प्रकार से जीर्ण, डंठल से टूटे, वृक्ष से नीचे गिरे हुए, निस्सार और दुःखित ऐसे पत्ते ने वसंत समय प्राप्त नवीन पत्ते से कहाजीर्ण पीले पत्ते ने नवोद्गत किसलयों कहा-इस समय जैसे तुम हो, हम भी पहले वैसे ही थे तथा इस समय जैसे हम हो रहे हैं, वैसे ही आगे चलकर तुम भी हो जाओगे । यहाँ जो जीर्ण पत्तों और किसलयों के वार्तालाप का उल्लेख किया गया है, वह न तो कभी हुआ है, न होता है और न होगा, किन्तु भव्य जनों के प्रतिबोध के लिए उपमा दी गई है। सूत्र-३१७ ___ अविद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ से उपमित करना असद्-असद्प औपम्यसंख्या है। जैसा-खर विषाण है वैसा ही शश विषाण है और जैसा शशविषाण है वैसा ही खरविषाण है। परिमाणसंख्या क्या है ? दो प्रकार की है । जैसे-कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या और दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या । कालिक श्रुतपरिमाणसंख्या अनेक प्रकार की है । पर्यव (पर्याय) संख्या, अक्षरसंख्या, संघातसंख्या, पदसंख्या, पादसंख्या, गाथासंख्या, लोकसंख्या, वेढ (वेष्टक) संख्या, नियुक्तिसंख्या, अनुयोगद्वारसंख्या, उद्देशसंख्या, अध्ययनसंख्या, श्रुतस्कन्धसंख्या, अंग-संख्या आदि कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या है। दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या के अनेक प्रकार हैं | यथा-पर्वसंख्या यावत् अनुयोग-द्वारसंख्या, प्राभृतसंख्या, प्राभृतिकासंख्या, प्राभृतप्राभृतिकासंख्या, वस्तुसंख्या और पूर्वसंख्या । इस प्रकार से दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या का स्वरूप जानना। ज्ञानसंख्या क्या है ? जो जिसको जानता है उसे ज्ञानसंख्या कहते हैं । जैसे कि-शब्द को जानने वाला शाब्दिक, गणित को जानने वाला गणितज्ञ, निमित्त को जानने वाला नैमित्तिक, काल को जाननेवाला कालज्ञ और वैद्यक को जाननेवाला वैद्य । ये इतने हैं, इस रूप में गिनती करने को गणनासंख्या कहते हैं । 'एक', गणना नहीं कहलाता है इसलिए दो से गणना प्रारम्भ होती है । वह गणनासंख्या संख्या, असंख्यात और अनन्त, तीन प्रकार की जानना। संख्यात क्या है ? तीन प्रकार का है । जघन्य संख्यात, उत्कृष्ट संख्यात और अजघन्य-अनुत्कृष्ट संख्यात | असंख्यात के तीन प्रकार हैं । जैसे-परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात । परीतासंख्यात तीन मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 59 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' प्रकार का है- जघन्य परीतासंख्यात, उत्कृष्ट परीतासंख्यात और अजघन्य-अनुत्कृष्ट परीतासंख्यात । युक्तासंख्यात तीन प्रकार का है । जघन्य युक्तासंख्यात, उत्कृष्ट युक्तासंख्यात और अजघन्यानुत्कृष्ट युक्तासंख्यात | असंख्यातसंख्यात तीन प्रकार का है । जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात । भगवन् ! अनन्त क्या है ? अनन्त के तीन प्रकार हैं । परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । परीतानन्त तीन प्रकार का है । जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य-अनुत्कृष्ट परीतानन्त । आयुष्मन् ! युक्तानन्त के तीन प्रकार हैं। जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य-अनुत्कृष्ट युक्तानन्त । अनन्तानन्त के दो प्रकार कहे हैं । यथा-जघन्य अनन्तानन्त और अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त । भगवन् ! जघन्य संख्यात कितने प्रमाण में होता है ? दो रूप प्रमाण जघन्य संख्यात है, उसके पश्चात् यावत् उत्कृष्ट संख्यात का स्थान प्राप्त न होने तक मध्यम संख्यात जानना । उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा इस प्रकार करूँगा-एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा और ३१६२२७ योजन, तीन कोश, १२८ धनुष एवं १३|| अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला कोई एक पल्य हो । पल्य को सर्षपों के दानों से भर दिया जाए । उन सर्षपों से द्वीप और समुद्रों का उद्धार-प्रमाण निकाला जाता है । अनुक्रम से एक द्वीप में और एक समुद्र में इस तरह प्रक्षेप करतेकरते जितने द्वीप-समुद्र उन सरसों के दानों से भर जाएँ, उनके समाप्त होने पर एक दाना शलाकापल्य में डाल दिया जाए । इस प्रकार के शलाका रुप पल्य में भरे सरसों के दानों से अकथनीय लोक भरे हुए हों तब भी उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त नहीं होता है । इसके लिये कोई दृष्टान्त जैसे कोई एक मंच हो और वह आंवलों से पूरित हो, तदनन्तर एक आंवला डाला तो वह भी समा गया, दूसरा डाला तो वह भी समा गया, तीसरा डाला तो वह भी समा गया, इस प्रकार प्रक्षेप करते-करते अंत में एक आंवला ऐसा होगा कि जिसके प्रक्षेप से मंच परिपूर्ण भर जाता है। उसके बाद आंवला डाला जाए तो वह नहीं समाता है । इसी प्रकार बारंबार डाले गए सर्षपों से जब असंलप्य-बहुत से पल्य अंत में आमूलशिख पूरित हो जाए, उनमें एक सर्षप जितना भी स्थान न रहे तब उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट संख्यात संख्या में रूप (एक) का प्रक्षेप करने से जघन्य परीतासंख्यात होता है । तदनन्तर (परीतासंख्यात के) अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थान हैं, जहाँ तक उत्कृष्ट परीतासंख्यात स्थान प्राप्त नहीं होता है। जघन्य परीता-संख्यात राशि को जघन्य परीतासंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास गुणित करके रूप (एक) न्यून करने पर उत्कृष्ट परीता-संख्यात का प्रमाण होता है । अथवा एक न्यून जघन्य युक्तासंख्यात उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण है। जघन्य युक्तासंख्यात का कितना प्रमाण है ? जघन्य परीतासंख्यात राशि का जघन्य परीतासंख्यात राशि से अन्योन्य अभ्यास करने पर प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तासंख्यात का प्रमाण होता है । अथवा उत्कृष्ट परीतासंख्यात के प्रमाण में एक का प्रक्षेप करने से जघन्य युक्तासंख्यात होता है । आवलिका भी जघन्य युक्तासंख्यात तुल्य समय-प्रमाण वाली जानना । जघन्य युक्तासंख्यात से आगे जहाँ तक उत्कृष्ट युक्तासंख्यात प्राप्त न हो, तत्प्रमाण मध्यम युक्तासंख्यात है । जघन्य युक्ता-संख्यात राशि को आवलिका से परस्पर अभ्यास रूप गुणा करने से प्राप्त प्रमाण में से एक न्यून उत्कृष्ट युक्तासंख्यात है । अथवा जघन्य असंख्यातसंख्यात राशि प्रमाण में से एक कम करने से उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात का क्या प्रमाण है ? जघन्य युक्तासंख्यात के साथ आवलिका की राशि का परस्पर अभ्यास करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य असंख्यातासंख्यात है । अथवा उत्कृष्ट युक्तसंख्यात में एक का प्रक्षेप करने से जघन्य असंख्यातासंख्यात होता है । तत्पश्चात् मध्यम स्थान होते हैं और वे स्थान उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात प्राप्त होने से पूर्व तक जानना । जघन्य असंख्यातासंख्यात मात्र राशि का उसी जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि से अन्योन्य अभ्यास-गुणा करने से प्राप्त संख्या में से एक न्यून करने पर प्राप्त संख्या उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात है । अथवा एक न्यून जघन्य परीतानन्त उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' जघन्य परीतानन्त का कितना प्रमाण है ? जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि को उसी जघन्य असंख्यातासंख्यात राशि के परस्पर अभ्यास रूप में गुणित करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य परीतानन्त का प्रमाण है । अथवा उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात में एक रूप का प्रक्षेप करने से भी जघन्य परीतानन्त का प्रमाण होता है । तत्पश्चात् अजघन्य- अनुत्कृष्ट परीतानन्त के स्थान होते हैं और वे भी उत्कृष्ट परीतानन्त का स्थान प्राप्त होने के पूर्व तक होते हैं । जघन्य परीतानन्त की राशि को उसी जघन्य परीतानन्त राशि से परस्पर अभ्यास रूप गुणित करके उसमें से एक रूप (अंक) न्यून करने से उत्कृष्ट परीतानन्त का प्रमाण होता है । अथवा जघन्य युक्तानन्त की संख्या में से एक न्यून करने से भी उत्कृष्ट परीतानन्त की संख्या बनती है। जघन्य युक्तानन्त कितने प्रमाण में होता है ? जघन्य परीतानन्त मात्र राशि का उसी राशि से अभ्यास करने से प्रतिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तानन्त है। अर्थात् जघन्य परीतानन्त जितनी सर्षप संख्या का परस्पर अभ्यास रूप गुणा 'करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य युक्तानन्त है । अथवा उत्कृष्ट परीतानन्त में एक रूप (अंक) प्रक्षिप्त करने से जघन्य युक्तानन्त होता है। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव भी इतने ही ( जघन्य युक्तानन्त जितने) होते हैं। उसके पश्चात् अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) युक्तानन्त के स्थान हैं और वे उत्कृष्ट युक्तानन्त के स्थान के पूर्व तक हैं । जघन्य युक्तानन्त राशि के साथ अभवसिद्धिक राशि का परस्पर अभ्यास रूप गुणाकार करके प्राप्त संख्या में से एक रूप को न्यून करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट युक्तानन्त की संख्या है । अथवा एक रूप न्यून जघन्य अनन्तानन्त उत्कृष्ट युक्तानन्त है । जघन्य युक्तानन्त के साथ अभवसिद्धिक जीवों को परस्पर अभ्यास रूप से गुणित करने पर प्राप्त पूर्ण संख्या जघन्य अनन्तानन्त का प्रमाण है । अथवा उत्कृष्ट युक्तानन्त में एक रूप का प्रक्षेप करने से जघन्य अनन्तानन्त होता है। तत्पश्चात् सभी स्थान अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त के होते हैं। भावसंख्या क्या है ? इस लोक में जो जीव शंखगतिनाम गोत्र कर्मादिकों का वेदन कर रहे हैं वे भावशंख हैं। यही भाव संख्या है, यही भावप्रमाण का वर्ण है। सूत्र - ३१८ वक्तव्यता क्या है ? तीन प्रकार की है, यथा- स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और स्वसमयपरसमयवक्तव्यता । अविरोधी रूप से स्वसिद्धान्त के कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं । जिस वक्तव्यता में परसमय का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे परसमयवक्तव्यता कहते हैं । जिस वक्तव्यता में स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त दोनों का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे स्वसमय-परसमयवक्तव्यता कहते हैं । - (इन तीनों वक्तव्यताओं में से) कौन नय किस वक्तव्यता को स्वीकार करता है ? नैगम, संग्रह और व्यवहार नय तीनों प्रकार की वक्तव्यता को स्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्रनय स्वसमय और परसमय को ही मान्य करता है । क्योंकि स्वसमय वक्तव्यता प्रथम भेद स्वसमयवक्तव्यता में और परसमय की वक्तव्यता द्वितीय भेद परसमयवक्तव्यता में अन्तर्भूत हो जाती है । इसलिए वक्तव्यता के दो ही प्रकार हैं। तीनों शब्दनय एक स्वसमयवक्तव्यता को ही मान्य करते हैं । उनके मतानुसार परसमय वक्तव्यता नहीं है । क्योंकि परसमय अनर्थ, अहेतु, असद्भाव, अक्रिय, उन्मार्ग, अनुपदेश और मिथ्यादर्शन रूप है। इसलिए स्वसमय की वक्तव्यता ही है। सूत्र - ३१९-३२१ भगवन् ! अर्थाधिकार क्या है ? (आवश्यकसूत्र के) जिस अध्ययन का जो अर्थ-वर्ण्य विषय है उसका कथन अर्धा धिकार कहलाता है। यथा सावद्ययोगविरति उत्कीर्तन स्तुति करना है। तृतीय अध्ययन का अर्थ गुणवान् पुरुषों को वन्दना, नमस्कार करना है। चौथे में आचार में हुई स्खलनाओं की निन्दा करने का अर्थाधिकार है । कायोत्सर्ग अध्ययन में व्रण - चिकित्सा करने रूप अर्थाधिकार है । प्रत्याख्यान अध्ययन का गुण धारण करने रूप अर्थाधिकार है । दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' सूत्र-३२२ समवतार क्या है ? समवतार के छह प्रकार हैं, जैसे-नामसमवतार, स्थापनासमवतार, द्रव्यसमवतार, क्षेत्रसमवतार, कालसमवतार और भावसमवतार | नाम और स्थापना (समवतार) का वर्णन पूर्ववत् जानना । द्रव्यसमवतार दो प्रकार का कहा है-आगमद्रव्यसमवतार, नोआगमद्रव्यसमवतार । यावत् आगमद्रव्यसमवतार का तथा नोआगमद्रव्यसमवतार के भेद ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर नोआगमद्रव्यसमवतार का स्वरूप पूर्ववत् जानना ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार कितने प्रकार का है ? तीन प्रकार का है-आत्मसमवतार, परसमवतार, तदुभवसमवतार |आत्मसमवतार की अपेक्षा सभी द्रव्य आत्मभाव में रहती हैं, परमसमवतारापेक्षया कुंड में बेर की तरह परभाव में रहते हैं तथा तदुभयसमवतार से (सभी द्रव्य) घर में स्तम्भ अथवा घट में ग्रीवा की तरह परभाव तथा आत्मभाव-दोनों में रहते हैं । अथवा ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार दो प्रकार का है-आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार | जैसे आत्मसमवतार से चतुष्षष्टिका आत्मभाव में रहती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्वात्रिंशिका में भी और अपने निजरूप में भी रहती है । द्वात्रिंशिका आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में और उभयसमवतार की अपेक्षा षोडशिका में भी रहती है और आत्मभाव में भी रहती है। षोडशिका आत्मसमवतार से आत्मभाव में समवतीर्ण होती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा अष्ट-भागिका में भी तथा अपने निजरूप में भी रहती है । अष्टभागिका आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में तथा तदुभयसमवतार की अपेक्षा चतुर्भागिका में भी समवतरित होती है और अपने निज स्वरूप में भी समवतरित होती है । आत्मसमवतार की अपेक्षा चतुर्भागिका आत्मभाव में और तदुभयसमवतार से अर्धमानिका में समवतीर्ण होती है एवं आत्मभाव में भी । आत्मसमवतार से अर्धमानिका आत्मभाव में एवं तदुभयसमवतार की अपेक्षा मानिका में तथा आत्मभाव में भी समवतीर्ण होती है। यह ज्ञायक-शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार का वर्णन है । इस तरह नोआगमद्रव्यसमवतार और द्रव्यसमवतार की प्ररूपणा पूर्ण हुई। क्षेत्रसमवतार क्या है ? दो प्रकार से है । आत्मसमवतार, तदुभयसमवतार | आत्मसमवतार की अपेक्षा भरतक्षेत्र आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा जम्बूद्वीप में भी रहता है और आत्मभाव में भी रहता है । आत्मसमवतार की अपेक्षा जम्बूद्वीप आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा तिर्यक्लोक में भी समवतरित होता है और आत्म-भाव में भी । आत्मसमवतार से तिर्यक्लोक आत्मभाव में समवतीर्ण होता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा लोक में समवतरित होता है और आत्मभाव-निजरूप में भी। कालसमवतार दो प्रकार का है यथा-आत्मसमवतार, तदुभयसमवतार । जैसे-आत्मसमवतार की अपेक्षा समय आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा आवलिका में भी और आत्मभाव में भी रहता है। इसी प्रकार आनप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, यावत् पल्योपम, सागरोपम ये सभी आत्मसमवतार में आत्मभाव में और तदुभयसमवतार से अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में भी और आत्मसमभाव में भी रहते हैं। अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा पुद्गल परावर्तन में भी और आत्मभाव में भी रहता है । पुद्गलपरावर्तनकाल आत्मसमवतार की अपेक्षा निजरूप में रहता है और तदुभयसमवतार से अतीत और अनागत काल में भी एवं आत्मभाव में भी रहता है। अतीत-अनागत काल आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहता है, तदुभयसमवतार की अपेक्षा सर्वाद्धाकाल में भी रहता है और आत्मभाव में भी रहता है। भावसमवतार क्या है ? दो प्रकार का है। आत्मसमवतार और तभयसमवतार | आत्मसमवतार की अपेक्षा क्रोध निजस्वरूप में रहता है और तदुभयसमवतार से मान में और निजस्वरूप में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार मान, माया, लोभ, राग, मोहनीय और अष्टकर्म प्रकृतियाँ आत्मसमवतार से आत्मभाव में तथा तदुभयसमवतार से छह प्रकार के भावों में और आत्मभाव में भी रहती हैं । इसी प्रकार छह भाव जीव, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 62 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' जीवास्तिकाय, आत्मसमवतार की अपेक्षा निजस्वरूप में रहते हैं और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्रव्यों में और आत्मभाव में भी रहते हैं । इनकी संग्रहणी गाथा इस प्रकार हैंसत्र-३२३ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, (कर्म) प्रकृति, भाव, जीव, जीवास्तिकाय और सर्वद्रव्य (आत्मसमवतार से अपने-अपने स्वरूप में और तदुभयसमवतार से पररूप और स्व-स्वरूप में भी रहते हैं ।) सूत्र-३२४ यही भावसमवतार है। सूत्र- ३२५ निक्षेप किसे कहते हैं ? निक्षेप तीन प्रकार हैं । यथा-ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न, सूत्रालापकनिष्पन्न । ओघनिष्पन्ननिक्षेप के चार भेद हैं । उनके नाम हैं-अध्ययन, अक्षीण, आय, क्षपणा । अध्ययन के चार प्रकार हैं, यथा-नाम अध्ययन, स्थापना अध्ययन, द्रव्य अध्ययन, भाव अध्ययन । नाम और स्थापना अध्ययन का स्वरूप पूर्ववत् जानना। द्रव्य-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? द्रव्य-अध्ययन के दो प्रकार हैं, आगम से और नोआगम जिसने 'अध्ययन' इस पद को सीख लिया है, स्थिर कर लिया है । जित, मित और परिजित कर लिया है यावत् जितने भी उपयोग से शून्य हैं, वे आगम से द्रव्य-अध्ययन हैं । नैगमनय जैसा ही व्यवहारनय का मत है, संग्रहनय के मत से एक या अनेक आत्माएँ एक आगम-द्रव्य अध्ययन हैं । इत्यादि समग्र वर्णन आगमद्रव्य-आवश्यक जैसा ही जानना। नोआगमद्रव्य-अध्ययन तीन प्रकार का है । ज्ञायकशरीरद्रव्य-अध्ययन, भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन, ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अध्ययन । अध्ययन पद के अर्थाधिकार के ज्ञायक-के व्यपगतचैतन्य, च्युत, च्यावित त्यक्तदेह यावत् अहो इस शरीर रूप पुद्गलसंघात ने 'अध्ययन' इस पद का व्याख्यान किया था, यावत् उपदर्शित किया था, (वैसा यह शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्य अध्ययन है।) एतद्विषयक कोई दृष्टान्त है ? जैसे घड़े में से घी या मधु के निकाल लिये जाने के बाद भी कहा जाता हैयह घी का घड़ा था, यह मधुकुंभ था । जन्मकाल प्राप्त होने पर जो जीव योनिस्थान से बाहर निकला और इसी प्राप्त शरीरसमुदाय के द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार अध्ययन' इस पद को सीखेगा, लेकिन अभी-वर्तमान में नहीं सीख रहा है ऐसा उस जीव का शरीर भव्यशरीरद्रव्याध्ययन कहा जाता है । इसका कोई दृष्टान्त है ? जैसे किसी घड़े में अभी मधु या घी नहीं भरा गया है, तो भी उसको यह घृतकुंभ होगा, मधुकुंभ होगा कहना । पत्र या पुस्तक में लिखे हुए अध्ययन को ज्ञायकशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्याध्ययन कहते हैं। __ भाव-अध्ययन क्या है ? दो प्रकार हैं-आगमभाव-अध्ययन, नोआगमभाव-अध्ययन । जो अध्ययन के अर्थ का ज्ञायक होने के साथ उसमें उपयोगयुक्त भी हो, उसे आगमभाव-अध्ययन कहते हैं । आयुष्मन् ! नोआगमभावअध्ययन का स्वरूप इस प्रकार हैसूत्र- ३२६ अध्यात्म में आने, उपार्जित कर्मों का क्षय करने और नवीन कर्मों का बंध नहीं होने देने का कारण होने से (मुमुक्षु अध्ययन की अभिलाषा करते हैं।) सूत्र- ३२७ यह नोआगमभाव-अध्ययन का स्वरूप है। अक्षीण का क्या स्वरूप है ? अक्षीण के चार प्रकार हैं । यथा-नाम-अक्षीण, स्थापना-अक्षीण, द्रव्यअक्षीण और भाव-अक्षीण । नाम और स्थापना अक्षीण का स्वरूप पूर्ववत् जानना । द्रव्य-अक्षीण क्या है ? दो प्रकार हैं । यथा-आगम से, नोआगम से । जिसने अक्षीण इस पद को सीख लिया है, स्थिर, जित, मित, परिजित किया है इत्यादि जैसा द्रव्य-अध्ययन में कहा वैसा ही यहाँ समझना । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 63 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र -२, 'अनुयोगद्वार' नो आगमद्रव्य अक्षीण के तीन प्रकार हैं। यथा- जायकशरीरद्रव्य-अक्षीण, भव्यशरीरद्रव्य-अक्षीण, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण । अक्षीण पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत च्युत, च्यवित, त्यक्तदेह आदि जैसा द्रव्य अध्ययन के संदर्भ में वर्णन है, वैसे यहाँ भी करना । समय पूर्ण होने पर जो जीव योनि से निकलकर उत्पन्न हुआ आदि पूर्वोक्त भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन के जैसा इस भव्य शरीरद्रव्य-अक्षीण का वर्णन जानना । सर्वाकाश श्रेणि ज्ञायकशरीर भव्य शरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण रूप हैं । भाव अक्षीण क्या है ? दो प्रकार का है, यथा-आगम से, नोआगम से ज्ञायक जो उपयोग से युक्त हो वह आगम की अपेक्षा भाव अक्षीण है। नो आगमभाव अक्षीण का क्या स्वरूप है ? सूत्र - ३२८ जैसे दीपक दूसरे सैकड़ों दीपकों को प्रज्वलित करके भी प्रदीप्त रहता है, उसी प्रकार आचार्य स्वयं दीपक के समान देदीप्यमान है और दूसरों को देदीप्यमान करते हैं। सूत्र - ३२९ इस प्रकार से नो आगमभाव अक्षीण का स्वरूप जानना चाहिए। आय क्या है ? आय के चार प्रकार हैं । यथा - नाम-आय, स्थापना-आय, द्रव्य-आय, भाव-आय । नामआय और स्थापना-आय का 'वर्ण' पूर्ववत् जानना | द्रव्य आय के दो भेद हैं-आगम से, नोआगम से । जिसने आ यह पद सीख लिया है, स्थिर कर लिया है किन्तु उपयोग रहित होने से द्रव्य हैं यावत् जितने उपयोग रहित हैं, उतने ही आगम से द्रव्य-आय हैं। यह आगम से द्रव्य आय का स्वरूप जानना । नोआगमद्रव्य-आय के तीन प्रकार हैं । यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्य-आय, भव्यशरीर द्रव्य-आय, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-आय । जायकशरीरद्रव्य-आय किसे कहते हैं ? आय पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यवित त्यक्त आदि शरीर द्रव्याध्ययन की वक्तव्यता जैसा ही ज्ञायकशरीरनोआगमद्रव्य आय का स्वरूप जानना । समय पूर्ण होने पर योनि से निकलकर जो जन्म को प्राप्त हुआ आदि भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन के वर्णन के समान भव्यशरीरद्रव्य आय का स्वरूप जानना । ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य आय के तीन प्रकार हैं। यथालौकिक, कुप्रवाचनिक, लोकोत्तर । लौकिकद्रव्य-आय के तीन प्रकार हैं। यथा- सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्त लौकिक आय क्या है ? तीन प्रकार हैं। यथा द्विपद-आय, चतुष्पद-आय, अपद-आय इनमें से दास-दासियों की आय द्विपद-आय रूप है । अश्वों हाथियों की प्राप्ति चतुष्पद-आय रूप और आम, आमला के वृक्षों आदि की प्राप्ति अपद-आय रूप हैं। सोना-चाँदी, मणि-मोती, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न आदि की प्राप्ति अचित्त आय है। अलंकारादि से तथा वाद्यों से विभूषित दास-दासियों, घोड़ों, हाथियों आदि की प्राप्ति को मिश्र आय कहते हैं । कुप्रवाचनिक आय तीन प्रकार की है । यथा- सचित्त, अचित्त, मिश्र । इन तीनों का वर्णन लौकिकआय के अनुरूप जानना । I लोकोत्तरिक आय क्या है ? तीन प्रकार है। सचित्त, अचित्त और मिश्र शिष्य शिष्याओं की प्राप्ति सचित्त-लोकोत्तरिक-आय है । अचित्त पात्र, वस्त्र, पादप्रोंच्छन, आदि की प्राप्ति अचित्त लोकोत्तरिक आय हैं । भांडोपकरणादि सहित शिष्य शिष्याओं की प्राप्ति लाभ को मिश्र आय कहते हैं। भाव-आय का क्या स्वरूप है ? दो प्रकार हैं । आगम से, नोआगम से । आयपद के ज्ञाता और साथ ही उसके उपयोग से युक्त जीव आगमभाव-आय हैं। नोआगमभाव-आय के दो प्रकार हैं, यथा- प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रशस्त नोआगम भाव-आय के तीन प्रकार हैं। यथा-ज्ञान-आय, दर्शन-आय, चारित्र आय अप्रशस्तनो आगमभाव आय के चार प्रकार हैं। यथा-क्रोध-आय, मान-आय, माया आय और लोभ आय । यही अप्रशस्तभाव - आय है क्षपणा क्या है ? चार प्रकार जानना । नामक्षपणा, स्थापनाक्षपणा, द्रव्यक्षपणा, भावक्षपणा । नाम और स्थापनाक्षपणा का वर्णन पूर्ववत् । द्रव्यक्षपणा दो प्रकार की है । आगम से और नोआगम से । जिसने 'क्षपणा' यह दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 64 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' पद सीख लिया है, स्थिर, जित, मित और परिजित कर लिया है, इत्यादि वर्णन द्रव्याध्ययन के समान है । नोआगमद्रव्यक्षपणा के तीन भेद हैं । यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा, भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा। ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा क्या है ? क्षपणा पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त शरीर इत्यादि सर्व वर्णन द्रव्याध्ययन के समान जानना । समय पूर्ण होने पर जो जीव उत्पन्न हुआ और प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में क्षपणा पद को सीखेगा, किन्तु अभी नहीं सीख रहा है, ऐसा वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा है । इसके लिये दृष्टान्त क्या है ? यह घी का घड़ा होगा, यह मधुकलश होगा, ऐसा कहना । ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा का स्वरूप ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-आय के समान जानना भावक्षपणा क्या है ? दो प्रकार की है। यथा-आगम से, नोआगम से । क्षपणा इस पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञाता आगम से भावक्षपणा रूप है। नोआगमभावक्षपणा दो प्रकार की है । यथा-प्रशस्तभावक्षपणा, अप्रशस्तभावक्षपणा । नोआगमप्रशस्तभावक्षपणा चार प्रकार की है । यथा-क्रोधक्षपणा, मानक्षपणा, मायाक्षपणा और लोभक्षपणा । अप्रशस्तभावक्षपणा तीन प्रकार की कही गई है । यथा-ज्ञानक्षपणा, दर्शनक्षपणा, चारित्रक्षपणा नामनिष्पन्न निक्षेप क्या है ? नामनिष्पन्न सामायिक है । वह चार प्रकार का है । यथा-नामसामायिक, स्थापना-सामायिक, द्रव्यसामायिक, भावसामायिक । नामसामायिक और स्थापनासामायिक का स्वरूप पूर्ववत् । भव्यशरीरद्रव्यसामायिक तक द्रव्यसामायिक का वर्णन भी तथैव जानना । पत्र में अथवा पुस्तक में लिखित 'सामायिक' पद ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त-द्रव्य सामायिक है। भावसामायिक क्या है ? दो प्रकार हैं । यथा-आगमभावसामायिक, नोआगमभावसामायिक | सामायिक पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञायक आगमसे भावसामायिक है । भगवन् ! नोआगमभावसामायिक क्या सूत्र-३३०-३३६ जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में संनिहित है, उसी को सामायिक होती है, उसी को सामायिक होती है, जो सर्व भूतों, स्थावर आदि प्राणियों के प्रति समभाव धारण करता है, उसी को सामायिक होता है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को भी प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर-अनुभव कर जो न स्वयं किसी प्राणी का हनन करता है, न दूसरों से करवाता है और न हनन की अनुमोदना करता है, किन्तु सभी जीवों को अपने समान मानता है, वही समण कहलाता है । जिसको किसी जीव के प्रति द्वेष नहीं है और न राग है, इस कारण वह सम मनवाला होता है। यह प्रकारान्तर से समण का पर्यायवाची नाम है । जो सर्प, गिरि, अग्नि, सागर, आकाश-तल, वृक्षसमूह, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान है, वही समण है । यह श्रमण तभी संभवित है जब वह सुमन हो और भाव से भी पापी मन वाला न हो । जो माता-पिता आदि स्वजनों में एवं परजनों में तथा मान-अपमान में समभाव का धारक हो ।सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप क्या है ? इस समय सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप की प्ररूपणा करने की इच्छा है और अवसर भी प्राप्त है । किन्तु आगे अनुगम नामक तीसरे अनुयोगद्वार में इसी का वर्णन किये जाने से लाघव की दृष्टि से अभी निक्षेप नहीं करते हैं। सूत्र - ३३७-३३९ भगवन् ! अनुगम का क्या है ? अनुगम के दो भेद हैं। सूत्रानुगम और निर्युक्त्यनुगम । निर्यक्त्यनुगम के तीन प्रकार हैं । यथा-निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम । (नाम स्थापना आदि रूप) निक्षेप की नियुक्ति का अनुगम पूर्ववत् जानना । आयुष्मन् ! उपोद्घातनियुक्ति अनुगम का स्वरूप गाथोक्तक्रम से इस प्रकार जानना-उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार' अनुमत, किम-क्या, कितने प्रकार का, किसको, कहाँ पर, किसमें, किस प्रकार कैसे, कितने काल तक, कितनी, अंतर, अविरह, भव, आकर्ष, स्पर्शना और निर्युक्ति । अर्थात् इन प्रश्नों का उत्तर उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम रूप है । सूत्र - ३४०-३४२ सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम क्या है ? (जिस सूत्र की व्याख्या की जा रही है उस सूत्र को स्पर्श करने वाली निर्युक्ति के अनुगम को सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्त्यनुगम कहते हैं ।) इस अनुगम में अस्खलित, अमिलित, अव्यत्याम्रेडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्णघोष कंठोष्ठविप्रमुक्त तथा गुरुवाचनोपगत रूप से सूत्र का उच्चारण करना चाहिए । इस प्रकार से सूत्र का उच्चारण करने से ज्ञात होगा कि यह स्वसमयपद है, यह परसमयपद है, यह बंधपद है, यह मोक्षपद है, अथवा यह सामायिकपद है, यह नोसामायिकपद है । सूत्र का निर्दोष विधि से उच्चारण किये जाने पर कितने ही साधु भगवन्तों को कितनेक अर्थाधिकार अधिगत हो जाते हैं और किन्हीं - किन्हीं को कितनेक अर्थाधिकार अनधिगत रहते हैं । अत एव उन अनधिगत अर्थों का अधिगम कराने के लिए एक-एक पद की प्ररूपणा करूँगा । जिसकी विधी इस प्रकार है- संहिता, पदच्छेद, पदों का अर्थ, पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि । यह व्याख्या करने की विधि के छह प्रकार हैं । सूत्र - ३४३-३५० क्या है ? मूल न सात हैं। नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूत-नय । जो अनेक प्रकारों से वस्तु के स्वरूप को जानता है, अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है (वह नैगमनय है ।) शेष नयों के लक्षण कहूँगा - सुनो । सम्यक् प्रकार से गृहीत - यह संग्रहनय का वचन है । इस प्रकार से संक्षेप में कहा है । व्यवहारनय सर्व द्रव्यों के विषय में विनिश्चय करने के निमित्त प्रवृत्त होता है । ऋजुसूत्रनयविधि प्रत्युत्पन्नग्राही जानना । शब्दनय पदार्थ को विशेषतर मानता है । समभिरूढनय वस्तु का अन्यत्र संक्रमण अवस्तु मानता है। एवंभूतनय व्यंजन अर्थ एवं तदुभव को विशेष रूप से स्थापित करता है । -इन नयों द्वारा हेय और उपादेय अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके तदनुकूल प्रवृत्ति करनी ही चाहिए । इस प्रकार का जो उपदेश है वही (ज्ञान) नय कहलाता है । इन सभी नयों की परस्पर विरुद्ध वक्तव्यता को सुनकर समस्त नयों से विशुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र गुण में स्थित होने वाला साधु (मोक्षसाधक हो सकता है । इस प्रकार नयअधिकार की प्ररूपणा जानना । ४५ अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र २ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण दीपरत्नसागर कृत् ” (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद* Page 66 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 45, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાદ્ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: 45 अनुयोगद्वार आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद ALL . . . IIIIIIIIIIIIIII. [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] वनसाट:- (1) (2) deepratnasagar.in भेट ड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोजा 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 67