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आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' पद सीख लिया है, स्थिर, जित, मित और परिजित कर लिया है, इत्यादि वर्णन द्रव्याध्ययन के समान है । नोआगमद्रव्यक्षपणा के तीन भेद हैं । यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा, भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा।
ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा क्या है ? क्षपणा पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त शरीर इत्यादि सर्व वर्णन द्रव्याध्ययन के समान जानना । समय पूर्ण होने पर जो जीव उत्पन्न हुआ और प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में क्षपणा पद को सीखेगा, किन्तु अभी नहीं सीख रहा है, ऐसा वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा है । इसके लिये दृष्टान्त क्या है ? यह घी का घड़ा होगा, यह मधुकलश होगा, ऐसा कहना । ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा का स्वरूप ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-आय के समान जानना
भावक्षपणा क्या है ? दो प्रकार की है। यथा-आगम से, नोआगम से । क्षपणा इस पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञाता आगम से भावक्षपणा रूप है। नोआगमभावक्षपणा दो प्रकार की है । यथा-प्रशस्तभावक्षपणा, अप्रशस्तभावक्षपणा । नोआगमप्रशस्तभावक्षपणा चार प्रकार की है । यथा-क्रोधक्षपणा, मानक्षपणा, मायाक्षपणा और लोभक्षपणा । अप्रशस्तभावक्षपणा तीन प्रकार की कही गई है । यथा-ज्ञानक्षपणा, दर्शनक्षपणा, चारित्रक्षपणा
नामनिष्पन्न निक्षेप क्या है ? नामनिष्पन्न सामायिक है । वह चार प्रकार का है । यथा-नामसामायिक, स्थापना-सामायिक, द्रव्यसामायिक, भावसामायिक । नामसामायिक और स्थापनासामायिक का स्वरूप पूर्ववत् । भव्यशरीरद्रव्यसामायिक तक द्रव्यसामायिक का वर्णन भी तथैव जानना । पत्र में अथवा पुस्तक में लिखित 'सामायिक' पद ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त-द्रव्य सामायिक है।
भावसामायिक क्या है ? दो प्रकार हैं । यथा-आगमभावसामायिक, नोआगमभावसामायिक | सामायिक पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञायक आगमसे भावसामायिक है । भगवन् ! नोआगमभावसामायिक क्या
सूत्र-३३०-३३६
जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में संनिहित है, उसी को सामायिक होती है, उसी को सामायिक होती है, जो सर्व भूतों, स्थावर आदि प्राणियों के प्रति समभाव धारण करता है, उसी को सामायिक होता है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को भी प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर-अनुभव कर जो न स्वयं किसी प्राणी का हनन करता है, न दूसरों से करवाता है और न हनन की अनुमोदना करता है, किन्तु सभी जीवों को अपने समान मानता है, वही समण कहलाता है । जिसको किसी जीव के प्रति द्वेष नहीं है और न राग है, इस कारण वह सम मनवाला होता है।
यह प्रकारान्तर से समण का पर्यायवाची नाम है । जो सर्प, गिरि, अग्नि, सागर, आकाश-तल, वृक्षसमूह, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान है, वही समण है । यह श्रमण तभी संभवित है जब वह सुमन हो और भाव से भी पापी मन वाला न हो । जो माता-पिता आदि स्वजनों में एवं परजनों में तथा मान-अपमान में समभाव का धारक हो ।सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप क्या है ? इस समय सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप की प्ररूपणा करने की इच्छा है और अवसर भी प्राप्त है । किन्तु आगे अनुगम नामक तीसरे अनुयोगद्वार में इसी का वर्णन किये जाने से लाघव की दृष्टि से अभी निक्षेप नहीं करते हैं। सूत्र - ३३७-३३९
भगवन् ! अनुगम का क्या है ? अनुगम के दो भेद हैं। सूत्रानुगम और निर्युक्त्यनुगम । निर्यक्त्यनुगम के तीन प्रकार हैं । यथा-निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम । (नाम स्थापना आदि रूप) निक्षेप की नियुक्ति का अनुगम पूर्ववत् जानना । आयुष्मन् ! उपोद्घातनियुक्ति अनुगम का स्वरूप गाथोक्तक्रम से इस प्रकार जानना-उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद'
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