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आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र-२, 'अनुयोगद्वार' हुए का रौहिणेय, रोहिणीदत्त, रोहिणीधर्म, रोहिणीशर्म, रोहिणीदेव, रोहिणीदास, रोहिणीसेन, रोहिणीरक्षित नाम रखना । इसी प्रकार अन्य सब नक्षत्रों में जन्में हुओं के उन-उन नक्षत्रों के आधार से रक्खे नामों के विषय में जानना चाहिए । नक्षत्रनामों की संग्राहक गाथाएँ इस प्रकार हैंसूत्र-२४१-२४४
कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मधा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुरादा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभि, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरिणी, य नक्षत्रों के नामों की परिपाटी है । इस प्रकार नक्षत्रनाम का स्वरूप है।
देवनाम क्या है ? यथा-अग्नि देवता से अधिष्ठित नक्षत्र में उत्पन्न हुए का आग्निक, अग्निदत्त, अग्निधर्म, अग्निशर्म, अग्निदास, अग्नसेन, अग्निरक्षित आदि नाम रखना । इसी प्रकार से अन्य सभी नक्षत्र-देवताओं के नाम पर स्थापित नामों के लिए भी जानना चाहिए । देवताओं के नामों की भी संग्राहक गाथाएँ हैं, यथासूत्र - २४५-२४७
अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, अदिति, बृहस्पति, सर्प, पिता, भग, अर्यमा, सविता, त्वष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, मित्र, इन्द्र, निर्ऋति, अम्भ, विश्व, ब्रह्मा, विष्णु, वसु, वरुण, अज, विवर्द्धि, पूषा, अश्व और यम, यह अट्ठाईस देवताओं के नाम जानना चाहिए । यह देवनाम का स्वरूप है।
कुलनाम किसे कहते हैं ? जैसे उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, ज्ञात, कौख्य इत्यादि । यह कुलनाम का स्वरूप है । भगवन् ! पाषण्डनाम क्या है ? श्रमण, पाण्डुरांग, भिक्षु, कापालिक, तापस, परिव्राजक यह पाषण्डनाम जानना । भगवन् ! गणनाम क्या है ? गण के आधार से स्थापित नाम गणनाम हैं । -मल्ल, मल्लदत्त, मल्लधर्म, मल्लशर्म, मल्लदेव, मल्लदास, मल्लसेन, मल्लरक्षित आदि गणस्थानानिष्पन्ननाम हैं।
जीवितहेतुनाम क्या है ? जीवित रखने के निमित्त नाम रखने जीवितहेतुनाम हैं । उत्कुरुटक, उज्झितक, कचवरक, सूर्पक आदि । आभिप्रायिकनाम क्या है ? जैसे-अंबक, निम्बक, बकुलक, पलाशक, स्नेहक, पीलुक, करीरक आदि आभिप्रायिक नाम जानना चाहिए । द्रव्यप्रमाणनिष्पन्ननाम क्या है ? छह प्रकार का है । धर्मास्तिकाय यावत् अद्धासमय | भावप्रमाण किसे कहते हैं ? सामासिकभावप्रमाण किसे कहते हैं ? सामासिकनामनिष्पन्नता के हेतुभूत समास सात हैं । सूत्र-२४८
द्वन्द्व, बहुव्रीहि, कर्मधारय, द्विगु, तत्पुरुष, अव्ययीभाव और एकशेष । सूत्र- २४९
द्वन्द्वसमास क्या है ? ‘दंताश्च ओष्ठौ च इति दंतोष्ठम्', 'स्तनौ च उदरं च इति स्तनोदरम्', 'वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्' ये सभी शब्द द्वन्द्वसमास रूप हैं । बहुव्रीहिसमास का लक्षण यह है-इस पर्वत पर पुष्पित कुटज और कदंब वृक्ष होने से यह पर्वत फुल्लकुटजकदंब है । यहाँ 'फुल्लकुटजकदंब' पर बहुव्रीहिसमास है । 'धवलो वृषभः धवलवृषभः', 'कृष्णो मृगः कृष्णमृगः', 'श्वेतः पटः श्वेतपटः' यह कर्मधारयसमास है।
द्विगुसमास का रूप इस प्रकार का है-तीन कटुक वस्तुओं का समूह-त्रिकटुक, तीन मधुरों का समूहत्रिमधुर, तीन गुणों का समूह-त्रिगुण, तीन स्वरों का समूह-त्रिस्वर, दस ग्रामों का समूह-दसग्राम, दस पुरों का समूह-दसपुर, यह द्विगुसमास है । तत्पुरुषसमास का स्वरूप इस प्रकार जानना-तीर्थ में काक तीर्थकाक, वन में हस्ती वनहस्ती, यह तत्पुरुषसमास है । अव्ययीभावसमास इस प्रकार जानना-ग्राम के समीप- अनुग्राम', नदी के समीप- अनुनदिकम्', इसी प्रकार अनुस्पर्शम्, अनुचरितम् आदि अव्ययीभावसमास के उदाहरण हैं । जिसमें एक शेष रहे, वह एकशेषसमास है । वह इस प्रकार-जैसा एक पुरुष वैसे अनेक पुरुष और जैसे अनेक पुरुष वैसा एक पुरुष जैसा एक कार्षापण वैसे एक कार्षापण और जैसे अनेक कार्षापण वैसा एक कार्षापण, इत्यादि मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद'
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