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आगम सूत्र ४५, चूलिकासूत्र - २, 'अनुयोगद्वार'
अनन्तरागम और अर्थ का ज्ञान परम्परागम है । तत्पश्चात् सूत्र और अर्थ रूप आगम आत्मागम भी नहीं है, अनन्तरागम भी नहीं है, किन्तु परम्परागम है । इस प्रकार से लोकोत्तर आगम का स्वरूप जानना ।
दर्शनप्रमाणगुण क्या है ? चार प्रकार का है । चक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अवधिदर्शनगुणप्रमाण और केवलदर्शनगुणप्रमाण । चक्षुदर्शनी का चक्षुदर्शन घट, पट, कट, रथ आदि द्रव्यों में होता है । अचक्षुदर्शनी का अचक्षुदर्शन आत्मभाव में होता है । अवधिदर्शनी का अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों में होता है, किन्तु सभी पर्यायों में नहीं होता है । केवल-दर्शनी का केवलदर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों में होता है ।
भगवन् ! चारित्रगुणप्रमाण किसे कहते हैं ? पाँच भेद हैं । सामायिकचारित्रगुणप्रमाण, छेदोपस्थापनीय चारित्रगुणप्रमाण, परिहारविशुद्धिचारित्रगुणप्रमाण, सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण, यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण इनमें से-सामायिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है-इत्वरिक और यावत्कथिक ।
छेदोपस्थापनीयचारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं, सातिचार और निरतिचार। परिहारविशुद्धिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का है - निर्विश्यमानक, निर्विष्टकायिक । सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का हैसंक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक । यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं। प्रतिपाती और अप्रतिपाती । अथवा छाद्मस्थिक और कैवलिक ।
सूत्र - ३१०
प्रमाण क्या है ? वह तीन दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे कि प्रस्थक के, वसति के और प्रदेश के दृष्टान्त द्वारा ।
भगवन् ! प्रस्थक का दृष्टान्त क्या है ? जैसे कोई पुरुष परशु लेकर वन की ओर जाता है । उसे देखकर किसीने पूछा- आप कहाँ जा रहे हैं ? तब अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उसने कहा- प्रस्थक लेने के लिए जा रहा हूँ । फिर उसे वृक्ष को छेदन करते देखकर कोई कहे - आप क्या काट रहे हैं ? तब उसने विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया-मैं प्रस्थक काट रहा हूँ। कोई उस लकड़ी को छीलते देखकर पूछे- आप यह क्या छील रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की अपेक्षा उसने कहा- प्रस्थक छील रहा हूँ । कोई काष्ठ के मध्यभाग को उत्कीर्ण करते देखकर पूछे- आप यह क्या उत्कीर्ण कर रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार उसने उत्तर दिया- मैं प्रस्थक उत्कीर्ण कर रहा हूँ । उस उत्कीर्ण काष्ठ पर प्रस्थक का आकार लेखन करते देखकर कहे-आप यह क्या लेखन कर रहे हैं ? तो विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया- प्रस्थक अंकित कर रहा हूँ । इसी प्रकार से जब तक संपूर्ण प्रस्थक निष्पन्न न हो जाए, तब तक प्रस्थक संबंधी प्रश्नोत्तर करना चाहिए ।
इसी प्रकार व्यवहारनय से भी जानना । संग्रहनय के मत से धान्यपरिपूरित प्रस्थक को ही प्रस्थक कहते हैं
ऋजुसूत्रनय के मतसे प्रस्थक भी प्रस्थक है और मेय वस्तु भी प्रस्थक है । तीनों शब्द नयों के मतानुसार प्रस्थक के अर्थाधिकार का ज्ञाता अथवा प्रस्थककर्ता का वह उपयोग जिससे प्रस्थक, निष्पन्न होता है उसमें वर्तमान कर्ता प्रस्थक है ।
वह वसति-दृष्टान्त क्या है ? वसति के दृष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप इस प्रकार जानना जैसे किसी पुरुष किसी अन्य पुरुष से पूछा- आप कहाँ रहते हो ? तब उसने अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया- मैं लोक में रहता । प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा- लोक के तो तीन भेद हैं। तो क्या आप इन सब में रहते हैं ? तब - विशुद्ध नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा- मैं तिर्यग्लोक में रहता हूँ । इस पर पुनः प्रश्न तिर्यग्लोक में जम्बूद्वीप आदि स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप - समुद्र हैं, तो क्या आप उन सभी में रहते हैं ? प्रत्युत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा- मैं जम्बूद्वीप में रहता हूँ । तब प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया - जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं । तो क्या आप इन दसों क्षेत्रों में रहते हैं ? उत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहाभरतक्षेत्र में रहता हूँ । प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा- भरतक्षेत्र के दो विभाग हैं तो क्या आप उन दोनों विभागों में रहते हैं ? विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया- दक्षिणार्धभरत में रहता हूँ । दक्षिणार्धभरत में तो अनेक ग्राम, दीपरत्नसागर कृत् " (अनुयोगद्वार) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद " Page 56