Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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१. छन्दशास्त्र २ शब्दनिघण्टु ३. अलङ्कार ४. संगीन आदि कलाएँ, ५. सिद्धान्त, ६. हस्तरेखाविज्ञान, ७ ज्योतिषशास्त्र, वैद्यक, वेद, १२ वादावाद ( खण्डन-मण्डन ), १२. नृत्यशास्त्र १२. कामशास्त्र या मनोविज्ञान, १३. गजविद्या १४. शस्त्रविद्या, १५. दर्शनशास्त्र, २६. पौराणिक ऐतिहासिक कथानक, १७ राजनीति, १८. शकुनशास्त्र, १९. वनस्पतिशास्त्र, २० पुराण, २२. स्मृतिशाख, २२. अध्यात्म जगत में वर्तमान श्रेय ( शाश्वत कल्याण ) और २३. वक्तृत्वकला की व्युत्पत्ति ||२|| मैं ( श्रीदेव ) और यशस्तिलककार श्रीमत्सोम देवरि दोनों ही लोक में काव्यका के ईश्वर ( स्वामी ) है; क्योंकि सूर्य व चन्द्र को छोड़कर दूसरा कौन अन्धकार-विध्वंसक हो सकता है? आप तु कोई नहीं ||२|| 'यशस्तिलक' की सूक्तियों के समर्थन के विषय में तो मैं यशस्तिलककार श्रीमत्सोमदेवमूर्ति से भी विशिष्ट विद्वान हूँ, क्योंकि स्त्रियों की सौभाग्यविधि में जैसा पति समर्थ होता है वैसा पिता नहीं होता ||४|| 'यशस्तिलक' के अप्रयुक्त शब्द निघण्डु का व्यवहार में प्रयोग के अस्त हो जानेरूप अन्धकार को और द्विपदी आदि अप्रयुक्त छन्दशास्त्र विषयक अप्रसिद्धिरूपी अन्धकार को यह हमारा प्रस्तुत ग्रन्थ ( यशस्तिलक- पञ्जिका), जो कि उनका प्रयोगोत्पादकरूपी सूर्ये सरखा है, निश्चय से नष्ट करेगा ॥२॥ जिसप्रकार लोक में अन्धा पुरुष अपने दोष से स्खलन करता हुआ अपने खींचनेवाले पर कुपित होता है उसी प्रकार लोक भी स्वयं अज्ञ ( शब्दों के सही अर्थ से अनभिज्ञ है, इसलिए शब्दों के प्रयोक्ता कवि की जिन्दा करता है ||६|| 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए इसप्रकार के मार्ग का अनुसरण करनेवालों ने तो निश्चय से निघण्टु शब्दशास्त्रों के लिए जलाञ्जलि दे दो, अर्थात् उन्हें पानी में बक्ष दिया ||७|| जिनकी ऐसी मान्यता है कि 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए' उनके यहाँ जह, पेलव ( पेलवं विरलं तनु इत्यमरः - छितरा ) व योनि आदि शब्दों का प्रयोग किस प्रकार संघटित होगा ? ||८|| इसलिए शब्द व अर्थ के वेत्ता विद्वानों का 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए अथवा प्रयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए यह एकान्त सिद्धान्त नहीं है ||६|| प्रस्तुत शास्त्र पञ्जिका ) मे १३०० लोकपरिमाण रचा हुआ अभूतपूष व प्रमुख शब्दनिघण्टु शब्द व अर्थ के सर्वेश 'ओदव' कचि से उत्पन्न हुआ है | इसक अखार में निनप्रकार उल्लिखित है:
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इन श्रीदेव-विरचितायां यश-पत्रिकायां आम आद्यासः । इति यस्तिष्ठक- टीकं समासं । शुभं भवतु | इस प्रति का भी सांकेतिक नाम 'क' है ।
२. 'ख' प्रति का परिचय यह टिप्पण प्रति आमेर-शास्त्र भण्डार जयपुर की है। श्री माननीय
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पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थं प्रिन्सिपल संस्कृत जैन कालेज जयपुर एवं श्री पं० कस्तूरचन्द्रजी कालीबाल
अहं काव्यकर्ता वा तौ द्वावेवेश्वव विधुन्नातिरेकेण को नामान्यस्तमोपहः ॥ ३॥ कवेरपि विदग्धोऽइमैसरसूतिसमर्थने । यसौभाग्यविधी स्त्री प्रतिवन पिता प्रभुः ॥४॥ प्रयोगास्तमयं छन्द स्स्वप्रसिद्धिमयं तमः । तत्प्रयोगोदयाओं हि निरस्वत्य समंजसम् ॥५॥
यात्याकर्ष कायान्तः स्वदोषेण यथा स्खलन् । स्वयमज्ञस्तथा लोकः प्रयोक्तारं विनिन्दति ॥६॥ नाप्रयुक्तं प्रयुजीवेत्येतन्मार्गानुसारिभिः । निषशास्त्रेभ्यो नूनं दत्तों जलाञ्जलिः ॥७॥ जह पेलव योग्याद्यान् शब्दस्तत्र प्रयुञ्जनं । नाप्रयुक्तं प्रदुखीतेत्येषः येषी नवी हृदि ॥८॥ माप्रयुक्तं प्रयोक्तव्यं प्रयुक्तं वा प्रयुज्यते । इत्येकान्ततस्तो नास्ति वागर्थौचित्यवेदिनाम् ॥९॥ सामा दाशी वाचा पूर्वा समभूदिह । कवैर्वागर्थसर्व ज्ञापकत्रिशती तथा ॥ १० ॥