Book Title: Vishsthanak Tap Vidhi
Author(s): Punyavijay
Publisher: Bhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra

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Page 49
________________ ( ४३ ) सूत्रस्यार्थोभयस्याप्य - पूर्वस्थापि प्रयत्नतः अन्वहं यदुपादानं स्थानमष्टादशं हि तत् ॥ १ ॥ नाणेन सव्वभावा, युज्झति सुहुमबायरा लोओ ॥ तुम्हा नाणकुसलेग, सिक्खिअव्वं पयत्तेण ॥ २ ॥ अपूर्वज्ञानग्रहणं, महती कर्मनिर्जरा ॥ सम्यग्दर्शननंत्यात्, कृत्वा तत्त्वप्रबोधनं ॥ ३ ॥ छठमदसमवालसेहि, अबहुसुअस्स जा सोही ॥ इत्तो अ अनंतगुणा, सोही जिमियस्स नाणिस्स || ४ || अपूर्वज्ञानग्रहणात्तीर्थकृत्पदमुत्तमं ॥ लभते भावनायोगे, प्राणी सागरचंद्रवत् ॥ ५ ॥ अर्थ - सूत्रनुं, अर्थनुं अने ते बनेनुं पण जे अपूर्वनुं प्रयत्न बडे निरंतर ग्रहण कर ते अढारमुं अभिनव ज्ञानग्रहण पद छे १. ज्ञानवडें लोकमां रहेला सूक्ष्म बादर सर्व भाव जाणी शकाय छे. तेथी ज्ञानकुशल अवा अनुष्ये अवश्य प्रयत्नवडे धुं नवं ज्ञान ग्रहण करवुं २. अपूर्व ज्ञान ग्रहण करवथी मोटी कर्मनी निर्जरा थाय छे वली सम्यग्दर्शननुं निर्मलपण थवाथी तत्त्वनो प्रबोध पण थाय छे . ३ छठ्ठ अट्ठम दशम अने दुवालस विगेरे तप करवायी अवहुश्रुतनी जेटली आत्मशुद्धि थाय छे, ते करतां दररोज जमनोरा ज्ञानीनी अनंतगुणी शुद्धि ताना बलथी थाय छे. ४ अपूर्व ज्ञान ग्रहण करवथी शुभ भावनाना योगवडे प्राणी सागरचंद्रनी जेम तीर्थकर पदने प्राप्त कर छे. ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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