Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रफेसर प्राईस्टिन का (रिसंटिविटि ) अपेक्षावादी सिद्धान्त क्या नया है ? हजारों वर्ष पहले से ही जैनदर्शन ने प्रत्येक वस्तु को अनत धर्मात्मक बताई है और उसे समझने के लिये अपेक्षावाद-स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। सियाद्वाद सायद्वाद या संशयवाद नहीं है। वह निश्चयातक रूप से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करता है।
छ8 श्री स्वयंप्रभ स्वामी तीर्थंकर के गुणानुवाद मे श्रीमान ने जीवकर्म के संबंध को बताते हुए क्रमिक विकास का वर्णन किया है
उपशम भावे हो मिश्र क्षायिकपणे । जे.निज गुण प्राग भाव। पूर्णावस्थाने नीपजावतो।
साधन धर्म स्वभाव । प्रवाह रूप से अनादि कर्म सबंध के कारण निज गुणों को पूर्णावस्था का जो प्राक अभाव था और इसी से ससार अवस्था बनी हुई थी। पर साधन धर्म के स्वभाव से कर्मों का उपशम क्षयोपशम क्षय होने पर क्रमिक विकास की पराकाष्ठा हो जाती है । तभी स सारी अवस्था का प्रध्वंस होकर अभाव हो जाता है। जिसको जैन परिभाषा मे सादि अन त कहा है।
सातवें श्री ऋषभाननप्रभु के स्तवन में प्रभु भक्ति में मस्त श्रीमान् ने अपने अंगों को सार्थकता बताते हुए कितने