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वर्धमानचम्पूः
सरस्वती सय मुखं तदेव सेवास्ति जिल्ला रचनाऽपि संव, तथाध्यहो ! पश्यत दुर्जनस्य कृन्तन्ति मर्माणि वचांसि चोक्तौ ।। २३ ॥
कलङ्कहीनः
सब पूर्वचन्द्रो, विवापि विस्तारित कौमुदीकः । तनोति दोषोज्झित एव जीवं जीवं परं मोदभरं महान्तम् ॥ २४ ॥
शशी कलङ्की स्फटिको जङः खं
शून्यं समुद्रोऽपि जडाशयश्च । विकारयुक्तः सविषः फणीशः,
सतो न सादृश्यमुपैति कोऽपि ॥ २५ ॥
वही सरस्वती है, वही मुख है, वही जिला है, और वही प्रकार, ककार प्रादि शब्दों की रचना है, पर देखो - दुर्जन जब बोलता है तो उसके वे बोल ममच्छेदी होते हैं जबकि सज्जन के बोल श्रानन्दप्रद होते हैं ||२३||
सज्जन एक अपूर्व - पूर्णचन्द्रमा है क्योंकि प्रसिद्ध चन्द्र कलङ्कसहित होता है, यह कलङ्कविहीन होता है, वह रात्रि में ही कुमुदावलि का विकासक होता है, यह रात दिवस भी कुमुद - पृथ्वीमण्डल में सुद - श्रानन्द की वर्षा किया करता है; वह दोषा - रात्रिविहीन नहीं होता, पर यह सज्जनरूपी चन्द्रमा दोषों से विहीन होता है। वह जीवंजीव - चकवा चकवी को दुःखदायक होता है पर यह जीवजीव- प्रत्येक जीव को हर्ष का प्रदाता होता है ।। २४ ।।
चन्द्रमण्डल कलंकसहित है, स्फटिक मणि जड़ है, प्रकाश शून्यरूप है । समुद्र "डलघोलयोरभित्" के अनुसार जड़रूप आशयवाला है । एवं शेषनाग विकारयुक्त तथा विष से भरा हुआ होता है अतः इन सब अवस्था से विहीन सज्जन की ये चन्द्रमण्डल आदि बराबरी नहीं कर सकते हैं ।। २५ ।।