Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 202
________________ वर्धमानचम्पूः तुभ्यं नमोऽस्तु हरिचिह्नित चारुमूर्ते, तुभ्यं नमोऽस्तु मुनिनायक ! विश्वमत्र । नमोऽस्तु नरजन्म विकाशक में, treetनमूल ।। ३६ ।। तुभ्यं तु ं श्री वर्धमान ! महनीय ! नमोऽस्तु तुभ्यं, तुभ्यं नमोऽस्तु भववीत नरेन्द्रसेव्य । भव्यारविन्दरविबिम्ब ! वदोपदेशात्, त्वं तारयिष्यसि भवान्धिनिमग्नजीवान् ॥ ३७ ॥ जीवो यावद्धरति न यथाख्यात चारित्रतेजः, मुक्तिद्वारं भवति पिहितं तस्य तावनितान्तम् । इथं वृत्तं विशति भवतो नोऽथ वृत्तिः परन्तु, 183 नः पर्यायो भवति नितरां हा ! यमाविप्रमुक्तः ॥ ३८ ॥ हे सिंह के चिह्न से अंकित मूर्तिविभूषित प्रभो ! श्रापको मेरा नमस्कार है । हे मुनिनायक ! आप विश्व के भर्ता हैं अतः प्रापको मेरा नमस्कार है । मानव जन्म का सर्वोत्कृष्ट विकास करनेवाले हे नाथ ! श्रापको मेरा नमस्कार है । हे भवबन्धन के मूल को जड़ से चकनाचूर करनेवाले बीर प्रभो ! आपको मेरा नमस्कार है || ३६ || हे महनीय - जगत्पूज्य श्री वर्धमान ! भाप अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी के अधिपति हो - श्राप भववीत - जन्म, जरा श्रौर मरण से रहित हो चुके हो, आप नरेन्द्र - चक्रवर्ती एवं श्रेणिक यदि नरेशों द्वारा पूज्य हो, भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए आप सूर्य हो, आप धर्मोपदेश देकर संसारसागर में निमग्न हुए जीवों को पार लगानेवाले हो अतः आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है ।। ३७ ।। हे नाथ ! श्रापकी यह वृत्ति हम सबको यही शिक्षा देती है कि जीव जब तक यथाख्यातचारित्ररूपी तेज को धारण नहीं करता तब तक उसके लिए मुक्ति का द्वार इकदम बन्द रहता है परन्तु हम देवों की पर्याय ही हे प्रभो ! ऐसी है जिसमें संयम का अभाव है । हमको यही दुःख है ॥ ३८ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241