Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 206
________________ वर्धमानच-पूः 187 प्रत्युक्तः । अधुना तु तेन केवलज्ञान समुपलब्धम् । छप्रस्थदशाऽप्यस्य व्यतीता। ताकर प्रकृतेरवयोऽधिजातः । पूधा तीयका मानिवास्यापि विश्वोद्धारविधायिना सर्वसत्वहितकारिणा पवित्रोपवेशनावश्यमेव भक्तिम्यम् । परातु दिवसावसानो जातः । विभावरी व्यतीता । प्रमातवेला समागता । तथापि तीर्थकरमुखादेकोऽपि शब्दो नो निर्णतः । विलम्बस्य कारणं किमति श्रोतृभिनं ज्ञातम् । केचित् तव संस्थिताः, केचित्तु पूर्वागता, अनेके समुत्थाय गताः । नमागताः फेधिच तत्रच संस्थिताः प्रभोर्वाणी श्रोतुमत्कंठयांकितचित्ताः । एवमेव द्वितीय दिवसोऽपि विनिर्गतः । क्षण वाऽपि क्षण व क्षयं गता। तथापि तीर्थकरस्य तस्य केवलिनो विध्यध्वनिन निर्गतः । इत्थं कियन्तो दिवसा यदा व्यतीतास्तदा जनतायाश्चेतसि किञ्चिन्म्लानता प्रादुर्भूता। व्यतीतेषु कियत्सु दिवसेषु ततस्तस्य विहारोऽभवत् । ततोऽन्यत्र विहरतस्तस्याग्नेऽग्ने प्रचलति स्म धर्मचक्रं, तस्य भास्वरा प्रभा बुधानामपि चेतसि चमत्कारं विदधती क्षणं यावत द्वितीयादित्यारेकामातमोति स्म । केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । छद्मस्थ अवस्था रही नहीं है । तीर्थकर प्रकृति का भी उदय हो चुका है। पूर्ववर्ती तीर्थकरों की तरह इनका भी विश्वोद्धारक, सर्वप्राणिहितकारक एवं पवित्र धार्मिक उपदेश होना चाहिये, परस्त दिन व्यतीत हो गया। रात्रि व्यतीत हो गयी । प्रभात वेला आ गयी । फिर भी अब तक प्रभु के मुखारबिन्द से एक भी शब्द नहीं निकल रहा है। विलम्ब का कारण क्या है ? यह बात श्रोताजनों की समझ में नहीं आ रही थी। इस स्थिति में भी कितने ही श्रोता जन तो वहीं पर बैठे रहे। कितने ही वहां से उठकर चले गये और कितने ही नबीन-नवीन श्रोता वहां आकर बैठने लगे। इसी तरह द्वितीय दिवस भी निकल गया । क्षण की तरह रात्रि भी व्यतीत हो गई परन्तु तीर्थकर वर्धमान प्रभु की दिव्यध्वनि नहीं खिरी । इस तरह जब कितने ही दिन व्यतीत हो चुके तब जनता के चित्त में म्लानता पाने लगी। महावीर प्रभु ने कुछ दिनों के बाद वहां से विहार कर दिया ! विहार करते हुए उनके आगे-आगे धर्मचक्र चल रहा था । उसकी प्रभा इतनी अधिक भास्वर थी कि विद्वानों या देवों के चित्त में भी चमत्कार उत्पन्न करती हुई द्वितीय सूर्य को शंका उत्पन्न कर देती थी ।

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