Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 230
________________ वर्धमानचम्पूः प्रत्यष पुण्यांश समन्वितत्वाबु-, धनाढपहि परिलक्षितेन । यथाकथंचिद्गुरु सेवयाप्तं, 201 स्तरक्षरः संरचिता मयेयम् ॥ ५६ ॥ विद्वज्जनानां भवतान्मुदेऽयं सरस्वतीमातृसुसेवयाप्तः । श्रमो मवीयोऽन्यकृपानपेक्षो भवेत्क्वचित्तस्स्खलनं च क्षम्यम् ॥ ६० ॥ समाप्तोऽयमष्टमः स्तबक: प्रत्यल्प पुण्यशाली होने के कारण धनिकों के चित्त पर मैं चढ़ नहीं पाया- अर्थात् उनकी कृपा मुझ पर नहीं बरसी । केवल गुरुदेव की सेवा से ही जो अक्षर प्राप्त किये उन्हीं अक्षरों से इस काव्य की रचना मैंने की है ।। ५६ ।। सरस्वती माता की आराधना मैंने की— उस आराधना में जो मुझे परिश्रम हुआ उसी का यह प्रन्थरचनारूप परिश्रम सफल हुआ है । इसकी रचना में किसी भी विद्वज्जन की मुझे सहायता नहीं मिली है। यह स्वोपज्ञ है | अतः यह मेरा श्रम गुणीजनों को आनन्ददाता होवे यही मेरी आकांक्षा है । यदि इसमें कोई त्रुटि हो गयी होवे तो उसके लिए मैं क्षमा मांगता हूं ।। ६० ।। I अष्टम स्तबक समाप्त

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