Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 232
________________ 213 बर्धमानचम्पू: दुःचर्या दुःसहा प्रतीता तदा गैरिकधातुना रंजितानि वस्त्राणि परिधाय भिन्नः स्वीयः पन्थास्तेन प्रस्थापितः । मध्यममार्गाभिधानेन सोऽयं प्रसिद्धो जातः । बुद्धः सारिपुत्र स्वतपाचारविषये इत्थमयदत् हे सारिपुत्र ! मत्तपस इमे ह्याचारा प्रासन्-प्रहं निर्वस्त्रो जातः । त्यक्तो मया लोकाचारः । मुक्त मया पाणिपात्रे । मदर्थमानीतं भोजनं मया न गृहीतम् । उद्दिष्टमपि मया न भुक्तम् । भोजनामंत्ररामपि मया न स्वीकृतम् । स्थाल्यामाहारो मया न कृतः । देहल्युपरि संस्थित्य न भुक्तम् । यातायनाइत्तं भोजनं मया नात्तम् । उदूखलीस्थानमास्थाय मया भोजन न गृहीतम् । अन्तर्वल्या हस्ताइत्तं भोजनं न स्वीकृतम् । स्तनधयं पाययन्त्या स्त्रिया हस्ताहीयमान प्राहारो मया नादत्तः । भोगासक्तया दीयमानं भोजनं मया न गृहीतम् । न तस्मात् स्थानाद् भोजनं मया गृहीतम् –यत्र पार्वे -..- - ------ ---- साधुचर्या दुःसह प्रतीत होने लगी तो इन्होंने गरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रों को पहिरना स्वीकार किया और अपना एक स्वतन्त्र मार्ग चलाया। इस मार्ग का नाम मध्यम मार्ग हुप्रा जो माज तक इसी नाम से प्रचलित चला पा रहा है। बुद्ध ने सारिपुत्र से अपने तपाचार के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा-- हे सारिपुत्र ! मेरे तग के ये प्राचार थे। मैं निर्वस्त्र-दिगम्बरमुनि हुआ । लोकाचार का मैंने सर्वथा परित्याग किया । पाणिपात्र में मैंने पाहार किया । जो भोजन मेरे निमित्त प्राता उसे मैंने ग्रहण नहीं किया । जो भोजन मेरे उद्देश से बनता उसे मैंने ग्रहण नहीं किया । भोजन करने के लिए आये हुए निमन्त्रण को मैंने कभी स्वीकार नहीं किया । मैंने कभी भी थाली में भोजन नहीं किया । दरवाजे की देहली पर बैठकर मैंने भोजन महीं किया । खिड़की में से दिये गये भोजन को मैंने स्वीकार नहीं किया । खलिहान में बैठक र मैंने आहार नहीं किया । गर्भवती स्त्री के हाथ से दिया गया आहार मैंने नहीं लिया। बालक को दूध पिलाती हई स्त्री के हाथ से दिये गये याहार को नहीं लिया । भोगों में प्रासक्त हुई स्त्री के हाथ से दिया गया आहार मैंने नहीं लिया । मैंने उस स्थान से भी ग्राहार नहीं

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