Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 236
________________ 217 वर्धमानचम्पू: किमर्थमियान् युष्मामिस्तपस्याफ्लेशः सहते ? तवा तैः प्रोक्तम्निन्थज्ञातपुत्रेस भगवता महावीरेण सर्वशेन सर्वशिना वयमादिष्टाःभोः निर्ग्रन्थाः ! पूर्व युष्माभिर्यानि पापकर्माणि कृतानि समजितानि वा तेषां निऑरण सर्वथा प्रक्षये च दुष्करतपस्याकरणमन्तरेण नास्त्यन्यत् किश्चिदपि साधनं साधकत्तममिति । कायावाङ्मनःक्रियानिरोधान्नव्यानि पापकर्माणि स्वात्मनामा बंधभावमापन्नानि नो भवन्ति । तपसा च संचितानि तानि पापकर्माणि पुरातनानि निर्णाणानि जायन्ते । इत्थं च नूतनानो निरोधात्पुरातनानां सर्वथा प्रक्षयात्मशुद्धिस्वरूपो मोक्षो निगदितः । इत्थमाईताभिमतो राधान्तो बुद्धेन स्वविनेयं प्रति प्रतिपादितम् । खिष्ट्राम्दतः ५२७ वर्षाणां पूर्व भगवति महावीरेऽनश्वरश्रिया स्वयंवरी भूते सति तदनन्तरं दिगम्बराम्नायानुसारेण ये च केवलिनः श्रुतकेवलिनो दशपूर्वधारिणोऽभूवस्तेषां तालिकेत्थम्-- केवलिनस्त्रयस्तेखेमे (१) गौसमगणधरः, १२) सुधर्मस्वामी; (३) जंबूस्वामी । हे निम्रन्थो ! आप किसलिए तपस्या करने में इतना अधिक क्लेश सहन कर रहे हो। उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा-निर्ग्रन्थ ज्ञातपूत्र भगवान् महावीर ने जो सर्वज्ञ और स्वंदी हैं, हमसे कहा है-निर्ग्रन्थों ! पूर्व में आप लोगों ने जो पाप किये हैं, या उन्हें उपाजित किया है उनकी निर्जरा या सर्वथा क्षय करने के लिए तपस्या के सिवाय और कोई साधकतम साधन नहीं है । मन, वचन और काय की क्रियारूप योग के निरोध होने से नवीन पाप कर्मों का आत्मा के साथ बन्ध नहीं होता है तथा तपस्या के द्वारा संचित पुरातन पाप. कमों को निर्जरा होती है । इस प्रकार नूतन कर्मों के प्रागमन का निरोध हो जाने से और गंचित कमों के सर्वथा प्रक्षय हो जाने से प्रात्मविशुद्धिरूप मुक्ति कही गयी है । इस तरह मुक्ति के सम्बन्ध में जैन सिद्धान्त का अभिमत गौतमबुद्ध ने अपने शिष्य को समझाया। ख्रिष्टाब्द-~-ईस्वी सन् ५२७ वर्ष पहिले भगवान् महावीर के मोक्ष चले जाने पर दिगम्बर श्रान्माय के अनुसार जो केवली, श्रुतकेवली एवं दशपूर्वधारी हुए उनकी उनकी तालिका इस प्रकार है ---(१) गौतमगणधर, (२) सुधर्मास्वामी, (३) जंबूस्वामी ये ३ केवलो हाए ।

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