Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 229
________________ 210 वर्षमानचम्पू: दृष्टा मया बहुविधा धनिका गुणान्धाः, __तत्रास्ति नैव करुणा गुणिनं प्रतीह । विद्वज्जनस्य च गुणस्य च रक्षकः सः, मोजो नृपस्तु गतवान् शुसवां समायाम् ॥ ५६ ।। त्राता त्वमेवासि समस्तजन्तोः, मत्वेत्यहं स्वच्छरणं गतोऽस्मि । छायामिव त्वां तहमाश्रयन्ना, शान्ति लभेतैव च याच्नया किम् ।। ५७ ॥ राजेश-संजया-ज्ज-सोमू-मोनू सुशैलु नवृणाम् । सम्भं च पितामहेन पूर्ण जातं गुरोः काया ॥ ५८ ।। यदि आप कहें कि यहां तुम्हें सहारा देने वाले अनेक धनिक हैं अतः उनका ही सहारा लो-तो इस सम्बन्ध में रचनाकार अपना अभिप्राय प्रकट करता.हुमा कहता है-हे नाथ ! मैंने अभी तक अनेक प्रकार के धनिकों को देखा है-पर वे सब मुझे गुणों से ही अन्धे-रहित-देखने में पाये हैं । जब वे स्वयं गुणी नहीं हैं तो गुणिजनों के प्रति इनमें करुणा का भाव भी नहीं है । अर्थात बहमान नहीं है । यह भाव तो राजा भोज में था-सो हे नाथ ! वह तो इस समय देवलोक में विराजमान है ॥ ५६ ।। हे वीर प्रभो ! पाप ही समस्त जन्तुओं के रक्षक हो, ऐसा समझकर हो मैं आपकी शरण में आया हूं। सोहे नाथ! जिस प्रकार वृक्ष के सहारे बैठे व्यक्ति को बिना मांगे छाया मिल जाती है, उसी प्रकार अापको शरण में मुझे भी शांति मिलेगी । मैं इसकी अाप से मांग नहीं करता हूं ।। ५७ ।। राजेश, संजय, अज्ज, सोमू, मोनू, सुशैलू के पिता के पिता मुझ मूलचन्द्र ने यह वर्धमानचम्पू काव्य रचा है सो अब यह गुरुदेव की कृपा से समाप्त हुआ है ।। ५.८ ॥

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