Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 211
________________ 192 वर्धमानचम्पूः error प्रदर्श्य च तं पाठं पुनरपि चेतसि समाकुलतया तेन विनम्रभावेन गदितं विद्वद्द्द्धौरेय ! मद्गुरुवरेण तीर्थंकरेण त्रिकालज्ञीमं पाठ: श्लोकस्वरूपः सार्थो मह्यं पाठितः, परन्तु तस्यार्थो विस्मरणं गतः । भवन्तश्च विद्वन्मूर्धन्याः । प्रतां दयां विधाय तदर्थो विस्फोटनीयः । श्लोकः स चेत्थम् शृण्वन्तु भवन्तः !. - - कल्यं ब्रध्यषट्कं नवपदसहितं जीव-षट्कश्य लेश्याः । व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः || पंचान्ये चास्तिकाया इत्येतस्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमहद्विशेः । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥ स्वमान्यता प्रतिकूलं पटुकायाविविचित्र पदो पश्लिष्टं श्लोकमिमं दृष्ट्वा पुनश्च तन्मुखाच्छू त्याऽऽश्चर्यचकितः सन्निद्रभूति विचार निमग्नमनाः संजातः । चिन्तितं तेन षण्णां द्रव्याणां नवानां पदार्थानां षट्कायजीवानां ऐसा कहकर और वह पाठ दिखाकर भी चित्त में प्राकुलित होने के कारण उसने बड़ी नम्रता के साथ कहा- हे विद्वद्वरेण्य ! सुनिये - मेरे सर्वज्ञ तीर्थंकर गुरूदेव ने मुझे यह श्लोक अर्थ सहित पढ़ाया है परन्तु अफसोस है - दुःख है कि मैं उसका अर्थ भूल गया हूं अतः आपकी विद्वता की पराकाष्ठा सुनकर मैं आपके पास आया हूं । कृपाकर आप मुझे उसका अर्थ स्पष्ट करके समझा दीजिये । वह श्लोक इस प्रकार है - ' त्रैकाल्यमित्यादि" इस श्लोक को पुनः देखकर और पुनः उसके मुख से पढ़वाकर इन्द्रभूति विचारों में डूब गया । उसने सोचा- मैंने अभी तक श्लोकोक्त न तो ६ द्रव्यों के नाम सुने हैं, और न नीं पदार्थों के, न षटुकाय सुने हैं, न 1 · ।

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