Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 219
________________ 200 वर्धमानचम्पूः यदाऽश्रावि मर्मस्पर्शी जनतया महावीरस्य दिव्यभन्योसमधर्मोपदेशस्तबर सौन्दर्योपेतं तस्य सस्थस्वरूपं तयाऽज्ञायि । अस्यैव फलितार्योऽयं जातो यत् पशु पशुवधस्य विरोधको व्यापकः प्रचारः समभूत् । यज्ञकारपितृणां पुरोहितानां यज्ञविधायिनां हृदये उल्लेखनीयं परिवर्तनं जातम् । प्रतस्ते पशुयजं प्रति हिंसाधायककृत्यत्वेन जुगुप्सामकुर्वन । राजगृहीश्वरो मगधदेशरधिपतिः श्रेरिणकोऽपरनामधेयो बिम्बसारी महावीरस्योपदेशं निशम्य तं चाकण्ठं परिपीय मुहमहुविचिन्त्य तवनुयायी परमभक्तस्तस्य संवृतः । इत्थं श्रीवोरप्रभो वाणी प्रारंभत एव परमप्रभावशालिनी सिद्धाऽभवत् । कियदिवसानन्तरं तीर्थकरो महावीरस्ततोऽपि विहत्येतस्ततो विहारमकरोत् । यत्रापि सोऽतिष्ठसत्रामवनवीनं श्रीसभामण्डपं समव जब जनता ने भगवान महावीर का मर्मस्पर्शी धर्मोपदेश सुना एवं उसका सौन्दर्योपेत सत्य स्वरूप जाना तो इसका यह फल हया कि पशुयज्ञ का विरोधकारक व्यापक बहुमत गठित हो गया एवं यज्ञ करने और कराने वालों के हृदय में उल्लेखनीय परिवर्तन आ गया । अतः पशुयज्ञ के प्रति उसके हिंसा का कार्य होने के कारण ग्लानि प्राने लगी। ममधदेशाधिपति श्री श्रेणिक जो कि राजगृही नगरी के शासक थे और जिनका दूसरा नाम बिम्बसार था, ने महावीर के धर्मोपदेश को सुना । सुनकर उसका बारम्बार बिचार---चिन्तवन-मनन किया । उससे उसे अपार शांति मिली। वह भगवान् महावीर का अनुयायी बन गया और उनका परम भक्त श्रावक हो गया । इससे बीर प्रभ की वाणी प्रारम्भ से ही परम प्रभावशालिनी साबित हुई। कितने ही दिनों तक यहां विराजमान रहकर तीर्थकर भगवान् महावीर ने वहां से भी विहार करके इतस्ततः धर्म का प्रचार किया । जहां पर भी वे ठहरते वहां नबीन समवशरण की रचना

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