Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ 202 वर्धमानसम्पूः इच्छामन्तरेण वधनप्रवृत्तरभावात् कथं तीर्थकरेण महावीरेण धर्मप्रचारः कृत इति न वक्तव्यम् ता विमाप तत्प्रवृतदर्शनात् । नियमाम्युपगमे तु सुषुप्ती गौत्रस्खलनादी या निरभिप्रायप्रवृत्या न भाग्यम् । भवति चेदत्रापि सा भवतु, का नो हानिः । किं च प्रक्षीणमोहे भगवति मोहपर्यायात्मिकाया इच्छायाः संभव एव नास्ति । यथा शिल्पिकर स्पर्शान्मुरजो ध्वनति, तथैव भध्यानां सौभाग्योवयातचोयोगसद्भावाच्च तीर्थकरस्य दिव्यध्वनिरुद्भवति । मलय-विदर्भ और गौण्ड प्रादि देशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया और इससे वहां पर महती धर्मप्रभावना हुई। इस प्रकार अनेक प्रान्तों में और अनेक देशों में इनका मांगलिक विहार हुआ । इस कारण घर्म का बहत अधिक प्रचार हना । जगत में आनन्द की वर्षा करनेवाले प्रभु की भाषा दिव्यध्यनिरूप थी । अतः समवशरणस्थ समस्त प्राणी उसे अपनो-अपनी भाषा में समझ लेते थे। जहां-जहां इन तीर्थकर का विहार होता वहां-वहां के धर्मपिपासु जनों के लिए इनका धर्मोपदेश होता। यदि कोई यहां पर ऐसी आशंका करे कि प्रभु तो इच्छा-विहीन थे अतः इस स्थिति में वचन प्रवृत्ति का होना सम्भव नहीं है, तो फिर तीर्थंकर महावीर ने धर्म का प्रचार कसे किया ? तो इस प्रकार की यह प्राशंका उचित नहीं है क्योंकि इच्छा के बिना भी बचनप्रवृत्ति देखने में पाती है । यदि ऐसा नियम माना जावे तो सुषप्ति अवस्था में या गोत्रस्खलन ग्रादि में जो निरभिप्राय वचनप्रवृत्ति देखी जाती है वह कैसे सम्भवित हो सकेगी। अतः ऐसा नियम सिद्ध नहीं होता है । इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि इच्छा के अभाव में भी वचनप्रवृत्ति होती है। इसमें कोई हानि जैसी बात नहीं है। दूसरी बात यह है कि मोह के सद्भाव में ही इच्छा होती है । प्रभु के तो मोह का सर्वथा विनाश हो ही जाता है, अतः वहां इच्छा का होना सम्भव ही नहीं है। जिस प्रकार बजाने वाले के करस्पर्श से मृदंग बजता है-आवाज करता है, उसी प्रकार भव्यजीवों के सौभाग्य के उदय से एवं वचनयोग के सद्भाव से तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241