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वर्धमान चम्पूः
जायते । तीव्रातपोभूत संतापवारणाय च वात्या प्रवहति वारिवाः सलिलविन्दून् शनैः शनैभूमौ निपातयन्ति । पश्चात् पृथ्वीतो वाष्पच्छद्मनो पूर्व गृहीतं तोयं वृद्धिसमन्वितं विधाय ते धारासंपातेन तद्वर्षयन्ति । पश्चात् पृथ्वीतो वाच्छबूमना पूर्व गृहीतं तोयं वृद्धिसमन्वितं विधाय प्लाविता पृथ्वी न केवलं स्थीयामेव पिपासा प्रशमयति, परंच भविष्यति कालेऽपि प्राणिनां पिपासापनुदे स्वकोशमपि सलिलसमूहै बिभति । जनताया आमोद-प्रमोद कृते च सा हरिततृणाङ, कुरच्छद्मना भूमेरुपरि श्यामलं शापप्रशस्तपटलपट मध्यास्तृणोति । इत्थं प्रकृतेः परमकृपया जयतः सन्तापो प्रभावश्च प्रशमितो जायते । प्रसरन्ति च सर्वत्र तदा दिक्षु विविश्वपि प्रमोदभूतां नरपशुपक्षिणाममन्दानन्दध्वनय इतस्ततः सोल्लासा जगति ।
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उस परिस्थिति में नभोमण्डल मेघों से धीरे-धीरे आच्छादित होने लगता है । वे मेघ सजल होते हैं। आंधियां माती हैं । मेघों से शनैः शनैः पानी की बूँदें बरसने लगती हैं । भाप के द्वारा पृथ्वी से ग्रहण किये हुए जल को व्याज सहित चुकाने के लिए ही मानो मेघ मूसलाधार वृष्टि करने लगते हैं । पृथ्वी के ऊपर चारों ओर जल ही जल दिखने लगता है। इस तरह प्रकृति प्रदत्त जल से केवल पृथ्वी अपनी ही प्यास शान्त नहीं करती है, किन्तु आगे भी प्राणियों की प्यास शान्त होती रहे इसके लिए वह अपने में जल का प्रथाह भण्डार भी भर लेती है तथा जनता खुशहाल रहे ग्रामादप्रमोद में मग्न रहे, इसके लिए वह पृथ्वी पर हरी-हरी घास का गलीचा भी बिछा देती है । यह सब जो कुछ होता है वह प्रकृति की परम कृपा से ही होता है । जगत् का गर्मीजन्य संताप और उसका प्रभाव शान्त हो जाता है । दिशात्रों और विदिशाओं में भी आनन्दित हुए मनुष्य और पशुपक्षियों की प्रानन्द ध्वनियां इधर-उधर फैलती हुई सुनाई पड़ने लगती हैं ।