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अर्धमानचम्पू:
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तान् समुत्पाटितान कचान् मघवा स्वकरफुशेशयस्थाने विधाय मरिणज्वलत्पटलपेटिकायां निधाय क्षीरवारिराशौ स्वयं प्राक्षिपत् ।
प्रमोरयं दीक्षाकालो मार्गशीर्षस्य कृष्णवशम्यां तियो हस्तोत्तरहृयोमध्यमायां शशिनि समाश्रिते सत्यजायत । इत्थं दीक्षोत्सवं महता संरंभेण सानन्दं विधाय सर्वे सुरेशा सेन्द्राश्च तथा नरा नरेशाश्च विद्याधराः स्वस्वाधिष्ठानं समाजग्मुः । यदाऽयं बाह्यपदार्थविचिन्तनप्रसक्तो मानसों वृत्ति निरळ्याचलासनेन संस्सित्य तीर्थक रो महावीर स्वात्मचिन्तने संमग्नोऽभूत्तदैवास्य चतुर्थो मनःपर्ययाख्यो बोधो समजनि केवलज्ञान सत्यनारस्वरूपः।
उन उत्पादित केशों को इन्द्र ने अपने हस्तकमल में लेकर मणियों के चमकते हुए पिटारे में रखा और क्षीरसागर में प्रक्षिप्त कर दिया ।
यह प्रभु की दीक्षा का समय मार्गशीर्ष माह के कृष्णपक्ष की दशमी तिथि का है । उस समय और उत्तरा नक्षत्र के मध्य भाग में चन्द्रमा का योग था । इस प्रकार दीक्षा के उत्सव को बड़े भारी उत्साह के साथ सुसम्पन्न करके समस्त सुरेश, देव, मनुष्य और विद्याधर अपने-अपने स्थान पर चले गये। जिस समय प्रभु वर्धमान बाह्य पदार्थ के चिन्तवन में प्रसक्त मानसिक वृत्ति का निरोध करके अचलासन से विराजमान होकर स्वात्मचिन्तवन में मग्न हुए तब उसी समय इन्हें चतुर्थ मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । यह शान केवलज्ञान को साई रूप होता है । अर्थात् मन पर्ययज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर जीव को नियमतः केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ।