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वर्धमानवम्पू:
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जाता । स्वीयं दौर्भाग्यं दुर्दशा विनिन्दतोयं याववास्ते तावदेव तस्याः पवित्रास्तःकरणभावनारज्याकृष्ट इव संयोगवशतस्तीर्थकरो भगवान महावीरश्चन्दनाया गृहाभिमुखोऽजायत। तस्मिन्नेवायसरे चन्दना स्वीयसदमावनाबलेन विलितत्रुटितनिगडा सती भूमिगृहाबहिरायत्य द्वार्थतिष्ठत् । अनन्यमानसयेत्यं तत्र तया चिन्तितम्
सौभाग्यमेतत्परमं मदीय-, मागान्महावीर
इहाधुनष । कथं च तदर्शनतः पवित्रां,
कुर्यामहं स्वामिति तत्र वध्यौ ।। २२ ।।
धिङमामपुण्यवशत: करपावबद्धाम,
धिग्मा पवित्रविभुदर्शनरिक्तनेत्राम् । धिङ्मामपुण्यवसति युवतियधन्याम्,
धिग्मां प्रवानपरिबजित हस्तयुग्माम् ।। २३ ॥
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दृर्भाग्य की एवं दुर्दशा की इस तरह से निन्दा करने में वह संलग्न ही थी कि इतने में उसकी पवित्र अन्तःकरण की भावना-रूप रखज से ही मानो खिचे हए से वे तीर्थकर महाबीर संयोगवश ज्योंही चन्दना के घर की ओर अाये त्योहो चन्दना अपनी मानसिक सद्भावना के प्रभाव से बन्धनविहीन होकर तलघर से बाहर निकल पायी और पाकर वह द्वार पर बैठ गयो । एकाग्रचित्त होकर उसने वहां बैठे-बैठे इस प्रकार विचार किया
"यह मेरा सर्वोत्तम सौभाग्य है जो इस समय यहां महावीर पधारे हैं । अब मैं उनके दर्शन करके अपने पापको पवित्र करूंगी ।।२२।।
शृंखला में बद्ध हाथ-पैरवाली मुझ प्रभागिनी को धिक्कार है। प्रभु के पवित्र दर्शनों से बञ्चित पाप की खानिरूप और दानधर्म से वजित हस्तयुगलवाली मुझ प्रभागिनी को धिक्कार है ।। २३ ।।