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वर्धमानम्पूः
हिता मिता यस्य भवेत्सुभाषा दिवंगताशास्तगता च भूषा । दमी तपस्वी स्वपरानुकम्पी मुनिर्मनस्वी भयहीन वृत्तिः ॥ ४० ॥
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साधुस्वरूपं प्रतिपद्य ये तु स्वेच्छानुरूपां प्रतिपालयन्ति । यतेः क्रियां हार्दिक भाव शून्यामाडंबरेस्तंबहुभिः सनाथाम् ॥ ४१ ॥
सिद्धान्तसिद्धामवमत्यमान्यामाशां स्वरुच्यं परं भजन्तः | जिनेन्द्र मागी बहिरेव लेन मचन्ति तन्मार्ग कलङ्क रूपाः ।। ४२ ।।
काerent रवेः किरणाः, केन्द्रिता वाहका यथा । तपोभिः केन्द्रिता श्रात्मशक्तयः कर्मदाहकाः ।। ४३ ।।
साधु-सन्तजन की भाषा हितकारक और परिमित होती है । साधु पंचेन्द्रियों के विषयों को चाहना से रिक्त रहता है । वेषभूषा से वह सर्वथा विहीन होता है । इन्द्रियविजयी होता है । तपस्या में रत रहता है । स्व और पर की दया के पालन करने में तत्पर रहता है। उसे किसी प्रकार का भय नहीं होता और वह बहुत ही विचारशील होता है ।। ४० ।।
जो साधु का रूप धारण करके भी अपनी इच्छा के अनुसार चलते हैं- मुनिक्रिया के पालन करने में हार्दिक भावना से शून्य होते हैं एवं बाह्य आडम्बरों में लथपथ बने रहते हैं ऐसे मुनिजन सिद्धान्तमान्य श्राज्ञा की अवहेलना करके अपनी रुचि के अनुरूप श्राचार-विचार में मग्न रहते हैं वे जिनेन्द्र के मार्ग से सर्वथा विपरीत हैं और भुनिमार्ग के कलस्वरूप हैं ।। ४१-४२ ।।
काच के अन्तर्गत हुई ज्येष्ठमास के सूर्य की किरणें केन्द्रित होकर जैसे नीचे रखे हुए तुल यादि को जला देती हैं, उसी प्रकार तपस्या से केन्द्रित हुई आत्मशक्तियां भी कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट कर देती हैं ||४३||