Book Title: Vardhamanchampoo
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 189
________________ 170 दृश्यते हि । चित्रं चित्रं सुचरितमिदं यत्प्रभो ! ध्यानतस्ते, त्वाद्ग्जीवस्त्रिभुवनपतिर्जायते, लौहः स्वर्ण भवति मलिनः पररवस्य प्रयोगात्, स्वामिस्तेऽस्ति प्रबल महिमा कोऽप्यपूर्वो न वाच्यः ॥ ३ ॥ दिगम्बरत्वाद्भवता प्रदीयते तथापि ते न किञ्चित्, भक्तजनाय कस्मे । पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ ४ ॥ देवाधिदेव ! भवतां विहितं यदत्र, वर्धमाननम्पूः स्वल्पायुषाऽपि तव तच्चरितं पुनाति । जेगीयमानमिह मानवचित्तवृत्ति, तस्मात्प्रसत्रमन सेवमहं ब्रवीमि ।। ५ ।। हे प्रभो ! सापका चरित्र बहुत ही अधिक अचरजकारी है क्योंकि जो उसका ध्यान करता है वह ग्रापका जैसा ही त्रिभुवनपति बन जाता है. परन्तु विचारने पर श्रचरज इसलिए नहीं होता कि मलिन लोहा गारद के योग से सोना बनता हुआ देखा जाता है || ३ || हे नाथ ! श्राप दिगम्बर हैं- दिशाएं ही आपके वस्त्र हैं । इसलिए आप अपने भक्तजन को कुछ भी नहीं देते - फिर भी आपके पावन गुणों की स्मृति हम लोगों के चित्त को पापरूपी अंजन के लेप से बचाती रहती है ॥ ४ ॥ हे देवाधिदेव ! प्रापने थोड़ी सी आयु में ( ७२ वर्ष की अवस्था में ) ही जो कार्य किया जब उस पवित्र कार्य का गुणगान किया जाता है, तो वह मानव की चित्तवृत्ति को पावन कर देता है । इसी विचार से मैं बड़ो प्रसन्नता के साथ आपके चरित्र का वर्णन कर रहा हूं ।। ५ ।।

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