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वर्धमानचम्मः
इत्यादिप्राबोधिकपद्यालापर्वाधनिनादैश्च स्वप्नायलोकनेन प्रबद्धपूर्वाऽपि सा प्रशुद्धा जाता । प्राभातिकं कृत्यमसौ विधाय प्रकर्षहर्षाञ्चित गात्रयष्टिष्टस्य स्वप्नस्योदन्तं किमिति विज्ञातुं विभोस्तोमिष गन्तुम् । विहितप्रत्यूषकृत्याय नृपतिगणतिलकाय सिद्धार्थमनोरथाय सिद्धार्थाय स्वस्वामिने अभ्यनमभ्युपेस्य तेन प्रदत्तमर्धासन्नं सनिविष्टेयं पृष्टा सती स्वप्नोवत्तं जिज्ञासमाना निवेदयामास । तदा
नयेन नीति विनयेन विद्या,
ज्ञानं च दृष्ट्या रमयेव विष्णुः । पुष्पधिया या विटपीय तत्र,
तयाऽध्यसौ तेन च सा विरेजे ॥ ३०॥
इत्यादि रूप पद्यालापों से एवं वादिनों के निनादों से उन प्राबोधिकों ने रानी को जगाया । यद्यपि वह स्वप्नों के देखने में पहले से ही जगी हुई थी पर ऐसा आचार है कि भाट लोग राजा-रानीको प्रातःकाल में उनकी विरुदावली बखानते हुए एवं प्रकृति की निराली शोभा की प्रशंसा करते हुए जगाते हैं । रानी ने उठकर प्राभातिक सब क्रियाएं की। क्रियाओं को करके वह शुद्ध सुहावने कीमती वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पतिदेव के निकट पहुंची। हर्ष के प्रकर्ष से जिसका शरीर रोमाञ्चित हो रहा है ऐसी वह प्रियकारिणी त्रिशला जब नरेश के पास जा रही थी तब नरेश ने उसे प्राती हुई देखा था । उसके पाते ही नृपतिगण के तिलकभूत सिद्धार्थ नरेश ने जिनके कि मनोरथ फलीभूत होने जा रहे थे उसे उठकर अपने आधे सिंहासन पर बैठाया । राजा ने ज्यों ही पाने का कारण पूछा रानी ने दृष्ट स्वप्नों के फल को जानने के लिए निवेदन किया। उस समय जब ये दोनों दम्पती राजसिंहासन पर आसीन थे आपस में ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे नय से मीति, विनय से विद्या, सम्यग्दर्शन से ज्ञान, लक्ष्मी से विष्णु और पुष्पधी से वृक्ष परस्पर सुशोभित होते हैं ।। ३० ।।