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वर्धमानचम्पुः त्वं धन्याम्ब ! त्रिभुवनगुरोपवात्री पोसि, जन्माऽस्माकं सफलमभवदर्शनाते पवित्रात् । धन्यो जातस्तव सुतपरस्पर्शनान्मर्त्यलोकः, स्वर्गावासो नहि रुचिकरस्तं तृणायाक ! मन्ये ॥ ३ ॥
धन्या भारतभूरियं भगवतां तीर्थकराणां च या, जन्माः प्रथितमहोत्सवातः कल्याणक: पंचमिः । प्रता सा सुरवासतोऽपि नितरां पूज्या च मान्याउनणाम्, सिद्धिप्राप्तिपवित्रस्थलमियं न स्वर्गभूोंगभूः ॥४॥
सुरललनामीवक सौभाग्यं नास्ति तत्र सुरलोके । गर्भाधानामावाव् धन्याऽसि स्वमेकजननीत्वात् ॥५॥
हे माता! तुम धन्य हो, क्योंकि तुम तीनों लोकों के स्वामी प्रभु की जन्मदात्री जननी हो । अापके पवित्र दर्शन से हम लोगों का जन्म पवित्र हुमा । सफल हुआ । यह मर्त्यलोक अापके पुत्र के पदस्पर्शन से धन्य बन गया है । हम तो इसके प्रागे स्वर्ग के निवास को भी रुचिकर नहीं मानते हैं । हमें तो वह इसको महिमा के समक्ष तृण के जैसा लग रहा था ।। ३ ।।
यह भारत भूमि धन्य है जो भगवान तीर्थंकरों के प्रथित शतमहोत्सववाले पांच जन्म प्रादि कल्याणकों द्वारा पवित्र हुई है। यह तो स्वर्गरूपी निबासस्थान से भी अत्यन्त पूज्य है एवं मान्य है क्योंकि यही मुक्ति प्राप्त करने की सुन्दर स्थली है । स्वर्ग-स्थली और भोग-स्थली ऐसी नहीं
ऐसा परम सौभाग्य सुरललनात्रों को स्वर्ग में कहां प्राप्त है ? वहां तो वे गर्भाधान क्रिया से ही वंचित रहती हैं । अतः तुम ही प्रभु की जन्मदात्री माता होने के कारण धन्य हो ।। ५ ॥