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वर्धमाननम्पू:
गरीयस्यभवत् । अतो भर्तुर्बहुमतत्वात्तस्याः प्रियकारिणीति गुणानुरूपं नामधेयं पृथिव्यां प्रथितं जातम् ।
शासितारौ तस्मिन् सिद्धार्थे युवतिनारोमिय बसुमती वसुमती शासति सति नाभावेवाधोधरत्वं, पारोपितचापेष्वेवापरापकृतित्वं शातोपरीणामुदरेष्वेव नास्तित्वं, कुचेष्वेव कृष्णाननत्वं, नेत्रपक्षस्वेत्र निपातित्व, रम्भास्तम्भेष्वेव निःसारत्वं, भ्रमरेज्येष गन्धापहारित्वं परं व्यवस्थितरमासीन प्रजाजनेषु ।
गयी । नरेश का इस पर अधिक से अधिक मोह हो गया था इसीलिए वह प्रियकारिणी इस नाम से भी जगत् में विख्यात हुई।
सिद्धार्थनरेश जब युवति नारी के समान इस भूमि का एकछत्र शासन कर रहे थे तब प्रजाजनों में अधोगामिता नहीं थी। "यह तो केवल नाभिमण्डल में ही थी । 'दूसरों का अपकार करना', ऐसी वृत्ति भी प्रजाजनों में नहीं थी-ऐसी वृत्ति तो चढ़ाये गये धनुष में ही थी नास्तिकपना भी प्रजाजनों में नहीं था। यह तो वहां के नारीजनों के उदरों—पेटों में ही था क्योंकि उनका कटिभाग पतला था । प्रजाजनों . में कोई भी जन काले मुखवाला नहीं था । यह तो केवल नारीजनों के कुचों के अमभाग में ही था क्योंकि वे काले थे। निपातपना भी वहां के प्रजाजनों में नहीं था। यह तो केवल अांखों की पलकों में ही था। निःसारता भी वहां के प्रजाजनों में नहीं थी। यह तो केवल केले के वृक्षों में ही थी । गन्ध को चोरी करना भी वहां के प्रजाजनों में नहीं था यह तो सिर्फ भ्रमरों में ही था क्योंकि वे ही गन्ध का पान किया करते हैं ।