Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 05
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 220
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थः- प्रमाणे सांभळी श्रीकेशीकुमार साधुए कह्यु, हे गौतम ! ते-आपनी साधुप्रज्ञा छ, अर्थात् सारी बुद्धि छे. मे-मारो रवाष्पपन पत्रम IN आ संशय आपे छिन्न:-दर कयों छे. बीजो पण मारो संशय छे तमिति-तेनो उत्तर हे श्रीगौतम ! आप कहो. आ वचन शिष्योनी भाषांतर अपेक्षाथी छे; कारण के प्रण ज्ञानवाळा ते श्रीकेशीमुनिने आवा प्रकारना संशयनो संभव नथी. ॥ २८ ॥ माअभ्य०२३ | ॥१३२२॥ मू०--अचेलगो य जो धम्मो । जो इमो संतमत्तरो॥ देसिओ बद्धमाणेण । पासेण य महाजसा ॥ २९ ॥ है मूक-एककनपचन्नाणं । विसेसे किं नु कारणं ।। लिंगे दुविहे मेहाबी। कहं विपञ्चओ न ते ३०॥ युग्मं __अर्थ:----वळी जेआ अचेलक धर्म श्रीवर्धमान स्वामीए दर्शायो छे, अने जे आ मांतरोत्तर धर्म महायशस्वी श्रीपार्श्वनाथ स्वामीए दर्शाग्यो छे, या हे मेधावी! एक कार्यमा प्रवृत्त थयेला ते बचे तीर्थकरोने धर्मना तफावतमा शु कारण ? प्रकारना साधुबेषमा मापने केम संशय पत्तो नथी ! ॥ २९, ३० ॥ आबे गाथाओ मळी युग्म बने थे. व्या. -वर्धमानेन चतुर्विंशतितमतीर्थकरेण यो धोऽचेलका प्रमाणोपेलजीर्णमायधवलवस्त्रधारणात्मकः साध्वाचारो दिष्टा, च पुनः पार्श्वन महायशसा त्रयोविंशतितमतीर्थकरेण योऽयं धर्मः सांतरुत्तरः पंचवर्णबहुमूल्यप्रमाणरहितवस्त्रधारमात्मकः साध्वाचारः प्रदर्शितः. हे मेधाविन् ! एककार्यप्रतिपन्नयोः श्रीवीरपार्श्वयोर्विशेषे भेदे किं कारणं? को हेतुः हे गौतम! द्विविधे लिंगे द्विप्रकारके साधुवेषे ते तव कथं विप्रत्ययो नोत्पद्यते! कथं है! संदेहो न जायते ? उभावपि तीर्थकरी, मोक्षकार्यसाधको, कथं ताभ्यां वेषभेदः प्रकाशितः । इति कथं तवायं. संशयो न भवति? ॥ ३०॥ - For Private and Personal Use Only

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